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हास्य-व्यंग्य >> डंके की चोट पर शराफत

डंके की चोट पर शराफत

तरसेम गुजराल

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :110
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5124
आईएसबीएन :81-288-1524-5

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प्रस्तुत है हास्य व्यंग्य संग्रह

Danke Ki Chot Per Sharahfat - Hindi Satire Book By Tarsem Gujral

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

तरसेम गुजराल बहुमुखी प्रतिभा संपन्न कथाकार हैं। उनकी रचनाएं जनाभिमुख व्याकरण रचने वाली रचनाएं हैं। व्यंग्य लिखना मुश्किल कर्म है। तरसेम गुजराल का व्यंग्य निर्मम है परंतु जीवन-यथार्थ को व्यक्त करने वाली गरिमा से भरपूर है। उनकी व्यंग्यात्मक टिप्पणियां रचनात्मक के आधार पर निर्मित हैं इसलिए व्यंग्य के संदर्भ और सरोकार बड़े होते हैं। उनके बारे में पहले ही कहा गया है कि जिंदगी के नजदीक होकर उसके लील लिए जाने वाले भंवरों में उतरने का साहस उनमें है। इस संग्रह में इस बात की थाह आसानी से मिल जाती है।

व्यंग्य के साथ मेरा रिश्ता


अनिरुद्ध (18½ साल) मुझसे सदा के लिए बिछुड़ चुके थे। हमारी ग्रेट एक्सपेक्टेशन्ज धूल में सिर के बल गिरीं। मैं महीनों उठ नहीं पाया। एक-एक सांस बोझ हो गई। पढ़ना-लिखना एक तरफ रह गया। रात-दिन सीने में हूक सी उठती। कासमी का शेर सुना था-

रात को तारों से दिन को जर्रा-हरा-खाक़ से।
कौन है जिससे नहीं सुनते तेरा अफसाना हम।।


निर्मम क्रूर डरावनी मौत ने हमारा सभी कुछ हर लिया था। हर वक्त उनकी स्मृतियां कर्मशीलता और सपने डाली से झरे पत्तों की तरह हवा में रक्स करते रहते। इस तबाही में मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था। मेरे सामने थीं उनकी कविताएँ। मैं उन्हें लोगों के सामने रखना चाहता था, क्योंकि वह लोगों को थाती थी, परंतु इसके लिए भी हिम्मत बटोर नहीं पा रहा था। मैं कलम उठाता, आंखों से आंसू बहने लगते। मैं दर्द की धारा के उलट तैरकर पानी पार करता है। मेरा एक बाजू उखड़ गया था और अब ज्यादा बोझ उठाने की जरूरत थी। धारा के उलटे तैरकर जाने के लिए ज्यादा हिम्मत और पूरा साहस चाहिए। पूरी ताकत बटोरनी होगी इसके लिए। मैंने सोचा कि दर्द और वेदना लिखूंगा तो बहता चला जाऊंगा, लिख नहीं पाऊंगा। लिखे बिना मुझे दुहरी मौत मरना पड़ता। एक जवान बेटे की मौत, जिसे अग्नि देते-देते आप झील से गीले लट्ठ की तरह जलते रहते हो, दूसरे आपके उस हिस्से की मौत जिसे आपने अपने जीवन का संपूर्ण और सर्वोत्तम देने की कोशिश की हो।
 
बहुत बारिशों में गली के एक साधारण से आदमी का घर टूट गया था वह बारिश थमते ही बची हुई लकड़ी, बची हुई ईंटे मलबे से निकाल निकालकर अलग करने लगा। किसी ने कहा-तुम्हारा तो पूरा घर तबाह हो गया।
-हां, हो गया।
-क्या करोगे अब ?
-जो कुछ बचा है, पहले उसे बचाऊंगा।

