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बच्चन की आत्मकथा

अजितकुमार

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5128
आईएसबीएन :9788123728834

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बच्चन की आत्मकथा हरिवंश राय बच्चन द्वारा चार खण्डों में लिखी गई आत्मकथात्मक कृतियां-क्या भूलूं क्या याद करूं’ (1969); ‘नींड़ का निर्माण फिर’ 1970); ‘बसेरे से दूर’ (1977); ‘दशद्वार से सोपान तक’ (1985) का संक्षिप्त संस्करण है।

Bachchan Ki Aatmakatha a hindi book by Ajitkumar - बच्चन की आत्मकथा - अजितकुमार

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बच्चन की आत्मकथा हरिवंश राय बच्चन द्वारा चार खण्डों में लिखी गई आत्मकथात्मक कृतियां-क्या भूलूं क्या याद करूं’ (1969); ‘नींड़ का निर्माण फिर’ (1970); ‘बसेरे से दूर’ (1977); ‘दशद्वार से सोपान तक’ (1985) का संक्षिप्त संस्करण है। 1200 पृष्ठों” के इस आत्मकथात्मक कृति को 161 पृष्ठों में लाकर संक्षेपक अजित कुमार ने वास्तव में गागर में सागर भर दिया है।

यह संक्षिप्त संस्करण संक्षिप्त होने के बावजूद बच्चन की जीवन प्रक्रिया के विस्तृत व्याख्यान की ओर संकेत करता है। बच्चन के पूर्वजों से लेकर बच्चन की तीसरी पीढ़ी की जानकारी देती हुई यह आत्मकथात्मक कृति पढ़ते समय निश्चित रूप से पाठकों को किसी कथात्मक कृति का आभास देती रहती है। यदि इस कृति के पात्र इतने जाने पहचाने न होते तो सीधे-सीधे यह प्रथम पुरुष में लिखा हुआ एक ऐसा उपन्यास लगता जिसका नायक बच्चन का एक व्यक्ति होता और जिसके जीवन के उतार चढ़ाव एक जिज्ञासापरक कथा की ओर संकेत करता होता।

 

उद्धरण

 

‘‘पाठकों, यह किताब ईमानदारी के साथ लिखी गई है। मैं आपको पहले से ही आगाह कर दूं कि इसके लिखने में मेरा एकमात्र लक्ष्य घरेलू अथवा निजी रहा है। इसके द्वारा पर-सेवा अथवा आत्म-श्लाघा को कोई विचार मेरे मन में नहीं है। सो ध्येय मेरी क्षमता से परे है। इसे मैंने अपने संबंधियों तथा मित्रों के व्यक्तिगत उपयोग के लिए तैयार किया है कि जब मैं न रहूं (और ऐसी घड़ी दूर नहीं है) तब वे इन पृष्ठों से मेरे गुण-स्वभाव के कुछ चिह्न सिंचित कर सकें और इस प्रकार जिस रूप में उन्होंने मुझे जीवन में जाना है, उससे अधिक सच्चे और सजीव रूप में वे अपनी स्मृति में रख सकें। अगर मैं दुनिया से किसी पुरस्कार का तलबगार होता तो मैं अपने आपको और अच्छी तरह सजाता बजाता, और अधिक ध्यान से रंग-चुनकर उसके सामने पेश करता। मैं चाहता हूं कि लोग मुझे मेरे सरल, स्वाभाविक और साधारण स्वरूप में देख सकें।

सहज, निष्प्रयास प्रस्तुत, क्योंकि मुझे अपना ही तो चित्रण करना है। मैं अपने गुण-दोष जन-जीवन के सम्मुख रखने जा रहा हूं पर ऐसी स्वाभाविक शैली में, जो लोक-शील से मर्यादित हो। यदि मेरा जन्म उन जातियों में हुआ हुआ होता जो आज भी प्राकृतिक नियमों की मूलभूत स्वच्छंदता का सुखद उपयोग करती हैं तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूं, कि मैं बड़े आनंद से अपने-आप को आपादमस्तक एकदम नग्न उपस्थित कर देता। इस प्रकार, पाठकों, मैं स्वयं अपनी पुस्तक का विषय हूं; और मैं कोई वजह नहीं देखता कि आप अपनी फुरसत की घड़ियां ऐसे नगण्य और निरर्थक विषय पर सर्फ करें। इसलिए मानतेन की विदा स्वीकार कीजिए। 1 मार्च, 1989’’

