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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :360
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :9789352291526

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


उन तमाम देशों में, जो किसी तस्वीर की तरह खूबसूरत हैं, अतुलनीय हैं, अपने राष्ट्र की तारीफ सुनकर मैंने जब भी नारीवादियों से बात की है, मुझे पुरुषतांत्रिकता का वीभत्स रूप नज़र आया है। ऐसा क्यों है? स्विट्ज़रलैंड की औरतों को वोटाधिकार इतनी देर से क्यों मिला? उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में ही यूरोप के अनगिनत देशों में औरतों को वोटाधिकार मिल गया था। सबसे पहले न्यूज़ीलैंड में मिला, सन् 1893 में! सन् 1917 में सोवियत यूनियन को! सन! 1918 में ऑस्ट्रिया को। सन् 1919 में जर्मनी, 1920 में युक्तराष्ट्र, 1928 में युक्तराज्य, 1944 में फ्रांस, 1945 में इटली की औरतों को वोटाधिकार मिल चुका था। लेकिन स्विट्ज़रलैण्ड जैसे देश की औरतों को वोटाधिकार प्राप्त करने में सन् 1971 तक का लंबा वक्त लगा? नारी आंदोलन की नेत्रियाँ क्या करती रहीं? वे लोग क्या कर रही थीं, मैंने वारी-बारी से सुना। अट्ठारहवीं सदी से ही औरतें माँग करती रहीं, लेकिन किसी ने उन लोगों की माँग की तरफ पलटकर भी नहीं देखा। उन्नीसवीं सदी के शुरू में इस बारे में चर्चा भी छिड़ी, लेकिन औरतों को वोट देने का अधिकार होना चाहिए या नहीं, इस बारे में जिले-ज़िले में वोट लिया गया। औरतों को वोट नहीं मिलना चाहिए, इस पक्ष में अधिक वोट पड़े। पुरातनपंथी मर्द तो खैर, औरतों के वोटाधिकार के खिलाफ़ थे ही, यहाँ तक कि औरतें भी इसके खिलाफ़ थीं। औरतें ही बार-बार चीखती रहीं-औरतों को वोटाधिकार नहीं चाहिए! नहीं चाहिए! सन् 1971 में जाकर स्विस औरतों को वोटाधिकार प्राप्त हुआ, यह कैसी हतप्रभ करने वाली बात है? और यह सुनकर कैसा लगेगा कि स्विट्ज़रलैंड के पारिवारिक कानून में, औरत-मर्द का बराबरी का हक़ होगा। यह कानून सन् 1985 में पास हुआ? नौकरी के मामले में, गर्भवती औरतों के लिए जो छुट्टी मंजूर की जाती है, वह बिना वेतन के!

“यह तुम क्या कहती हो?" मेरा आर्त सवाल सुनकर, वे भी चौंक उठीं।

स्विट्ज़रलैंड की वह लड़की मुझे बार-बार याद आती रही। उसे याद करते हुए एकांत में बैठकर कविता भी लिख डाली। वह कविता, कितनी कविता बनी, इसकी मैंने परवाह नहीं की, लेकिन हाँ, मैंने बेहद राहत महसूस की! बिल्कुल वैसी ही राहत, जैसे मैंने मंत्रियों से यह आग्रह करके महसूस किया कि मदद करनी है, तो उन दरिद्र लड़कियों की मदद करें, जिन्हें शिक्षा पाने की सहूलियत नहीं, जिन्हें दवा-दारू तक नसीब नहीं, जो अन्न-वस्त्र की मोहताज हैं, जिन्हें मदद की बेहद ज़रूरत है। स्विट्जरलैंड की बाकी तस्वीरें मेरी निगाहों में हल्की हो गयीं। सिर्फ उस सुनहरे बालों वाली, गोरी लड़की का आँसुओं से भरा चेहरा, मेरी नज़रों में तैर उठा। सिर्फ उस चेहरे के अलावा बाकी सब कुछ बेहद बनावटी हो आया।

स्ट्रसबर्ग की सड़क पर आधी रात,
हम चार सहेलियाँ,
टहलते-टहलते पुराने शहर की गली में,
मोड़ पर बैठे-बैठे, एक-दूसरे को चूमते हुए प्रेमी युगल पर,
पड़ते ही निगाह,
अचानक जाग उठी प्यास, मेरे भी मन में!
सुनती रही सुगबुगाहट,
पानी की, सर्दी की पंछी-पखेरू की, सूखे हुए पत्तों की!

पीती रही शैम्पेन पर शैम्पेन, समूची रात,
रेस्तरां से रेस्तरां तक घूमते-बहड़ाते हुए,
फ्रेडरिक, जिल, क्रिश्चन और मैं!
मैं भूल गयी, हम सबकी थकान,
हम सबका दुःख-दर्द!
समूची रात, एक जीवन से दूसरे जीवन में लुढ़कते-पुढ़कते,
मैं भूल गयी, हम सबकी नाड़ी-नक्षत्र!
हमने एक-दूसरे से वादा किया,
हम नहीं लौटेंगी, अब अपने घर!
हमने वादा किया।
खोदकर एटलांटिक के जल की माटी,
किसी दिन हाथ बढ़ाकर उठा लाएँगी, समूचा आल्पस!
यूँ ही प्यार करते-करते,
छंट जाएगी हमारी उम्र की काई-सिवार!
छंट जाएगी काई-सिवार,
और हम चारों सहेलियाँ,
धूप और चाँदनी में भीग-भीगकर,
जिंदगी-भर खिलाएँगी चंद्रमल्लिका!
खिलाएँगी इसी स्ट्रसबुर्ग में!

हम भूल गयीं, हवाई अड्डे पर इंतज़ार में है, हवाई जहाज,
और कल भोर हा काई उड़ जाएगा उत्तर की ओर,
कोई दक्षिण की ओर!

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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