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मैं ही क्यों

ओम प्रकाश सोंधी

प्रकाशक : चेतना प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5108
आईएसबीएन :81-89364-10-3

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अपने-अपने दुर्ग में कैद हम लोगों की कहानी...

Main Hi kyon

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


हम रिश्तों को, कभी अभियान, कभी आत्मसम्मान, कभी परम्परा तो कभी स्वयम् के गढ़े हुए जीवन-मूल्यों की नींव पर खड़े किए संकुचित दृष्टिकोण के घेरे में बाँध लेते हैं। अपना अलग संसार बना लेते हैं और मान लेते हैं कि हमारी दुनिया के सिवाय दूसरा और कोई संसार नहीं है। अपने तराजू में अपने ही मापदण्ड द्वारा मानवीय सम्बन्ध को तौलते रहते हैं। अपने चारों ओर स्वयं बना ली गई दीवार के दूसरी ओर नहीं देखते। इसी दीवार के साथ टकराने से प्रगाढ़ रिश्ते टूट कर बिखरने लगते हैं और तब उत्पन्न होती है कुण्ठा, व्याकुलता और वेदना।

एक ओर मोहन लाल, अहम् को चोट लग जाने के कारण लाड़-प्यार से पाली अपनी बेटी के सुनहरे भविष्य को नष्ट करने पर तुल जाता है तो दूसरी ओर देव कुमार, बेटे की खुशी चाहते हुए भी वर्षों पुराने प्यार के रिश्ते को केवल इसलिए तोड़ने पर तैयार हो जाता है क्योंकि उसके आत्मसम्मान को चोट पहुंचाई गई है। परिणाम स्वरूप उनके बच्चे संस्कारों, जीवन-मूल्यों और अपनी इच्छाओं की खींचतान में उलझते चले जाते हैं।
अपने-अपने दुर्ग में कैद हम लोगों की कहानी है, ‘मैं ही क्यों’



ओम प्रकाश सोंधी



प्रकाश के साले दिनेश ने जिस दिन से नौकरी के लिए प्रार्थनापत्र भेजा था उसी दिन सुधा से प्रकाश को अपने इशारों पर नचा रही थी। प्रकाश सुना करता था कि जोरू का भाई भगवान के बनाए हुए सब जीव-जन्तुयों से प्रिय होता है। अब जब उसके अपने ऊपर आन पड़ा तो उसे पता चला कि बूढ़े–बड़े सत्य ही कहते थे। आज वह सोच सकता था कि जिस मनुष्य के दिल से यह वाक्य निकला होगा उसको अपने साले के लिए कितने बेचैन दिन, उनींदी रातें और दिल दहला देने वाले पल व्यतीत करने पड़े होंगे।

दिनेश ने जिस दफ्तर में नौकरी करने की ठानी थी, उस कम्पनी का मुख्यालय, दुर्भाग्यवश प्रकाश के नगर में था। यही सत्य प्रकाश की मुसीबतों का कारण बन गया था। नौकरी की सूचना समाचार-पत्र में पढ़ने के तुरन्त पश्चात् दिनेश ने सबसे पहले अपनी बहन सुधा को फोन पर अपनी इच्छा प्रकट  करते हुए प्रकाश से सहायता लेने के लिए प्रार्थना की थी, जिसके परिणामस्वरूप कॉलेज से घर आने पर सुधा ने प्रकाश के प्रति प्यार का प्रदर्शन करना आरम्भ कर दिया था। उस दिन खाने में प्रकाश की मनपसंद वस्तुएं बनाई गई थीं। उस दिन प्रकाश को ऐसा लगा मानो कि वह घर पर नहीं बल्कि किसी पंच सितारा होटल में अपने जन्मदिन की पार्टी खा रहा था।