 

मानतेन

 

संपादकीय

 

वही कृतियां कालजयी कहलाती हैं जो अपने लेखक और अपने युग के बीत जाने पर लंबे समय तक पाठकों द्वारा पढ़ी और सुधीजनों द्वारा सराही जाती हैं। पर कुछ कृतियां ऐसी भी होती हैं जो लेखक के अपने समय में भी उत्कृष्टता के मानदंडों पर खरी उतरना शुरू कर देतीं हैं और जताने लगती हैं कि वे बहुत दूर तक और बहुत देर तक प्रासंगिक बनी रहेंगी। प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय हिन्दी कवि बच्चन (डॉ. हरिवंश राय बच्चन) की आत्मकथा भी एक ऐसी ही रचना है जिसे संभवतः ‘आधुनिक क्लैसिक’ अथवा हमारे समय के एक गौरव ग्रंथ की संज्ञा दी जा सके।

अपने मूलरूप में इस आत्मकथा का आकार विशाल है। लगभग तीन-तीन सौ पृष्ठों के चार खंड़ों में यह फैली है। इन खंडों के शीर्षक हैं-‘क्या भूलूं, क्या याद करूं’ ‘नीड़ का निर्माड़ फिर’, ‘बसेरे से दूर’ और ‘दशद्वार से सोपान तक’-जो क्रमशः 1969, 1970, 1978, और 1985 में प्रथम बार प्रकाशित हुए थे और जिनका रचना काल जहां 1963 से 1985 की लंबी अवधि में फैला रहा, वहीं पिछले तीस वर्षों के दौरान हिन्दी प्रेमियों के वृहद समुदाय ने इन्हें बड़े आग्रह के साथ अपनाया है। यह आत्मकथा आलोचकों द्वारा भी बहुत सराही गई है, जिसकी गूंज विभिन्न भारतीय भाषाओं तक पहुंची। अंग्रेजी में भी इसका एक संक्षिप्त रूपांतरण प्रकाशित हो चुका है।

यह जरूरत बहुत पहले से महसूस की जा रही थी कि बच्चनजी की आत्मकथा का संक्षिप्त संस्करण हिन्दी में छपे ताकि अन्य भारतीय भाषाओं में उसका अनुवाद किया जा सके। इस विचार के मूल में यह आशा भी निहित थी कि एक छोटा-सा झरोखा खुल सकेगा जो इस रचना में अंतर्निहित वैभव तथा विस्तार की झांकी दिखलाने में समर्थ होगा, साथ ही पाठकों को प्रेरित करेगा कि वे मूल कृति के गंभीर अवलोकन में प्रवृत हों।
वैसे तो इस आत्मकथा के चारों खंड सुलभ हैं और अलग-अलग या एक साथ कभी भी पढ़े जा सकते हैं, पर उनके संक्षेपण का विशेष प्रयोजन-संपादक के लिए-यह है कि शायद इस बहाने वर्षों से संन्यस्त और लेखन-प्रकाशन के प्रति उदासीन बच्चनजी अपनी स्मृतियों के संसार में फिर वापस लौटे-कुछ-कुछ उसी तरह,

