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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :360
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :9789352291526

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


वे उस वक्त मेरे साथ आ खड़े हुए थे, जब मैं छिपती फिर रही थी-मैंने अपने को कई-कई तर्क दिए। लेकिन उस दिन मुझे वही तर्क बेहद संगत लगा था। कुछेक दिनों बाद ही जब मैं अकेली हो गई, बेहद अकेली! जव चारों तरफ कोई भी नहीं था-मैं एकदम से चौंक उठी। मुझसे गलती हो गयी। मैंने जिंदगी में ढेरों भूलें की हैं। ङ से ऐसा अशोभन बर्ताव, मेरी बड़ी भूलों में अन्यतम है। जिंदगी में कुछेक ऐसी गलतियाँ की हैं, जिन्हें सुधारने का मेरे पास कोई उपाय नहीं था। यह भूल उनमें से एक थी। कुछ दिनों बाद मुझे यह भी अहसास होने लगेगा कि मुसीबत का ख़याल करके ही कु ने गोपनीयता बनाए रखी थी। इसका कोई व्यक्तिगत कारण नहीं था। महज राजनैतिक कारणों से ही उन्होंने यह वात गुप्त रखी थी। उन्होंने अपनी बीवी को इस बारे में नहीं बताया, वह इसलिए नहीं कि वे किसी परायी औरत से इश्क करने निकले थे बल्कि यह बात इसलिए छिपायी थी कि वीवी कहीं असावधानी में किसी और के सामने यह राज खोल न दे! अगर उसके मुँह से यह बात निकल गयी, तो सर्वनाश हो जाएगा। मुझे अहसास होने लगा कि कु के साथ मैन नाइंसाफी की है। इस अन्याय के लिए मैं कभी किसी से माफ़ी माँगूं भी, तो मुझे माफ़ी नहीं मिलेगी। मेरा मन शक्की हो उठा था। ङ को मैं किसी शर्त पर भी वर्दाश्त नहीं कर पा रही थी। मेरे वर्ताव ने उन्हें अहसास दिला दिया होगा कि मैं इस दुनिया की जघन्यतम अहसान-फरामोश तो खैर हूँ ही, कुत्सित कृतघ्न इंसान भी हूँ। मैं खुद भी क्या कभी अपने को माफ़ कर पायी? नहीं! मैंने अपने को कभी माफ़ नहीं किया। हु के वारे में संशय, आज मुझे लगता है कि-पूरी-पूरी भूल थी, लेकिन अतीत में वापसी की कोई राह नहीं होती, जिंदगी को भी कभी पीछे नहीं लौटाया जा सकता। अगर यह संभव होता तो ङ के सामने अपने को उजाड़कर उनके प्रति अपनी श्रद्धा और कृतज्ञता अर्पित करती। देश से इतनी दूर तक मेरे साथ आने को मुझे अपने सिर-माथे उठा रखना चाहिए था।

ङ के जाने के तीन-चार हफ्ते बाद मैंने उन्हें फोन किया। उस वक्त मैंने एक बार भी नहीं सोचा कि फोन पर रुपए खर्च हो रहे हैं। ङ का जितनी देर मन हुआ, वे मुझसे बातें करते रहे। कुछ देर बाद ङ ने ही फोन रख दिया। उन्होंने खुद ही यह कहकर फोन रख दिया कि इन दिनों वे काफी व्यस्त हैं। ङ को मने बताया कि स्वीडन आने के बाद मेरा मानसिक तनाव इतना बढ़ गया था कि ठंडे दिमाग कछ सोचा ही नहीं जा रहा था। ममकिन है कि ङ मुझे माफ़ न कर पाए हों। कई-कई मामलों में माफ़ी पाने की उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए। जिंदगी में कुल दो इंसानों के सामने मैं माफ़ी पाने के अयोग्य साबित हुई हूँ। दो व्यक्तियों के प्रति मैंने गुनाह किया है। उनमें से ङ एक हैं।

ङ जब सच ही चले गए, तब मैं अकेली हो आयी। मैं किसी संगी के साथ, सैर-सपाटे के लिए स्वीडन नहीं आयी हूँ, यह सोचकर मुझे भला-भला लगा, लेकिन इससे और किसी का क्या आता-जाता है? यह देश, बांग्लादेश नहीं है। यहाँ तुम किससे इश्क कर रही हो, किसके साथ सोती हो, यह सब कोई मुद्दा ही नहीं है। तुम अकली हो या दुकेली, यह भी कोई मामला नहीं है। तुम, बस, तुम हो। तुम क्या सोचती हो, तुम क्या करती हो, यही सबसे बड़ी बात है।

