जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
बहरहाल बुलेटप्रूफ गाड़ी में राजमहल, दुर्ग, होलमेनकॅलेन स्की-जम्प की सैर की गई। सर्दी के मौसम में जहाँ से स्की की जाती है, हमारी गाड़ी तेज़ रफ्तार में गोल-गोल चक्कर लगाती हुई उस पर्वत शिखर की तरफ दौड़ पड़ी। सन् उन्नीस सौ बावन में शीत-आलंपिक में स्की-जम्प के लिए ऊँचे पर्वत से नीचे धरती तक जो ढलान बनाई गई थी, वह वाकई अद्भुत थी! विस्मय-विमुग्ध होकर देखने लायक! यह सोच-सोचकर वदन में सिहरन फैल जाती है कि वहाँ लोग अपने पैरों तले, काठ का इतना लंबा-सा तत्ला बाँधकर वर्फ के ऊपर से सात फुट नीचे छलाँग लगा देते हैं। उसी पहाड़ पर स्की जादूघर भी स्थित है। अभी उस जगह का विस्मय कटा भी नहीं था कि फिर नया अचरज! हम विगीलैंड पार्क में आ रुके। सचमुच अद्भुत था वह पार्क! जिंदगी में मैंने अनगिनत पार्क देखे हैं, लेकिन मूर्तिकला से समृद्ध पार्क पहली बार देख रही थी। मोटे, तंदुरुस्त औरत-बच्चों की मूर्तियाँ! उनके चेहरे एस-एस सलतान की तस्वीरों में अंकित लोगों की तरह नजर आ रहे थे। सखी-सखी स्वस्थ चेहरे! सबसे ज़्यादा आकर्षित किया मोनोलिथ ने! चौदह मीटर के लंबे कॉलम में एक-दूसरे से लिपटे-चिपटे सैकड़ों-सैकड़ों लोगों की मूर्तियों। पूरी-की-पूरी मूर्ति, पत्थर के एक खंड पर निर्मित! समूचे पार्क में कुल मिलाकर एक सौ बयानवे मूर्तियाँ, मगर इंसानों की मूर्तियाँ कुल मिलाकर छह सौ! मूर्तिकार थे-गुस्ताभ विगीलैंड! विगीलैंड से वाइकिंग जहाज जादूघर! यहाँ वाइकिंग और जलदस्यु लोगों के पुराने-पुराने जहाज संरक्षित किए गए हैं। डेक की बगल से दो पनले-पतले सिरे ऊपर ऊँचाई तक उठे हुए। किस्म-किस्म की डिज़ाइनों की नावें। स्वीडन में मैं भासा जादूघर देख चुकी हूँ। भासा नामक नाव डूब गई थी। करीब तीन-चार सौ वर्ष बाद उस नाव को पानी से निकाला गया। अब वह पूरी-की-पूरी नाव जादूघर में संरक्षित है। नॉर्वे, स्वीडन, डेनमार्क, आइसलैंड के सभी अंचल ही, वाइकिंग लोगों का इलाका था।
जादूघर से एडवर्ड मुँख म्यूजियम! वहाँ मुँख की वह मशहूर पेंटिंग, जिसका नाम 'चीत्कार' है, यहीं रखी हुई है! 'चीत्कार' नामक यह पेंटिंग काफी प्रसिद्ध है। ऐसा लगता है, जैसे कोई बच्ची शाम के वक्त, पुल पर खड़ी है। अचानक अपने को अकेली पाकर ज़ोर से चीख-चीखकर रो रही हो। नीले और लाल रंग से बनाई गई यह तस्वीर बिल्कुल आग-आग जैसी लगती है। कौन-सी पेंटिंग अचानक प्रसिद्ध हो उठती है; कौन किस वजह से अचानक मशहूर हो जाता है, यह मेरी समझ से बाहर है। मुँख की यह 'चीत्कार' पेंटिंग फरवरी के महीने में चोरी हो गई थी। चोर ने गुप्त रहकर एक मिलियन डॉलर की माँग की थी। नहीं, डॉलर-टॉलर खर्व करने की ज़रूरत नहीं पड़ी। पेंटिंग के शौकीनों के प्रवल चीख-पुकार की वजह से दो-तीन महीनों के अंदर ही वह पेंटिंग बरामद कर ली गई।
एक बार दुलाल काक्कू ने पंटर-कलाकार के नाम पर हाथ रखकर उसे छिपातं हुए मुझसे सवाल किया था। वह पंटिंग थी पिकासो के हाथ में थामे हुए फूलों का एक गुच्छा!
वह पेंटिंग मेरी आँखों के सामने रखकर काक्कू ने सवाल किया, “बता तो यह पेंटिंग किसने बनाई?"
मैंने उस पेंटिंग को आपादमस्तक निहारकर कहा, "चार-पाँच साल के किसी वच्चे ने बनाई है।"
उसके बाद, दलाल काक्कू ने हाथ हटाकर पेंटिंग-विशेपज्ञ का नाम दिखाया। नाम था पिकासो!
मुँख म्यूजियम में मशहूर 'चीत्कार' पेंटिंग के सामने खड़ी-खड़ी मैं सोचती रही। ऐसी पेंटिंग क्या मैं खुद नहीं बना सकती थी? या कोई और पेंटर ऐसी तस्वीर नहीं वना सकता है? किसी अनाम पंटिंग और इस मशहूर पेंटिंग में आखिर फ़र्क क्या है? वाकई, अजीव है यह दुनिया! कोई-कोई चीज़ अचानक मशहूर हो जाती है, जैसे, मोनालीसा! लोग भीड़ लगाकर उस पेंटिंग को देखने जाते हैं। हालाँकि मैंने पेरिस का 'लभर' घूम-घूमकर देखा है। 'भानालीसा' लिओनार्डो दा विंसी की ऐसी कोई ख़ास पेंटिंग नहीं है।
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