सामाजिक >> टूटा हुआ आदमी टूटा हुआ आदमीमोहन चोपड़ा
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प्रस्तुत है विशिष्ट उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रकाशकीय
हिन्दी उपन्यास के क्षेत्र में स्वर्गीय श्री मोहन चोपड़ा का एक विशिष्ट स्थान है। आपने सात उपन्यास लिखे हैं जिनमें से एक उपन्यास ‘एक छाया और मैं’ का कन्नड़
भाषा में भी अनुवाद हुआ है। इनके कई उपन्यास हरियाणा और पंजाब के
भाषा-विभागों द्वारा पुरस्कृत हैं।
मोहन चोपड़ा के कृतित्व के माध्यम से यदि उनके व्यक्तित्व तक पहुँचा जाए तो यह निष्कर्ष सहज रूप से उभर आता है कि वह मूलतः एक सहृदय साधक हैं किन्तु उन्हें अति भावुक नहीं कहा जा सकता। उनकी भावुकता एक बौद्धिक सजगता और सन्तुलन द्वारा नियन्त्रित है। भावुकता और बौद्धिकता के सामंजस्य के कारण ही उनके कथा साहित्य में एक कलात्मक उदात्तता के दर्शन होते हैं। उनकी बौद्धिकता यथार्थ के इर्द-गिर्द ही नहीं घूमती अपितु उसकी गहराइयों में उतरकर उसका सूक्ष्मता से विश्लेषण भी करती है। यही कारण है कि उनका चिन्तन कहीं अमूर्त सिद्धान्त बनकर नहीं रह गया है। जहाँ उनकी भावुकता बौद्धिकता द्वारा नियन्त्रित है वहीं उनका चिन्तन यथार्थ द्वारा। संक्षेप में यही उनके कृतित्व का सार है।
श्री चोपड़ा की रचनाओं ने सामाजिक तथा पारिवारिक परिस्थितियों में संघर्षत व्यक्ति के आन्तरिक अस्तित्व को बिम्बित करने में अपूर्व सफलता प्राप्त की है। व्यक्ति यथार्थजन्य वेदना से तड़पता है, विसंगतियों का शिकार होता है लेकिन वह दम तोड़ता नहीं पाया जाता। विरोधों-प्रतिरोधों पर विजय पाने की आशा रखता है-उन पर काबू पाता है। आप समस्याओं का समाधान भी प्रस्तुत करते हैं। जीवन के प्रति आशावादी दृष्टि कोण आपके साहित्य पर अपनी छाप छोड़ गया है।
चोपड़ा जी के सभी उपन्यासों के कथाकन सामाजिक जीवन से लिए गए हैं। घटनाओं के संयोजन में आपको अद्भुत सफलता मिली है। आपके उपन्यासों के कथानकों में कसावट, रोचकता और श्रृंखलाबद्धता सर्वत्र पाई जाती है। इनकी लेखनी कथानक के सांचे में सिमटे हुए प्रसंगों या घटनाओं के स्थूल विवरण तक ही सीमित नहीं है अपितु इनकी वैचारिक व्यंजनाओं और अनुगूंजों को ध्वनित करती चलती है। ऐसी स्थिति में स्थूल घटनाओं की परिणति सूक्ष्म विचारों में होती है। यही कारण है कि श्री मोहन चोपड़ा के उपन्यासों में रोचक कथानकों के साथ गहन चिन्तन-सामग्री भी उपलब्ध है।
प्रस्तुत उपन्यास ‘टूटा हुआ आदमी’ भगीरथ और मानिक दो मित्रों के इर्द-गिर्द घूमती एक मनोविज्ञान-प्रधान कथा है। इसका नायक भगीरथ जो पेशे से रेडियो-आर्टिस्ट है, अपनी मानसिक ग्रन्थियों के कारण महसूस करता है कि उसका यौन परिवर्तन हो रहा है। उसकी स्त्रैणता उन्मुख मानसिकता का लेखक ने बहुत प्रभावशाली ढंग से चित्रण किया है। उसे अपने मित्र मानिक की पत्नी शोभा से भी ईर्ष्या है, वह चाहता है कि मानिक के स्नेह पर उसका पूर्णाधिकार हो। स्त्री-पुरूष सम्बन्धों में वासना के लिए उसके मन में कोई स्थान नहीं। डॉक्टर रूईकर जो चिकित्सा से उसका पुरुषत्व उसे वापिस लौटता है, संभवतः एक प्रतीक ही है। एक नये विषय पर लिखा गया श्री मोहन चोपड़ा का यह उपन्यास बेहद रोचक है और हमें पूरा विश्वास है कि हमारे पाठकों को यह खूब भाएगा।
मोहन चोपड़ा के कृतित्व के माध्यम से यदि उनके व्यक्तित्व तक पहुँचा जाए तो यह निष्कर्ष सहज रूप से उभर आता है कि वह मूलतः एक सहृदय साधक हैं किन्तु उन्हें अति भावुक नहीं कहा जा सकता। उनकी भावुकता एक बौद्धिक सजगता और सन्तुलन द्वारा नियन्त्रित है। भावुकता और बौद्धिकता के सामंजस्य के कारण ही उनके कथा साहित्य में एक कलात्मक उदात्तता के दर्शन होते हैं। उनकी बौद्धिकता यथार्थ के इर्द-गिर्द ही नहीं घूमती अपितु उसकी गहराइयों में उतरकर उसका सूक्ष्मता से विश्लेषण भी करती है। यही कारण है कि उनका चिन्तन कहीं अमूर्त सिद्धान्त बनकर नहीं रह गया है। जहाँ उनकी भावुकता बौद्धिकता द्वारा नियन्त्रित है वहीं उनका चिन्तन यथार्थ द्वारा। संक्षेप में यही उनके कृतित्व का सार है।
श्री चोपड़ा की रचनाओं ने सामाजिक तथा पारिवारिक परिस्थितियों में संघर्षत व्यक्ति के आन्तरिक अस्तित्व को बिम्बित करने में अपूर्व सफलता प्राप्त की है। व्यक्ति यथार्थजन्य वेदना से तड़पता है, विसंगतियों का शिकार होता है लेकिन वह दम तोड़ता नहीं पाया जाता। विरोधों-प्रतिरोधों पर विजय पाने की आशा रखता है-उन पर काबू पाता है। आप समस्याओं का समाधान भी प्रस्तुत करते हैं। जीवन के प्रति आशावादी दृष्टि कोण आपके साहित्य पर अपनी छाप छोड़ गया है।
चोपड़ा जी के सभी उपन्यासों के कथाकन सामाजिक जीवन से लिए गए हैं। घटनाओं के संयोजन में आपको अद्भुत सफलता मिली है। आपके उपन्यासों के कथानकों में कसावट, रोचकता और श्रृंखलाबद्धता सर्वत्र पाई जाती है। इनकी लेखनी कथानक के सांचे में सिमटे हुए प्रसंगों या घटनाओं के स्थूल विवरण तक ही सीमित नहीं है अपितु इनकी वैचारिक व्यंजनाओं और अनुगूंजों को ध्वनित करती चलती है। ऐसी स्थिति में स्थूल घटनाओं की परिणति सूक्ष्म विचारों में होती है। यही कारण है कि श्री मोहन चोपड़ा के उपन्यासों में रोचक कथानकों के साथ गहन चिन्तन-सामग्री भी उपलब्ध है।