 अथवा अपनी शादी पर अकेला ही मेहमान बन कर ससुराल में आया था। उस दिन प्रकाश को अपना घर कम और ससुराल का घर अधिक लग रहा था। और सुधा पत्नी के स्थान पर एक ऐसी लड़की लग रही थी जो कि उसे इसलिए रिझाने पर तुली हुई थी कि वह उससे विवाह करने के लिए हां कह दे। -खाने की मेज पर बैठा प्रकाश अजीब-सी उलझन में फँस गया था। और सुधा थी कि बात नहीं कर रही थी। कभी सुधा को आश्चर्यचकित होता हुआ देखता तो कभी कौतुहल-भरी दृष्टि उस पर डालता। कभी प्यार से देखकर उसकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा तो कभी असंमजस में फँसा हुआ-सा दिखाई देने लग जाता। इस पर भी उसकी भावनाओं का, और उसके विचारों का सुधा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। वह तो कभी सब्जी गर्म करने, कभी दही-भल्ले के डोंगे को ठीक प्रकार से रखने में व्यस्त थी। वह इतनी तन्यमता से काम करती जा रही थी कि प्रकाश चकित होते हुए भी उसे कुछ कहने का साहस नहीं कर पा रहा था। उसका मन सोच के भँवर में फँसा उस परिस्थिति का कारण खोज रहा था।

प्रकाश खाना खाने के पश्चात सोफे पर बैठ गया। सुधा उसके सामने मेज पर कॉफी का प्याला रखकर सामने सोफे पर बैठ गई। प्रकाश ध्यानमग्न होकर कॉफी का आनन्द लूटने लगा। मन में सोचता अवश्य जाता था कि ऐसी कौन-सी घटना घट चुकी थी जिसने सुधा को और प्यारी बना दिया था। प्रकाश को उससे कभी कोई शिकायत नहीं रही थी। सुधा की ऐसी कोई इच्छा नहीं थी जो उसने पूरी न की थी। वह तो पसन्द का ध्यान रखता था। तो फिर उस दिन इतना अधिक प्यार किसलिए दिखाया जा रहा था। उसने सोचा कि हो सकता था कि कोई बात न हो। सुधा को तो खाना बनाने का चाव था और प्रकाश को खाने का। सुधा उसकी पसंद का ध्यान रखती थी। उसके हाथ का बना हुई खाना खाकर प्रकाश की कभी इच्छा नहीं हुई कि वह किसी रेस्तरां में जाकर खाए। यह विचार आते ही उसने मन पर पड़े हुए असमंजस के बोझ को झटक दिया और कॉफी पीने में मस्त हो गया।

सुधा मन ही मन सोच रही थी कि प्रकाश उससे प्रश्न करेगा, शानदार दावत का कारण पूछेगा। वह अपनी बात कहने के लिए उतावली हो रही थी और प्रकाश की चुप्पी उसके उतावले पन को और अधिक बढ़ा रही थी। उसके शरीर की अस्थिरता उसके मन की व्याकुलता को दरशा रही थी। प्रकाश था कि कॉफी पीते हुए अपने विचारों में खो गया था। उसे सुधा की उपस्थिति का अहसास तो था परन्तु उसकी मनोदशा की ओर उसका ध्यान नहीं जा रहा था। सुधा सोच रही थी प्रकाश कुछ पूछे तभी वह अपनी बात कहने का साहस जुटा पाएगी और अपनी इच्छा मनवा भी लेगी। वह भली प्रकार जानती थी कि प्रकाश को दफ्तरों के चक्कर लगाना अच्छा नहीं लगता था। वह तो कॉलेज के काम और पढ़ने-लिखने के काम के सिवाय और किसी काम में रुचि नहीं लेता था। घर, काम और बाजार की खरीदारी का काम यहाँ तक कि गृहस्थी की गाड़ी सुधा अकेली ही संभालती आ रही थी। उसके रुमाल और जुराब तक तो वह खरीदा करती थी। इसी कारण वह जानती थी कि प्रकाश से दिनेश का काम करवाने के लिए दफ्तर जाना प्रकाश के लिए सुगम नहीं होगा। ऐसा सुधा को विश्वास था। इसीलिए वह चाहती थी कि प्रकाश उससे बात आरम्भ करे।