सिर्फ प्रकाशक और पत्रकार ही आरज-मिन्नत नहीं कर रहे थे और भी लोग मुझसे मिलने के लिए गैबी के दरवाजे पर अपना सिर फोड़ रहे थे। उन लोगों में जिल भी था। क्रिश्चन बेस भी था। कुछ दिनों तक जिल को रोके रखने के बाद आखिरकर गैवी ने उसे स्टॉकहोम आने के लिए हरी झंडी दिखा ही दी। अनुमति पाकर जिल पहली फ्लाइट पकड़कर मुझसे मिलने आ पहुँचा। गैवी के घर में बैठे-बैठे ही जिल ने वयान दे डाला कि 'रिपोर्ट्स सां फ्रण्टियर्स' ने मेरे पक्ष में जनमत गढ़ने के लिए जाने कितने-कितने कांड कर डाले।

जिल का मेरे घर में जाना नहीं चलेगा। मेरा बेहद मन था कि मैं उसे वहाँ ले जाऊँ, जहाँ मेरा डेरा था। लेकिन गैवी ने वह अनुमति जिल को नहीं दी। मेरे जबड़े सख्त होते रहे। जिल ने सिर झुकाकर गैवी की निपंधाज्ञा मान ली थी। जिल को लगा कि गैवी की मदद के बिना मेरे सामने ढेरों समस्याएँ उठ खड़ी होंगी। चूँकि गैबी ही चारों तरफ से मुझे सँभाल रहा है। इसलिए वह जैसा कहता है, उसी तरह चलना बेहतर होगा और इसीलिए उसने गेवी की निषेधाज्ञा भी क़बूल कर ली थी। लेकिन मैं इस बात से सहमत नहीं थी। मेरा ख़याल था, गैवी जितना मेरी मदद करना चाहता है, उससे कहीं ज्यादा वह अपनी मदद करने के चक्कर में है। इंटरनेशनल पार्लियामेंट ऑफ राइटर्स ने इस बार के कांग्रेस में मुझे भी आमंत्रित किया था। गैवी ने उन्हें सूचित कर दिया कि अकेले जाना, मेरे लिए संभव नहीं होगा। तो क्या किसी और के साथ जाना होगा? हाँ, सो तो है। सीधी-सीधी बात यह थी कि मेरे जाने के लिए, गैवी को भी साथ जाना होगा। बहरहाल, यही सब कहकर गैबी ने अपने लिए भी टिकट बुक करा ली। मेरे साथ वह भी मेरी तरह बिज़नेस क्लास में लिसबन जा रहा था। लिसबन में यूरोपीय लेखकों और दार्शनिकों का सम्मेलन हो रहा था। जिल भी उसमें जा रहा था। इंटरनेशनल पार्लियामेंट ऑफ राइस ने जिल की संस्था 'रिपोर्ट्स सां फ्रण्टियर्स' के सहयोग में यूरोप के बीस देशों की बीस पत्रिकाओं में मेरे पक्ष में हर रोज पश्चिम के वीस मशहूर लेखकों के ख़त प्रकाशित कराए। पश्चिम में मेरे पक्ष में आंदोलन गढ़ने के लिए इन लोगों की काफी बड़ी भूमिका रही है।

गैबी यहूदी लड़का था। हंगरी में उसका जन्म हुआ था, बचपन में ही स्वीडन चला आया। तभी से वह यहाँ बस गया। उसके बदन का रंग यूरोपीय लोगों की तरह बिल्कल गोरा नहीं था। उसका रंग जरा पीलापन लिए हए था। उसने स्वीडिश लड़की से ही ब्याह कर लिया। यहूदी लोग दूसरे महायुद्ध के समय वर्ण-भेद के शिकार हो गए। सबसे ज़्यादा अचरज की बात यह है कि ये यहूदी लोग कभी-कभी खुद भी वर्णवादी हो जाते हैं। यह गैबी भी क्या वर्णवादी है या गरीब देशों के बारे में उसे जानकारी कम है? गरीव देशों में भी कोई बिना खाए नहीं रहता। यूरोप की तरह वहाँ भी मध्यवित्त और उच्चवित्त श्रेणी है। खैर, यह जानकारी तो किसी भी पढ़े-लिखे इंसान को होनी चाहिए। उस पर से गैबी तो पत्रकार है, उसकी जानकारी का दायरा तो और विस्तृत होना चाहिए था या उसे यह लगता है कि मैं सच बोलने वाली लड़की नहीं हूँ।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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