प्रस्तुत उपन्यास ‘टूटा हुआ आदमी’ भगीरथ और मानिक दो मित्रों के इर्द-गिर्द घूमती एक मनोविज्ञान-प्रधान कथा है। इसका नायक भगीरथ जो पेशे से रेडियो-आर्टिस्ट है, अपनी मानसिक ग्रन्थियों के कारण महसूस करता है कि उसका यौन परिवर्तन हो रहा है। उसकी स्त्रैणता उन्मुख मानसिकता का लेखक ने बहुत प्रभावशाली ढंग से चित्रण किया है। उसे अपने मित्र मानिक की पत्नी शोभा से भी ईर्ष्या है, वह चाहता है कि मानिक के स्नेह पर उसका पूर्णाधिकार हो। स्त्री-पुरूष सम्बन्धों में वासना के लिए उसके मन में कोई स्थान नहीं। डॉक्टर रूईकर जो चिकित्सा से उसका पुरुषत्व उसे वापिस लौटता है, संभवतः एक प्रतीक ही है। एक नये विषय पर लिखा गया श्री मोहन चोपड़ा का यह उपन्यास बेहद रोचक है और हमें पूरा विश्वास है कि हमारे पाठकों को यह खूब भाएगा।
-प्रकाशक
1
मानिक और रेडियो-आर्टिस्ट भगीरथ बहुत
पक्के दोस्त थे। मानिक खूब लम्बा और तगड़ी काठी का जवान था। भगीरथ ठिगना
और दुबला-पतला। उसके साँवले चेहरे का प्रत्येक हाव-भाव कलात्मक आकर्षण से
परिपूर्ण था। इस आकर्षण को दोबाला करने के लिए वह पाउडर व क्रीम का
इस्तेमाल तो करता ही था, कई बार आंखों में सुरमा भी डाल लेता। मानिक के
चेहरे में दूसरी तरह का आकर्षण था, यानि शक्ति का। उसकी मूछें भी नफासत से
कटी हुई थीं। उसकी देखादेखी एक बार भगीरथ ने भी मूछें पाल लेने का इरादा
किया। पर जब हफ्ते की मेहनत के बाद थोड़ी सी मूछें तैयार हो गईं तो उसने
फौरन ब्लेड से साफ कर दीं। असल में उसका चेहरा ऐसा था ही नहीं, जिस पर
मूछें जैसी चीज फ़ब सके।
विभाजन से पहले वे लाहौर में थे। जब विभाजन हुआ तो मानिक अपने परिवार के साथ अमृतसर चला आया। अमृतसर में उसकी पैतृक सम्पत्ति काफी थी। भगीरथ ने दिल्ली का रुख किया और बतौर रेडियो-आर्टिस्ट के काम करने लगा।
जब मानिक शादी करने जा रहा था तो भगीरथ के दिल को गहरी ठेस लगी थी। वह अपने दोस्त के निश्चय को बदल तो न सका, लेकिन यह सोचकर उसे हमेशा ही तस्कीन मिलती थी कि जितना प्यार वह अपने दोस्त से करता है, उतना प्यार उसकी पत्नी शोभा या कोई और औरत नहीं कर सकती। शोभा के प्रति उसके दिल में गहरी ईर्ष्या थी और यह कितनी विचित्र बात है कि वह एक पुरुष हो कर उससे ईर्ष्या करने लगा था। शोभा अपनी शादी के चार सवा चार साल बाद ही मर गई और उस वक्त भगीरथ यह सोचने के लिए मजबूर-सा हो गया.....कि ईश्वर की यही इच्छा थी कि उनकी दोस्ती में कोई रुकावट न रहे। वास्तव में उसे मानिक से ही बहुत ही प्रेम था।
शोभा की मौत के बाद मानिक अपनी बहन मन्नू के साथ दिल्ली चला आया और उसे ईस्ट पटेल नगर में तीन कमरों का फ्लैट मिल गया और कार के लिए गैरज भी। मन्नू इन्द्रप्रस्थ कॉलेज में दाखिल हो गई और समाजशास्त्र, जो प्रारम्भ से ही इसका प्रिय विषय था, यूनिवर्सिटी के विद्वान प्राध्यापकों के संरक्षण में गहरी रुचि के साथ पढ़ने लगी।
वह चार बजे यूनिवर्सिटी से लौटती थी। भगीरथ उस समय उनके फ्लैट पर आ जाता था। मानिक उसे हमेशा बालकनी में प्रतीक्षा करते हुए मिलता। भगीरथ के पास हर रोज़ कोई मजेदार-सा चुटकुला या रेडियो-कर्मचारियों के सम्बन्ध में झूठ या सच्चा स्कैंडल होता और जब वह इसे पूरी नाटकीयता और स्वर के उतार-चढ़ाव के साथ सुनने लगता तो मानिक को बड़ा लुत्फ़ आता। एक दिन उसने मिस मुकरजी का अभिनय किया, जिनके बारे में उस रोज यह अफ़वाह गरम थी कि उसने श्रीयुत् ताराचन्द को कैसी डांट पिलाई है। मिस मुकरजी की स्वभावतया पतली, किन्तु में रोष में आ जाने पर कुछ तीखी आवाज़ का अनुकरण करते हुए भगीरथ कहने लगा, ‘‘देखिए, आप हमारे बुजुर्ग हैं। मुझे यह कतई पसन्द नहीं कि आप हमारे साथ मजाक़ करें और मैं उम्र में आप से कितनी छोटी हूँ।.....और नहीं तो आप अपने सफ़ेद बालों का ही लिहाज़ कीजिए। आप अब भी हँसते जा रहे हैं। मालूम होता है आप खासे ढीठ आदमी हैं। इस दफ़े तो मैं आप को माफ़ किए देती हूँ; लेकिन याद रखिए, अगर आपने ऐसी-वैसी बात फिर कभी की तो इतना शोर मचाऊंगी कि आपकी मिट्टी पलीत हो जाएगी। आप अब भी हँसते जा रहे हैं। मालूम होता है, आप गालियां सुने बगैर यहाँ से नहीं जाएँगे। मिस्टर ताराचन्द, आप पूरे स्काऊंड्रल हैं...आप...आप।’’
संयोगवश मन्नू एक मिनट पहले ही यूनिवर्सिटी से लौटी थी। बालकनी से आती हुई आवाज़ को सुनकर पहले उसे शक हुआ कि वहाँ उसे कोई औरत है, जो उसके भाई को गालियाँ दे रही है, पर ड्राइंगरूम में प्रविष्ट होने पर उसे बालकनी में बैठे हुए भगीरथ और मानिक की एक झलक सामने वाली दीवार की खिड़की में से दिखाई दी, जिसका पर्दा थोड़ा-सा सरक गया था। वह दीवार से कान लगाकर वह विवरण सुनने लगी, जिसका अभिनय भगीरथ कर रहा था। उसे जितना आश्चर्य हुआ, उससे कहीं ज्यादा दुःख भी।
मानिक से भगीरथ ने पूछा, ‘‘ताराचन्द ने क्या उत्तर दिया ?’’
