भाषा एवं साहित्य >> साहित्य के सरोकार साहित्य के सरोकारविद्यानिवास मिश्र
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प्रस्तुत है साहित्य के सरोकार...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
लेखक का सरोकार लेखक को अपने प्रति, अपने भीतर के मनुष्य के प्रति तो है,
पर उसके बारे में प्रश्न करने वाला भी भीतर का ही आदमी होगा, जो मेरे मन
की आवाज सुन नहीं सकता वह आदमी क्यों मुझसे प्रश्न करे ? मेरे लिखने का
स्रोत बाहर तो है नहीं, भीतर है। इसीलिए मेरी दृष्टि में सरोकार से अधिक
साहित्य का रिश्ता चिंता से है। साहित्य भीतर की बेचैनी से ही उकसता है।
उसी तरह जैसे कि बीज धरती में डाला जाता है और थोड़ी ऊष्मा से तपता है तो अँखुआ बना जाता है। यदि ठंडे स्थान में रहता है तो वह बीज ही बना रहता है। कालिदास ने इसी व्यापार को पर्युत्सुकी भाव कहा है जो उत्सुक नहीं है, उत्कंठित नहीं है, चैन से है, उसको किसी अनजानी, अनहोनी चिंता से किसी अप्रत्यक्ष दिशा की ओर आकुल कर देने वाला व्यापार ही पर्युत्सुकी भाव है। यही साहित्य का धर्म है। जहाँ कोई हो, वहाँ से उसका विस्थापित होना, चाहे थोड़े ही समय के लिए क्यों न हो, साहित्य के प्रभाव का सबसे सटीक प्रमाण है। पर यह बेचैनी देश और काल की सीमाओं को लाँघ करके होती है।
उसी तरह जैसे कि बीज धरती में डाला जाता है और थोड़ी ऊष्मा से तपता है तो अँखुआ बना जाता है। यदि ठंडे स्थान में रहता है तो वह बीज ही बना रहता है। कालिदास ने इसी व्यापार को पर्युत्सुकी भाव कहा है जो उत्सुक नहीं है, उत्कंठित नहीं है, चैन से है, उसको किसी अनजानी, अनहोनी चिंता से किसी अप्रत्यक्ष दिशा की ओर आकुल कर देने वाला व्यापार ही पर्युत्सुकी भाव है। यही साहित्य का धर्म है। जहाँ कोई हो, वहाँ से उसका विस्थापित होना, चाहे थोड़े ही समय के लिए क्यों न हो, साहित्य के प्रभाव का सबसे सटीक प्रमाण है। पर यह बेचैनी देश और काल की सीमाओं को लाँघ करके होती है।
निवेदन
‘साहित्य के सरोकार’ पंडित विद्यानिवास मिश्र के उन
लेखों का
संकलन है जो हिंदी साहित्य के स्वरूप उसकी विभिन्न विधाओं और कृती
रचनाकारों के आस्वादपरक और सर्जनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। आलोचना
और समीक्षा की प्रचलित परिपाटी से हटकर इनमें साहित्यिक विमर्श को देश,
काल, परंपरा और संस्कृति के प्रवाह में रखा गया है। ये विमर्श मात्र
रचनाकार या रचना के गुण-दोषों की पैमाइश नहीं हैं। इनमें साहित्य के जीवन
स्वरूप में सर्जनशील मन की भागीदारी है जो पाठकों को संवेदना के
साथ
रचना में डूबने का आमंत्रण देती है।
ये रचनाएँ इतस्तः बिखरी थीं, कुछ प्रकाशित और कुछ अप्रकाशित। स्वयं पंडित जी किस रूप में इन्हें पिरोते और प्रस्तुत करते यह अनुमान का विषय है और इस सीमा के साथ यह संकलन तैयार किया गया है। इसमें संकलित अट्ठाइस लेख और तीन साक्षात्कार हिंदी साहित्य के विभिन्न पक्षों को प्रचलित पद्धति से अलग हटकर देखने और समझने का अवसर प्रदान करते हैं।
आज के आधुनिक या कहें उत्तर-आधुनिक विचार से आक्रांत साहित्यिक चर्चाओं में हिंदी के विकास के सोपान स्मृति से ओझल होते जा रहे हैं। इसी तरह मीडिया के चलते लोक का जो अभी भी गाँवों, कस्बों से लेकर शहरों तक फैले-पसरे समाज में जीवित है, साहित्य की तथाकथित मुख्य धारा से कटता जा रहा है, क्योंकि वैश्वीकरण के लिए वह अप्रासंगिक-सा है। हिंदी साहित्य इनके अभाव में समृद्ध नहीं रह सकता। अवधी और ब्रज भाषा के काव्य का सौंदर्य और उसके संबोध्य क्या हैं ?
