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दिवास्वप्न

काशिनाथ त्रिवेदी

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :85
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5127
आईएसबीएन :81-237-0831-9

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एक श्रेष्ठ उपन्यास

Dewaswapna

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘दिवास्वप्न’’ एक ऐसे शिक्षक की काल्पनिक कथा है जो शिक्षा की दकियानूसी संस्कृति को नहीं स्वीकारता और परंपरा व पाठ्यपुस्तकों की सचेत अवहेलना करके बच्चों के प्रति सरस और प्रयोगशील बना रहता है। उसके प्रयोगों की सैद्धांतिक पृष्ठभूमि मोंटेसरी में है, पर तैयारी और क्रियान्वयन ठेठ देसी है। ‘‘दिवास्वप्न’’ को पढ़ते-पढते मन बेरंग, धूल-धूसरित शालाओं की उदासी को भेजकर उल्लास और जिज्ञासा की झटक में बह जाता है और उस समय का चित्र बनाने में लग जाता है जब देश के लाखों स्कूलों में कैद पड़ी प्रतिभा बह निकलेगी और बच्चे अपने शिक्षक के साथ स्कूल के गिर्द फैली दुनिया का जायजा आनंदपूर्वक कक्षा में बैठकर ले सकेंगे।

प्रथम खंड 
प्रयोग का आरम्भ


मैंने पढ़ा और सोचा तो बहुत-कुछ था, परन्तु मुझे अनुभव नहीं था। मैंने सोचा, मुझे स्वयं अनुभव भी करना चाहिए। तभी मेरे विचार पक्के बनेंगे। तभी यह मालूम होगा कि मेरी आज की कल्पना में कितनी सच्चाई है और कितना खोखलापन।
मैं शिक्षा-विभाग के एक बड़े अधिकारी के पास गया और उनसे प्रार्थना की कि वह मुझे प्राथमिक पाठशाला की एक कक्षा सौंप दें।
अधिकारी जरा हँसे और बोले- ‘रहने भी दो भाई ! यह काम तुमसे नहीं बनेगा। लड़को को पढ़ाना, सो भी प्राथमिक पाठशाला के लड़कों को ! ऐसे काम में एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है। तुम ठहरे लेखक और विचारक। मेज-कुर्सी पर बैठकर लेख लिखना है  और कल्पना में पढ़ा लेना भी सहज है, कठिन है प्रत्यक्ष काम करना और फिर उसे सिरे लगाना।’

मैंने कहा-‘अच्छा, यदि तुम्हारा आग्रह ही है तो खुशी से एक साल तक अनुभव करो। प्राथमिक पाठशाला की चौथी कक्षा मैं तुम्हें सौंपता हूँ। यह उसका पाठ्यक्रम है। ये उसमें चलने वाली कुछ पाठ्यपुस्तकें हैं, ये शिक्षा-विभाग की छुट्टी आदि के कुछ नियम हैं।’
मैंने आदर की दृष्टि से उन सब चीजों को देखा। पाठ्यक्रम हाथ में लेकर जेब में रखा और पाठ्यक्रमों को एक डोरी से बाँधने लगा।
साहब ने कहा-‘देखों, जैसे चाहों वैसे प्रयोग करने की स्वतंत्रता तो तुम्हें है ही, इसके लिए तो तुम आए ही हो। लेकिन यह भी ध्यान में रखना कि बारहवें महीने में परीक्षा सामने आ खड़ी होगी और तुम्हारा काम परीक्षा के परीणामों से मापा जाएगा।’

मैंने कहा-‘कबूल है। लेकिन मेरी विनती है, परीक्षक आप स्वयं ही रहिएगा। स्वयं आप ही को मेरे काम का अन्दाजा लगाना होगा। प्रयोग करने की स्वतंत्रता आप दे रहे हैं तो आप ही को अपना काम दिखाकर मैं सन्तोष भी मानूंगा। मेरी सफलता और असफलता के कारण आप ही समझ सकेंगे।’