‘‘कुछ नहीं,’’ भगीरथ बोला, ‘‘वह उसी क्षण अपनी मुद्रा एक फिलासफर जैसी बनाकर कमरे से बाहर चला गया।’’
‘‘तुम्हारा मतलब है, उसका चेहरा गंभीर था ?’’
‘‘क्योंकि, ’’ भगीरथ ने सफाई पेश की, ‘‘आज तक स्टूडियो की किसी भी औरत ने उसे इतनी खरी-खरी नहीं सुनायी थी।’’
मानिक ने पूछा, ‘‘मिस मुकरजी खूबसूरत हैं ?’’
‘‘मुझे नहीं मालूम,’’ भगीरथ ने उत्तर दिया, ‘‘मैंने एक अर्से से औरतों में दिलचस्पी लेनी छोड़ दी है।’’
तभी मन्नू बालकनी में आ गई। उसने एक कड़वी बात सोच ली थी, जो वह भगीरथ को कहना चाहती थी और इस कारण उसे अन्तर्चुभन-सी महसूस होने लगी।
‘‘मन्नू,’’ मानिक ने उससे कहा, ‘‘चाय में देर हो गई। रसोई में जाकर देखो, मुंड़ू क्या कर रहा है ?’’
जब भगीरथ और मन्नू की नजरें मिलीं तो मन्नू थोड़ा शरमा गई। रसोई में जाकर वह सोचने लगी कि क्या भगीरथ इतना सफल रेडियो-आर्टिस्ट है कि स्त्री का अभिनय करते वक्त अपनी आवाज हू-ब-हू स्त्री जैसी बना ले ? अभिनय यथार्थ का भ्रम ही पैदा करता है, वह यथार्थ तो नहीं। पर कितनी विचित्र बात है कि भगीरथ का अभिनय, अभिनय न रहकर यथार्थ लगता है। लेकिन उसके मस्तिष्क का एक अंश उसे कह रहा था कि शायद वह भूल कर रही है और जो उसने सोचा है, किसी तरह भी संभव नहीं। फिर उसे यह विचार आया कि यदि वह भगीरथ का अभिनय मात्र ही था तो उसे ऐसा अभिनय हरगिज़ नहीं करना चाहिए। कितनी लज्जाजनक बात है कि वह पुरुष होकर स्त्री का अभिनय करे ! यह पुरुषत्व का अपमान नहीं ?
वे चाय पीने लगे तो उसने आखिर कह ही दिया, ‘‘जब भगीरथ भैया एक्टिंग कर रहे थे तो मैं ड्राइंगरूम में खड़ी थी। मुझे उनकी एक्टिंग पसन्द नहीं आई।’’
‘‘क्यों, क्या खोट था उसमें ?’’ मानिक ने पूछा।
‘‘यही तो खोट है कि उसमें कोई खोट नहीं था।’’
भगीरथ कुछ क्षण सोचता रहा, फिर कहने लगा, ‘‘यह सच है कि रेडियो-आर्टिस्ट होने के नाते मैं हर तरह के इंसान की आवाज़ निकाल सकता हूँ। लेकिन यह कैसे हो सकता है कि मेरी आवाज बिस्कुल ..... मेरा मतलब है कि सही तौर पर औरत की आवाज बन जाए ? अगले से अगले शुक्रवार हम कलिंग विजय नाटक खेल रहे हैं, जिसमें मैं सम्राट अशोक की भूमिका में जा रहा हूँ। मेरा ख्याल है, वह मेरा मास्टरपीस अभियन होगा। आज तक मैंने कवियों, कलाकारों निराश प्रेमियों और मसखरों का अभिनय किया है, लेकिन एक सम्राट का अभिनय करने का यह मेरा पहला अवसर होगा।’’
उसके इस लम्बे कथन का प्रभाव मन्नू पर अवश्य पड़ा। उसने पूछ लिया, ‘‘वह नाटक कितने बजे आएगा ?’’