रीति काव्य और देव, पद्माकर जैसे रीतिकालीन कवियों का क्या अवदान है ? इन प्रश्नों पर मिश्र जी ने नए सिरे से विचार किया है। इसी तरह हिंदी के आधुनिक काल की देहरी पर उपस्थित भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनके मंडल की भूमिका का विश्लेषण हमें भाषा और समाज के बीच के संबंधों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में पहचान कराता है।
बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ और अज्ञेय की काव्य यात्रा की सर्जनात्मक व्याख्या करते समय मिश्र जी हिंदी और भारतीय अस्मिता को समझने, उसमें व्याप्त ओजस्वी तेवर को तलाशने की जरूरत की ओर भी संकेत करते हैं।
हिंदी कहानी, और हिंदी के ऐतिहासिक उपन्यासों की पड़ताल करते हुए मिश्र जी उनके भारतीय उत्स की ओर जाते हैं और इसी बहाने भारतीय मानस में कल्पना और इतिहास की अवधारणा को भी स्पष्ट करते हैं।
उनकी दृष्टि में सातत्य और अखंडता का बोध, समग्र से जुड़ने की बेचैनी में ही सृजन के बीच विद्यमान है। ‘व्यक्तिव्यंजक गद्य’ एक तरह से मिश्र जी का स्वयं का आत्म साक्षात्कार है ललित निबंध या व्यक्तिव्यंजक निबंध मिश्र जी का स्वयं का आत्म साक्षात्कार है। ललित निबंध या व्यक्तिव्यंजक निबंध मिश्र जी की अपनी विधा थी। ये निबंध कैसे रूप लेते हैं ? उनकी बुनावट कैसी होती है ? आदि प्रश्नों पर जो रचना प्रक्रिया से जुडे हैं मिश्र जी ने अपने अनुभव के आलोक में विस्तार से विचार किया है।
भारतीय चिंतन का एक बड़ा हिस्सा कहें सोच की सरणि किसी न किसी रूप में वैदिक चिंतन से अनुस्यूत है और उससे ऊर्जा ग्रहण करती रही है। उसे समझे बिना भारतीय समाज और मानस का कोई भी आकलन अधूरा रहेगा। भाषा, विचार और यथार्थ के आपसी रिश्तों को उद्घाटित करते हुए मिश्र जी ज्ञान के स्वरूप और ज्ञान के उपयोग-प्रयोग के सोपानों की भी व्याख्या करते हैं।
कुल मिलाकर इस संकलन में संगृहीत लेखों का केंद्रीय विषय साहित्य-प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक के किंचित अलक्षित-उपेक्षित पक्ष हैं। पंडित जी के एक निबंध का शीर्षक भी ‘साहित्य के सरोकार’ है और व्यापक अर्थों में यह सभी लेखों की आंतरिक भावना को भी इंगित करता है। इसीलिए संकलन का नाम भी ‘साहित्य के सरोकार’ रखा गया। ये सारे लेख एकत्र करने में भाई दयानिधि मिश्र ने अथक प्रयास किया। श्री अरुण माहेश्वरी ने बड़े कम समय में रुचि से इसे प्रकाशित किया। आशा है यह संकलन पाठकों को रुचेगा।
ये रचनाएँ इतस्तः बिखरी थीं, कुछ प्रकाशित और कुछ अप्रकाशित। स्वयं पंडित जी किस रूप में इन्हें पिरोते और प्रस्तुत करते यह अनुमान का विषय है और इस सीमा के साथ यह संकलन तैयार किया गया है। इसमें संकलित अट्ठाइस लेख और तीन साक्षात्कार हिंदी साहित्य के विभिन्न पक्षों को प्रचलित पद्धति से अलग हटकर देखने और समझने का अवसर प्रदान करते हैं।
आज के आधुनिक या कहें उत्तर-आधुनिक विचार से आक्रांत साहित्यिक चर्चाओं में हिंदी के विकास के सोपान स्मृति से ओझल होते जा रहे हैं। इसी तरह मीडिया के चलते लोक का जो अभी भी गाँवों, कस्बों से लेकर शहरों तक फैले-पसरे समाज में जीवित है, साहित्य की तथाकथित मुख्य धारा से कटता जा रहा है, क्योंकि वैश्वीकरण के लिए वह अप्रासंगिक-सा है। हिंदी साहित्य इनके अभाव में समृद्ध नहीं रह सकता। अवधी और ब्रज भाषा के काव्य का सौंदर्य और उसके संबोध्य क्या हैं ?
