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जीवन कथाएँ >> मरु केसरी

मरु केसरी

यादवेन्द्र शर्मा

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5119
आईएसबीएन :81-7055-607-4

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राठौड़ दुर्गादास के जीवन पर आधारित उपन्यास..

maru-kesri

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

साहित्य अकादमी फणीश्वरनाथ रेणु, मीरा व अनेक पुरस्कारों से सम्मानित हिंदी व राजस्थानी के प्रख्यात लेखक यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’ का ताजा उपन्यास है-‘मरु-केसरी’। मरु-केसरी राठौड़ दुर्गादास के जीवन पर आधारित है और लेखक ने प्रयास किया है कि चमत्कारी स्थितियों से हट कर वास्तविक स्थितियों का विश्लेषण करे, इसमें वह शत प्रतिशत सफल रहा है। वस्तुतः हमारे इतिहास तिथियों, घटनाओं व युद्धों के पुलिंदे मात्र हैं, उनमें सामाजिक, सांस्कतिक, आर्थिक और पारिवारिक यथार्थ का अत्यंत ही कम समावेश है, ऐसी स्थिति में तत्कालीन और तत्पश्चात् की लेखन सामग्री को लेकर उपन्यास की सम्पूर्णता को चंद्र ने दर्शाया है। लेखक ने अत्यंत ही सचेत दृष्टि से सामग्री का चयन कर दुर्गादास एक महान योद्धा, एक चाकर, एक कूटनीतिज्ञ एक दुर्बल व्यक्ति और एक दूरदर्शी के रूप में प्रस्तुत किया है।

 इस कारण यह उपन्यास ऐतिहासिक उपन्यासों में अपनी पृथक् छवि प्रस्तुत करेगा। मनुष्य कुछ भी हो पर वह अनेक जगह मनुष्य बन ही जाता है-यही मानव-चरित्र का यथार्थ है। मरु-केसरी उपन्यास नायक के चरित्र-चित्रण के साथ-साथ राजस्थानी परिवेश, लोक जीवन और लोक गीतों को भी स्पर्श करके वातावरण को सजीव बनाता है। सामंती जीवन की विसगंतियाँ, विद्रूपताएँ स्वार्थ को भी सशक्त रूप से व्यक्त करता है। इस उपन्यास की भाषा पात्रानुकूल और शैली हृदयग्राही है। दैनिक सन्मार्ग कलकत्ता में धारावाही छप कर इसने प्रमाणित कर दिया कि लाखों पाठकों के साथ-साथ यह विद्यार्थियों के लिए भी उपयोगी है।
डॉ. आदर्श सक्सेना

मैं इतना ही कहूँगा


‘मरु-केसरी’ मेरा ताजा उपन्यास है। यह इतिहास पुरुष दुर्गादास राठौड़ के जीवन पर आधारित है। वैसे सारे इतिहास तिथियों और घटनाओं के बोझ से दबे हैं और वे लड़ाईयों के वर्णन की प्रमुखता से लदे हैं। लगता है कि राज-पुरुष बस अपने सिंहासन और अस्मिता को बचाने के लिए लड़ते ही रहे। चंद इतिहासकारों ने उनके अलग पहलुओं को अवश्य छुआ है। कर्नल टॉड ने चारणी साहित्य, श्रुतिकथाओं और दंतकथाओं का इतिहास में मिश्रण करके उसे यथार्थ से विलग कर अतिरंजनापूर्ण बना दिया है। आश्रित चारणों ने अपने स्वामी को तो महान् वीर दानी और उदार ही बताया है। यह उनकी नमक-हलाली भी थी। सच्ची बात कहनेवाले चारण अल्प ही रहे थे।

ऐसा ही दुर्गादास राठौड़ के जीवन वृत्त के बारे में है। वह व्यक्ति नहीं, केवल युद्ध लड़नेवाला लड़ाकू है ! ऐसा उसके बारे में पढ़ने को मिलता है कि बस वह लड़ता रहा, लड़ता रहा। मुझे लगा कि यह उसका सतही विश्लेशषण है।
दुर्गादास राठौड़ की त्रासदी कई दृष्टियों से महाभारत के कर्ण से मिलती है। कर्ण ने पारिवारिक उपेक्षाओं का जो तिरस्कार विष पिया था। वही स्थिति लगभग दुर्गादास की है। पिता के प्रेम से वंचित रहा और जिस महाराजा अजीतसिंह को पाल पोसकर उस पर अपना सर्वस्व विसर्जन करके मारवाड़-नरेश बनाया, उसी अजीतसिंह ने उसे देश-निकाला दे दिया। उसने कई-कई बार ऐसी अपमानजनक त्रासदियाँ सही हैं। अपनी युद्धरत व्यस्तताओं के कारण वह व्यक्तिगत जीवन पर भी विशेष ध्यान नहीं दे पाया। वह अपने परिवार के प्रति भी पूर्ण दायित्व नहीं निभा पाया।....मैंने समस्त चरित्रों के ‘मनुष्य’ की तलाश की है और अन्वेशण किया है-संभावित सत्यों का। मनोवैज्ञानिक तथ्यों का। मैं समझता हूँ कि उपन्यास और इतिहास का यही मूल अंतर है।