उन तबाह दिनों में मुझे जाने कैसे उसकी याद आ गई। जो कुछ बच गया है, उसे बचाना चाहिए। रात गुजरने वाली थी। वह अमृत वेला थी। मैंने जाकर सो रही बेटी शिल्पा का देखा। उसका कम्बल ठीक किया। वह जाग गई। मेरी गोद में सिररखकर रोने लगी-पापा, वीर। उसके मुंह से इतना ही निकला।
कविता भी कहां सो रही थी। आकर कहा-इसकी पढ़ाई इसकी शादी की चिंता भी आपको करनी है। रो वह भी रही थीं। जो कुछ बचा है उसे बचाने के लिए धारा के विरुद्ध तैरना शुरू किया, जबकि मैं तैराक भी नहीं था।
मैंने व्यंग्य लिखना शुरू किया। कलाकार के तौर पर चेखव मुझे पसन्द था। उसे पढ़ते हुए भी उसका कथन नज़र आया-जो दु:खी होता है हास्य और व्यंग्य लिखता है। जो सुखी होता है दु:ख का साहित्य लिखता है।
कुछ समय पहले मुझे एक साप्ताहिक अखबार के संपादक से ऑफर हुई थी कि मैं नियमित रूप से उनके लिए व्यंग्य लिखूँ। वह इसके लिए मेहनताना देने को तैयार थे। उन दिनों मैं जलता हुआ गुलाब उपन्यास लिख रहा था। मैंने जवाब दिया-मैं पैसों के लिए नहीं लिखता। जेब में पैसा था नहीं। जो मिल सकता था, उसे ठुकरा रहे थे। ज्यादा काम लघु पत्रिकाओं में ही किया था। वहां से पैसा नहीं आता था। फिर यह जवाब अपनी स्थिति पर व्यंग्य लगा। शहीदाना मुद्रा में जवाब देकर संवाद तोड़ दिया-बिना यह सोचे कि इसके जरिए पाठकों के एक नये वर्ग तक बात पहुंच सकती थी।
उन्होंने आगे पूछा नहीं, पूछते तो एक और जवाब तैयार था-मैं सांस्कृतिक कार्य कर रहा हूं। लोकप्रियता का सस्ता प्रलोभन मुझे छू भी नहीं सकता।

परंतु परिस्थितियां विकट हो रही थीं। कलाकृतियां बाजार व्यवस्था में ‘माल’ की शक्ल अख्तियार कर रही थीं। लोग वक्त काटने के लिए दोस्तों और किताबों की जगह विज्ञापनों, साप्ताहिक भविष्य और टी.वी. की आधी नग्न नाचती बालाओं की बनती तुच्छ होती छवियों पर भरोसा करने लगे थे। विज्ञापनों का मसौदा औरत की देह पर लिखा जा रहा था और सौंदर्य प्रतियोगिताएं उनकी देह की पैमाइश को खुलेआम प्रचारित कर रही थीं।

देश का एलीट वर्ग अंग्रेजी में पढ़ता है, अंग्रेजी में सोचता है। हिंदी की रोटी खाने वाले फिल्मों के नायक-नायिकाएं साक्षात्कार देते समय हिंदी का एक शब्द बोलना पसंद नहीं करते। एक अभिनेत्री से जब पूछा गया कि क्या उन्होंने प्रेमचंद को पढ़ा है ? उनका जवाब था-हू इज प्रेमचंद ? एलीट वर्ग भारत के रहन-सहन, खान-पान, विचार-दर्शन सभी कुछ को तुच्छ मानता है। वे कह रहे हैं कि भारतीयों में सेंस ऑफ ह्यूमर नाम की कोई चीज़ नहीं। उनकी दृष्टि का मतलब है कि हिंदी बोलने-पढ़ने वाले लोग निम्न स्तर के हैं, इसलिए उनका सभी कुछ निम्न स्तर का ही होगा। उन्होंने तो मध्यकाल की भक्ति को भी क्राइस्ट से जोड़कर देखा है और भारत को सांपों का खेल या जादू दिखाने वालों का देश मानने से ज्यादा कभी माना नहीं, जबकि भारतीय समाज में ऊर्जा, साहस, गरिमा, प्रतिभा की कोई कमी नहीं। यहां व्यंग्य की विनोद-ठिठोली की दीर्घ परंपरा रही है। भारत के पुराने नाटकों में व्यंग्य और हास्य की ऐसी सुनिश्चित परंपरा है कि आप चकित रह जाएंगे। देवर-भाभी, साली-जीजा के रिश्ते में बुनियादी रूप में व्यंग्य, हंसी और ठिठोली भी एलीट वर्ग को नजर नहीं आई। इससे ज्यादा आँख मूंदने और परंपराविच्छिन्न करने का और उदाहरण क्या हो सकता है ?