जैसे सन् 1983 में ‘बच्चन रचनावली’ प्रकाशित हो चुकने के बाद उन्होंने आत्मकथा का चौथा खंड लिखना शुरू किया था और वह 1985 में प्रकाशित हुआ था। कौन जाने, उनकी यह संक्षिप्त आत्मकथा एक ऐसा पलीता या कीमिया साबित हो, जो हमारे युग के इस अत्यंत समर्थ लेखक के भीतर कोई सुगबुगी या विस्फोट पैदा कर, उनकी आत्मकथा के बहु-प्रतीक्षित पांचवें खंड के लेखन प्रकाशन का निमित्त बन जाए। 4 जुलाई 1985 को अपनी आयु के 77 वर्ष 7 महीने 7 दिन पूरे होने पर बच्चन जी ने आत्मकथा के चौथे खंड का समापन किया था जबकि उससे लगभग आठ वर्ष पूर्व, 7.7.1977 को आत्मकथा के तीसरे खंड की समाप्ति पर वे अपने पाठकों से इन शब्दों द्वारा विदा ले चुके थे :

‘‘यदि इसे मेरी अतिशयोक्ति न समझा जाए तो मैं कहना चाहूंगा कि जीवन के सत्य और शब्द के सत्य में कोई साम्य नहीं है, और जीवन की दृष्टि से शब्दों का सत्य एक बहुत बड़ा, लेकिन बहुत सुदंर झूठ है। जो चीज रक्त से लिखी जाती है वह स्याही से लिखी जा सकती है ? जो काम हमारी शिराएँ हमारी मांसपेशियां करती हैं, क्या हम उसे जड़ लेखनी से करा सकते हैं और हृदय और मस्तिष्क के फलक पर जो मर्मस्पर्शी और मर्मबंधी स्पंदन होते हैं, क्या उन्हें कोरे कागजों पर फैलाया जा सकता है ? नहीं। नहीं नहीं।

इस प्रकार पाठकों, (मुझे मानतेन के लहजे में बोलने के लिए क्षमा करें) मेरी पुस्तक जीवन का एक बहुत बड़ा झूठ है, और मैं कोई वजह नहीं देखता कि आप मेरे शब्दों की सुंदरता के धोखे में आकर अपनी कामकाजी घड़ियां, ऐसे बेकार और बे-सार शगल पर सर्फ करें। इसलिए बच्चन की विदा स्वीकार कीजिए-7.7.1977’’

जीवन और शब्द में कितना सच है, कितना झूठ-यह तो विधाता ही जानते होंगे, जहां तक हिन्दी प्रेमियों का संबंध है, उन्होंने बच्चन की विदा न 1977 में स्वीकार की थी, न 1985 में; उन्हें निरंतर प्रतीक्षा रही है और आगे भी रहेगी कि उनके प्रिय कवि ने अपनी आयु के 77 वर्ष 7 महीने 7 दिन पूरे होने पर आत्मकथा जिस सोपान पर छोड़ी थी, उसके बाद के चढ़ाव-उतार से भी वे परिचित हो सकें। यदि यह एक बार संभव हुआ था तो भला दूसरी बार उसकी प्रत्याशा क्यों नहीं की जा सकती ? ‘निशा निमंत्रण’ का यह अनुरोध स्वयं उसके गायक से करने की इच्छा होती है :


पूर्ण कर दे वह कहानी
जो शुरू की थी सुनानी
आदि जिसका हर निशा में, अंत चिर अज्ञात।
साथी, सो न, कर कुछ बात।


इसी कामना और आशा के साथ वह छोटा, किंतु बहुमूल्य प्रकाशन बच्चन जी और उनके पाठकों के सम्मुख लाया जा रहा है।

