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यश की धरोहर

भगवान दास माहौर, सदाशिव राव मलकापुरकर,शिव वर्मा

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5112
आईएसबीएन :978-81-7043-700

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पाँच अमर शहीदों की बलिदान कथाएँ

Yas ki dharohar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रकाशकीय

‘यश की धरोहर’ नामक इस पुस्तक में उन पाँच अमर शहीदों की बलिदान-कथाएँ हैं, जिन्होंने देश की स्वाधीनता के लिए अपने प्राणों को निर्भय और निर्मम होकर होम दिया था और जिनकी कीर्ति स्वाधीनता-संग्राम के इतिहास में सदा अविस्मरणीय बनी रह कर देश के भावी सपूतों को प्रेरणा देती रहेगी। ये हैं-सरदार भगतसिंह, चन्द्रशेखर ‘आज़ाद’, राजगुरु, नारायणदास खरे और सुखदेव। इस पुस्तक की मुख्य विशेषता इसकी प्रामाणिकता है क्योंकि इस पुस्तक में प्रकाशित सभी संस्मरण उन देश भक्तों द्वारा लिखे हुए हैं। जिन्होंने उनके सहयोगियों के रूप में कार्य किया था।
पाठकों और पत्र-पत्रिकाओं ने जिस उत्साह और सहृदयता से इस पुस्तक का स्वागत किया है उससे पता चलता है कि सर्वसाधारण अपने देश शहीदों के संबंध में जानने-पढ़ने को उत्सुक हैं।  

 

सम्पादकीय भूमिका

 

 

जर्मन भाषा के महान कवि गेटे ने एक जगह लिखा है :
‘‘I have guesses enough of my own, if a man write a book, let him set down only what he knows. ’’
अर्थात् ‘‘कल्पना की उड़ानें तो मैं भी बहुत भर सकता हूँ अगर किसी आदमी को कई किताब लिखनी हो तो उसे वे ही बातें लिखनी चाहिए जिन्हें वह जानता है।’’
बन्धुवर, भगवानदास माहौर, सदाशिव राव मलकापुरकर, शिव वर्मा की पुस्तक ‘यश की धरोहर’ इस तराजू पर बिलकुल खरी उतरती है। स्वाधीनता संग्राम में इन भाइयों को जो संघर्ष करने पड़े, वे निस्संदेह हमारे इतिहास में एक उल्लेख योग्य स्थान पावेंगे और इससे भी बढ़कर गौरव की बात यह है कि उन्होंने अपने त्याग की कोई हुण्डी नहीं भुनाई। उसकी तपस्या अब भी ज्यों की त्यों कायम है।

हमें वे दिन अब भी याद हैं, जब इस पुस्तक के लेख विभिन्न पत्रों में छपे थे और पाठकों ने उन्हें पसन्द किया था। उसके बाद स्वामी ‘केशवानन्द अभिनन्दन ग्रन्थ’ में उन्हें महत्त्वपूर्ण स्थान मिला। उनके साथ ही उनकी एक हजार प्रतियाँ अलग भी छापी गईं, जिन्हें अधिकारी व्यक्तियों में वितरित कर दिया गया। तत्पश्चात् इन लेखों को शहीद-ग्रन्थमाला में पुस्तककार में प्रकाशित किया गया, और अब उस पुस्तक का यह नया संस्करण छप रहा है। इस ग्रन्थ की समालोचना करते हुए श्री चन्द्रगुप्तजी विद्यालंकार ने ‘आजकल’ में लिखा था, ‘‘साधारण आकार का यह संस्मरण ग्रन्थ इतनी सजीव और सशक्त शैली में लिखा गया है कि इसे संस्मरण संबंधी अत्यन्त श्रेष्ठ भारतीय साहित्य में गिना जाना चाहिए। इसी एक पुस्तक द्वारा श्री भगवानदास माहौर संस्मरण लेखकों की अत्यन्त श्रेष्ठ श्रेणी में पहुँच गए हैं। यह ग्रन्थ इतना मनोरंजक और प्राणवान है कि इसे पढ़ना प्रारम्भ कर आप बीच में छोड़ नहीं सकेंगे।

एक अत्यन्त सफल और श्रेष्ठ उपन्यास की आकर्षण शक्ति-संस्मरण-संबंधी इस रचना में है। अंग्रेजी में एक कहावत है कि ‘सत्य कहानी से भी अधिक विचित्र होता है।’ यह संस्मरण-संबंधी पुस्तक उक्त कहावत का एक उदाहरण है और यह इस रचना की बहुत बड़ी सफलता है।’’
हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने अपने मासिक ‘समालोचक’ (जनवरी, 1960) में इन संस्मरणों के संबंध में लिखा था, ‘‘....ये संस्मरण राजनीतिक चर्चा या पत्रकारिता के साधारण स्तर से बहुत ऊँचे हैं,....इनमें एक कलात्मक सौन्दर्य है जो उन्हें ललित साहित्य की श्रेणी में रखता है।....माहौर जी के लेखों का गुण यह है कि वे अपने को पृष्ठभूमि में रखते हैं और सारी शक्ति संस्मरणीय व्यक्ति का चित्र आँकने में ही खर्च करते हैं।.....वे अपने भूतपूर्व साथियों का चित्रण अतिमानव के रूप में नहीं करते। उन्होंने इस ढंग से संस्मरण लिखे हैं कि श्रद्धा, उत्साह के साथ पाठक के मन में यह भाव भी उत्पन्न होता है कि ये वीर शहीद भारत की साधारण जनता से उत्पन्न हुए थे, उनके गुण देश की जनता के ही उदात्त रूप थे। भगतसिंह, राजगुरु और ‘आज़ाद’ के रेखाचित्र पढ़कर उनका बहुत ही सजीव रूप हमारे सामने आता है।......श्री सदाशिवराव मलकापुरकर ने चन्द्रशेखर ‘आज़ाद’ और उनकी माता के अन्तिम मिलन की जो कहानी लिखी है वह अपने करुण रस में अपूर्व है।’’

सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी लेखक और विचारक श्री मन्मथनाथ  गुप्त इन संस्मरणों के संबंध में ‘योजना’ (1 मार्च, 1959) में लिखा था, ‘‘संस्मरण से संस्मरण-लेखक का वही हिस्सा होना चाहिए जो एक माला में डोर का होता है। ऊपर से फूल ही फूल दिखाई दें और फूलों के सिलसिले को अव्याहत रखने के लिए डोर अपना काम करे, पर वह भी प्रत्यक्ष रूप से। बहुत कम लोग ऐसे हैं जिनके संबंध में यह कहा जाता है कि वे सही ढंग से संस्मरण लिखते हैं।...मैं चाहता हूँ कि संस्मरण लिखने के इच्छुक लोग (भले ही उनका क्रान्तिकारी आन्दोलन से कोई प्रेम हो) इन संसमरणों को पढ़ें और उनसे संस्मरण लिखने का सही तरीका सीखें।’’

इस पुस्तक के दो लेखकों, माहौरजी और सदाशिवजी, से तो मेरा 18-19 वर्ष से घनिष्ठ संबंध रहा है। इस बीच मैं उनसे बीसियों बार मिला हूँ और उन्हें बहुत निकट से देखा भी है। उनके प्रति मेरा सम्मान निरन्तर बढ़ता ही गया है। ये दोनों भाई शहादत के बहुत निकट पहुँच गए थे, बल्कि यों कहना चाहिए कि शहीद होने से बाल-बाल बचे। यदि माहौरजी का पिस्तौल जाम न हो गया होता तो जयगोपाल और फणीन्द्र घोष दोनों मुखबिर नरक को चले गए होते और तब माहौरजी भी शहीद बन जाते। जहाँ तक त्याग, बलिदान और प्रबन्ध-शक्ति का प्रश्न है, सदाशिवजी माहौरजी के बड़े भाई हैं। जिन लोगों ने कोई त्याग और तप नहीं किया, जिनके जीवन में किसी प्रकार की साधना कभी नहीं रही, ऐसे सहस्त्रों ही व्यक्ति स्वाधीनता के बाद उच्च पदों पर विराजमान हैं और मौज़ उड़ाते जा रहे हैं, जबकि इन बन्धुओं को अपनी आजीविका चलाने के लिए घोर परिश्रम करना पड़ा है।

‘यश की धरोहर’ के लेख एक से एक बढ़िया हैं। ‘शहीद राजगुरु’ नामक संस्मरण के अन्तिम वाक्य पढ़ लीजिए: ‘‘हम कह चुके हैं कि राजगुरु शहादत के बेताब आशिक थे और इश्क में आपके रकी़ब थे भगतसिंह। उस अधीरता, व्यग्रता और बेताबी की तो हम कल्पना ही कर सकते हैं, जिसमें फाँसी के दिन वे इसके लिए चिन्तित होंगे कि मेरे से पहले भगतसिंह को फाँसी लग जाएँ। हम भली-भाति कल्पना कर सकते हैं कि पहले फाँसी का फन्दा  उनके गले में डाला जाय, भगतसिंह के नहीं, इसके लिए वे जेलर या जल्लाद से उलझ पड़े होंगे हम कल्पना कर सकते हैं कि किस गर्व से सीना फुला कर, किस आत्मतुष्टि की लंबी साँस लेकर वे फाँसी के तख्त पर खड़े होते होंगे और किस प्रकार भगतसिंह ने उसके गहरे वात्सल्य से पुलकित होकर अपने अन्तिम क्षणों में अपने इस छोटे भाई को देखा होगा। राजगुरु के शौक़े-शहादत के सौन्दर्य का निकट से दर्शन करने के लिए भगतसिंह से अधिक भावुक हृदय अन्य किसका था, और उसे देखने का सौभाग्य भी उनसे अधिक और किसे मिला था ?’’