यदि इतिहास समकालीन संदर्भों, मूल्यों व स्थितियों से जुड़ने की प्रक्रिया में नहीं आता है तो उसकी सार्थकता असंदिग्ध हो जाती है। उसकी कोई उपरियता भी नहीं रहती। मुझे विश्वास है कि आप इन बिंदुओं का स्पर्श स्वाभाविक रूप से पाएँगे साथ ही आज के यथार्थ का भी दर्शन करेंगे। एक बात और है-भाषा पर जो सामंती संस्कृति का प्रभाव है, उससे भी मुक्त करने की मैंने चेष्टा की है। हम संवाद में तो ‘राजाजी बोले और सेठजी बोले’ का प्रयोग कर सकते हैं पर व्याकरण के हिसाब से तो ‘राजा बोला’ ही होना चाहिए।
आप इस उपन्यास को पढ़ेंगे और अपनी राय देंगे।


आशालक्ष्मी नया शहर
बीकानेर (राज). 334004

यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’


एक



गाँव लूणवा !

श्रावण का महीना चारों ओर हरियाली।...खेजड़े, जाल, कैर, बेर की झाड़ियाँ धुली-धुली सी लग रही थीं। जगह-जगह झूले पड़ गए थे। रात्रि में चौमासा के गीत गूँजने लगे थे। जहाँ खेती ईश्वर भरोसे होती है, वहाँ वर्षा का मूल्य अमृत से कम नहीं होता।

फिर भी धूप बिन बादल अखरती ही थी। दुर्गादास राठौड़ खेजड़े की घनी छाया में खाट डाले बैठा था। उदास और मौन दूसरी ओर खेत की बाड़ के पास जो खेजड़ा था, वहाँ उसके दोनों बैल ऊन की बनी छाँटी में रखी कटी घास कुतर कर चर रहे थे। एक बैल काला था और एक सफेद। हल वहीं रखा था।
आज सूर्य देवता के उगने के कुछ देर पश्चात् उसने पूरे खेत को जोत लिया था। किसी काम की समाप्ति पर व्यक्ति को असीम संतोष होता है, वही दुर्गादास की आकृति पर था। मूँछें फूट आई थीं। दाढ़ी भी जगह-जगह निकलने लगी थी।
दुर्गादास की आँखें बड़ी-बड़ी और तेजस्वी थीं। शरीर बलवान था। कानों में उसने मुरक्यां पहन रखी थीं। तन पर साधारण बगलबंदी और नीचे घुटनों तक की धोती थी। उसके समीप मिट्टी की बनी ‘लोटड़ी’ पड़ी थी जिसमें पीने का ठंडा पानी था !
थोड़ी देर में उसकी माँ मांगबियाणी भाता लेकर आ गई। बाजारी की चार मोटी-मोटी रोटियाँ, लहसुन की चटनी और मोंठ की फलियों का साग। दुर्गादास ने मां के चरण स्पर्श करके कहा। माँ सा, पालागी।
"जीते रहो लाडेसर।" उसकी माँ ने खाट पर बैठते हुए कहा।
दुर्गादास के चेहरे पर सहसा उदासी की परछाइयाँ पसर गईं। बुझी-सी मुसकान के साथ बोला, "मैं कहाँ हूँ लाडेसर ? माँ सा ! जिस पुत्र को पिता का प्यार न मिला हो, वह भला लाडेसर कैसे हो सकता है ? वह तो भाग्यहीन और अभागा ही कहलाएगा। माँ सा ! आप मुझे बताती क्यों नहीं कि आखिर मेरे पिताजी ने किस कारण आपका परित्याग किया। आप इस रहस्य को प्रकट क्यों नहीं करती ?"

उसकी माँ ने दीर्घ श्वास लेकर कहा, "बेटा ! परिवार के कुछ रहस्य ऐसे होते हैं जिनका प्रकट होना किसी भी तरह ठीक नहीं। ये रहस्य दुःख पीड़ा, क्लेश, आक्रोश। आवेश और घृणा को जन्मने वाले होते हैं। वे रहस्य नाते जोड़ते नहीं, तोड़ते हैं, बेटे। विधि का विधान अटल है। मनुष्य न जाने कितने जन्मों के फलों को भोगता है। किन-किन दुष्कर्मों का दंड पाता है, यह ईश्वर ही जानता है।"

दुर्गादास ने खाट के समीप उगी हुई किसी जंगली बेल को उखाड़ते हुए कहा, "माँ सा ! आपने मुझे सब तरह की शिक्षा दी है। आप विदुषी और गुणवान भी हैं। चाहे आपने पोथियों का ज्ञान विशेष न पाया हो पर जीवन ने आपको बड़े ज्ञान दिए हैं। यही कारण है कि मुझमें सोचने की शक्ति पैदा हो गई है। हम सबकी यह बहुत बुरी आदत है कि हम अच्छी बुरी घटनाओं का जिम्मा ईश्वर पर छोड़ देते हैं। पर यह सच नहीं है। यह हमारी असहायता है।....माँ सा। इतना बड़ा और पीड़ादायक निर्णय किसी सामान्य बात पर नहीं लिया जा सकता !"