यहां स्पष्ट कर देना जरूरी है कि संक्षिप्त आत्मकथा के प्रकाशन की अनुमति लेखक ने भले दे दी हो, पर यह कोई आधिकारिक या अधिकृत संस्करण नहीं है, जिस पर लेखक ने अपनी मोहर भी लगाई हो। सच तो यह है कि प्रकाशन से पूर्व संपादक ने इसकी पांडुलिपी न तो लेखक को दिखाई है, न लेखक ने देखनी चाही है। लेखक की ही तरह, संपादक को भी यह बात अच्छी तरह मालूम है कि एक सांगोपांग, समन्वित सुगठित रचना अपनी संपूर्णता और समग्रता में ही अपने-आप को प्रकट करती है। उसे छील छाल या काट-कूटकर अक्सर उसे नंगा बूचा ही बनाया जाता है। लेकिन संक्षेपण, रूपांतरण अनुवाद, पुनर्कथन या अनुसृजन प्रायः इसलिए भी आवश्यक होता है कि उसके अभाव में बहुतेरी भाषाओं की बहुतेरी कृतियां तमाम पाठकों के लिए अनुपलब्ध और अपने आप में बंद रह जाती हैं।

प्रस्तुत संक्षेपण में संपादक ने पाठनीयता और अन्विति को प्रमुखता दी है, मूल पाठ के क्रम को बनाए रखा है और अपनी ओर से उसमें कुछ भी नहीं जोड़ा। लेकिन बाहर सौ पृष्ठों में से यदि हजार से ज्यादा पृष्ठ छोड़ दिए जाएं-केवल एक सौ एकसठ पृष्ठ रखे जाएं तो संपादक यह दावा नहीं करना चाहेगा कि उसने सब दाने यहां चुन लिए हैं। एक से एक नायाब मोती वहां छूट गए हैं। कितने ही स्थल, व्यक्ति घटनाएं और प्रसंग उन हजार पृष्ठों में इस भांति गुंफित हैं-चक, कटघर, कैम्ब्रिज आदि की छवियां कर्कल, रजनीश, पिता की मृत्यु आदि से जुड़े अनुभव...बिरादरी द्वारा बहिष्कार, पंतजी से मुकदमेबाजी देश-विदेश की यात्राएं...न जाने कितना कुछ...कि संपादक यदि मूल रचना का पुनः संक्षेपण करे तो संभव है, इस पुस्तक से नितांत भिन्न एक और ही पुस्तक तैयार हो जाए, जो इसी की भांति प्रीतिकार और बहुमूल्य हो।
बच्चनजी के जीवन से उनकी कविता को और उनकी कविता से उनके जीवन को समझने की रुचि पाठकों में बढ़ सकी तो संपादक का श्रम-समर्पण सार्थक होगा।


166, वैशाली, पीतमपुरा
दिल्ली 110034
अजितकुमार


अपने पाठकों से

 


मैं अपने हृदय पर हाथ रखकर कह सकता हूं-और कलाकार के लिए इससे बड़ी सौगंध नहीं-कि मैंने कुछ भी ऐसा नहीं लिखा, जो मेरे अंतर से नहीं उठा, जो उसमें नहीं उमड़ा-घुमड़ा। यह जो आत्म-चित्रण मैं आपके हाथों में रख रहा हूं इसी प्रकार के मानस-मंथन का परिणाम है।
मेरा जीवन एक साधारण मनुष्य का जीवन है। और इसे मैंने अपना सबसे बड़ा सौभाग्य और अपनी सबसे बड़ी प्रसन्नता का कारण माना है। मुझे फिर से इच्छानुसार जीवन जीने की क्षमता दे दी जाए तो मैं अपना जीवन जीने के अतिरिक्त किसी और का जीवन जीने की कामना न करूंगा-उसकी सब त्रुटियों, कमियों भूलों, पछतावों के साथ। सबसे बड़ा कारण कि इसी के बल पर तो मैं दुनिया के साधारण जनों के साथ अपनी एकता का अनुभव करता हूं।
इतने बड़े संसार में अपने को अकेला अनुभव करने से बड़ा बंधन नहीं। इतने बड़े संसार से अपने को एक समझने से बढ़कर मुक्ति नहीं सायुज्य मुक्ति यही है-सबसे युक्त होकर मुक्त। आपका भी यह विश्वास हो तो मुझ साधारण से युक्त होना आपके सर्वसाधारण से युक्त होने के एक कदम हो सकता है।