रीति काव्य और देव, पद्माकर जैसे रीतिकालीन कवियों का क्या अवदान है ? इन प्रश्नों पर मिश्र जी ने नए सिरे से विचार किया है। इसी तरह हिंदी के आधुनिक काल की देहरी पर उपस्थित भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनके मंडल की भूमिका का विश्लेषण हमें भाषा और समाज के बीच के संबंधों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में पहचान कराता है।
बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ और अज्ञेय की काव्य यात्रा की सर्जनात्मक व्याख्या करते समय मिश्र जी हिंदी और भारतीय अस्मिता को समझने, उसमें व्याप्त ओजस्वी तेवर को तलाशने की जरूरत की ओर भी संकेत करते हैं।
हिंदी कहानी, और हिंदी के ऐतिहासिक उपन्यासों की पड़ताल करते हुए मिश्र जी उनके भारतीय उत्स की ओर जाते हैं और इसी बहाने भारतीय मानस में कल्पना और इतिहास की अवधारणा को भी स्पष्ट करते हैं।
उनकी दृष्टि में सातत्य और अखंडता का बोध, समग्र से जुड़ने की बेचैनी में ही सृजन के बीच विद्यमान है। ‘व्यक्तिव्यंजक गद्य’ एक तरह से मिश्र जी का स्वयं का आत्म साक्षात्कार है ललित निबंध या व्यक्तिव्यंजक निबंध मिश्र जी का स्वयं का आत्म साक्षात्कार है। ललित निबंध या व्यक्तिव्यंजक निबंध मिश्र जी की अपनी विधा थी। ये निबंध कैसे रूप लेते हैं ? उनकी बुनावट कैसी होती है ? आदि प्रश्नों पर जो रचना प्रक्रिया से जुडे हैं मिश्र जी ने अपने अनुभव के आलोक में विस्तार से विचार किया है।
भारतीय चिंतन का एक बड़ा हिस्सा कहें सोच की सरणि किसी न किसी रूप में वैदिक चिंतन से अनुस्यूत है और उससे ऊर्जा ग्रहण करती रही है। उसे समझे बिना भारतीय समाज और मानस का कोई भी आकलन अधूरा रहेगा। भाषा, विचार और यथार्थ के आपसी रिश्तों को उद्घाटित करते हुए मिश्र जी ज्ञान के स्वरूप और ज्ञान के उपयोग-प्रयोग के सोपानों की भी व्याख्या करते हैं।
कुल मिलाकर इस संकलन में संगृहीत लेखों का केंद्रीय विषय साहित्य-प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक के किंचित अलक्षित-उपेक्षित पक्ष हैं। पंडित जी के एक निबंध का शीर्षक भी ‘साहित्य के सरोकार’ है और व्यापक अर्थों में यह सभी लेखों की आंतरिक भावना को भी इंगित करता है। इसीलिए संकलन का नाम भी ‘साहित्य के सरोकार’ रखा गया। ये सारे लेख एकत्र करने में भाई दयानिधि मिश्र ने अथक प्रयास किया। श्री अरुण माहेश्वरी ने बड़े कम समय में रुचि से इसे प्रकाशित किया। आशा है यह संकलन पाठकों को रुचेगा।
साहित्य के सरोकार
इस जमाने में सरोकार का बाजार बड़ा गरम है। उसका असर साहित्य और संस्कृति
जैसे व्यापारों पर भी पड़ता है और प्रश्न पूछा जाता है कि साहित्य का,
विशेषकर आज के साहित्य का सरोकार क्या है ? संस्कृति का सरोकार होना
चाहिए, वह कितना है ? जाने क्यों मैं इस सरोकार शब्द से घबड़ाता हूँ। मुझे
ऐसा लगता है कि कोई बाहर का आदमी हमसे जवाब माँग रहा थाः तुम्हें यह करना
था, तुमने क्यों नहीं किया ? देश और समय हमसे इस प्रकार के सवाल नहीं
करते। क्यों तुम देश की बात नहीं कर रहे हो ? क्यों तुम समय की बात नहीं
कर रहे हो ?