अधिकारी महोदय ने हँसकर स्वीकृति-सूचक सिर हिलाया और मैं कार्यालय से बाहर निकल आया।

2


मैं सारा पाठ्यक्रम देख चुका था। मुझे विश्वास हो गया था कि कई बदलाव करने होंगे। पाठ्यपुस्तकों को भी मैं एक नजर में देख गया। उनके गुण-दोष आँखों के सामने तैरने लगे। क्या-क्या सुधार हो सकेंगे, सो भी सोच लिया। मन में मानो पहले दिन से आखिर दिन के काम का एक चित्र खड़ा हो गया। परीक्षा और उसके परिणाम के दिन की भी मैंने कल्पना कर ली और इन बातों के मनसूबे भी बँध गए कि सारा साल इस तरह काम होगा और यह परिणाम आएगा। विचारों में रात के दो कब बज गए पता ही नहीं चला। आखिर अगले दिन के कार्यक्रम को कागज पर लिखने के बाद तीन बजते-बजते मैं सो गया।

सबेरा हुआ। उत्साह था, वेग था। नहा-धोकर, अल्पाहार करके मैं ठीक समय पर तीसरे नम्बर की पाठशाला में जा पहुँचा। अभी शाला खुली नहीं थी। हमारे प्रधानाध्यापक भी नहीं आये थे। चपरासी उनके घर चाबी लेने गया था। लड़कों का आना-जाना शुरू था और सड़क पर उनकी दौड़-धूप मची हुई थी।
मैं सोच रहा था-कब पाठशाला खुले, और कब कक्षा को संभाल कर काम शुरू करूँ ? कब अपनी योजनाएँ पेश करूँ ? कब व्यवस्था और शान्ति की शुरूआत करूँ ? कब रसिक रीति से पाठ समझाऊँ ? और कब छात्रों के मन हर लूँ ? उस समय शायद मेरे दिमाग में खून तेजी से चक्कर काट रहा होगा !

घंटी बजी। लड़के कक्षा में आ बैठे। प्रधानाध्यापक ने मेरे साथ आकर मुझे मेरी कक्षा दिखाई और लड़कों से कहा-‘देखो, ये महाशय लक्ष्मीशंकर आज से तुम्हारे शिक्षक हैं। ये जैसा कहें, वैसा ही करना। इनकी आज्ञा मानना। देखना, कोई ऊधम मत मचाना।’

प्रधानाध्यापक बोल रहे थे और इधर मैं अपने अगले बारह महीनों के साथियों को सामने बैठा देख रहा था। कोई मुस्कराया, किसी ने तिरक्षी निगाह करके आँख मारी, किसी ने ऐंठ के साथ सिर हिलाया, कुछ मुझे आश्चर्य और मजाक की नजर से देखते रहे, और कुछ भौंचक खड़े रहे।
मैंने देखा कि इन लड़कों को मुझे पढ़ाना था ! इन मसखरे, ऊधमी, ऐंठबाज और विचित्र लड़कों को ! मन थोड़ा डर सा गया, छाती भी धड़क गई, लेकिन फिर सोचा-परवाह नहीं, धीरे-धीरे देख लूँगा।

मैं रात नोट की हुई बातें जेब से निकाल कर देखने लगा। लिखा था-पहले शान्ति का खेल, फिर कक्षा की सफाई की जाँच, फिर सहगान, फिर वार्तालाप आदि।