व्यंग्य का उभार तभी होता है जब समाज के विकास और गति कि दिशा सामाजिक विकृतियों तथा कुरुपता की ओर जाती है। आज सभी विधाओं में व्यंग्य का स्वर तीखा हो रहा है। हमें अपनी स्थिति की भयावहता का सीधा एहसास करवाता है। चेखव की कहानियों का व्यंग्य उस जमाने की विकृतियों और कुरूपता का अनायास ही एहसास करवा जाता है। चेखव अपनी शैली के उस्ताद हैं। ‘गिरगिट’ की शैली देखें। वह अपने आस-पास किसी को नहीं बख्शते-
‘पुलिस का दारोगा ओच्रमेलोव अपना नया ओवरकोट पहने, बगल में एक बंडल दबाए बाजार से गुज़र रहा था। उसके पीछे-पीछे लाल बालों वाला पुलिस का एक सिपाही हाथ में एक टोकरी लिए लपका हुआ चला आ रहा था। टोकरी ऊपर तक बेरों से भरी हुई थी, जिन्हें उन्होंने उसी वक्त जब्त किया था।’

एक आम घटने वाली घटना कि एक कुत्ते ने एक आदमी की उंगली पर काट लिया। उसने पुलिस से गुजारिश की कि उसे हरजाना दिलवाया जाए। फिर उस कुत्ते को लेकर सामाजिक स्थितियों के अनुरूप पुलिस किस तरह रंग बदलती है, यह कमाल चेखव की कलम से देखते ही बनता है। अगर वह अवारा कुत्ता है तो उसे मार डालने में कोई गुनाह नहीं परंतु अगर वह जनरल साहब के भाई का कुत्ता है तब वह बहुत प्यारा नन्हा-मुन्ना सा कुत्ता है।

संवेदनहीनता समाज का सबसे बड़ा खतरा है। जब अपने आस-पास से आदमी आंखें मूंदकर जीने लगे, जब रोज़ की भयानक खबरें उसे एक आम साधारण सी रुटीन की बात लगने लगें। जब कोई इस आतंकभरे असुरक्षित माहौल में सहज ज़िंदगी की तरह खाता-पीता रहे, मस्त रहे। ताकत कम हो, लक्ष्य दूर हो और आप रोज हार रहे हों, समझिए कि आप दलदल में हों, यह और बात है। परंतु आप सोच नहीं पा रहे, बोल नहीं पा रहे, दोस्तों के बीच चर्चा नहीं कर पा रहे, यह बहुत भयानक है। भयानक है, जब व्यंग्य व्यंग्य न लगे, सहज जीवन ही लगे।


बोन्साई



अजीब परेशानी में डाल दिया इस लड़के ने। अच्छे-भले बोन्साई पेड़ उगा रहा था। राजनीति में हमें शुरू से तमाम बड़े-बड़े परेशान करते रहे। हमने सोचा कि यह लड़का बड़े पेड़ों का छोटा रूप तैयार करने में माहिर हो जाएगा तो आगे जाकर कोई समस्या नहीं होगी। पेड़ की जड़ जमीन के नीचे अंधेरे में फैलती है, यह बात भी सीखने की थी परंतु बोन्साई पेड़ों में जो जड़ों को काटते रहने और लंबे समय तक जिंदा रखने की कला सीख लेने की बात है, उसका तो जवाब नहीं।
क्योंकि हमारे यहां बहुमुखी विकास योजनाओं का रिवाज है, लिहाज़ा हमने पप्पू की इस हॉबी में कई तालों की चाबी देखी। एक तो यह कि बंगले की बाल्कनी और बरामदा छिछले पात्रों में निकले सुंदर और आकर्षक पौधों में चहक उठेगा, दूसरे पर्यावरण पर जो दो लाख का पुरस्कार राज्य सरकार आरंभ करने जा रही है, मुख्यमंत्री से कहकर पप्पू जी को दिलवा दिया जाएगा। देश की सभी पत्रिकाओं में तस्वीरें छपेंगी, दूरदर्शन में इंटरव्यू आएगा तो ज़रा चर्चा में रहेगा। तीसरे कल को पप्पू जी के पौधे कुवैत जैसे देशों को निर्यात किए जा सकेंगे। पप्पू जी का एकाउंट स्विट्जरलैंड के गुप्त खातों में खुलवा दिया जाएगा। परंतु उसने सारा गुड़ गोबर कर दिया। हमारे स्वप्निल सौंदर्य-संसार को विस्तार देते-देते कमबख्त दलदल में जा उतरा।

