लोगों की राय

जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :360
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :9789352291526

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

419 पाठक हैं

औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


पीटर हान्स ने मुझे चाँदी का एक फलक उपहार दिया। साल्वाडोर दाली का आँका हुआ, जर्मनी के पहले प्रधानमंत्री, कोनार्ड एडिनायूव का चेहरा! जर्मनी के गणतंत्र का चाँदी का फलक उपहार में दिया गया। सूटेड-बूटेड जर्मन लोगों का हँसी-से विगलित चेहरा! कौन आकर थोड़ी-सी बातचीत करेगा। किसका यह मौका मिलेगा, इसके लिए सबके सव आकल-व्याकल! मौका मिला मगर बडी-वडी और दामी-नामी हस्तियों को! मैं कौन हूँ? एक छोटे-मोटे देश की छोटी-मोटी लेखिका! मेरे बदन पर ढाका के रंगबाज़ार से खरीदी हुई, बेडौल साइज़ की जीन्स, दो साइज़ बड़ी, शोख हरे रंग की शर्ट, छोटू'दा का पुराना-धुराना, साद-काले चारखाने वाला कोट। लंच में काफी वक़्त खर्च हो गया। एन.आर.डी. के लोग दो वीडियो कैसेट थमा गए हैं। उन लोगों ने मुझ पर कभी दो डॉक्यूमेंटरी तैयार की थीं। एक जन ने तो प्रकाशन द्वारा जिल्दसाज़ी से पहले ही मेरी किताव पढ़ डाली। जिल्ददार किताब तो उसने मुझे दिखाई भी नहीं।

पिटर्सवर्ग हाउस से विदा लेकर म्युनिख! वहाँ शेरटन होटल में जर्मन लेखक मार्टिन वाल्सर, मेरा इंतज़ार कर रहे थे। उन्होंने जर्मनी में मेरे समर्थन में आंदोलन किया था। मुझे पहुँचने में देर होते देखकर वे मेरे नाम एक पत्र लिखकर स्टुटगार्ड वापस जाने वाले थे। इस बीच मैं पहुंच गई। मेरे पहुँचते ही बातचीत शुरू हो गई। टीवी पर मेरे बारे में उन्होंने लंबी बातचीत की थी। मार्टिन वाल्सर मुझे काफी अंतरंग जान पड़े। उन्होंने अपने घर का पता-ठिकाना भी थमाते हुए कहा कि मैं किसी भी दिन, किसी भी वक्त बेझिझक चली आऊँ।

रात को 'फोकस' कार्यालय में अभिनंदन-समारोह! विशाल बारह मंज़िली . इमारत! पत्रिका के सभी लोग मेरी राह देख रहे थे। उन सभी लोगों के सैकड़ों सवालों का जवाब देना पड़ा। वहीं हॉफमान एंड काम्प की तानिया शुलज़ हैमबर्ग से आ पहुँची। वह जर्मन भाषा में सद्यः प्रकाशित 'लज्जा' की प्रतियाँ लेकर आई थी। पता चला, यह किताब बाज़ार में जाने से पहले ही पहला संस्करण ख़त्म हो गया। कई प्रकाशनों के प्रकाशक, किताब की माँग करते हए आ पहँचे। कोई जर्मनी आने का आमंत्रण लेकर आया। किसी ने कान्फ्रेंस में आने का आग्रह किया। कोई महज रोने आ पहुँचा! जी-हाँ, सिर्फ रोने के लिए! वहाँ एक ओरत अपनी रुलाई नहीं रोक पाई। अपने कार्यस्थल में औरतों को किस हाल में देखा है, मैंने इसकी महज एक मिसाल दी थी कि प्रसूतिगृह में औरत अगर किसी बच्ची को जन्म देती है, तो चीख-चीखकर रो पड़ती है, क्योंकि समाज लड़की नहीं चाहता। बस, इतना सुनते ही वह औरत फफक-फफककर रो पड़ी।

उसने कहा, "तसलीमा, ऐसा समाज मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। असल में सभी समाज के मर्द एक जैसे होते हैं। चलो, हम लोग ऐसा कुछ करें, ताकि औरतों को प्रसूतिगृह में रोना न पड़े।"

इतना कहते-कहते वह औरत रो पड़ी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book