मैंने लड़कों से कहा- ‘आओ, हम शान्ति का खेल खेलें। देखो मैं जब ‘ऊँ शान्ति कहूँ तो तुम सब चुपचाप बैठ जाना। बराबर पालथी मारकर बैठना। देखना, कोई हिलना-डुलना तक नहीं। फिर मैं खिड़कियां बंद करूँगा तो हर तरफ अँधेरा होगा। तुम सब शान्त रहना। तुम्हें आस-पास का कोलाहल सुनाई देगा। उसको सुनने में बड़ा मज़ा आएगा। मक्खियों की भिनभिनाहट सुनाई पड़ेगी। अपने साँसों की आवाज भी सुनाई पड़ेगी। फिर मैं गाऊँगा और तुम सब चुपचाप सुनना।’
इतना कह चुकने के बाद मैंने शान्ति का खेल शुरू किया। मैं ‘ऊँ शान्तिः’ बोला, लेकिन लड़के तो धक्का-मुक्की और बातों में लगे थे। दो-चार बार बोला, लेकिन मानो मेरी आवाज किसी को सुनायी ही न दी हो जैसे ! मैं मन ही मन सकपकाया। यह कैसे कहता कि ‘चुप रहो ! गड़बड़ मत करो !’ तमाचा मारकर डराता भी कैसे ? खैर, मैं आगे बढ़ा और खिड़कियाँ बंद कर दीं। अँधेरा हुआ और ध्यान (?) चला। लड़कों में से कोई ‘ऊँ-ऊँ’ करने लगा, कोई ‘हाऊ-हाऊ’ करने लगा, तो कोई ‘धम-धम’ पैर पटकने लगा। इतने में एक ने ताली बजाई और सब ताली बजाने लगे। फिर कोई हँसा और हँसी उड़ने लगी। मैं खिसिया गया। मुँह फीका पड गया। मैंने खिड़कियाँ खोल दीं और थोड़ी देर कमरे से बाहर  जाकर वापस आया। सारी कक्षा ऊधम मचाने लगी थी। लड़के एक-दूसरे से ‘ऊँ शान्तिः’ कह रहे थे। कुछ खड़े होकर खुद ही खिड़कियाँ बन्द कर रहे थे।

मैंने सोचा-ये नोट्स बेकार है। घर मैं बैठ-बैठे अटकले लगाना और कल्पना में पढ़ा लेना सहज था, लेकिन यह तो लोहे के चने चबाने जैसा है। जो अब तक कोलाहल और ऊधम में ही पले हैं, उनके सामने शान्ति का खेल अभी तो भैंस के सामने बीन बजाने के समान है। लेकिन चिन्ता नहीं। अच्छा ही हुआ कि पहले ही कौर में यह मक्खी आ गयी। कल से अब नया काम आरम्भ करूँगा।

मैं कक्षा में आया और लडकों से कहा-‘आज अब और काम नहीं करेंगे। कल अपना नया काम शुरू होगा। आज तो तुम सब छुट्टी मनाओ।’
‘छुट्टी’ शब्द सुनते ही लड़के ‘हो-हो’ करके कमरे से बाहर निकले और सारे स्कूल में खलबली मच गई। सारा वतावरण ‘छुट्टी, छुट्टी, छुट्टी’ के शब्दों से गूंज उठा। लड़के उछलते-कूदते और छलाँग भरते घरों की तरफ भागने लगे।
दूसरे शिक्षक और विद्यार्थी ताकते रह गए। ‘यह क्या है ?’ प्रधानाध्यापक एकदम मेरे पास आए और ज़रा भौहें तानकर बोले-‘आपने इन्हें छुट्टी कैसै दे दी ? अभी तो दो घंटों की देर है।’

मैंने कहा-‘जी, लड़कों की आज इच्छा नहीं थी। वे आज अव्यवस्थित भी थे शान्ति के खेल मैं मैंने यह अनुभव किया था।’
प्रधानाध्यापक ने कड़ी आवाज में कहा-‘लेकिन इस तरह आप बगैर मुझसे पूछे छुट्टी नहीं दे सकते। एक कक्षा के लड़के घर चले जाएँगे तो दूसरे कैसे पढ़ेंगे ? आपके ये प्रयोग यहाँ नहीं चलने वाले।’
उन्होंने ज़रा रोष में आकर फिर कहा-‘अपनी यह इच्छा-विच्छा रहने दीजिए शान्ति का खेल तो होता है मोंटेसरी शाला में। यहाँ प्राथमिक पाठशाला में तो चट तमाचा मारा नहीं और पट सब चुप नहीं ! और फिर नियामानुसार सब पढ़ते-पढ़ाते है। आप उसी तरह पढ़ायेंगे तो बारह महीनों में कोई परिणाम नजर आएगा। आज का दिन तो यों ही गया, और उल्लू बने, सो अलग।’

