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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :360
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :9789352291526

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


छोटू'दा हवाई अड्डे पर मेरा इंतज़ार कर रहा था।

सूटकेस लेकर बाहर आते ही उसने मुझे गले लगाते हुए पूछा, "तुझे इतनी देर क्यों हुई?"

“देर हुई, क्योंकि वह मुझे बाहर ही नहीं आने दे रहा था।"

"वजह?''

“और क्या? रंग-भेद! अगर मैं गोरी चमड़ी होती या मेरे पास अमीर देश का पासपोर्ट होता, तो सब कुछ ठीक-ठाक होता।"

छोटू'दा को देखकर मैं उतनी देर तक एमिग्रेशन में खड़े-खड़े बेइज्जती झेलने का दर्द भूल गई। मुझे लगा, जैसे मेरे पंख निकल आए हों, जैसे अगर मैं चाहूँ तो आसमान में उड़ सकती हूँ। अर्से से मुझे ऐसी खुशी नहीं मिली थी। जैसे मैं हज़ारों साल बाद किसी छोटी-सी पिटारी से निकल आई हूँ।

"चल, अपन मेट्रो से चलते हैं।" छोटू' दा ने कहा!

मैं खुशी से उछल पड़ी। मुझे तो मेट्रो में सवार होने का मौका नहीं मिला था। सुपर स्टार हस्ती मेट्रो में नहीं चढ़ती। वह तो पों-पों हॉर्न बजाती हुई गाड़ी में जाती है। उस बनावटी जीवन से रिहाई की खुशी ने मेरे अंग-अंग में पुलक भर दी। छोटू'दा का हाथ थामे-थामे आम लोगों की तरह, मैं मेट्रो में सवार हो गई। आम लोगों की तरह ही मैं मेट्रो से उतर पड़ी। पैदल चलती रही और होटल पहुँच गई। होटल में सूटकेस खोलकर मैंने छोटू दा को सबसे पहले झोला भरकर छोटी-छोटी शीशियाँ थमा दीं। उनमें कितने-कितने किस्म के ड्रिंक भरे हुए थे, मैं पहचानती भी नहीं थी। छोटू'दा यह पाकर खुश होगा, इसीलिए इतनी सारी शीशियाँ उठा लाई थी।

लेकिन खुश होने के बजाय छोटू'दा ने माथे पर हाथ मारकर कहा, “हाय गज़ब ! क्या किया है तूने! लगता है होटल के मिनी-बार में जितना कुछ था, तू सब बटोर लाई।"

"हाँ, तो क्या हुआ?"

"रुपइय्ये नहीं लगे?"

"रुपइय्ये क्यों लगते? होटल के कमरे में तो यह सब दे ही जाते हैं, पीने के लिए। हम नाहीं पीती, तुम ही पी लो! इसीलिए तो तुमरे लिए ले आई।"

“हाय-हाय! यह क्या किया? क्या किया तूने? इन सबके लिए होटल ने रुपइय्ये लिए होंगे। होटल में बिल चुकाते वक्त, इन सबके लिए भी चार्ज करेगा। फोन-बिल का क्या हाल है? तू तो होटल-रूम से ही घंटे-दो घंटे बातें करती रही।"

“अपने देश भी तो फोन किया मैंने! सबसे बात की! जिन लोगों ने मुझे न्योता दिया था, वही लोग चुकाएँगे होटल-बिल!"

"सो तो ठीक है! वे लोग होटल-कमरे का किराया चुका देंगे। शायद खाने का बिल भी भर देंगे। लेकिन जितना भी व्यक्तिगत फोन किया है, वह तो तुझे खुद देना चाहिए था।"

“क्यों? फोन-बिल क्या खुद चुकाना पड़ता है? पैरिस के होटल से तो हम लगातार फोन करती रही! कलकत्ता! ढाका! मुझे तो किसी ने कुछ नहीं कहा। हमने तो सोचा, जब फोन मौजूद है तो शायद जहाँ चाहे, फोन कर सकते हैं।"

“कर तो सकते हैं! तू तो रहती भी है पाँच सितारा होटल में । उन सब होटलों में तो गला-काट दाम वसूल करते हैं। जो लोग तुझे ले गए थे, समझ ले, उनके तो बारह बज गए।"

हाँ, यही हूँ मैं! ऐसी ही हूँ मैं। होटल के नियम-कानून की कोई जानकारी नहीं है! सभी लोगों का खयाल है कि तारिकाएँ सभी कुछ जानती हैं, लेकिन तारिकाओं को आम नियम-कानून जानने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। अगर कोई असाधारण तारिका बन जाए तो कोई परेशानी नहीं! अब अगर मामूली इंसान को एकदम से तारिका बना दिया जाए तो ऐसा तो होगा ही! मुझे अफसोस हुआ! अफसोस करने का कम-से-कम ख़याल तो आया, लेकिन ये सब अफसोस भी, छोटू दा से मिलने की खुशी में उड़कर हवा हो गया! निर्वासित जीवन में पहली बार किसी अपने से भेंट हुई थी। मैं बाहर सड़क पर निकल पड़ी। हम दोनों गपशप करते हुए पैदल चलते रहे। छोटू'दा घूम-घूमकर ऐसा कोई रेस्तराँ खोजता फिरा, जहाँ सबसे कम पैसों में खाना मिलता हो। खैर, मैं किसी भी रेस्तरां में जाने को राजी थी। रेस्तराँ महँगा हो या कम महँगा, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता था, लेकिन हाँ भात होना चाहिए। बहरहाल काफी घूम-घूमकर हमने एक रेस्तराँ ढूँढ़ लिया। वहाँ हप्-हप् खाते हुए, मैं छोटू'दा की जुबानी घरवालों के हाल-समाचार सुनती रही। छोटू'दा अपने बीवी-बच्चों को अमेरिका ले आना चाहता है।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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