अपने देश और समय में क्यों नहीं जी रहे हो ? मुझसे जब ऐसे प्रश्न नागरिक की हैसियत से किए जाते हैं तो मैं इन प्रश्नों का औचित्य समझता हूँ और अपने को इन सबके प्रति, समाज, देश और समय के प्रति अपनी जवाबदेही मानता हूँ। परन्तु जिस क्षण मैंने अपने व्यक्ति को पूरी तरह अपनी भाषा बोलने वाले में विलीन कर दिया, उस क्षण मुझसे इन प्रश्नों के उत्तर की अपेक्षा क्यों ? मुझसे पूछा जा सकता है लेखक के रूप में तुमने अपने किसी पात्र के साथ ऐसा क्यों किया ? तुम्हारे भीतर कौन-सी गूँज थी जिसने तुमसे यह पंक्ति लिखवाई ?
तो मैं लेखक के रूप में ऐसे प्रश्नों का अवश्य उत्तर दूँगा।
लेखक का सरोकार लेखक को अपने प्रति, अपने भीतर के मनुष्य के प्रति तो है, पर उसके बारे में प्रश्न करने वाला भी भीतर का ही आदमी होगा, जो मेरे मन की आवाज को सुन नहीं सकता वह आदमी क्यों मुझसे प्रश्न करे ? मेरे लिखने का स्रोत बाहर तो है नहीं, भीतर है। इसीलिए मेरी दृष्टि में सरोकार से अधिक साहित्य का रिश्ता चिंता से है। साहित्य भीतर की बेचैनी से ही उकसता है। उसी तरह जैसे कि बीज धरती में डाला जाता है और छोड़ी ऊष्मा से तपता है तो अँखुवा बन जाता है। यदि ठंडे स्थान में रहता है तो वह बीज ही बना रहता है। कालिदास ने इसी व्यापार की पर्युत्सुकी भाव कहा है जो उत्सुक नहीं है, उत्कंठित नहीं है, चैन से है, उसको किसी अनजानी, अनहोनी चिंता से किसी अप्रत्यक्ष दिशा की ओर आकुल कर देने वाला व्यापार ही पर्युत्सुकी भाव है।
यही साहित्य का धर्म है। जहाँ कोई हो, वहाँ से उसका विस्थापित होना, चाहे थोड़े ही समय के लिए क्यों न हो, साहित्य के प्रभाव का सबसे सटीक प्रमाण है। पर यह बेचैनी देश और काल की सीमाओं को लाँघ करके होती है। जाने कब लक्ष्मण सीता को वन में छोड़ा और सीता लक्ष्मण की आँखों के सामने तो संयत रही, पर जब अकेली पड़ीं तो विजन में बिलख उठी। उस बिलख का कालिदास ने इस प्रकार वर्णन किया है
अपने देश और समय में क्यों नहीं जी रहे हो ? मुझसे जब ऐसे प्रश्न नागरिक की हैसियत से किए जाते हैं तो मैं इन प्रश्नों का औचित्य समझता हूँ और अपने को इन सबके प्रति, समाज, देश और समय के प्रति अपनी जवाबदेही मानता हूँ। परन्तु जिस क्षण मैंने अपने व्यक्ति को पूरी तरह अपनी भाषा बोलने वाले में विलीन कर दिया, उस क्षण मुझसे इन प्रश्नों के उत्तर की अपेक्षा क्यों ? मुझसे पूछा जा सकता है लेखक के रूप में तुमने अपने किसी पात्र के साथ ऐसा क्यों किया ? तुम्हारे भीतर कौन-सी गूँज थी जिसने तुमसे यह पंक्ति लिखवाई ?