ऐसा लगता हैं कि फाँसी का तख्ता गिर जाने के बाद दिल की धड़कन बन्द होने से पूर्व भी, यदि राजगुरु फाँसी की काली टोपी के बाहर आँख खोलकर एक बार देख सकते, तो उस दीवाने ने यही देखने की कोशिश की होती कि कहीं भगतसिंह मुझसे पहले ही तो नहीं ...। और उस समय भगतसिंह के होंठों पर राजगुरु का यह पागलपन देखकर अपने जीवन को अन्तिम और सबसे मधुर मुस्कान मिल जाती और यदि वह कह सकते तो कहते, ‘‘शौक़े-शहादत तो हम सबको ही रहा है भाई ! पर तू तो सरापा शौक़े-शहादत है। हार गए तुझसे।’’
राजगुरु की याद कहती है, ‘अधिकार पदों के लिए एक दूसरे पर कीचड़ उछालना राजनीति में ही नहीं होता, कुर्बानी की एक ऐसी पवित्र स्पर्धा भी होती है। हम मरे नहीं हैं, हमारा स्वर्ग तुम्हारे हृदय में ही है। मनुष्य की मनुष्यता में विश्वास न खोना।’

यद्यपि भगतसिंह और ‘आज़ाद’ इत्यादि के संस्मरण तो बहुतों ने लिखे हैं पर इस ग्रन्थ के लेखों की तुलना वे कर ही नहीं सकते।
अमर शहीद नारायणदास खरे वाला रेखाचित्र भी अनुपम बन पड़ा है। खासकर वे अंश, जिनमें बुन्देलखण्डी पुट है, और भी आकर्षक हो गए हैं।
15 वर्ष की जेल से छूटने के बाद भी इन दिनों भाइयों ने विश्राम नहीं किया और जनता की सेवा में जुट गए। आगे चलकर ये दोनों बन्धु साम्यवादी विचारधारा से काफी प्रभावित हुए और पार्टी के लिए उन्होंने प्रशंसनीय कार्य भी किए।
यद्यपि इनका विश्वास उक्त विचारधारा में है तथापि अब उनका किसी पार्टी से कोई संबंध नहीं।
इसे हम देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य मानते हैं कि जिन महान साधकों का सम्पूर्ण समय वर्तमान समाज-व्यवस्था को बदलने के महत्त्वपूर्ण कार्य में लगना चाहिए था, वे विद्यार्थियों को भिन्न–भिन्न विषयों के पढ़ाने में अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करने के लिए मजबूर हो गए हैं।

जब 14-15 वर्ष लंबा जेल-जीवन बिताने के बाद बन्धुवर माहरौजी ने परीक्षाएँ दीं तो हमने उन्हें बार-बार यही लिखा, ‘‘आप भी क्या रेगिस्तान में खेती कर रहे हैं ? आप तो स्वाधीनता-संग्राम के विश्वविद्यालय के स्नातक हैं, फिर इन डिग्रियों का मोह क्यों ?’’ पर अब हम मानते हैं कि वह हमारी भूल थी। यदि माहौरजी बी.ए., एम.ए. और फिर पी.एच.डी. की उपाधियाँ न ले लेते तो उन्हें घोर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता। इन परीक्षाओं ने कुछ दिनों तक उनकी रोटी तो चला ही दी। पर डेढ़ वर्ष बाद वे रिटायर कर दिए जाएँगे और फिर पत्रकारिता की आकाश-वृत्ति का ही उन्हें सहारा लेना पड़ेगा।
खेद की बात है कि उनके दो महत्त्वपूर्ण शोध-ग्रन्थ ‘1857 के स्वाधीनता संग्राम का हिन्दी साहित्य पर प्रभाव’ और ‘रानी लक्ष्मीबाई काव्य-परंपरा में मदनेशकृत लक्ष्मीबाई रासो’ छपने के लिए पड़े हैं। स्वयं उनके पास इतने साधन नहीं, और प्रकाशकों के पास कल्पनाशक्ति का अभाव है।

श्री शिव वर्मा तो आज भी उत्साह और त्यागशीलता से राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय हैं और साम्यवादी दल के एक प्रमुख सदस्य हैं। उनके जीवन की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे नियमित रूप से स्वाध्याय करते हैं और ग्रन्थकार, पत्रकार तथा प्रचारक की हैसियत से उनका दर्जा काफी ऊँचा है। महात्माजी कहा करते थे, ‘‘निरन्तर कार्यशीलता ही सबसे बड़ा प्रचार है।’’ बापू की इस परिभाषा के अनुसार भी शिव वर्माजी अच्छे प्रचारक हैं। उनके त्याग, बलिदान और साहस के दृष्टान्तों की आवाज इतनी बुलन्द है कि उन्हें कुछ बोलने की जरूरत ही नहीं। इसके सिवा लेखिनी द्वारा उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखी हैं और बराबर लिखते रहते हैं। उनके कई रेखाचित्र तो कमाल के हैं। उनके द्वारा संपादित ‘नया पथ’ एक उच्च कोटि का पत्र था, जिसके प्रति केवल साम्यवादियों की ही नहीं, बल्कि अन्य प्रगतिशाल लोगों की भी
श्रद्धा थी। श्री शिव वर्माजी शस्त्र और शास्त्र दोनों पर ही समान रूप से अधिकार रखते हैं।
    


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