मनोरंजक कथाएँ >> नसीहत नसीहतधरम सिंह
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इस पुस्तक में पिता-पुत्र के बीच सौहार्द आदर, मधुर संबंध और निज कर्त्तव्य बोध को उजागर किया गया है तथा यह शिक्षा दी गई है कि हर व्यक्ति अपने कर्त्तव्य समुचित ढंग से निभाए।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
नसीहत
गनपत और रघुनाथ रोज रात में खलिहान में सोते थे। सोने से पहले एक कहानी
होती थी। आज बारी गनपत की थी। लेकिन रघुनाथ को ही दुबारा सुनाना था। शर्त
यह थी कि सुनने वाला यदि सो गया तो सुनाने वाला दूसरे दिन भी कहानी
सुनाएगा। क्योंकि कहानी अगर अच्छी हो और सुनाने का ढंग भी अच्छा हो जिससे
सुनने वाला सो न पाए। कल की कहानी उबाऊ थी। इसलिए गनपत सो गया था। आज फिर
रघुनाथ की बारी थी। रघुनाथ ने कहा—‘‘अच्छा,
कहानी की
जगह अगर कोई सच्ची घटना सुनाएं तो चलेगा ?’’ गनपत ने
हामी भर
दी। लेकिन उसने कहा—‘‘पर एक बात है रघुनाथ,
घटना इतनी
छोटी भी न हो कि दो मिनट में ही खत्म हो जाए।’’
अरे भाई सुनो तो। बहुत मजेदार किस्सा है।’’
‘‘अच्छा सुनाओ।’’
सुनों–एक जमींदार थे। जमींदार छंगा सिंह। नाम तो उनका छत्रपाल सिंह था। लेकिन बायें हाथ में उनके छह उंगलियां थी। इसीलिए उन्हें छंगा सिंह कहते थे। काफी जमीन थी उनके पास। नौकर-चाकर, घोड़ा-गाड़ी, सब कुछ था। बस, उनके संतान नहीं थी। बड़ा मान-मन्ता कराया। देवी-देवता पूजे। दान-दक्षिणा दी ब्राह्मण-साधु खिलाए। कोई लाभ न हुआ । ठकुराइन भी हफ्ते में चार दिन व्रत करती। मंगल को बजरंग बली का, बेफै को गुरु महाराज। शुक्रवार को संतोषी माता तो इतवार को सूरज देवता। यही सब करते करते अठारह साल गुजर गए, पर कोई संतान नहीं हुई कुछ दिन बाद किसी पढ़ैया ने उन्हें सलाह कि शहर में वह डाक्टर को दिखाएं। अब डाक्टर के यहां जाना, वह भी ठकुराइन के साथ, यह तो जमींदार साहब के लिए नामुमकिन था। खैर उन्होंने डाक्टर को अच्छी खासी रकम दी। डाक्टर घर पर ही आया। उसने दोनों की जाँच की। ठकुराइन तो ठीक थी। जमींदार साहब में कमी थी। डाक्टर ने करीब छह महीने इलाज किया। सातवें महीने ही ठकुराइन के पाँव भारी हो गये।
अरे भाई सुनो तो। बहुत मजेदार किस्सा है।’’
‘‘अच्छा सुनाओ।’’
सुनों–एक जमींदार थे। जमींदार छंगा सिंह। नाम तो उनका छत्रपाल सिंह था। लेकिन बायें हाथ में उनके छह उंगलियां थी। इसीलिए उन्हें छंगा सिंह कहते थे। काफी जमीन थी उनके पास। नौकर-चाकर, घोड़ा-गाड़ी, सब कुछ था। बस, उनके संतान नहीं थी। बड़ा मान-मन्ता कराया। देवी-देवता पूजे। दान-दक्षिणा दी ब्राह्मण-साधु खिलाए। कोई लाभ न हुआ । ठकुराइन भी हफ्ते में चार दिन व्रत करती। मंगल को बजरंग बली का, बेफै को गुरु महाराज। शुक्रवार को संतोषी माता तो इतवार को सूरज देवता। यही सब करते करते अठारह साल गुजर गए, पर कोई संतान नहीं हुई कुछ दिन बाद किसी पढ़ैया ने उन्हें सलाह कि शहर में वह डाक्टर को दिखाएं। अब डाक्टर के यहां जाना, वह भी ठकुराइन के साथ, यह तो जमींदार साहब के लिए नामुमकिन था। खैर उन्होंने डाक्टर को अच्छी खासी रकम दी। डाक्टर घर पर ही आया। उसने दोनों की जाँच की। ठकुराइन तो ठीक थी। जमींदार साहब में कमी थी। डाक्टर ने करीब छह महीने इलाज किया। सातवें महीने ही ठकुराइन के पाँव भारी हो गये।
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