 परन्तु प्रकाश था कि अपने में मस्त होकर कॉफी पीता जा रहा था। सुधा विचलित-सी सोफे पर बैठी हिलती रही। कभी वह घने काले बालों की लट को बाएँ हाथ से आँख से हटा देती तो कभी मेज पर ठीक प्रकार से रखी हुई पत्रिकाओं को सजाने लगती। कभी वह बाईं टाँग को दाईं टाँग पर टिका देती तो कभी पूरी हिल जाती। प्रकाश कॉफी पीते हुए कभी-कभी उचटता दृष्टि उस पर डाल देता था। कॉफी समाप्त हो गई। प्रकाश ने सुधा को देखा। सुधा ने जानबूझ कर अपना ध्यान दूसरी ओर कर लिया और मुख पर व्याकुलता के भाव उभार लिए। वह जान चुकी थी कि प्रकाश उसको निहार रहा था। प्रकाश ने उससे कहा तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न ? लगता है कि तुमने आज काम अधिक कर लिया है। अनेक बार कहा है कि मेरा इतना अधिक ध्यान मत रखा करो। तुमने मेरी आदतें खराब कर दी हैं। विवाह से पहले ही मैं आरामपरस्त था और ऊपर से तुम्हारे प्यार और बहुत ध्यान रखने ने बिल्कुल ही नकारा करके रख दिया है। यदि यही सिलसिला जारी रहा तो मुझे लगता है कि एक दिन मैं नौकरी के योग्य भी नहीं रहूँगा।’’ वह हँस दिया और प्यास से सुधा की ओर देखने लगा। वह सुधा कि प्रशंसा करता था। सुधा जानती थी कि प्रकाश की प्रशंसा में बनावट नहीं थी। वह दिल से उसे चाहता था।
उसने कहा, ‘‘अरे थकावट नहीं आपका काम करने में आज तक तो थकी नहीं।’’

‘‘तो आज कुछ व्याकुल-सी क्यों लग रही हो ?’’ प्रकाश ने कहा। सुधा के हाव-भाव को देखकर और मुख पर उभर आए असाधारण भाव देखकर वह समझ गया था कि कहीं कुछ था जो बाहर आने के लिए मचल रहा था।

सुधा चुप रही। वह शीघ्रता नहीं दिखाना चाहती थी। वह समझती थी कि वह किसी की आदत के विपरीत काम करवाने के लिए उसके मन को तैयार करने के लिए वातावरण और परिस्थिति को बदलना पड़ेगा। ऐसा करने के लिए सुधा के पास प्यार था। उस समय अपने व्यक्तित्व से प्रकाश को प्रभावित करने की आवश्यकता थी। वह जानती थी कि पत्नी की चुप्पी मनुष्य के कौतूहल को उजागर करती है। यही कौतूहल उसमें व्याकुलता को जन्म देता हैं जिससे मन की दुर्बलता उस पर अधिकार आरम्भ कर देती है।
‘‘क्या बात है ?’’ प्रकाश ने अधीरता से पूछा। अब वह सुधा को अपलक देखने लग गया था। उसकी दृष्टि सुधा के मुख पर अटक कर उसकी मनोदशा को समझने का प्रयत्न करने लगी।

सुधा यह सब जान गई थी। वह अनजान बनी रही। वह मेज पर पड़ी हुई पत्रिकाओं को ठीक करने लगी। इसी बीच कभी-कभी वह अपने बालों को झटक देती जिस कारण उसके बाल उसकी बाई आँख को ढक देते। परन्तु दूसरे ही क्षण वह झटक कर आँख से हटा देती। प्रकाश पर इन अदाओं का सही प्रभाव पड़ रहा था। वह समझ नहीं पा रहा था कि ठीक ढंग से रखे हुए मैगजीन को और अधिक ठीक ढंग से कैसे रखा जा सकता था और बालों को पहले आँख पर लाकर उसी समय उनको झटक कर पीछे करने की क्या आवश्यकता थी। वह समझने लगा था। कि कोई बात अवश्य थी जिसने सुधा को बेचैन किया हुआ था।
प्रकाश ने मुख पर हल्की मुस्कान के साथ चकित होते हुए पूछा, ‘‘क्या बात है, तुम इतनी उखड़ी हुई और विचलित क्यों हो ?’’
सुधा जानती थी कि प्रहार करने से पहले लोहे को खूब गर्म कर लेना चाहिए। अपने आलसी, आरामपरस्त पति से वह काम करवाना चाहती थी जो कि उसकी प्रवृत्ति के विपरीत था। वह उठी, प्याले उठाए और रसोई की ओर चली गई।