 मुझे अपने प्रधानाध्यापक पर दया आई। मैंने कहा-‘साहब, तमाचा मारकर पढ़ाने का काम तो दूसरे सब कर ही रहे है और उसका फल मैं तो यह देख रहा हूँ कि लड़के बेहद असभ्य, जंगली, अशान्त और अव्यवस्थित हो चुके है। मैंने तो यह भी देख लिया है कि इन चार वर्षों की शिक्षा में लड़कों ने तालियाँ बजाना और, ‘हा, हा,’ ‘हू, हू,’ करना ही सीखा है ! उन्हें अपनी पाठशाला से प्रेम तो है ही नहीं। छुट्टी का नाम सुना नहीं कि उछलते-कूदते भाग गए !’
 
प्रधानाध्यापक बोले-‘तो अब आप क्या करते है, सो हम देख लेंगे।’
मैं धीमे पैरों और बैठे दिल से घर लौटा। लेटे-लेटे मैं सोचने लगा-काम बेशक मुश्किल है ! लेकिन इसी में मेरी सच्ची परीक्षा है। चिन्ता नहीं। हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। इस तरह कहीं ‘शान्ति का खेल’ होता है ? मोंटेसरी-पद्धति में इसके लिए शुरू से कितनी तालीम दी जाती है ? मैं भी कितना मूर्ख हूँ जो पहले ही दिन से यह काम शुरू कर दिया ! पहले मुझे उन लोगों से थोड़ा परिचय बढ़ाना चाहिए। मेरे लिए उनके दिल में कुछ प्रेम और रस पैदा होना चाहिए। तब कहीं जाकर वे मेरा कुछ कहना मानेंगे। जहाँ पढ़ाई नहीं, बल्कि छुट्टी प्यारी है, वहाँ काम करने के माने है, भगीरथ का गंगा को लाना !
दूसरे दिन के काम की बातें निश्चित कीं और मैं सो गया। रात तो आज के और अगले दिन के काम के सपने देखने में ही बीत गई !

3


पाठशाला खुली और मैं कक्षा में गया। लड़के मुझे घेर कर खड़े हो गए और मौज में आकर, मज़ाकिया तौर पर, लेकिन बिना डरे, कहने लगे-‘मास्टर आज भी छुट्टी दीजिए न ! आज भी, छुट्टी, छट्टी, छुट्टी !’
 
मैंने कहा ‘अच्छी बात है छुट्टी तो आज भी दूँगा। लेकिन सारे दिन की नहीं, दो घंटों की। पहले ठहरो मैं तुमको एक कहानी सुनाता हूं। तुम सब सुनो। बाद में हम दूसरी बातें करेंगे।’
 मैंने तुरन्त ही कहानी शुरू की।
एक था राजा, उसके सात रानियाँ थीं। हर एक रानी के दो-दो बच्चे थे-एक कुंवर और एक राजकुमारी। इतना सुनते ही हो हल्ला मचाते हुए सब लड़के मुझे घेर कर बैठ गए। मैं कहानी कहते-कहते जरा रुका और बोला-‘देखो सब अच्छी तरह बैठो। यों तो काम नहीं चलेगा।’

सभी ठीक से बैठ गए और कहने लगे-‘तो जल्दी कहानी कहिए, आगे क्या हुआ ?’
मैंने मुस्कराते हुए शुरू किया
‘उन सातों राजकुमारियों के सात-सात महल, और हर महल में सात-सात मोतियों के झाड़ !’
लड़के फटी आँखों से कहानी सुनने लगे। सारी कक्षा में सन्नाटा था। न कोई बोलता था, न हिलता था। प्रधानाध्यापक ने सोचा होगा, आज इस कक्षा में इतनी अधिक शान्ति क्यों हैं ? वे कक्षा में आ धमके। मुझसे बोले-‘कहिए, कहानी सुना रहे हैं ?’
 
