सामाजिक >> दूसरा घर दूसरा घररामदरश मिश्र
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दूसरा घर
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
गुजरात में मैं आठ वर्ष (1956 से ’64) तक रहा। इनमें से छः वर्ष
अहमदाबाद में बीते। इस अवधि में मैंने अहमदाबाद रहने वाले उत्तर भारत
(विशेषतया उत्तर प्रदेश और बिहार) के सामान्य लोगों की जिंदगी के विविध
पहलुओं को देखा, अनुभव किया। सच पूछिए तो मैं अपने ढंग से उन्हीं लोगों का
हिस्सा था। अपने गाँव से लेकर अहमदाबाद की यात्रा में मेरे जो जीवन अनुभव
बने थे, वे ही इन लोगों की ज़िंदगी से जुड़कर अधिक व्यापक और जटिल बन गए।
जब मैं वहाँ था तभी निश्चय किया था कि इस ज़िंदगी को उपन्यास में बाँधने
की कोशिश करूंगा। यह उपन्यास मैंने 1977 के आसपास ही शुरूकर दिया था।
लेकिन काम आगे बढ़-बढ़कर रुकता रहा। मैंने इसके शुरू होने के बाद मेरे दो
अन्य उपन्यास (‘आकाश की छत’ और ‘बिना
दरवाजे का मकान) आ गए, किंतु यह विभिन्न कारणों से रूकता रहा। अब पूरा
होकर आपके हाथ में है।
यह जीवन-यथार्थ बहुत सघन बहुआयामी और जटिल है। मैं नहीं जानता कि इसे कितना पकड़ सका हूँ। यदि यह उपन्यास इस ज़िंदगी का एक हिस्सा भी आप तक पहुँचा सका तो अपना श्रम-सार्थक मानूँगा।
यह जीवन-यथार्थ बहुत सघन बहुआयामी और जटिल है। मैं नहीं जानता कि इसे कितना पकड़ सका हूँ। यदि यह उपन्यास इस ज़िंदगी का एक हिस्सा भी आप तक पहुँचा सका तो अपना श्रम-सार्थक मानूँगा।
1
शंकर आठ बजे क्वार्टर पर लौटा तो घर की चिट्ठी मिली। चिट्ठी खोलने की
हिम्मत नहीं हो रही थी। वह जानता था, इस चिट्ठी में क्या होगा। पैसों की
माँग होगी, अड़ोस-पड़ोस के लोगों की तरक्की का बखान होगा और बहाने से यह
भी संकेत होगा कि पढ़-लिखकर भी वह घर के लिए नालायक ही रह गया। एक से एक
अपढ़ लौंड़े कमा-कमाकर अपने घर भर रहे हैं, जमीन-जायदाद खरीद रहे हैं और
एक दिन वह है जो अपना ही पेट पालने में लगा हुआ है।
-ठीक ही तो कहते हैं घरवाले। मैं घर के लिए क्या कर सका ? सात साल से प्राइमरी में पढ़ा रहा हूँ। प्राइमरी स्कूल में मिलता ही क्या है। मैं क्या खाऊँ, क्या बचाऊँ ? घर पर खाने-पीने की कमी नहीं है। इतने खेत हैं कि खाने भर को हो ही जाता है। लेकिन केवल खाना ही जरूरी नहीं है न। कच्चा मकान है तो पक्का मकान बनवाना है। एक पक्का मकान है तो दूसरा बनवाना है। अगर कहीं खेत बिक रहा है तो चढ़ा-ऊपरी करके उसे खरीद भी लेना है नहीं तो घर की इज्ज़त चली जाएगी। जिसके घर के लोग परदेश में हों, उसके घर पैट्रोमैक्स, कालीन, फोनोग्राफ, नई-नई दरियाँ वगैरह-वगैरह होनी ही चाहिएँ अच्छे-अच्छे कपड़े न हों तो शान में कमी आती है। हर खाते-पीते घर के लोग बाहर कमाने वाले सदस्यों से बहुत-बहुत उम्मीदें पालते हैं और जब उम्मीदें पूरी नहीं होतीं तो वह सदस्य नालायक करार दे दिया जाता है- घर में ही नहीं, गाँव-जवार में भी उसकी नालायकी की चर्चा होने लगती है। घर पर माँ है दो बड़े भाई हैं, एक भाई गाँव के पास के ही मिडिल स्कूल में मास्टर हैं और दूसरे खेती-बारी भी कराते हैं। उनके बच्चें है। भाई घर