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श्रेष्ठ पंजाबी गद्य

कुलवंत सिंह कोछड़

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :245
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5118
आईएसबीएन :81-237-4784-5

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पंजाबी गद्य के विशाल भंडार से चुनकर लिए गए निबंध।

Shreshth panjabi gadya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बीसवीं सदी के प्रारंभ से अब तक के पंजाबी गद्य लेखन का परंपरा एवं गम्भीरता को रेखांकित करती हुई रचनाओं का संकलन श्रेष्ठ पंजाबी गद्य एक महत्वपूर्ण कृति है। भावुकता, दार्शनिकता और सामाजिकता के मेल से ललित निबंध लेखन का जो नया दौर पंजाबी भाषा में विकसित हुआ वह स्पष्ट तौर पर बेहद संक्षिप्त मालूम पड़ता है। किन्तु पाठक के मन पर इसका प्रभाव तीक्ष्ण होता है।

पंजाबी गद्य के विशाल भंडार से चुनकर प्रस्तुत किए गए इन निबंधों के जरिए पंजाबी गद्यकारों की चिंतन शैली और रचनात्मक कौशल को गंभीरता से जाना जा सकता है। इन निबंधों में यात्रा, संस्मरण, जीवनी, आत्म जीवनचरित, रेखा-चित्र, हास्य-व्यंग्य, स्थिति-चित्र आदि के साथ-साथ विषय के आयाम उन्मुक्त हैं और यही कारण है कि रचनाकार का रचनात्मक कौशल और सामाजिक सरोकार यहां अपनी संपूर्णता में उभर आया है। पंजाब जनपद की जीवन शैली और पंजाबी साहित्य के रचनाकारों का जन सरोकार यहां पूरी तरह जीवंत हो उठा है।

प्रस्तावना


पंजाबी गद्य इस समय खूब लिखा जा रहा है। हमने केवल रचनात्मक गद्य के श्रेष्ठ लेखकों की रचनाओं का चयन किया है। भाई वीर सिंह के आध्यात्मिक गद्य के बाद हमारे प्रथम निबंधकार पूरन सिंह, अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि एवं बहुविध अध्ययन के स्वामी हैं। उनके बाद पंजाबी में बहु-अनुभवी एवं विभिन्न दिशाओं में रचनाकार पैदा हुए, देश-देशांतर की यात्रा करने वाले महानुभावों ने ज्ञान से परिपूर्ण अपने अनुभव हमारे साथ बांटे। विचाधारा की दृष्टि से भी पंजाबी गद्य सार्वत्रिक चेतना से जुड़ा रहा है। कठिन से कठिन तथा सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों के विषय में भी गद्य उपलब्ध है। ऐसा लगता है मानो महापुरुषों की जन्मसाखियों, गोष्टों, महान ग्रंथों के टीकाकारों का आशीष आधुनिक रचनाकारों को विरासत में प्राप्त हुआ है।

हमने बीसवीं सदी के प्रारम्भ से अंत तक हर क्षेत्र से उभर कर आए चुनिंदा लेखकों की रचनाओं का चयन किया है। आरम्भिक स्तंभ लेखकों में से पूरन सिंह, तेजा सिंह, लाल सिंह कमला अकाली तथा गुरुवक्श सिंह शामिल किया गया है। ‘प्रतिभा के प्रतीक’ शीर्षक के अंतर्गत सिरदार कपूर सिंह, प्रीतम सिंह एवं सुमेर (करतार सिंह) के निबंध चुने गए हैं। पांचवें और छठे दशक में गद्य में कुछ नए प्रयोग किए गए थे उनमें से रविन्दर सिंह रूप, बावा बलवंत, सुजान सिंह, ईश्वर चित्रकार और जसवंत सिंह नेकी जैसे विशिष्ट हस्ताक्षरों को भी संग्रह में सम्मिलित किया गया है।

आजकल आत्मकथा लिखने की एक प्रथा चल पड़ी है। ऐसे रचनाकारों में से अमृता प्रीतम, हरिभजन सिंह तथा अजीत कौर की आत्मकथाओं में से एक-एक अध्याय लिया गया है। रेखाचित्र के क्षेत्र में भी नाम उभरकर सामने आ रहे हैं। हमने इस विधा के स्तंभ लेखकों में से बलवंत गार्गी और कुलबीर सिंह कांग के रेखा चित्रों को चुना है। हास्य एवं व्यंग्य गद्य की प्रमुख विधाएं हैं। इस विधा के महारथी सूबा सिंह और प्यारा सिंह दाता की रचनाएं शामिल की गई हैं। काव्य-निबंध, विशेष रूप से ललित निबंध हमारे गद्य की नई उपज है। इस विधा के रचनाकारों में से दीवान सिंह कालेपाणी, कुलबीर सिंह कांग तथा जिगरपारा के लेखक गगन पाकिस्तानी की रचनाओं को संकलित किया गया है। यात्रा-संस्मरण के परंपरागत लेखकों के स्थान पर नए उभर कर आए हस्ताक्षरों-कृपाल सिंह कोमल एवं हरभजन हलवारवी) को शामिल किया गया है। नवोदित प्रतिभा के अंतगर्त इस प्रकार यह संकलन पूरन सिंह से शुरू हो कर प्रवासी लेखक पूरन सिंह पर समाप्त होता है।