उस समय हम अपने वातानुकूलित कक्ष में नरम-नरम गद्दों पर आराम फरमा रहे थे कि पत्रकारों के गिरोह ने धावा बोल दिया साथ ही सोलह सत्रह वर्षीया भानमती और उसकी नवजात पुत्री। साथ ही खूंखार दिखने वाला भानमती का चाचा..।  हम समझ गए कि यह भीड़ टलने वाली नहीं।
-आप जानते हैं यह कौन हैं ?
-नहीं, परंतु कौन है यह भाग्यशाली बालिका ?
-लो, सुन लो, जी। इनको नहीं पता ! लड़की के चाचा ने कहा।
-आपको पता ही है, नेता जी देश के विकास कार्यों में इस तरह व्यस्त हैं...। पी.ए. ने, जिसके रोके भीड़ रुक नहीं पाई थी, खिसियाना-सा होकर कहा।
-चुप बे, चमचे ! हमें सीधे बात करने दो।

-यह आपके माली जगन्नाथ की लड़की है। एक पत्रकार ने कहा।
-बड़ी अच्छी बच्ची है, क्या कष्ट है इसको ?
-जरा गौर से देखें, इसकी गोद में भी एक बच्ची है।
-हमारे देश में देवियों के सम्मान की गौरवमयी परंपरा रही है।
-यह ‘गौरवमयी परंपरा’ आपकी पोती है।
अब तो हिमालय के शिखर से सीधे हिंद महासागर में जा गिरने की स्थिति थी।
जी चाहा था कि जहां कहीं भी मूर्ख पप्पू हो, उसे उसके लंबे बालों से पकड़कर खींच लाएँ। उसके पर्याप्त गधा होने में हमें कोई कमी नजर न आई। इसी की उम्र के होंगे हम जब सौंदर्य प्रतियोगिता के लिए आई हुई एक कन्या हॉस्टल से उठवा ली थी। किसी को कानोंकान खबर नहीं हुई थी। अगले दिन युवकों के नैतिक उत्थान पर भाषण देकर ट्राफी भी जीत लाए थे।
दिन के तारे देखने से खुद को संभालकर युक्ति से काम लेना चाहा। ऐसे में हमारे पास पेचीदा उलझनों से निकलने का एक ही बहाना होता है-पड़ोसी देश की साजिश। कभी कहीं लगे कि यह नहीं चलने वाला तो विपक्ष की चाल के कंधे डालकर बरी हो जाते। लिहाजा मैंने कहा-यह विपक्ष का किया-धरा है। मैं इन बातों में नहीं आने वाला।

-    अच्छा, विपक्ष ने आपके बेटे को कहा कि गरीबों की इज्जत से खेल ? एक पत्रकार ने कहा।
-    हमारे साथ राजनीति नहीं करने का, ओ नेता..।
-    जनता को बहुत नाच नचाया, झूटे सपने दिखा-दिखाकर। आज यहां जनता के बीच ही तुम्हारा इंसाफ होगा। अब लगा कि मामला ज़रूरत से ज्यादा गंभीर है। लोग हैं कि पूरी तैयारी के साथ हल्ला बोल रहे हैं।
मैं हमेशा उड़ी चिड़िया पहचानने और लिफ़ाफ़ा देखकर मजमून पढ़ने में माहिर रहा हूँ। पिछली बार जब साथवाले राज्य में हमारी पार्टी सरकार बनाने के मामले में उन्नीस साबित हो रही थी और उधर मज़दूरों-किसानों की हमदर्दी का पता चलाकर समाजवादी भोंपू बजने वाला था तो मैंने किस तरह सोए हुए पार्टी-प्रधान को उठाकर बीस-बीस लाख में पाँच ‘स्वतंत्र’ खरीदवा दिए थे। मैंने कहा था, जनाब स्वतंत्र तो आजकल होते ही खरीदे जाने के लिए हैं..। इधर उन लड़कों को जाकर समझाया था-‘बेवकूफों, जीत ही गए तो पहले अपना कुछ संवार लो..सारा जमाना लाल झंड़ा कोट की भीतरी जेब में रखकर व्यक्तिगत मुनाफे पर लगा है..कुछ पा जाओगे और कल अपने चमचों को एक-एक साइकिल ही ले दोगे तो तुम्हारा प्रभाव बना रहेगा।...फिर सरकार बनवा..सरकार में रहकर समाज कल्याण ही तो करोगे नहीं तो सड़कों पर मार्च निकालते रह जाओगे....क्योंकि अपनी सरकार न बनी तो विपक्ष की सरकार गिराते हमें समय ही कितना लगता है...

