मनोरंजक कथाएँ >> अहंकारी लकड़हारा अहंकारी लकड़हारादिनेश चमोला
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बाल कहानी संग्रह....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अहंकारी लकड़हारा
किसी वन में एक साधु रहते थे। रोज ही तपस्या में रत। न सर्दी का भय, न
गर्मी का प्रभाव। भूख लगती तो फल-फूल खाकर गुजारा कर लेते। जंगल घना था।
आबादी से बहुत दूर। वहां कोई पहुँच न पाता।
उसी जंगल की ओट में एक छोटा-सा गाँव था भीमपुर। वहाँ एक गरीब लकड़हारा रहता था भीमू। भीमू गरीब था परन्तु मन का बहुत साफ था। भीमू के कोई सन्तान न थी। एक बार वह लकडियों की खोज करता–करता उसी जंगल में पहुँच गया। एकाएक उसने साधु को देखा तो वह हैरान हो गया क्योंकि उस जंगल में उसे मनुष्य तो नाममात्र के लिए भी नहीं दिखाई दिया था।
‘यह कोई महान तपस्वी, सन्त होगा, जो इस बीहड़ जंगल में साधना कर रहा है।’ उसने सोचा।
वह फिर से लकड़ियाँ काटने लगा। कुछ देर तक लकड़ियाँ काटता रहा तो उसकी खट-खट से साधु की तन्द्रा टूटी। साधु ने लकड़हारे से पूछा—‘‘तुम कौन हो ? इस जंगल में क्या करने आए हो ? कोई भी साधारण पुरुष तो यहाँ आ नहीं सकता। तुम यहाँ कैसे पहुँच गए ?’’
‘‘महाराज ! मैं एक गरीब लकड़हारा हूँ। मेरे कोई सन्तान नहीं है। लकड़ियाँ बेच-बेचकर गुजारा करता हूँ। मेरी जीवन में और कोई अभिलाषा नहीं.,...केवल एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हो जाती तो...’ यह कहते ही लकड़हारे की आँखें भर आईं।
साधु को उस गरीब लकडहारे पर दया आ गई। उन्होंने उसे अपने पास बुलाकर कहा—‘‘बेटा ! इतने दुखी मत होओ। अब तुम्हारे अच्छे दिन आ गए हैं। लो, यह माला। इसे अपनी पत्नी के गले में डाल देना।। जब तक यह तुम्हारे घर में रहेगा, लक्ष्मी तुम्हारे कदम चूमेगी ।
परन्तु अधिक धन की प्राप्ति पर घमण्ड न कर बैठना। इसे किसी के हाथ न बेचना। आज से एक साल बाद तुम्हारे घर एक पुत्ररत्न पैदा होगा। कभी भी अपने द्वार पर किसी का अपमान न करना। अहंकार न करना। क्योंकि अहंकार अन्धा होता है।’’
उसी जंगल की ओट में एक छोटा-सा गाँव था भीमपुर। वहाँ एक गरीब लकड़हारा रहता था भीमू। भीमू गरीब था परन्तु मन का बहुत साफ था। भीमू के कोई सन्तान न थी। एक बार वह लकडियों की खोज करता–करता उसी जंगल में पहुँच गया। एकाएक उसने साधु को देखा तो वह हैरान हो गया क्योंकि उस जंगल में उसे मनुष्य तो नाममात्र के लिए भी नहीं दिखाई दिया था।
‘यह कोई महान तपस्वी, सन्त होगा, जो इस बीहड़ जंगल में साधना कर रहा है।’ उसने सोचा।
वह फिर से लकड़ियाँ काटने लगा। कुछ देर तक लकड़ियाँ काटता रहा तो उसकी खट-खट से साधु की तन्द्रा टूटी। साधु ने लकड़हारे से पूछा—‘‘तुम कौन हो ? इस जंगल में क्या करने आए हो ? कोई भी साधारण पुरुष तो यहाँ आ नहीं सकता। तुम यहाँ कैसे पहुँच गए ?’’
‘‘महाराज ! मैं एक गरीब लकड़हारा हूँ। मेरे कोई सन्तान नहीं है। लकड़ियाँ बेच-बेचकर गुजारा करता हूँ। मेरी जीवन में और कोई अभिलाषा नहीं.,...केवल एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हो जाती तो...’ यह कहते ही लकड़हारे की आँखें भर आईं।
साधु को उस गरीब लकडहारे पर दया आ गई। उन्होंने उसे अपने पास बुलाकर कहा—‘‘बेटा ! इतने दुखी मत होओ। अब तुम्हारे अच्छे दिन आ गए हैं। लो, यह माला। इसे अपनी पत्नी के गले में डाल देना।। जब तक यह तुम्हारे घर में रहेगा, लक्ष्मी तुम्हारे कदम चूमेगी ।
परन्तु अधिक धन की प्राप्ति पर घमण्ड न कर बैठना। इसे किसी के हाथ न बेचना। आज से एक साल बाद तुम्हारे घर एक पुत्ररत्न पैदा होगा। कभी भी अपने द्वार पर किसी का अपमान न करना। अहंकार न करना। क्योंकि अहंकार अन्धा होता है।’’
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