मैं यह भी बताना चाहता था कि यह आत्म-चित्रण मैंने किस मनोवृत्ति से किया है, पर जिन शब्दों में उसे मैं बता सकता था, उनसे कही अधिक समर्थ और सशक्त शब्दों में, आज से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व फ्रांस का एक महान लेखक, मानतेन, अपना आत्म-चित्रण करते समय उसे वयक्त कर चुका है। जब-जब मैंने इस आत्म-चित्रण के लिए लेखनी उठाई है, तब-तब मैंने उसे स्वस्ति-वाचन की श्रद्धा से पढ़ लिया है; और आपसे यह प्रार्थना करना चाहूंगा कि जब-जब आप इस आत्म-चित्रण को पढ़े, आप उसे भी पढ़ लें। आप उसे इस कृति के प्रथम पृष्ठ के पूर्व पाएंगे।

यदि मैं कहीं समझी जाने योग्य इकाई हूं तो मेरी कविता से मेरे जीवन और मेरे जीवन से मेरी कविता को समझना होगा। जैसे मेरी कविता आत्मकथा-संस्कारी है, वैसे ही मेरी आत्मकथा कविता-संस्कारी है।
कितना पानी मेरी सुधियों की सरिता में बह चुका है-निश्चय ही, उसके चेतन और अवचेतन तटों पर अपने बहुविधि प्रवाह की कितनी-कितनी निशानियां छोड़ते हुए-कहीं चटक, कहीं फीकी, कही चमकीली, कहीं धुंधली कहीं साफ-सुथरी कहीं धूमिल !
अक्सर बीते दिनों की ये निशानियां बहती-तिरती मेरे दिमाग में आ उभरी हैं और मैं उनके सहारे कल्पना की उस यात्रा पर निकल पड़ा हूं जो अभी कुछ ही समय पहले कितनी स्थूल, कितनी वास्तविक कितनी सत्य थी। प्रस्तुत पुस्तक इसी काल्पनिक यात्रा को शब्द-सचित्र और अर्थ-जीवंत करने का मेरा प्रयास है। इस यात्रा में आप सहयात्री होकर चलना चाहेंगे ? आपको आमंत्रण है।

प्रतीक्षा, 14 नार्थ-साउथ रोड नं. 10,
जुहू-पारले स्कीम, मुंबई-400056

 

बच्चन


मैं कलम पर हाथ रखकर कहता हूं कि मैं जो कुछ कहूंगा सत्य कहूंगा और सत्य के अतिरिक्त अगर कुछ कहूंगा तो फिर ऋत कहूंगा।


बच्चन


इस बात को मैं सबसे पहले स्मरण करना चाहता हूं कि पुराण, इतिहास, लोक-कथाओं, और लोकोक्तियों में जिनको अनेक रूपों में चित्रित किया गया है, मैं उन्हीं कायस्थों का वंशधर हूं।
हम लोग जिस परिवार के कहे जाते हैं, वह लगभग उसी समय उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के अमोढ़ा नामक ग्राम से निकला, जिस समय कायस्थों के अन्य परिवार वहां से चले यानी आज से दो ढाई सौ साल पहले। उनका पहला पड़ाव था परताबगढ़ जिले में, बाबूपट्टी गांव में।
एक बार अपने लड़कपन में, किसी विवाह में सम्मिलिति होने के लिए, मैं बाबूपट्टी गया था। उस समय गांव की एक बूढ़ी माई पुरखों की ड्योढ़ी पर मत्था टेकने के लिए मुझे लिवा ले गई थी। घर गांव के घरों जैसा ही, कच्ची मिट्टी का था; कुछ नया; जो हिस्सा जब भी गिरता होगा उसको फिर से उठा दिया जाता होगा। इस क्रम में, पूरा घर, शायद कई बार बदल चुका होगा, पर उसे पुरखों का घर की कहा और माना जाता था।