‘‘रात को साढ़े नौ बजे।’’
मानिक बोला, ‘‘मन्नू तो नौ बजे ही पढ़ते-पढ़ते सो जाती है।’’ और वह हँसने लगा।
‘‘भैया !’’ मन्नू कुछ झेंप और कुछ रोष में आकर बोली , ‘‘आप झूठ कहते हैं। आप दस बजे के बाद ही घर लौटते हैं और उस वक्त भी मेरे कमरे की बत्ती जल रही होती है।’’
‘‘मन्नू, यह बात सच है,’’ मानिक ने उत्तर दिया, ‘‘तुम उन औरतों में हो जो बत्ती जला कर सोती हैं, ताकि अँधेरे से डर न लगे।’’
एकाएक मन्नू की मुखमुद्रा कुछ रूआँसी-सी हो गई। वह चाहती थी कि भागकर अपने कमरे में चली जाए। वह जानती थी कि वह डरपोक है। उसे सचमुच अंधेरे से डर लगता है। और रात भर वह मद्धिम रोशनी का नाईट बल्ब जलाए रखती है और मार्च महीने की गर्मी के बावजूद दरवाजा खुला रखने का उसे हौसला नहीं होता, पर यह उसे मंजूर नहीं था कि उसका भैया भगीरथ के आगे अपमानित करे।
भगीरथ इस प्रतीक्षा में था कि मन्नू अपनी मान-रक्षा करती हुई मानिक के साथ जरूर उलझ पड़ेगी। वह बड़े ध्यान से मन्नू के चेहरे की बदलती हुई भंगिमा की ओर देखता रहा।
मानिक ने जैसे स्थिति को सँभाल लेने की इच्छा से कहा, ‘‘मेरा यह मतलब नहीं था कि सिर्फ मन्नू ही डरपोक है। सभी औरतें डरपोक होती हैं। याद है न, तेरी भाभी शोभा कितनी डरपोक थी ! उसे बन्द कमरे से बहुत डर लगता था। वह बाथरूम जाती थी तो दरवाजे की कुंडी नहीं लगाती थी...।’’ वह एकाएक खामोश हो गया। शोभा की याद उसे बहुत अव्यवस्थित कर देती थी। उसने कुर्सी से उठते हुए भगीरथ से कहा, ‘‘कनाट प्लेस की सैर किए बहुत दिन हो गए। चलो, चलें।’’
‘‘मैं भी साथ चलूँगी,’’ मन्नू ने रूठे बच्चे की आवाज़ में कहा और वह कपड़े बदलने के लिए कमरे में चली आई।
कुछ देर बाद मानिक कार ड्राइव कर रहा था और उसके पहलू में बैठा था भगीरथ; और मन्नू पिछली सीट पर थी—अकेली, गुमसुम, और अपने आप में सिमटी हुई। जब भी वे तीनों कार में होते थे, मन्नू इसी जगह बैठा करती थी या बैठने के लिए विवश थी और तब यह बड़ी विचित्र सी अनुभूति उसे होती थी कि उस जगह पर वह ज़रा भी सुरक्षित नहीं। मानिक कार भी बहुत तेज चलाता था जैसे वह किसी स्टंट फिल्म का हीरो हो, जिसे पता लग गया हो कि उसे पकड़ने के लिए पुलिस वैन उसका पीछा कर रही है। दौड़ती हुई कार के शीशों में बाहर का दृश्य बिल्कुल अस्पष्ट और टूटा-फूटा दिखाई देता था। कहीं दुर्घटना न हो जाए, इस डर से वह सीट को कसकर पकड़े रखती। वह मानिक से इतना भी तो नहीं कह सकती थी कि रफ्तार धीमी कर दें। सुनकर क्या पता वह उसे कड़वा सा उत्तर दे या व्यंग्य से अपने उन ओठों को तरेर ले, जिनके ऊपर उसकी बारीक नोकदार मूछें बड़ी रोबीली लगती थीं। कार अडोल और सुरक्षित गति से उड़ी जा रही थी, फिर भी मन्नू को सोचते वक्त झटके से लग रहे थे। मानिक उसका भैया जैसा ही है, पर वह जानती है कि उसके संरक्षण में वही आत्मीयता है, जो सिर्फ माँ की गोद में ही मिल सकती है, और यह सच है कि वह दिन आम दिनों जैसा नहीं होगा, जब वह मानिक के संरक्षण को छोड़कर एक अपरिचित पुरुष के संरक्षण में चली जाएगी। इस विचार के आते ही वह एकाएक सिहर उठी जैसे किसी ने ब्लेड की सर्द पैनी धार से उसके अन्तर को छू दिया हो। जो भी हो, पति के रूप में वह उसी पुरुष को स्वीकार करेगी जो मानिक से मिलता-जुलता हो। पर भगीरथ....वह तो ऐसा नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं। वह बेशक खूबसूरत लगता है पर उसमें वैसा खिंचाव कहां है, जो किसी युवती को अपनी ओर खींच सके। पर भगीरथ यह बात क्यों नहीं समझता ? वह तो मूक भाव से, ज़रा भी भावुक हुए बिना उससे प्रेम करता चला आ रहा है...!
यहां पर मन्नू की विचार धारा भगीरथ की विचार धारा से छू गई। क्योंकि भगीरथ भी सिगरेट ओंठों के कोने में दबाए और इसे अपने विशिष्ट ढंग से धीमे-धीमे खींचते हुए मन्नू के बारे में ही सोच रहा था। गत रात के डायरी में उसने मन्नू के सम्बन्ध में कुछ शब्द लिखे थे जो उसे याद आ गए थे—मेरे पास न शारीरिक और न नैतिक अधिकार ही है कि मैं किसी स्त्री की ओर आकर्षित हो सकूँ। मैं सोचता हूं, एक मन्नू ही ऐसी स्त्री है जो निःस्वार्थ भाव से मेरे साथ प्रेम करते हुए मेरी पत्नी बनकर रह सकती है और हमारा सम्बन्ध वासना का सम्बन्ध न हो कर प्रेम का सम्बन्ध होता।...यह सोचते वक्त उसे तीखी उलझन सी महसूस हो रही थी। उसने आज तक मन्नू के प्रति अपनी भावनाओं को मानिक के आगे प्रकट नहीं किया था। वह संकोच से, शरम से जकड़ जाता था। उसके भीतर इतना अधिक आंतक समाया रहता कि वह किसी तरह भी उसे दूर नहीं कर सकता था। वह विवश था कि मन्नू को मूक भाव से, ज़रा भी भावुक हुए बिना प्रेम करता चला जाए।
इस मनोजाल से बाहर निकलने के लिए वह बुरी तरह से छटपटाने लगा। अपनी स्थिति से पर्दा खींच देना उसके लिए किसी तरह से सम्भव नहीं था।
वह मर्मान्तक पीड़ा और आत्मग्लानि की जलन बर्दाश्त कर सकता है; लेकिन वह मजबूर हो गया है कि मानिक के आगे, सारी दुनिया के आगे, अभिनय करता रहे और अपने आपको को छिपाए रखे। तत्क्षण उसे ऐसा अनुभव हुआ कि उसकी धमनियों में लहू का दबाव बढ़ रहा है। और एक तरफ चुनचुनाहट उसके सारे जिस्म में फैलती जा रही है। साथ ही उसे सीने के अन्दर और जाँघों पर सख्त खिंचाव-सा महसूस होने लगा। जब लहू की दबाव और बढ़ने लगा तो उसकी इच्छा हो रही थी कि वह अपने वस्त्रों को फाड़ डाले। उसका चेहरा एकदम पीला पड़ गया और माथे पर पसीने की बूँदें छलक आईं। यह सिर्फ एक-आध मिनट के लिए ही हुआ। ‘‘थैंक गॉड!’’ उसके सूखे गले से मद्धिम-सी आवा़ज़ निकली।
‘‘थैंक गॉड!’’ मानिक ने अपनी ओर से भी कहा, ‘‘आखिर हम कनाट प्लेस आ पहुँचे। पूरे दस मिनट लगे।’’ कहकर ओडियन सिनेमा के समीपवर्ती पार्किंग स्टैंड पर कार खड़ी करने के लिए बैकगेयर लगाने लगा।
मन्नू और मानिक बाहर आ गए। भगीरथ को लगा कि बाहर निकलने के लिए उसे सहारे की जरूरत है। उसने एक-दो बार उठाने की कोशिश की; लेकिन टाँगे जवाब दे गईं। ‘‘मानिक !’’ उसने अपने दोस्त को कमजोर सी आवाज़ में पुकारा, ‘‘मैं तुम्हारी मदद के बगैर नहीं आ सकता।’’
मन्नू ने सुना तो वह चिन्तित-सी उसे देखने लगी। मानिक ने उसे बाहर खींचते हुए पूछा, ‘‘बताओ न, क्या हुआ तुम्हें ?’’