मैंने कहा-‘जी हाँ। कहानी और यह नए प्रकार का शान्ति का खेल, दोनों साथ-साथ चल रहे हैं।’ प्रधानाध्यापक वापस लौट गए। मेरी कहानी चल रही थी। उधर आसपास की कक्षाओं में बड़ा कोलाहल हो रहा था। मैंने कहा -‘देखो, आसपास यह कैसी गड़बड हो रही है ?’ सब लड़को ने उस कोलाहल के प्रति तिरस्कार प्रकट किया।

कहानी आधी खत्म हुई और मैंने कहा-‘बोलों बच्चों, छुट्टी चाहते हो तो कहानी बंद कर दूँ ? नहीं तो कहानी चालूँ रखूँ।’
सब बोले -‘चालू, चालू ! हम छुट्टी नहीं चाहते।’
मैंने कहा अच्छी बात है, तो कहानी सुनों।’ लेकिन मैं बोला-‘बीच में हम थोड़ी बातचीत कर लें ? फिर घंटी बजने तक मैं कहानी ही सुनाऊँगा।’
एक लड़का बोला- ‘नहीं, बातचीत कल कीजिएगा। जल्दी कहानी सुनाइये ताकि पूरी हो।’
मैंने कहा कहानी तो इतनी लम्बी है कि चार दिन तक चलेगी।’
सब- ‘ओहो ! इतनी लम्बी ! तब तो बड़ा मजा़ आएगा !’
मैंने जेब से रजिस्टर निकाला और नाम लिखना शुरू किया। सबने बारी-बारी से झटपट अपने नाम लिखवाये। फिर मैंने हाजिरी ली और कहा-‘देखो, अब से हम कहानी शुरू करने से पहले हाजिरी भरेंगे, फिर कहानी कहेंगे।’ इतना कहकर मैंने जो कहानी छेड़ी, सो घंटी बजने तक चलती रही।
समय पूरा हो चुका था, लेकिन लड़के कहने लगे- ‘अभी बैठिए और कहानी कहिए।’
मैंने कहा-‘बस-बस, अब कल।’ फिर पूछा-‘कल  छुट्टी या कहानी ?’ सब बोले ‘कहानी, कहानी, कहानी !’ इतना कहते हुए बच्चे जाने लगे।
कल के ‘छुट्टी, छुट्टी, छट्टी’ शब्दों के बदले आज वातावरण में कहानी, कहानी, कहानी शब्द गूंज उठे !
मैंने सोचा-चलो, आज का दिन तो सुधरा ! सच ही है कहानी एक अजब जादू है। सवा सोलह आने सच !

4


दूसरे दिन सवेरे सब लड़के मुस्कराते-मुस्कराते आए। मैं कक्षा में पहुँचा कि सब एक पर एक गिरते-पड़ते मुझे घेर कर बैठ गए। बोले-‘मास्टर साहब, अब कहानी कहिए न !’
मैंने कहा पहले हाजिरी, फिर बातचीत, और फिर हमारी कहानी।’
जेब में खड़िया मिट्टी का टुकड़ा निकालकर मैंने एक गोलाकार बनाया और कहा- ‘देखो, रोज इसपर आकर बैठा करना।’ तब स्वयं बैठकर दिखाते हुए कहा-‘इस तरह। यह जगह मेरी। यहाँ बैठकर मैं कहानी कहूँगा।’
सब बैठ गए। मैं भी बैठा। हाजिरी ली और कहानी शुरू की। सब उत्साहित थे। कहानी छेड़ दी। मंत्रमुग्ध पुतलों की तरह सब सुन रहे थे। बीच में कहानी रोककर कहा-‘कहो, कहानी कैसी लग रही है ?’
‘बहुत अच्छी लग रही है।’