परताबगढ़ में दो-तीन पीढ़ियों तक रह चुकने के बाद, हमारे खानदान के जो सबसे बुजुर्ग पुरखा वहां से इलाहाबाद आए, उनका नाम मनसा था। हमारे पूर्वजनों में मनसा पहले व्यक्ति हैं, जिन्हें हम नाम से जानते हैं।
कहते हैं, बाबूपट्टी में मनसा निर्धन, निःसंतान और दुखी जीवन व्यतीत कर रहे थे। उन्होंने किसी से सुना, इलाहाबाद तहसील के तिलहर नामक गांव में रामानंद संप्रदाय की एक गद्दी है, जिसके आचार्य परम संत हैं; अगर वे उनकी शरण में जाएं तो उनके सब दुःख दूर हो जाएंगे। मनसा ने अपनी पत्नी के साथ बाबूपट्टी से तिलहर तक निरवलंब यात्रा की। निरवलंब, यानी जैसे बैठे थे, उठकर चल दिए, न साथ में कोई संबल लिया, न सामान, न कपड़ा-लत्ता न रुपया पैसा। उन्होंने गद्दी के आचार्य गुरु महाराज से दीक्षा ली और उनके पास तीन दिन रहे। चलने लगे तो गुरु महाराज ने उन्हें तीन पुत्रों का वर और तीन बर्तन दिए-एक बटलोई, एक थाली, एक गिलास।

कहा, ‘‘जब तक ये बर्तन तुम्हारे पास रहेंगे, तब तक तुम्हारा कुटुंब अन्न-कष्ट नहीं भोगेगा।’’ उन्होंने मनसा को तीन रुपए नकद भी दिए, बोले, ‘‘कायस्थ हो, भीख तुमसे मांगी नहीं जाएगी, दान तुमको पचेगा नहीं, ये रुपए ऋण के रूप में दे रहा हूं, जब तुम्हारी समाई हो, मुझे लौटा देना, तुम्हारी संतान मेरी संतान को लौटा सकती है; मेरे नाम से किसी दीन दुखी की सहायता इतने धन से कर देने पर भी यह ऋण उतर जाएगा। यहां से उठकर कहीं बैठना मत, चलते चले जाना, चलते ही चले जाना। जहां से तुम्हारा पांव आगे न उठे, वहीं रात बिताना और सबेरे वहीं अपनी झोंपड़ी डाल लेना। तुम्हारी सात पीढ़ियां उसी जगह पर निवास करेंगी।’’

मनसा और उनकी पत्नी ने गुरु महाराज के चरण छुए और सवेरे-सवेरे तिलहर से पूर्व दिशा में प्रयाग नगर की ओर चले। दिन-भर वे बराबर चलते गए; धुंधलका से पूर्व दिशा में प्रयाग नगर की ओर चले। दिन भर वे बराबर चलते गए; धुंधलका छाया, वे बराबर चलते गए; रात हुई, वे बराबर चलते गए; प्रयाग नगर में पैठे, पर बराबर चलते गए। और आधी रात को वे मुहल्ला चल के एक टूटे-फूटे देवी मंदिर के सामने भद्द से गिर गए। मंदिर में घी की दीपक जल रहा था, किसी ने संध्या को देवी को सात जोड़ी नेवज चढ़ाए थे, वह उसी तरह मूर्ति के आगे रक्खा था। बगल में देवी की जलहरी में पानी भरा था। पति पत्नी ने देवी के आगे मत्था टेका ! दिन भर के भूखे प्यासे थे, नेवजों का प्रसाद पाया, जलहरी से पानी पिया और वहीं दोनों से रहे। सबेरे उठकर उन्होंने देखा कि मंदिर के उत्तर पूरब बड़ा सा मैदान खाली पड़ा है। वहीं मंदिर से मिली जमीन पर उन्होंने अपनी झोपड़ी डाल ली। दो ही चार दिनों में मनसा को पड़ोस में जैनी सेठ के यहां हिसाब-किताब रखने का काम मिल गया।