भगीरथ ने मानिक के कन्धे पर झुकते हुए कहा, ‘‘मुझे खुद पता नहीं। मैं बिल्कुल ठीक-ठाक होता हूँ, फिर अचानक ही मेरे सारे जिस्म में कँपकँपी-सी फैल जाती है और महसूस होने लगता है कि कोई चीज़ मुझे अपने वजूद से परे फेंक देना चहती है। मुझे नहीं मालूम, यह कैसा मर्ज है ? पर ज्यों ही इसका फिट खत्म होता है तो मुझे बहुत ही कमजो़री महसूस होती है।’’ कहकर उसने मन्नू की ओर देखा। वह बहुत भयभीत दिखाई दे रही थी।
‘‘किसी डाक्टर को नहीं दिखाया ?’’मानिक ने पूछा।
‘‘नहीं। मुझे डर लगता है।’’ फिर अगले क्षण भगीरथ ने अपने कथन को सुधारते हुए कहा, ‘‘डाक्टरों में मुझे ज़रा भी विश्वास नहीं।’’
‘‘नहीं भाई,’’ मानिक उसे सान्त्वना देते हुए बोला, ‘‘तुम बिल्कुल ठीक हो जाओगे। आओ, थोड़ी देर के लिए वोल्गा में बैठें।’’ फिर उसने मन्नू से कहा, ‘‘तुम अपनी शॉपिंग कर लो। ज्यादा देर न लगाना।’’
‘‘मैंने सोमा से मिलना है।’’ मन्नू बोली।
‘‘अच्छा।’’ मानिक को पता था मन्नू की सारी शॉपिंग ग्राम उद्योग सेंटर में ही होती है, जहाँ उसकी सहेली सोमा सेल्सगर्ल का काम करती है।
मन्नू ने जाने से पहले निमिष-भर के लिए भगीरथ की ओर देखा। उसके निचले ओंठ में हल्का-सा कम्पन हुआ, पर वह कुछ बोली नहीं।
वोल्गा में आकर जब दोनों मित्र पास-पास बैठ गए तो बैरा आर्डर लेने के लिए उनके समक्ष आ खड़ा हुआ। मानिक ने भगीरथ से कहा, ‘‘मेरा ख्याल है, तुम एक छोटी ब्राण्डी ले लो। तुम्हारी तबीयत उससे जरूर सँभल जाएगी।’’ यह समय था, जब दिल्ली के रेस्तराओं में शराबबन्दी का कानून लागू नहीं हुआ था।
‘‘अपने लिए तुम बीयर मँगवा लो,’’ भगीरथ ने उसे सुझाव दिया।
‘‘मैं कॉफी पीऊँगा।’’ मानिक नहीं चाहता था कि मन्नू उसे नशे की हालत में देखे।
बैरे ने ब्राण्डी वाला गिलास भगीरथ के आगे रख दिया। भगीरथ कुछ क्षण उस सुनहरी रंग के चमकीले तरल पदार्थ को देखता रहा। मानिक ने उससे कहा, ‘‘इसे एक साँस में पी जाओ। फिर कॉफी पी लेना।’’
भगीरथ ने वैसा ही किया। खाली गिलास मेज़ पर रखते वक्त उसके ओंठों पर विचित्र-सी मुस्कराहट आ गई।
मानिक बोला, ‘‘पता नहीं, तुम कैसा रोग लगा बैठे ? तुम्हारा रंग बिल्कुल फ़क हो गया था।’’
विभाजन से पहले वे लाहौर में थे। जब विभाजन हुआ तो मानिक अपने परिवार के साथ अमृतसर चला आया। अमृतसर में उसकी पैतृक सम्पत्ति काफी थी। भगीरथ ने दिल्ली का रुख किया और बतौर रेडियो-आर्टिस्ट के काम करने लगा।
जब मानिक शादी करने जा रहा था तो भगीरथ के दिल को गहरी ठेस लगी थी। वह अपने दोस्त के निश्चय को बदल तो न सका, लेकिन यह सोचकर उसे हमेशा ही तस्कीन मिलती थी कि जितना प्यार वह अपने दोस्त से करता है, उतना प्यार उसकी पत्नी शोभा या कोई और औरत नहीं कर सकती। शोभा के प्रति उसके दिल में गहरी ईर्ष्या थी और यह कितनी विचित्र बात है कि वह एक पुरुष हो कर उससे ईर्ष्या करने लगा था। शोभा अपनी शादी के चार सवा चार साल बाद ही मर गई और उस वक्त भगीरथ यह सोचने के लिए मजबूर-सा हो गया.....कि ईश्वर की यही इच्छा थी कि उनकी दोस्ती में कोई रुकावट न रहे। वास्तव में उसे मानिक से ही बहुत ही प्रेम था।
शोभा की मौत के बाद मानिक अपनी बहन मन्नू के साथ दिल्ली चला आया और उसे ईस्ट पटेल नगर में तीन कमरों का फ्लैट मिल गया और कार के लिए गैरज भी। मन्नू इन्द्रप्रस्थ कॉलेज में दाखिल हो गई और समाजशास्त्र, जो प्रारम्भ से ही इसका प्रिय विषय था, यूनिवर्सिटी के विद्वान प्राध्यापकों के संरक्षण में गहरी रुचि के साथ पढ़ने लगी।