‘जैसे तुम सबको कहानी सुनना पंसद है क्या वैसे ही कहानी पढ़ना भी पसंद है ?’
‘हाँ जी, हमको कहानी पढ़ना भी पसंद है। लेकिन ऐसी किताबें मिलती कहाँ है ?’
‘अगर मैं तुम्हारे लिए कहानी की ऐसी किताब ला दूँ तो तुम पढ़ोगे या नहीं ?’
‘पढ़ेंगे, जरूर पढ़ेंगे !’
इतने में एक चतुर लड़का बोला-‘लेकिन आपको कहानी कहनी तो होगी ही ! अपने आप पढ़ने में वो बात कहाँ !’
मैंने कहा- ‘अच्छा।’ और कहानी आगे बढ़ाई।
घंटी बजी और मेरी कहानी अटक गयी। सब मुझे घेरकर खड़े हो गए। कुछ मुझे प्रेम से ताकने लगे। कुछ मेरे हाथ को धीरे-धीरे छूने और मन ही मन प्रसन्न होने लगे।
मैंने कहा-‘जाओ, अब भाग जाओ। छुट्टी हो चुकी, घर जाओ।’
लड़के बोले-‘जी, हम नहीं जायेंगे। आप कहानी कहिए, शाम तक बैठेंगे।’

लड़के गए और कुछ शिक्षक मेरे पास आए। कहने लगे-‘भाई साहब, आपने तो खूब की। अब हमारी कक्षा के लड़के भी कहानी चाहते हैं। आजकल वे पढ़ने में ध्यान नहीं लगाते। बार-बार यही कहते हैं, हम भी कहानी सुनने जाएँगे, नहीं तो आप ही कहानी कहिए।’
मैंने कहा- ‘आप कुछ कहते रहिए न !’
वे बोले-‘लेकिन कहना आता किसे है ? कहें तो तब न, जब एक भी कहानी याद हो !’
मैं मूँछों में मुस्कराता रहा।
दूसरे दिन रविवार था। मैं उस दिन साहब से मिलने गया।
साहब ने कहा-‘भाई, प्रधानाध्यापक कहते थे, तुम पूरे समय कहानी ही कहा करते हो।’
मैंने कहा-‘जी हाँ, अभी तो कहानी ही चल रही है।’
साहब ने पूछा-‘तो फिर प्रयोग कब करोगे ? अभ्यास कैसे पूरा होगा ?’

मैंने कहा-‘साहब, प्रयोग तो चल रहा है। अब तो मैं खुद अनुभव कर रहा हूँ कि विद्यार्थियों और शिक्षकों को एक-दूसरे के नजदीक लाने में कहानी कितनी अजब और जादू-भरी चीज है। पहले दिन जो मेरी सुनते तक नहीं थे, और जो ‘हा-हा, ही ही’ करके मेरी खिल्ली उड़ा रहे थे, वे ही जब से कहानी सुनने को मिली है, तब से शान्त बन गए हैं। मेरी ओर प्रेम से देखते हैं। मेरा कहना सुनते हैं। मैं जैसा कहता हूँ, उसी प्रकार बैठते हैं। ‘चुप रहो, गडबड़ न करो’ तो मुझे कभी कहना ही नहीं पड़ता ! और कक्षा में से तो निकालने पर भी नहीं निकलते।’
साहब ने कहा-‘अच्छा यह तो समझा, लेकिन अब नई रीति से सिखाना कब शुरू करोगे ?’
मैंने कहा ‘जी, सिखाने की यही तो नई रीति है । कहानी के द्वारा आज व्यवस्था सिखाई जा रही है; ध्यान का अभ्यास हो रहा है; भाषा-शुद्धि और साहित्य का परिचय दिया जा रहा है। कल कुछ दूसरी बातें भी सिखानी शुरू की जाएँगी।’