पार्टी-प्रधान मान गए थे हमारी सूंघने की पॉवर को। केंद्र से भी अच्छी शतरंज खेलने पर बधाई भरे फोन आए थे। परंतु इस बार ये लोग हमारे भी बाप निकले। सालों से भनक तक न लगने दी,..और पूरी तैयारी के साथ धावा बोल दिया। एक दिन भी पहले पता चल गया होता तो सड़क पार करती किसी माली की बेटी के ट्रक के नीचे आने में देर ही कितनी लगती है। अस्पताल में प्रसव के समय कितनी महिलाओं के प्राण चले जाते हैं। रेल की पटरियों पर, नदी के पुल से गिरकर कई लड़कियां मर चुकी हैं-न धकेलने वालों की कोई फोटो अखबार में छपती है और न कटकर मरने वाली की कोई सूचना।

-नेता जी बड़े ही न्याय-प्रिय आदमी हैं। आप विश्वास करें सभी कुछ ठीक हो जाएगा। पी.ए. ने फिर गर्दन निकालकर कहा।
-तुम्हें कहा था न बीच में नहीं बोलना। अपन सीधी बात होने कू मांगता...
‘कहां फंसवा दिया पप्पू जी ने ? बोन्साई उगाते-उगाते इस माली की बेटी के लगाए कैक्टस में जा गिरे..। हमने सोचा। हमारी नजर में पप्पू एक लड़की की इज्जत खराब करने के लिए दोषी नहीं थे। दोषी इसलिए थे कि बाद में इस तरह बेखबर और मदमस्त क्यों रहे ? अपने किए धरे को ठीक से निपटाया क्यों नहीं ? मुझे समाज में चौर्य कर्म बुरा नहीं लगता, बुरा लगता है छोटी-छोटी भूलों की वजह से पकड़े जाना और जूते खाना। अचानक मुझे लगा कि कहीं पप्पू भी इस सबमें शामिल तो नहीं ? नहीं-नहीं ऐसा कैसे हो सकता है ? आखिर तो वह मेरा ही बेटा है। मेरी तरह निर्भीक और स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्ध। जनता के विश्वास को बनाए रखनेवाला। छोटी-छोटी अल्हड़ कमजोरियां उसे बांधकर रख नहीं सकती। वासना के पंक में पंकिल हो जाना एक बात है। बाद में बिलकुल अलग हट जाना दूसरी। यानी लिप्त होकर निर्लिप्त हो जाना।

-आने दो पप्पू जी को, देखना कैसे सीधा करता हूं।
-उसको सीधा करने से इनका बिगड़ा भाग्य तो नहीं बननेवाला। एक पत्रकार ने आक्रामक होते हुए कहा।
अपने आपको इस तरह घिरे हुए और निहत्थे पाकर हमें मुसीबत ज्यादा विकट नज़र आई। इसे पुलिस बल या अपने गुंडों से खदेड़ा जा सकता था, यदि साथ में पत्रकारों का वह टोला न होता।
किसी ने मुझे बताया था कि एक वैज्ञानिक, शायद आर्कमिडिज, बिलकुल मुफ्त में मारे गए थे। हुआ यह था कि वह एक गली में चाक से कुछ रेखाएं खींच रहे थे। उधर से एक सैनिक अपनी मस्ती में आया और उन रेखाओं को रौंदता हुआ चला गया। वैज्ञानिक ने उसे गले से पकड़ लिया। कहा-मेरी घंटो की मेहनत पर तुमने पानी फेर दिया। तुम आदमी हो या पाजामा ?
सैनिक से इस तरह बात जनता में से कोई नहीं कर सकता था। उसने तलवार निकाली और वैज्ञानिक की गर्दन उड़ा दी। लगा कि इस तरह घिरे रहकर हम भी बेमौत मारे जाएंगे। हमारे लिए राजनैतिक मृत्यु शरीर की मृत्यु से कहीं बढ़कर होती है। लिहाजा इमेज बचाना उस वक्त हमें बहुत जरूरी लगा नहीं तो तमाम चप्परकनातिए पत्रकार हमारी छवि को किसी लायक नहीं रहने देते।