वह चार बजे यूनिवर्सिटी से लौटती थी। भगीरथ उस समय उनके फ्लैट पर आ जाता था। मानिक उसे हमेशा बालकनी में प्रतीक्षा करते हुए मिलता। भगीरथ के पास हर रोज़ कोई मजेदार-सा चुटकुला या रेडियो-कर्मचारियों के सम्बन्ध में झूठ या सच्चा स्कैंडल होता और जब वह इसे पूरी नाटकीयता और स्वर के उतार-चढ़ाव के साथ सुनने लगता तो मानिक को बड़ा लुत्फ़ आता। एक दिन उसने मिस मुकरजी का अभिनय किया, जिनके बारे में उस रोज यह अफ़वाह गरम थी कि उसने श्रीयुत् ताराचन्द को कैसी डांट पिलाई है। मिस मुकरजी की स्वभावतया पतली, किन्तु में रोष में आ जाने पर कुछ तीखी आवाज़ का अनुकरण करते हुए भगीरथ कहने लगा, ‘‘देखिए, आप हमारे बुजुर्ग हैं। मुझे यह कतई पसन्द नहीं कि आप हमारे साथ मजाक़ करें और मैं उम्र में आप से कितनी छोटी हूँ।.....और नहीं तो आप अपने सफ़ेद बालों का ही लिहाज़ कीजिए। आप अब भी हँसते जा रहे हैं। मालूम होता है आप खासे ढीठ आदमी हैं। इस दफ़े तो मैं आप को माफ़ किए देती हूँ; लेकिन याद रखिए, अगर आपने ऐसी-वैसी बात फिर कभी की तो इतना शोर मचाऊंगी कि आपकी मिट्टी पलीत हो जाएगी। आप अब भी हँसते जा रहे हैं। मालूम होता है, आप गालियां सुने बगैर यहाँ से नहीं जाएँगे। मिस्टर ताराचन्द, आप पूरे स्काऊंड्रल हैं...आप...आप।’’
संयोगवश मन्नू एक मिनट पहले ही यूनिवर्सिटी से लौटी थी। बालकनी से आती हुई आवाज़ को सुनकर पहले उसे शक हुआ कि वहाँ उसे कोई औरत है, जो उसके भाई को गालियाँ दे रही है, पर ड्राइंगरूम में प्रविष्ट होने पर उसे बालकनी में बैठे हुए भगीरथ और मानिक की एक झलक सामने वाली दीवार की खिड़की में से दिखाई दी, जिसका पर्दा थोड़ा-सा सरक गया था। वह दीवार से कान लगाकर वह विवरण सुनने लगी, जिसका अभिनय भगीरथ कर रहा था। उसे जितना आश्चर्य हुआ, उससे कहीं ज्यादा दुःख भी।
मानिक से भगीरथ ने पूछा, ‘‘ताराचन्द ने क्या उत्तर दिया ?’’
‘‘कुछ नहीं,’’ भगीरथ बोला, ‘‘वह उसी क्षण अपनी मुद्रा एक फिलासफर जैसी बनाकर कमरे से बाहर चला गया।’’
‘‘तुम्हारा मतलब है, उसका चेहरा गंभीर था ?’’
‘‘क्योंकि, ’’ भगीरथ ने सफाई पेश की, ‘‘आज तक स्टूडियो की किसी भी औरत ने उसे इतनी खरी-खरी नहीं सुनायी थी।’’
मानिक ने पूछा, ‘‘मिस मुकरजी खूबसूरत हैं ?’’
‘‘मुझे नहीं मालूम,’’ भगीरथ ने उत्तर दिया, ‘‘मैंने एक अर्से से औरतों में दिलचस्पी लेनी छोड़ दी है।’’
तभी मन्नू बालकनी में आ गई। उसने एक कड़वी बात सोच ली थी, जो वह भगीरथ को कहना चाहती थी और इस कारण उसे अन्तर्चुभन-सी महसूस होने लगी।
‘‘मन्नू,’’ मानिक ने उससे कहा, ‘‘चाय में देर हो गई। रसोई में जाकर देखो, मुंड़ू क्या कर रहा है ?’’
जब भगीरथ और मन्नू की नजरें मिलीं तो मन्नू थोड़ा शरमा गई। रसोई में जाकर वह सोचने लगी कि क्या भगीरथ इतना सफल रेडियो-आर्टिस्ट है कि स्त्री का अभिनय करते वक्त अपनी आवाज हू-ब-हू स्त्री जैसी बना ले ? अभिनय यथार्थ का भ्रम ही पैदा करता है, वह यथार्थ तो नहीं। पर कितनी विचित्र बात है कि भगीरथ का अभिनय, अभिनय न रहकर यथार्थ लगता है। लेकिन उसके मस्तिष्क का एक अंश उसे कह रहा था कि शायद वह भूल कर रही है और जो उसने सोचा है, किसी तरह भी संभव नहीं। फिर उसे यह विचार आया कि यदि वह भगीरथ का अभिनय मात्र ही था तो उसे ऐसा अभिनय हरगिज़ नहीं करना चाहिए। कितनी लज्जाजनक बात है कि वह पुरुष होकर स्त्री का अभिनय करे ! यह पुरुषत्व का अपमान नहीं ?
वे चाय पीने लगे तो उसने आखिर कह ही दिया, ‘‘जब भगीरथ भैया एक्टिंग कर रहे थे तो मैं ड्राइंगरूम में खड़ी थी। मुझे उनकी एक्टिंग पसन्द नहीं आई।’’
‘‘क्यों, क्या खोट था उसमें ?’’ मानिक ने पूछा।
‘‘यही तो खोट है कि उसमें कोई खोट नहीं था।’’
भगीरथ कुछ क्षण सोचता रहा, फिर कहने लगा, ‘‘यह सच है कि रेडियो-आर्टिस्ट होने के नाते मैं हर तरह के इंसान की आवाज़ निकाल सकता हूँ। लेकिन यह कैसे हो सकता है कि मेरी आवाज बिस्कुल ..... मेरा मतलब है कि सही तौर पर औरत की आवाज बन जाए ? अगले से अगले शुक्रवार हम कलिंग विजय नाटक खेल रहे हैं, जिसमें मैं सम्राट अशोक की भूमिका में जा रहा हूँ। मेरा ख्याल है, वह मेरा मास्टरपीस अभियन होगा। आज तक मैंने कवियों, कलाकारों निराश प्रेमियों और मसखरों का अभिनय किया है, लेकिन एक सम्राट का अभिनय करने का यह मेरा पहला अवसर होगा।’’
उसके इस लम्बे कथन का प्रभाव मन्नू पर अवश्य पड़ा। उसने पूछ लिया, ‘‘वह नाटक कितने बजे आएगा ?’’