आरंभ में संपादक ने आधुनिक पंजाबी गद्य के विषय में संक्षिप्त विवेचना की है, ताकि पाठक संपादक के विचारों तथा पंजाबी गद्य की उपलब्धियों के बारे में जानकारी हासिल करते हुए, संपादक के दृष्टिकोण के प्रति भी कोई राय कायम कर सके।

हमने निष्पक्ष होकर चयन करने का प्रयास किया है, फिर भी यदि कोई कमी रह गई हो, तो सुझाव अपेक्षित है, आभार सहित सुधार की कोशिश करूंगा।

-कुलबीर सिंहल कांग

आधुनिक पंजाबी गद्य : संक्षिप्त परिचय


आधुनिक पंजाबी गद्य का यह सौभाग्य रहा कि इसे बीसवीं शताब्दी की पहली चौथाई की अवधि में अंग्रेजी साहित्य के विद्वान लेखकों का गद्य उपलब्ध हो गया। भाई वीर सिंह को हम आधुनिक गद्यकारों में नहीं गिन सकते। ये तो पूरन सिंह, तेजा सिंह और गुरबक्श सिंह जैसे महान स्तंभ थे जो कि यूरोपीय साहित्य एवं वैज्ञानिक उपलब्धियों के ज्ञान से ओत-प्रोत थे। नवे चाहते तो अंग्रेजी के माध्यम से ही अपनी गद्य कला के करिश्मे दिखा सकते थे। परन्तु उन्होंने अपनी मातृभाषा में आधुनिक रचनात्मक गद्य रचकर सभ्यता को समृद्ध एवं समादर योग्य बनाने की परिपाटी चलाई।

पूरन सिंह मूलत: एक वैज्ञानिक थे। उनका हृदय कवि का था। लेकिन जब गद्य रचना आरंभ की तो पंजाबी, हिन्दी, अंग्रेजी तीनों ही भाषा में पूर्णतया के शिखर को छू लिया। उनका अंग्रेजी गद्य यूरोप के अंग्रेजी गद्य लेखकों के लिए भी एक आदर्श गद्य माना गया। उन्होंने हिन्दी में केवल पांच निबंध ही लिखे थे, जिन्हें पढ़ने के बाद आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा था कि ‘यदि वे निबंधों की पूरी पुस्तक दे जाते तो हिन्दी साहित्य के निबंधकार उसके सामने फीके पड़ जाते।’ अंग्रजी में तो वे हिन्दी नदियों में प्रवाह के समान लिखते थे। ‘The spirit of Oriental poetry’, The Spinning Wheel’,  Ten Master’ ‘The Spirit of the Sikhs’ को पढ़कर तो ऐसा लगता है मानों कोई जन्म-जात अंग्रेज-अंग्रेजी भाषा द्वारा भारतीय एवं पंजाबी सभ्यता को समस्त संसार में उजागर कर रहा हो। पूरन सिंह की इस प्रतिभा को दूसरी बार एम.एस. रंधावा ने पहचाना, फलस्वरूप गत 30-35 वर्षों से पूरन सिंह के विषय में अनेकों पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं। उनकी अप्रकाशित पांडुलिपियां प्रकाशित की जा रही हैं।

पंजाबी में उनके निबंधों की केवल एक पुस्तक ‘खुले लेख’ अधिक चर्चित हुई है। (अन्य पंजाबी निबंध संभवतया उपलब्ध नहीं हो पाए।) इस पुस्तक का एक-एक निबंध, एक संपूर्ण पुस्तक है। ‘प्यार’, ‘धर्म’, ‘आर्ट’, ‘कवि का दिल’, ‘कविता’, आदि ऐसे विषय हैं जिनके बारे में कोई भी अंतिम सत्य नहीं लिख सकता। आदिकाल से ही इन विषयों पर निरंतर चर्चाएं होती चली आ रही हैं, भविष्य में भी ये विचार-विमर्श का केन्द्र बने रहेंगे। यह पूरन सिंह का कला-कौशल ही है कि वे सायास लिखते हुए प्रतीत नहीं होते। दैवी अवस्था में लिखे इन निबंधों में उत्कृष्ठ विचारों के सच्चे मोती उपलब्ध होते हैं। उनकी कविता में सरोदी गद्य का दर्शन होता है, तो गद्य में सरोदी काव्य की झलक मिलती है। सहज प्रवाह (Effortless flow) उनके गद्य का प्रमुख लक्षण है। वे प्रसाद शैली (Supreme Style Sncofriable) के स्वामी थे। वे साहित्यकारों की तथा ज्ञान की मूरत थे। वे मन पर बोझ डालकर नहीं लिखते थे, जब उसका मन किसी विशेष आवेश के घेरे में आ जाता और वे दुनिया की सुध-बुध भुला बैठते, तभी लिखते थे। जब तक मन में घुमड़ते अमूर्त्त भावों को मूर्त्त रूप (शब्दों) में प्रकट कर लेते, बेचैन रहते। उनके इन भाववेशों के विषय में बहुत मेल खाती तस्वीर ‘पूरन सिंह’ नामक पुस्तक (संपादक एम.एस. रंधावा) की भूमिका में प्रस्तुत की है, जिससे उनकी रचनात्मक प्रक्रिया को भली-भांति समझा जा सकता है। ऐसा सूक्ष्म अध्ययन हम आलोचक पेश नहीं कर सकते।