उसकी माँ ने लोटड़ी में से पानी के दो घूँट पी कर कहा, "बेटा। कुछ संस्कार जन्मजात मिलते हैं। कुछ स्वभाव वंशगत भी होते हैं। राजाओं और ठाकुरों में भी ऐसे संस्कार हैं। ये जितने शूरवीर होते हैं उतने ही सनकी। सनकी से मेरा तात्पर्य है कि जिस बात को पकड़ लेते हैं उसे छोड़ते ही नहीं चाहे स्वयं का सर्वनाश ही क्यों न हो जाए ? तुम्हारे पिताजी भी जो ठाकुर हैं। थोड़ी-सी बात को लेकर मुझसे अनबन हो गयी। बात बतंगड़ की स्थिति तक पहुँच गयी। मैं भी तो ठाकुरों के वंश की हूँ। नहीं सह पाई बात के तीर की पीड़ा। दोनों के अहंकार टकराए। बस अलगाव हो गया।" उसकी माँ ने आकाश में तैरते मेघ खंडों को देखकर पुनः कहा, "बेटा, पचिये (घाव) को कुरेदने से पुनः रक्त निकलने लगता है।"
उसकी माँ उठकर चली गई। दुर्गादास निस्पंद-सा बैठा रहा। कुछ पलों के लिए वह विचारहीन होकर जड़वत् बैठा रहा।
कोई व्यक्ति मूमल की राग को अलगोजे में से निकालता हुआ खेत के पास से गुजरा।

दुर्गादास का ध्यान भंग हुआ। वह खाट पर लेटता हुआ पुनः सोचने लगा कि मेरे पिता और माँ के बीच कारण कोई रहा हो, पर यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि मेरी माँ को दिया यह दंड अन्यायपूर्ण है। असह्या है। जिस समाज की स्त्रियाँ पति को परमेश्वर समझती हैं, जिनके सुख का एक-एक क्षण पति से लिपटा हुआ है जिनका सारा अस्तित्व ही पति है। ऐसी स्थिति में पत्नी का परित्याग करना उसे काले पानी की सजा के बराबर होता है। यह भी देश निकाला है। क्योंकि स्त्री का अपना एक देश होता है, अंतर देश। उस अंतर देश में सुख संतोष और शांति की नदियाँ न बहती हों तो उसका जीवन कोई अर्थ नहीं रखता। दुर्गादास सोचते-सोचते व्यथित हो गया। वह खाट पर बाएँ हाथ का तकिया बनाकर नेत्र मूँद कर लेट गया।

लेकिन उसके मस्तिष्क में जो विचारों का बवंडर था, वह रुका नहीं। वह सोचता रहा कि उसकी माँ ने एकांत की दुर्दांत पीड़ा भोगी है। उपेक्षाएँ व निरादर सहे हैं। अभाव भोगे हैं। लेकिन है उसकी माँ भी मानिनी। सम्मान के बदले उसने पराजय को स्वीकार नहीं किया। पूरे यौवन को तिल-तिल गला डाला। जो रूठकर आई फिर वापस नहीं गई। नारी की अस्मिता उसके रोम-रोम में है। लेकिन उसने तो पिता के प्रेम का स्वाद भी नहीं चखा। भाग्यहीन है वह। सब कुछ उसकी माँ ने ही उसे दिया है। पिता का प्रेम और शक्ति भी।

समीप एक झोंपड़ा बना था। विशुद्ध घास का मजबूत और आकर्षक। सर्दी और बरसात में दुर्गादास उसमें विश्राम करता था। उसमें एक घास काटने की दन्तारी, किवाड़ी, कुल्हाड़ी फावड़ा और दो कढ़ाइयाँ रखी हुई थीं। एक तनिक भारी तलवार भी रखी हुई थी जिसकी मूँठ साधारण थी।

दुर्गादास सोचने लगा। सोचे बिना उसे बोझ का अहसास सा होता था। मन न जाने कितने प्रश्नरूपी कीलों से बिंध जाता था कि उसे अजीब असह्य यंत्रणा होती थी। माँ के रेगिस्तान की तरह सूने जीवन से वह कभी-कभी विद्रोहात्मक संकेत दे देता था पर उसकी धरा की भाँति धैर्यवान माँ उसे यह कहकर समझा देती थी कि संसार में कभी भी एकरस और एकरूप स्थितियाँ नहीं रहीं। जीवन में सबको सब कुछ नहीं मिलता। कुछ न कुछ शेष रह जाता है जो कभी नहीं मिलता।


 


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