प्रकाश उसको जाते हुए देखता रहा। सुधा समझ रही थी प्रकाश की आँख उसका पीछा कर रही होंगी। वह अपनी विजय पर मन ही मन मुस्करा दी। उसकी आँखों में चमक उभर आई थी। उसने प्याले रख दिये  और वापस आने लगी। लौटते समय आँखों में उभर आई विजय की चमक और मुख पर छा गए प्रसन्नता के बादलों को हटा दिया और गम्भीरता का मुखौटा पहन लिया। प्रकाश उसके मुख को अपलक निहारता रहा। सुधा उसके सामने वाले सोफे पर बैठ गई। प्रकाश सुधा के बोलने की प्रतीक्षा में समाचार पत्र पढ़ने लगा। वह समझ रही थी कि प्रकाश उसको घूरता जा रहा था। प्रकाश के मन में उठ रहे असमंजस और व्याकुलता के बादलों की छाया उसके मुख पर उभरने लगी थी। वह सुधा को देख लेता और मन ही मन सोचता जाता था। उसने और सहन करना और सुधा के नवीन व्यवहार का अर्थ समझ पाना असम्भवता की सीमा को पार करके सहनशीलता की सीमा को भी लाँघ गया तब उसने प्यार से कहा, ‘‘क्या बात है सुधा ? आज तुम बदली-बदली सी लग रही हो। कोई बात है तो मुझे बताओ। अरे, अपनी इस व्याकुलता का कारण मुझे क्यों नहीं बता रही हो ?’’
 
सुधा ने उसकी ओर देखा। उसने अपनी चुप्पी नहीं तोड़ी। उस पर प्यार भरी दृष्टि डालकर आँखें सामने की दीवार पर टँगी पेंटिंग पर गाड़ दीं।

प्रकाश ने कहा, ‘‘तो मेरा अनुमान ठीक ही है। मंच में ही कुछ ऐसा घटित हुआ है जिसने तुम्हारे मन का चैन हर लिया है। अरे मुझे बताओ। मैं किसलिए हूँ। तुम्हारा पति, तुम्हारा चाहनेवाला। और तुमने ऐसा कैसे सोच लिया कि मुझे बताने में तुम्हारा कोई लाभ नहीं होगा ? तुमको ऐसा कटाक्ष करने का अवसर दिया है मैंने कभी ?’’

सुधा ने उसको देखा, घूरा और ठण्डी श्वांस भर कर कहा, ‘‘आपने आज तक कोई काम किया है जो आज काम कर सकने का विश्वास दिला रहे हो ?’’
प्रकाश खिसियाना होकर इधर-उधर देखने लगा। उसकी चोरी जो पकड़ी गई थी। सुधा ने अपना हाथ उसकी कमजोर नस पर रखकर दबा दिया था। अपने को सँभालने का प्रयास करते हुए प्रकाश ने कहा, ‘‘अब यदि कोई बात आदत बन जाए तो उसे कमजोरी नहीं बल्कि मनुष्य के व्यक्तित्व का अंग मान लेना चाहिए। बचपन से लेकर मेरे जीवन में ऐसा कोई अवसर नहीं आया जिस कारण मुझे काम करने की आवश्यकता पड़ती। माता-पिता का सबसे छोटा बच्चा था मैं। सारा उत्तरदायित्व पिता ने पाँच बड़े भाईयों पर डाल दिया था। कोई ऐसा काम नहीं था जिस को मेरे करने योग्य समझ जाता। बस बड़ों की सेवा करना, उनका मानना ही मेरा कर्तव्य था जिसको मैंने बड़ी तन्मयता और निष्ठा के साथ निभाया था।

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