आखिर कब तक हम बापू के गूंगे बंदर बने रहते ? आखिर हमने कहा-आप लोग इतने दावे से यह बात कह रहे हैं तो बिना किसी प्रणाम के तो बात करेंगे नहीं !
हमने बताया न कि वे लोग पूरी तैयारी के साथ आए थे। कमबख्तों ने एक मिनट भी नहीं लगाया और कई तस्वीरें पप्पू और माली की कुलच्छनी पुत्री की हमारे सामने फेंक दीं।
-आप इस अबला की ओर तो देखें।
-किसने कहा अबला इसे ? भारतीय नारी अब अबला नहीं है। हमने सदा स्त्री जाति के समानाधिकार के लिए संघर्ष किया है। अबला-अबला कहकर आप इसका अपमान कर रहे हैं। शर्म आनी चाहिए आप जैसे हितैषियों को जो सहानुभूति दिखाते-दिखाते अपाहिज बना देते हैं। किसी भी देश, संस्कृति और समाज का तब तक विकास नहीं हो सकता जब तक स्त्री जाति को सम्मान से नहीं देखा जाता।

फिर क्या था ! हमारे कंठ से भाषण की अजस्र धारा बहने लगी। उस धारा ने सभी को भिगो दिया।
तब हम आगे बढ़े। गेंद हमारे पाले में थी। यही वह क्षण था जब हम गोल कर सकते थे। ऐसा गोल जो मैराडोना भी नहीं कर सके। (कदाचित यह उनका कार्यक्षेत्र भी नहीं था।)
आवाज को अंतिम डिग्री तक मार्मिक बनाकर हमने कहा-पप्पू जी और इस बिटिया ने बात को हमसे गुप्त रखकर कैसा बड़ा अपराध करवा दिया। आज भी पता न चलता तो हमारी अंतरात्मा कैसे बोझ के तले बदी रहती।
‘ढाई हजार का खरचा समझें।’ उसने दो को अढ़ाई करते हुए कहा।
हमने नेहरू बास्केट की जेब में हाथ डाला। पांच-पांच सौ के दस नोट गिनकर आगे बढ़ाते हुए कहा-पांच हजार रखें। टॉनिक बादाम-सादाम भी लाएं। कितनी कमजोर हो गई है बेचारी।
ऐसा है पत्रकार भाइयो ! आप लोग हैं अंधेरे के सागर के प्रकाश स्तंभ ! हमारा पग रसातल में चला जाता, इससे पहले आपने बचा लिया। इस मिलन की दावत आपको बुलाकर फिर कभी देंगे।..भानमती की उम्र है अभी सोलह-सत्रह वर्ष। हमने राष्ट्रीय अभियान चला रखा है कि कच्ची मिट्टी की मटकी टूट जाती है। आपने खुद ही टी.वी.में देखा होगा। भानमती की जब तक पत्नी बनने की उम्र नहीं हो जाती, यह रहेगी अपने चाचा के पास। खर्च सारा हम उठाएँगे। क्यों चाचा, रखेंगे न बिटिया को ?

हां।
एक अच्छी-सी चितकबरी गैया खरीद लीजे। धन हम भिजवा देंगे ताकि बिटिया की ठीक से परवरिश हो सके।
हमने कहा था न, नेता जी बड़े न्यायप्रिय हैं. पी.ए. ने पुन: आगे बढ़कर कहा।
जब सभी लोग आपस में खुसुर-पुसुर कर रहे थे। हमने वहां से निकल जाना पसंद किया। जाते-जाते कन्या के चाचा से धीमे से कहा-बाल्टी जब तक कुएँ में डूबी रहे, हल्की नजर आती है।
वह समझने की कोशिश करता रहा और हम बाहर आ गए। बरामदे में बोन्साई पौधे खिलखिला रहे थे।





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