साहब बोले- ‘लेकिन देखना, कहीं कहानी-कहानी में ही सारा साल खत्म न हो जाए।’
मैंने कहा- ‘जी आप इसकी चिन्ता मत कीजिए।’

6


कहानी के लिए कक्षा के विद्यार्थी गोलाकार जमकर बैठे थे। मैंने तख्ते पर लिखाः
आज का काम–हाजिरी, बातजीत, कहानी। हाजिरी भरने के बाद मैंने बातचीत छेड़ी। मैंने कहा-‘लाओ देखें, तुम्हारे नाखून कितने बढ़े हुए हैं ? सब खड़े होकर अपने हाथ तो दिखाओ’
हर एक लडके के नाखून बढ़े हुए थे। नखूनों में मैल जमा था।
मैंने कहा- ‘अपनी टोपियाँ हाथ में लो और देखो, कैसी मैली और फटी पुरानी है।
सबने अपनी टोपियाँ देखीं। किसी विरले की ही टोपी अच्छी थी।
मैं बोला-’देखो, तुम्हारे कोट के बटन साबित हैं ?’
फिर मैंने कहा-‘आज और ज्यादा जांच नहीं होगी। कहानी में देर हो रही है।’ यह कहकर मैंने कहानी शुरू कर दी।
कहानी के बीच में एक लड़के ने पूछा-‘जी, कहानी की किताबों का क्या हुआ ?’
मैंने कहा-‘एक-दो दिन में ले आऊँगा। हाँ, जो कहानी की किताब पड़ना चाहते हो हाथ उठाएँ।’
हर विद्यार्थी का हाथ उठा हुआ था।
मैंने पूछा-‘तुमने कहानी की जो-जो किताबें पढ़ी हैं, उनके नाम तो बोलो।’ कुछ लड़कों ने दो-चार कहानियाँ पढ़ी थीं। वे चौथी कक्षा तक आ चुके थे, फिर भी उन्होंने पाठ्यपुस्तकों को छोड़कर और पुस्तकें बहुत ही कम पढ़ी थीं।
मैंने पूछा-‘ तुममें से कोई मासिक-पत्रिका भी पढ़ता है  ?’ दो जनों ने कहा-‘जी, हम ‘बाल सखा’ पढ़ते हैं।
मैंने कहा-‘अच्छी बात है। मैं कहानियाँ लाऊँगा और तुम सब पढ़ना। इतनी अधिक कहानियाँ लाऊँगा कि तुम पढ़ते-पढ़ते थक जाओगे।’

सब बहुत ही प्रसन्न दिखाई पड़े।
फिर कहानी आगे चली तो घंटी बजने तक चलती रही। छुट्टी हुई और मैंने कहा-‘भाई, एक बात सुनते जाओ। गोले पर बैठकर सुनो। कल ये नाखून फिर नाई से कटवाकर आना। खुद काट सको तो खुद काट लेना, नहीं तो बाबूजी से कहना या फिर नाई आए तो उससे कटवा लेना।’
एक बोला- ‘जी, मैं तो अपने दाँत से काट लूँगा।’
मैंने कहा-‘नहीं भाई, ऐसा मत करना। नाखून या तो नहनी से काटते हैं या छुरी से।’
मैंने फिर कहा-‘एक तमाशा हम और करेंगे।’
सब बोले- ‘वह क्या ?’
‘तुम नंगे सिर पाठशाला आया करो। यह गन्दी टोपी किस काम की ? और हमें टोपी की जरूरत ही क्या है ?’
सब हँस पडे। कहने लगे-‘नंगे सिर मदरसे भी आ सकते हैं भला ? प्रधानाध्यापक नाराज नहीं होंगे ?’   

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