‘‘रात को साढ़े नौ बजे।’’
मानिक बोला, ‘‘मन्नू तो नौ बजे ही पढ़ते-पढ़ते सो जाती है।’’ और वह हँसने लगा।
‘‘भैया !’’ मन्नू कुछ झेंप और कुछ रोष में आकर बोली , ‘‘आप झूठ कहते हैं। आप दस बजे के बाद ही घर लौटते हैं और उस वक्त भी मेरे कमरे की बत्ती जल रही होती है।’’
‘‘मन्नू, यह बात सच है,’’ मानिक ने उत्तर दिया, ‘‘तुम उन औरतों में हो जो बत्ती जला कर सोती हैं, ताकि अँधेरे से डर न लगे।’’
एकाएक मन्नू की मुखमुद्रा कुछ रूआँसी-सी हो गई। वह चाहती थी कि भागकर अपने कमरे में चली जाए। वह जानती थी कि वह डरपोक है। उसे सचमुच अंधेरे से डर लगता है। और रात भर वह मद्धिम रोशनी का नाईट बल्ब जलाए रखती है और मार्च महीने की गर्मी के बावजूद दरवाजा खुला रखने का उसे हौसला नहीं होता, पर यह उसे मंजूर नहीं था कि उसका भैया भगीरथ के आगे अपमानित करे।
भगीरथ इस प्रतीक्षा में था कि मन्नू अपनी मान-रक्षा करती हुई मानिक के साथ जरूर उलझ पड़ेगी। वह बड़े ध्यान से मन्नू के चेहरे की बदलती हुई भंगिमा की ओर देखता रहा।
मानिक ने जैसे स्थिति को सँभाल लेने की इच्छा से कहा, ‘‘मेरा यह मतलब नहीं था कि सिर्फ मन्नू ही डरपोक है। सभी औरतें डरपोक होती हैं। याद है न, तेरी भाभी शोभा कितनी डरपोक थी ! उसे बन्द कमरे से बहुत डर लगता था। वह बाथरूम जाती थी तो दरवाजे की कुंडी नहीं लगाती थी...।’’ वह एकाएक खामोश हो गया। शोभा की याद उसे बहुत अव्यवस्थित कर देती थी। उसने कुर्सी से उठते हुए भगीरथ से कहा, ‘‘कनाट प्लेस की सैर किए बहुत दिन हो गए। चलो, चलें।’’
‘‘मैं भी साथ चलूँगी,’’ मन्नू ने रूठे बच्चे की आवाज़ में कहा और वह कपड़े बदलने के लिए कमरे में चली आई।
कुछ देर बाद मानिक कार ड्राइव कर रहा था और उसके पहलू में बैठा था भगीरथ; और मन्नू पिछली सीट पर थी—अकेली, गुमसुम, और अपने आप में सिमटी हुई। जब भी वे तीनों कार में होते थे, मन्नू इसी जगह बैठा करती थी या बैठने के लिए विवश थी और तब यह बड़ी विचित्र सी अनुभूति उसे होती थी कि उस जगह पर वह ज़रा भी सुरक्षित नहीं। मानिक कार भी बहुत तेज चलाता था जैसे वह किसी स्टंट फिल्म का हीरो हो, जिसे पता लग गया हो कि उसे पकड़ने के लिए पुलिस वैन उसका पीछा कर रही है। दौड़ती हुई कार के शीशों में बाहर का दृश्य बिल्कुल अस्पष्ट और टूटा-फूटा दिखाई देता था। कहीं दुर्घटना न हो जाए, इस डर से वह सीट को कसकर पकड़े रखती। वह मानिक से इतना भी तो नहीं कह सकती थी कि रफ्तार धीमी कर दें। सुनकर क्या पता वह उसे कड़वा सा उत्तर दे या व्यंग्य से अपने उन ओठों को तरेर ले, जिनके ऊपर उसकी बारीक नोकदार मूछें बड़ी रोबीली लगती थीं। कार अडोल और सुरक्षित गति से उड़ी जा रही थी, फिर भी मन्नू को सोचते वक्त झटके से लग रहे थे। मानिक उसका भैया जैसा ही है, पर वह जानती है कि उसके संरक्षण में वही आत्मीयता है, जो सिर्फ माँ की गोद में ही मिल सकती है, और यह सच है कि वह दिन आम दिनों जैसा नहीं होगा, जब वह मानिक के संरक्षण को छोड़कर एक अपरिचित पुरुष के संरक्षण में चली जाएगी। इस विचार के आते ही वह एकाएक सिहर उठी जैसे किसी ने ब्लेड की सर्द पैनी धार से उसके अन्तर को छू दिया हो। जो भी हो, पति के रूप में वह उसी पुरुष को स्वीकार करेगी जो मानिक से मिलता-जुलता हो। पर भगीरथ....वह तो ऐसा नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं। वह बेशक खूबसूरत लगता है पर उसमें वैसा खिंचाव कहां है, जो किसी युवती को अपनी ओर खींच सके। पर भगीरथ यह बात क्यों नहीं समझता ? वह तो मूक भाव से, ज़रा भी भावुक हुए बिना उससे प्रेम करता चला आ रहा है...!