सेठ से वह सारा खुला मैदान उन्होंने एक रुपया साल पर अपने नाम करा लिया। बाद को किसी समय वह भी देना बंद कर दिया गया और हमारे पूर्वज उस जमीन को अपनी ही समझने लगे।
तिलहर के गुरु महाराज ने मनसा को जो तीन पुत्रों का वरदान दिया था, वह पूरा हुआ। तीन पुत्रों के तीन परिवार बने और तीन पीढ़ियों तक सबका सम्मिलित कुटुंब चलता रहा। चौथी पीढ़ी में तीनों अलग हो गए। गुरु महाराज के दिए हुए तीन बर्तन भी तीनों परिवार में बंट गए। बड़े घर में थाली गई, मझले घर में बटलोई आई, गिलास छोटे घर में गया। इन बर्तनों की चमत्कारी शक्ति में बराबर विश्वास किया जाता रहा। बटलोई लड़कपन में मैंने अपने घर में देखी थी।
मनसा की छठी पीढ़ी मेरे पिता और खानदानी चाचाओं की पीढ़ी थी। उस पीढ़ी में मंझले घर में एकमात्र मेरे पिता थे। विचित्र है कि मनसा की सातवीं पीढ़ी में उनके वंश में सात ही लड़के थे-जगन्नाथ प्रसाद के पुत्र शिवप्रसाद; मोहनलाल के ठाकुरप्रसाद; शारदाप्रसाद के जगतनारायण रामचंद्र काशीप्रसाद; और मेरे पिता प्रतापनारायण के दो पुत्र-मेरे छोटे भाई शालिग्राम और मैं।

1926-27 में जब हमारे मुहल्ले और घर के आसपास बड़े पैमाने पर पैमाइशें होने लगीं और यह सुना जाने लगा कि हमारा मकान नई निकलनेवाली सड़क में आ जाएगा, तो मनसा के तिलहर के गुरु महाराज की बात बार-बार याद की गई कि उन्होंने केवल सात पीढ़ी तक वहां हमारे रहने की बात कही थी। गुरु महाराज की जब सब बातें सच निकलीं, तब यह झूठ कैसे होगी ! हमने उस पूर्व निश्चित नियति के सामने सिर झुकाया और मुहल्ले में ही किरायों के मकानों में चले गए। जिस जमीन पर हम पुश्त-दर-पुश्त रहते चले आए थे, उससे अलग होना बड़ा हृदय विदारक था...
वह सड़क पूरब-पश्चिम बनी है पर इसी जगह से उत्तर दक्षिण गलियों के जाने से चौरास्ता सा बन गया है; बीचोबीच चौतरफी बत्तियों का बिजली का खंभा गड़ा है। मेरे पिताजी बतलाते थे कि खंभा उसी जगह पर है जहां हमारी बैठक थी-हमारा पढ़ने-लिखने का कमरा। एक दिन न जाने किस भावुकता में डूबे हुए-शायद कवि रूप में मेरी यत्किंचित ख्याति से अभिभूत होकर उन्होंने कहा था, ‘‘जिस जगह रातों लैम्प के सामने बैठकर तुमने विद्या अर्जित की थी, स्वाध्याय किया था, वहां किसी रात को अंधकार नहीं रहता, चार बत्तियां हर दिशा में जलती हैं और सदा जलती रहेंगी-तुम्हारी साधना की साक्षी के रूप में और तुम्हारा सुयश चारों....’’ इससे पूर्व कि वे अपनी बात पूरी करें, मैंने उनके मुँह पर अपना हाथ रख दिया था।