तो मैं लेखक के रूप में ऐसे प्रश्नों का अवश्य उत्तर दूँगा।
लेखक का सरोकार लेखक को अपने प्रति, अपने भीतर के मनुष्य के प्रति तो है, पर उसके बारे में प्रश्न करने वाला भी भीतर का ही आदमी होगा, जो मेरे मन की आवाज को सुन नहीं सकता वह आदमी क्यों मुझसे प्रश्न करे ? मेरे लिखने का स्रोत बाहर तो है नहीं, भीतर है। इसीलिए मेरी दृष्टि में सरोकार से अधिक साहित्य का रिश्ता चिंता से है। साहित्य भीतर की बेचैनी से ही उकसता है। उसी तरह जैसे कि बीज धरती में डाला जाता है और छोड़ी ऊष्मा से तपता है तो अँखुवा बन जाता है। यदि ठंडे स्थान में रहता है तो वह बीज ही बना रहता है। कालिदास ने इसी व्यापार की पर्युत्सुकी भाव कहा है जो उत्सुक नहीं है, उत्कंठित नहीं है, चैन से है, उसको किसी अनजानी, अनहोनी चिंता से किसी अप्रत्यक्ष दिशा की ओर आकुल कर देने वाला व्यापार ही पर्युत्सुकी भाव है।
यही साहित्य का धर्म है। जहाँ कोई हो, वहाँ से उसका विस्थापित होना, चाहे थोड़े ही समय के लिए क्यों न हो, साहित्य के प्रभाव का सबसे सटीक प्रमाण है। पर यह बेचैनी देश और काल की सीमाओं को लाँघ करके होती है। जाने कब लक्ष्मण सीता को वन में छोड़ा और सीता लक्ष्मण की आँखों के सामने तो संयत रही, पर जब अकेली पड़ीं तो विजन में बिलख उठी। उस बिलख का कालिदास ने इस प्रकार वर्णन किया है
नृत्यं मयूराः कुसुमानि वृक्षा
दर्भानुपात्तान् विजहुर्हरिण्यः।
तस्याः प्रपन्ने समदुःखभाव मत्यन्नमासीद्रुदितंवनेपि।।
तस्याः प्रपन्ने समदुःखभाव मत्यन्नमासीद्रुदितंवनेपि।।
मोरों की नाच थम गई, वृक्ष फूल झहराने लगे, हिरनियों के मुँह में पड़ी हुई
घास गिर गई। सीता के दुःख में दुःखी होकर सारा वन फूट-फूट कर रो पड़ा। इस
रुदन की पँक्तियाँ आज भी रुला देती हैं। क्या यह रोना सामने घटी किसी घटना
पर है ? क्या यह किसी एक व्यक्ति के रोने पर रोना है ? नहीं, ऐसी दारुण
परिस्थिति क्यों आती है ? इस प्रश्न के साथ रोना है जो शब्द के वाचन से
निकल रहा है और जो हृदय इन पंक्तियों को पढ़-सुनकर रोता है, वह अपने स्थान
से विस्थापित होकर रोता है। स्मष्टि के साथ एकाकार हुए उसके मन में करुणा
का ज्वार उमड़ता है।
उस करुणा का लक्ष्य सीता नहीं है। उस करुणा का लक्ष्य सीता जैसी करुण मानवीय नियति है जो कभी भी, कहीं भी किसी के साथ घट सकती है। साहित्य की चिंता ऐसी होती है जो रचने वाले और रचना का आस्वाद करने वाले दोनों को उद्वेलित करती है। पर यह ध्यान देने योग्य बात है कि यह उद्वेलन और किसी कारण नहीं है, सिर्फ शब्दों के विन्यास के कारण है। जिन शब्दों में युगों-युगों की व्यथा उसी तरह से समा गई है, जैसे नए मिट्टी के सकोरे में तुरन्त रखा हुआ पानी समा जाता है और सकोरे का सोंधापन उद्भासित हो जाता है।
पानी तो दिखाई नहीं पड़ता पर सोंधापन प्रत्यक्ष उद्भासित होता है।
साहित्य की चिंता उद्देश्य विशेष को लक्ष्य करके हो न हो, पर किसी उद्देश्य विशेष की पूर्ति वह होती है इसका प्रमाण रोकने का प्रयत्न करने पर भी अनायास निकलते हुए आँसू होते हैं। प्रश्न उठता है कि साहित्य की चिंता केवल करुणा का ही रूप लेती है, क्या वह उल्लास का रूप नहीं लेती ? उल्लास का रूप भी लेती है पर वह उल्लास मथे जाने वाले दूध या दही का उल्लास होता है। मंथन यहाँ भी अनिवार्य होता है। असंख्य-असंख्य मनोभावों में सबको मथते हुए एक ऐसे उल्लास की प्रतीत कराना जो सबका है पर यह प्रतीति निजी होती है।