यहां पर मन्नू की विचार धारा भगीरथ की विचार धारा से छू गई। क्योंकि भगीरथ भी सिगरेट ओंठों के कोने में दबाए और इसे अपने विशिष्ट ढंग से धीमे-धीमे खींचते हुए मन्नू के बारे में ही सोच रहा था। गत रात के डायरी में उसने मन्नू के सम्बन्ध में कुछ शब्द लिखे थे जो उसे याद आ गए थे—मेरे पास न शारीरिक और न नैतिक अधिकार ही है कि मैं किसी स्त्री की ओर आकर्षित हो सकूँ। मैं सोचता हूं, एक मन्नू ही ऐसी स्त्री है जो निःस्वार्थ भाव से मेरे साथ प्रेम करते हुए मेरी पत्नी बनकर रह सकती है और हमारा सम्बन्ध वासना का सम्बन्ध न हो कर प्रेम का सम्बन्ध होता।...यह सोचते वक्त उसे तीखी उलझन सी महसूस हो रही थी। उसने आज तक मन्नू के प्रति अपनी भावनाओं को मानिक के आगे प्रकट नहीं किया था। वह संकोच से, शरम से जकड़ जाता था। उसके भीतर इतना अधिक आंतक समाया रहता कि वह किसी तरह भी उसे दूर नहीं कर सकता था। वह विवश था कि मन्नू को मूक भाव से, ज़रा भी भावुक हुए बिना प्रेम करता चला जाए।
इस मनोजाल से बाहर निकलने के लिए वह बुरी तरह से छटपटाने लगा। अपनी स्थिति से पर्दा खींच देना उसके लिए किसी तरह से सम्भव नहीं था।
वह मर्मान्तक पीड़ा और आत्मग्लानि की जलन बर्दाश्त कर सकता है; लेकिन वह मजबूर हो गया है कि मानिक के आगे, सारी दुनिया के आगे, अभिनय करता रहे और अपने आपको को छिपाए रखे। तत्क्षण उसे ऐसा अनुभव हुआ कि उसकी धमनियों में लहू का दबाव बढ़ रहा है। और एक तरफ चुनचुनाहट उसके सारे जिस्म में फैलती जा रही है। साथ ही उसे सीने के अन्दर और जाँघों पर सख्त खिंचाव-सा महसूस होने लगा। जब लहू की दबाव और बढ़ने लगा तो उसकी इच्छा हो रही थी कि वह अपने वस्त्रों को फाड़ डाले। उसका चेहरा एकदम पीला पड़ गया और माथे पर पसीने की बूँदें छलक आईं। यह सिर्फ एक-आध मिनट के लिए ही हुआ। ‘‘थैंक गॉड!’’ उसके सूखे गले से मद्धिम-सी आवा़ज़ निकली।
‘‘थैंक गॉड!’’ मानिक ने अपनी ओर से भी कहा, ‘‘आखिर हम कनाट प्लेस आ पहुँचे। पूरे दस मिनट लगे।’’ कहकर ओडियन सिनेमा के समीपवर्ती पार्किंग स्टैंड पर कार खड़ी करने के लिए बैकगेयर लगाने लगा।
मन्नू और मानिक बाहर आ गए। भगीरथ को लगा कि बाहर निकलने के लिए उसे सहारे की जरूरत है। उसने एक-दो बार उठाने की कोशिश की; लेकिन टाँगे जवाब दे गईं। ‘‘मानिक !’’ उसने अपने दोस्त को कमजोर सी आवाज़ में पुकारा, ‘‘मैं तुम्हारी मदद के बगैर नहीं आ सकता।’’
मन्नू ने सुना तो वह चिन्तित-सी उसे देखने लगी। मानिक ने उसे बाहर खींचते हुए पूछा, ‘‘बताओ न, क्या हुआ तुम्हें ?’’
भगीरथ ने मानिक के कन्धे पर झुकते हुए कहा, ‘‘मुझे खुद पता नहीं। मैं बिल्कुल ठीक-ठाक होता हूँ, फिर अचानक ही मेरे सारे जिस्म में कँपकँपी-सी फैल जाती है और महसूस होने लगता है कि कोई चीज़ मुझे अपने वजूद से परे फेंक देना चहती है। मुझे नहीं मालूम, यह कैसा मर्ज है ? पर ज्यों ही इसका फिट खत्म होता है तो मुझे बहुत ही कमजो़री महसूस होती है।’’ कहकर उसने मन्नू की ओर देखा। वह बहुत भयभीत दिखाई दे रही थी।
‘‘किसी डाक्टर को नहीं दिखाया ?’’मानिक ने पूछा।
‘‘नहीं। मुझे डर लगता है।’’ फिर अगले क्षण भगीरथ ने अपने कथन को सुधारते हुए कहा, ‘‘डाक्टरों में मुझे ज़रा भी विश्वास नहीं।’’
‘‘नहीं भाई,’’ मानिक उसे सान्त्वना देते हुए बोला, ‘‘तुम बिल्कुल ठीक हो जाओगे। आओ, थोड़ी देर के लिए वोल्गा में बैठें।’’ फिर उसने मन्नू से कहा, ‘‘तुम अपनी शॉपिंग कर लो। ज्यादा देर न लगाना।’’
‘‘मैंने सोमा से मिलना है।’’ मन्नू बोली।
‘‘अच्छा।’’ मानिक को पता था मन्नू की सारी शॉपिंग ग्राम उद्योग सेंटर में ही होती है, जहाँ उसकी सहेली सोमा सेल्सगर्ल का काम करती है।
मन्नू ने जाने से पहले निमिष-भर के लिए भगीरथ की ओर देखा। उसके निचले ओंठ में हल्का-सा कम्पन हुआ, पर वह कुछ बोली नहीं।
वोल्गा में आकर जब दोनों मित्र पास-पास बैठ गए तो बैरा आर्डर लेने के लिए उनके समक्ष आ खड़ा हुआ। मानिक ने भगीरथ से कहा, ‘‘मेरा ख्याल है, तुम एक छोटी ब्राण्डी ले लो। तुम्हारी तबीयत उससे जरूर सँभल जाएगी।’’ यह समय था, जब दिल्ली के रेस्तराओं में शराबबन्दी का कानून लागू नहीं हुआ था।
‘‘अपने लिए तुम बीयर मँगवा लो,’’ भगीरथ ने उसे सुझाव दिया।
‘‘मैं कॉफी पीऊँगा।’’ मानिक नहीं चाहता था कि मन्नू उसे नशे की हालत में देखे।
बैरे ने ब्राण्डी वाला गिलास भगीरथ के आगे रख दिया। भगीरथ कुछ क्षण उस सुनहरी रंग के चमकीले तरल पदार्थ को देखता रहा। मानिक ने उससे कहा, ‘‘इसे एक साँस में पी जाओ। फिर कॉफी पी लेना।’’
भगीरथ ने वैसा ही किया। खाली गिलास मेज़ पर रखते वक्त उसके ओंठों पर विचित्र-सी मुस्कराहट आ गई।
मानिक बोला, ‘‘पता नहीं, तुम कैसा रोग लगा बैठे ? तुम्हारा रंग बिल्कुल फ़क हो गया था।’’
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