जीरो रोड से आते-जाते अक्सर मेरी दृष्टि देवी मंदिर और शिवाले पर पड़ी है और उपर्युक्त बिजली के खंभे पर भी, और वहां मैं थोड़ी देर को ठहर गया हूं, और मेरे बचपन से मेरे यौवन तक का सारा इतिहास मेरी आंखों के सामने से सर्र से गुजर गया है...
क्या कभी सुभीते से बैठकर, सुधियों की इस रील को इच्छानुसार इच्छित गति से, सीधा उलटा चलाकर रोककर, जिए हुए को फिर जीकर नहीं जिए हुए को फिर जीना असंभव भी है-जिए हुए को अधिक व्यापकता से, अधिक गंभीरता से, अधिक सघनता से, अधिक सार्थकता से, अर्थात कला में, सृजन में जीतकर, इन रूप-रंगों ध्वनियों घटनाओं भावनाओं में से कुछ को पकड़ा जा सकता है ?
वही प्रयास यह लेखन है।

जब मैं अपनी सुधियों की रील को उलटा घुमाना शुरू करता हूं-तो वह जाकर ठहरती है राधा पर। वे थीं मेरे पिता के पिता के पिता के पिता की पुत्री मेरे जन्म के समय बीस कम सौ बरस की। अपनी वृद्धावस्था में राधा ने तृतीय पुरुष को बोलना आरंभ कर दिया था। कहना तो चाहिए तृतीय स्त्री में। वे कहतीं, ‘राधा से कौनो के घर के छिपी नायं है’ ‘ई बात राधा के मन के नायं भै’ आदि-आदि।
राधा की मृत्यु 95 वर्ष की अवस्था में हुई। चार-पांच बरस की अवस्था से मेरी स्मृति सजग रही है। इस प्रकार मैंने राधा के जीवन के अंतिम दस वर्षों को देखा और उसमें मुझे उनसे जो कुछ सुनने को मिला, उसे सहेजा भी। राधा निरक्षर थीं, पर स्वयं उनकी स्मृति कितनी सजग, समृद्ध और सुस्पष्ट थी, कितना उन्होंने सुना-देखा, भोगा-झेला और संजो रक्खा था। और हर विषय पर उनकी प्रतिक्रियाएँ कितनी अलग सुनिश्चित और निर्भीक होती थीं, इसे सोचकर आज मैं आश्चर्यचकित होता हूं।

सुख नाम की चीज शायद उन्होंने अपने बचपन में ही जानी थी। पंद्रह वर्ष की आयु में उनका विवाह हुआ, सोलह वर्ष की अवस्था में उनके एक कन्या हुई, सत्रह वर्ष की उम्र में उनके पति का देहावसान हो गया। हिंदू परिवार में विधवा की जैसी उपेक्षा, दुर्दशा की जाती थी, उससे ऊबकर एक रात वे अपनी कन्या को लेकर चुपचाप घर से निकल पड़ीं-कुएं में कूदने के विचार से-पर रात भर चलकर वे दूसरे दिन अपने भाई के दरवाजे आ खड़ी हुईं। भाई ने बहन के सिर पर हाथ रखकर प्रतिज्ञा की कि अब वे कभी राधा को ससुराल न जाने देंगे, और इस प्रण का पालन हमारी तीन पीढ़ियों तक किया गया।
राधा के यही भाई मिट्ठूलाल मेरे परबाबा थे। मिट्ठूलाल छह फुटे जवान थे, शरीर उनका इस्पात का था, करसत का उन्हें शौक था, लाठी और तलवार चलाने में वे पारंगत थे। मिट्टूलाल के घर में राधा का पांव पड़ना बड़ा शुभ हुआ। थोड़े दिन बाद वे कंपनी सरकार में शहर के नायब कोतवाल या कोतवाल के नायब हो गए। मेरे लड़कपन में मुहल्ले के बड़े बूढ़े उन्हें ‘नायब साहब’ के नाम से ही याद करते थे। नायब साहब ने काफी धन कमाया और राधा की शब्दावली में किल्ला जैसा बड़ा मकान बनवाया। उनके घर में लड़का हुआ तो उसका नाम उन्होंने भोलानाथ रक्खा-यही मेरे बाबा थे-लड़की तो उसका नाम भवानी रखा। राधा की बेटी का नाम महारानी था।


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