यह अनुभव अपरिहार्य रूप से होता है। तुलसीदास जी ने राम और भरत मिलन का वर्णन करते हुए लिखा—राम भरत से ऐसे मिले जैसे रति स्थायीभाव श्रृंगार रस से मिलता हो। इस उक्ति का मर्म पकड़ने के लिए केवल उपमेय-उपमान का संबंध समझना काफी नहीं है। यह भी समझना आवश्यक है कि किस प्रकार एक स्थायी भाव की सार्थकता रस का व्यापार बनने में और चित्तवृत्ति के उद्वेलन में है। यह समझना भी आवश्यक है कि राम कैसे भरत के भ्रातृप्रेम के रूप में परिणत हो जाते हैं। राम लाचार हैं भरत के आनंद के उच्छलन बनने के लिए। सतही तौर पर लगेगा कि यह वर्णन भरत को ऊपर उठाता है और राम का महत्त्व कम करता है।
पर शब्दार्थ की गहराई में जाने पर ही पता चलेगा कि यह एक गहरे भक्ति भाव की सार्थकता का वर्णन है। राम की भक्ति राम को विवश करती है, यह बात राम का महत्त्व बढ़ाती है, घटाती नहीं है। भरत-मिलाप की पंक्तियों को पढ़ते सुनते हैं तो सहज ही आँसू छलकते हैं। ये आँसू चित्त के मंथन से ही छलकते हैं। साहित्य की चिंता ऐसी मथने वाली चिंता है।
उस करुणा का लक्ष्य सीता नहीं है। उस करुणा का लक्ष्य सीता जैसी करुण मानवीय नियति है जो कभी भी, कहीं भी किसी के साथ घट सकती है। साहित्य की चिंता ऐसी होती है जो रचने वाले और रचना का आस्वाद करने वाले दोनों को उद्वेलित करती है। पर यह ध्यान देने योग्य बात है कि यह उद्वेलन और किसी कारण नहीं है, सिर्फ शब्दों के विन्यास के कारण है। जिन शब्दों में युगों-युगों की व्यथा उसी तरह से समा गई है, जैसे नए मिट्टी के सकोरे में तुरन्त रखा हुआ पानी समा जाता है और सकोरे का सोंधापन उद्भासित हो जाता है।
पानी तो दिखाई नहीं पड़ता पर सोंधापन प्रत्यक्ष उद्भासित होता है।
साहित्य की चिंता उद्देश्य विशेष को लक्ष्य करके हो न हो, पर किसी उद्देश्य विशेष की पूर्ति वह होती है इसका प्रमाण रोकने का प्रयत्न करने पर भी अनायास निकलते हुए आँसू होते हैं। प्रश्न उठता है कि साहित्य की चिंता केवल करुणा का ही रूप लेती है, क्या वह उल्लास का रूप नहीं लेती ? उल्लास का रूप भी लेती है पर वह उल्लास मथे जाने वाले दूध या दही का उल्लास होता है। मंथन यहाँ भी अनिवार्य होता है। असंख्य-असंख्य मनोभावों में सबको मथते हुए एक ऐसे उल्लास की प्रतीत कराना जो सबका है पर यह प्रतीति निजी होती है।
यह अनुभव अपरिहार्य रूप से होता है। तुलसीदास जी ने राम और भरत मिलन का वर्णन करते हुए लिखा—राम भरत से ऐसे मिले जैसे रति स्थायीभाव श्रृंगार रस से मिलता हो। इस उक्ति का मर्म पकड़ने के लिए केवल उपमेय-उपमान का संबंध समझना काफी नहीं है। यह भी समझना आवश्यक है कि किस प्रकार एक स्थायी भाव की सार्थकता रस का व्यापार बनने में और चित्तवृत्ति के उद्वेलन में है। यह समझना भी आवश्यक है कि राम कैसे भरत के भ्रातृप्रेम के रूप में परिणत हो जाते हैं। राम लाचार हैं भरत के आनंद के उच्छलन बनने के लिए। सतही तौर पर लगेगा कि यह वर्णन भरत को ऊपर उठाता है और राम का महत्त्व कम करता है।
पर शब्दार्थ की गहराई में जाने पर ही पता चलेगा कि यह एक गहरे भक्ति भाव की सार्थकता का वर्णन है। राम की भक्ति राम को विवश करती है, यह बात राम का महत्त्व बढ़ाती है, घटाती नहीं है। भरत-मिलाप की पंक्तियों को पढ़ते सुनते हैं तो सहज ही आँसू छलकते हैं। ये आँसू चित्त के मंथन से ही छलकते हैं। साहित्य की चिंता ऐसी मथने वाली चिंता है।
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