लोगों की राय

जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :360
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :9789352291526

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

419 पाठक हैं

औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


बांग्लादेश छोटा-सा और दरिद्र देश है। इसकी सभ्यता का इतिहास कुल हज़ार वर्षों का है। समूची दुनिया में बांग्ला भापा बोलने वालों की संख्या कुल दो सौ मिलियन है। बांग्ला भाषा के लिए मैं गर्व महसूस करती हूँ। दुनिया भर के वंगालियों ने अपनी भाषा के लिए अपनी जान तक दे डाली है। सन् 1971 में अपनी भापा और संस्कृति की रक्षा के लिए, इसी जाति ने खूनी लड़ाई लड़ी थी। तीस लाख लोगों ने अपनी जान दे दी, उसी आलोकित जाति के सामने प्रगाढ़ अँधेरा और विजातीय संस्कृति, अपना खौफनाक पंजा फैलाए आगे बढ़ी आ रही है।

हम सबको यही अफसोस है कि समाजतंत्र, गणतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रवाद कभी इस देश के चार मुख्य स्तंभ हुआ करते थे। उसी देश के संविधान से धर्मनिरपेक्षता, झुर-झुराकर ढह गई। प्रवल संभावनाओं वाले देश को धीरे-धीरे इस्लामी बनाने की साजिश चल रही है। ये सारी साजिशें लगातार देश की सरकार ही कर रही है और उनकी उत्तराधिकारी वर्तमान सरकार भी खतना किए हुए संविधान को ही ढोए जा रही है। अतीत के तजुर्यों से मुझे मालूम है कि बंगाली गरज उठना जानते हैं, लेकिन, एक-एक करके राष्ट्रीय ढाँचे से मुक्ति युद्ध की चेतना को जवरन मिटाया जा रहा है, इसके विरुद्ध ये बंगाली अभी तक फूत्कार नहीं उठे। इसके बजाय कट्टरवादियों की तादाद बढ़ रही है, गले का ज़ोर बढ़ रहा है, मांसपेशियों का तेज़ बढ़ रहा है। ये लोग राजपथ दखल कर लेते हैं, बड़े दर्प के साथ समूचे देश-भर में यहाँ-वहाँ दनदनाते फिरते हैं। ये लोग मीटिंग कर सकते हैं, जुलूस निकाल सकते हैं! तुमुल चीत्कार करते हुए हो-हल्ला मचा सकते हैं। ये कुछ भी कर सकते हैं। हालाँकि देश की आज़ादी पाने के तत्काल बाद, यह बिल्कुल असंभव था। कट्टरवादी युद्ध के मुजरिम या उन्हीं लोगों के वंशधर हैं। सन् 1971 के बाद उन लोगों ने खाई-खन्दक में अपना मुँह छिपा लिया था, लेकिन अब वे लोग खाई-खन्दक से निकल आए हैं। इस अँधेरे और अंधेपन के खिलाफ, जो भी आवाज़ बुलन्द होती है, ये लोग फन काढ़कर उन्हीं को डस लेते हैं। उन लोगों ने घोषणा की थी कि वे लोग ढाका शहर में दस लाख साँप छोड़ देंगे। मुझे साँप और कट्टरवादियों में कोई फर्क नज़र नहीं आता।

दीर्घ दो महीने! जब जिंदा बचे रहने की सारी उम्मीद जरा-जरा करके झरती जा रही थी, मेरी फाँसी की माँग करते हुए समूचे देश में हड़तालों का दौर जारी था, लाखों-लाखों लोग सड़कों पर उतर पड़े थे, लॉन्ग-मार्च कर रहे थे, महासभाएँ आयोजित कर रहे थे, मेरी हत्या के लिए स्पशल स्क्वाड गठित कर रहे थे, एकाध दिन के अंतराल में वार-बार मेरे सिर की कीमत लगा रहे थे, वार-वार कसमें खा रहे थे कि चाहे जैसे भी हो, वे लोग मेरी हत्या करेंगे और जिन लोगों को प्रगतिशील माना जाता था, व लोग मेरे पक्ष में कुछ कहने से डरने लगे थे तथा राजनतिक पार्टियाँ भी वोट पाने के लोभ में, मेरे खिलाफ नारे लगा रही थीं, उस भयंकर दुःसमय में आप लोग मेरे साथ खड़े हो गए। मैं तो वेहद मामूली-सी इंसान हूँ। मेरा जीवन खास मूल्यवान भी नहीं है। अगर मैं मर जाऊँ तो दुनिया में कुछ भी उलट-पलट नहीं होगा, लेकिन मेरे मन को एक ही दुश्चिन्ता सालती रही, आज भी यही फिक्र मुझे बेचैन किए रहती है कि जिस देश ने इतनी खूबसूरत संभावनाओं के साथ जन्म लिया था, आज उसकी ऐसी परिणति क्यों? ये कट्टरवादी क्या मेरी हत्या करने के वाद ही तृप्ति की डकार लेंगे? या वे देश के सभी मुक्तिचेता, खुली आँखों वाले विवेकी लोगों की एक-एक करके हत्या कर डालेंगे? इन लोगों को अगर अभी भी नहीं रोका गया तो हमारी आंखों के सामने ही अपने प्रिय देश का ध्वंसावशेष नजर आने लगेगा। ये लोग देश में 'ब्लासफेमी' कानून लाना चाहते हैं। देश में अगर यह कानून लागू हो गया तो यह निश्चित है कि औरतें घरों में कैद हो जाएँगी, कला-साहित्य बाँझ हो जाएँगे। बांग्लादेश को मध्ययुगीन अँधेरे में धकेल देने के लिए, कट्टरवादी जिस तेवर के साथ उतावले हो उठे हैं, देश को उन लोगों के हिंस्र पंजे से बचाने का दायित्व मेरा है, आपका है, दुनिया के सभी सद्-बुद्धि संपन्न लोगों का है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि कलाकार-साहित्यकार ही समाज के शरीर से सड़ा-गला कूड़ा-कर्कट हटाने की ज़रूरत महसूस करते हैं, वे लोग ही अंधेरा चीरकर गुच्छा-गुच्छा उजाला लाते हैं।

मैं यह भी विश्वास करती हूँ कि आप लोग बड़े-बड़े लेखक हैं। आप लोग किसी एक देश या काल के प्रतिनिधि नहीं हैं, आप लोग सर्वदेशीय और सर्वकालिक हैं। यह जो आप लोगों ने इंसाफ की तरफ अपने उदार हाथ बढ़ा दिए हैं, मैं उन हाथों पर अपना हाथ रखती हूँ। आप लोग मेरी श्रद्धा स्वीकार करें-

- तसलीमा!'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book