वे भाव मंडल से बुद्ध मंडल की यात्रा करते थे। गद्य के क्षेत्र में हमारा यह प्रथम निबंधकार उस समय सार्वत्रिक चेतना को छू रहा था, जब कि भारत के निबंधकार अपने-अपने धर्म व सम्प्रदाय का गुणगान कर रहे थे। पंजाबी साहित्य में भाई वीर सिंह का बोलबाला था, जिसकी बुनियादी चूल सिख धर्म का प्रचार मात्र ही थी। पूरन सिंह भले ही भाई साहब की प्रेरणा से संन्यासी ‘पूरन’ से दोबारा ‘पूरन सिंह’ बने, परन्तु उन्होंने अपने संसार पर किसी एक व्यक्ति को हावी नहीं होने दिया।
पूरन सिंह यूरोप और जापान आदि देशों की यात्रा के उपरांत एक अलग व्यक्ति बन चुके थे। इसलिए भले ही उनका गद्य आवेशगत रंग लिए हुए था, परन्तु उनके भावनात्मक प्रवाह में ज्ञान की लहरें चलती थीं। पंजाबी का भले ही उन्होंने अकादमिक तौर पर अध्ययन नहीं किया था, बल्कि अन्य भाषाएं अधिक सीखी थीं, परन्तु जब इस अलबेले सपूत ने मातृभाषा का पल्लू थामा तो पहाड़ी नाले जैसा प्रवाह प्रारंभ हो गया। ये सभी नाले उनके विचारों का एक दरिया बन जाते थे। निबंध में वे अनेक कलाबाजियां दिखाते हुए भाषा की नदी बन जाते थे।

आज हमें पंजाबियत का होश आया है, मगर विदेश में जाकर इंसान को अपने देश की मिट्टी की याद सताती है। गुरुनानक साहब का ‘बारहमाह’ देश प्रेम की एक अद्वितीय रचना है। उनके बाद पूरन सिंह की कविताओं और निबंधों में पंजाबियत की पुकार बुलंद होती है। देश के प्रति उनका प्रेम किसी तंग घेरे में नहीं घिरा था, एक अंतर्राष्ट्रीय इंसान होने के नाते वे किसी भी राष्ट्र को दूसरे का गुलाम बना नहीं देख सकते थे। इसीलिए भारत की गुलामी उनके लिए असह्य थी। वे आजीवन देशभक्तों के हितचिंतक रहे। उनकी सहायता के लिए वे अपने घर का सब कुछ बेच सकते थे। स्वतंत्र मनुष्य के बारे में उनके विचार उनके निबंधों में बिखरे पड़े हैं। मोतियों को ढूंढ़ने के लिए गोते लगाने पड़ते हैं, इसी प्रकार पूरन सिंह के गद्य का सरल अध्ययन निर्मूल है, दो तीन बार पढ़ने के उपरांत ये देव जैसे कद के प्रमाणित होते हैं।

उन्होंने अपने गद्य पर किसी अन्य व्यक्ति का प्रभाव स्वीकार नहीं किया। संपूर्ण मौलिकता का रूप है उनका गद्य। अनेक लेखक उनसे प्रभावित अवश्य हुए हैं, परन्तु उनकी शैली का अनुकरण कर पाने में कोई भी सफल नहीं हो पाया।
वे सिख धर्म के प्रति श्रद्धावान अवश्य थे, परन्तु उनके निबंध ‘धर्म’ में अन्तर्राष्ट्रीय संकल्प के दर्शन होते हैं। धर्म उनके लिए कर्तव्य परायणता था, कुछ विशेष मर्यादाओं का पालन नहीं। स्वामी रामतीर्थ की संगति में वे केशविहान संन्यासी पूरन बन गए थे, परन्तु बाद में भाई वीर सिंह के प्रभाव में आकर फिर से केश धारण कर लिए। अर्थात् वे धर्म को केवल आस्था मानते थे।


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