का खाते हैं और कुछ पैसे बचाकर घर दे देते हैं और मैं जब मुश्किल से कुछ बचा पाता हूँ तब भेज देता हूँ। इसलिए भाइयों की तुलना में मेरी इज्ज़त कुछ भी नहीं है। मेरी पत्नी और दो बच्चे भी घर पर ही हैं। यह भी एक दर्द है। माँ का आग्रह है कि बहु और बच्चो को घर पर ही रहने दो। मैं जानता हूँ कि माँ मेरी पत्नी और बच्चों से बहुत प्यार करती हैं और उनसे सेवा भी पाती है। भाभी तो माँ को कुछ खतियाती ही नहीं। उनके बच्चे भी उनकी उपेक्षा करते हैं। भाई साहब हमेशा मेरी शिकायत लेकर बैठ जाते हैं, भला-बुरा कहते हैं तो माँ कुछ बोल देती है, इससे वह और भी तीती हो जाती है उन लोगों के लिए मेरे बच्चों और बीबी की उपेक्षा होती है इसलिए कि मैं जमकर रुपये नहीं भेज पाता। कभी-कभी पत्नी बेटे से पत्र लिखवाती है-‘‘क्यों हमें यहाँ मुसीबत में छोड़ गए हैं, हर समय कोंचा जाता है।’’ क्या करूँ ? क्या मुझे नहीं इच्छा होती कि बाल-बच्चे साथ रहें ? बच्चों की याद सताती रहती है बीवी प्रायः याद आती है। कभी-कभी तो सूनापन बेहद काटने लगता है। शरीर जोरों से टूटने लगता है। क्या मैं नहीं चाहता कि परदेस में मेरा भी एक घर हो ! काम पर से लौटूँ तो पत्नी के हाथ की गरम-गरम चाय मिले, ढ़ंग का खाना मिले और बाहर खेलते हुए बच्चे को उठाकर गोद में भर लूँ। और जब गुजरात के लोग पूरब वालों पर बोली कसते हैं कि सबके सब बाल-बच्चों को छोड़कर चले आते हैं और व्यभिचार फैलाते हैं, तब अपमान से मेरा जी ऐंठ जाता है। मैं भी तो उन्हीं निघरे लोगों में से हूँ। क्या मैं व्यभिचार फैलाता हूँ। ठीक है मैं नहीं फैलाता तो क्या मैं सभी लोगों का प्रतिनिधि हूँ ? क्या मैं नहीं जानता कि शरीर की अपनी जरूरत होती है ? उस ज़रूरत को कोई कब तक दबाएगा ? मैं दबा लेता हूँ तो क्या सभी लोग दबा लेंगे ? परिवार-विहीन लोग गन्ध तो फैलाएँगे ही। लेकिन वे क्या करें ? पेट की भूख तो सबसे बड़ी भूख है। केवल अपने ही पेट की नहीं, अपने पिता के, माँ के, भाई के, सभी के पेट की जरूरत पुरबिहा की ज़रूरत में शामिल है। वे बाल-बच्चों को साथ लाएँ तो घर कैसे पैसे भेजेंगे, इसे गुजरात के लोग नहीं समझ सकते, क्योंकि यहाँ सभी अपनी-अपनी दुनिया बसाते हैं, किसी की ज़रूरत से उन्हें मतलब नहीं।
मैं चाहता हूँ परिवार ले आऊँ लेकिन-यहाँ भी लेकिन-वहाँ भी लेकिन। यहाँ लेकिन यह कि लाकर कहाँ रखूँगा ? मैं तो दूसरे के क्वार्टर में एक कमरा किराये पर लेकर रहता हूँ और दूसरे, परिवार के आने पर तो घर भेजने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा। बचने का सवाल ही कहाँ उठता है, मेरा खर्च नहीं चलेगा। तीसरे, माँ अकेली पड़ जाएगी, कोई उसकी देखभाल भी नहीं करेगा। कितना बड़ा मकड़ी का जाला है। जिसमें मैं या मेरे जैसे लोग फँसे हैं, जाले को तोड़ने के लिए ज़ोर मारते हैं, जाला हिलता है तो वे स्वयं थर्रा जाते हैं और ज़ोर मारना बंद कर देते हैं।
घर से शिकायत आती है कि ‘‘उसी नौकरी में और लोग हैं, खुद इसी जवार के पारस हैं जो रूपयों से घर भर दे रहे हैं और एक तुम हो जो अपने बाल-बच्चों का ही पेट पालने योग्य पैसे नहीं भेज पाते।’’ओह, कैसे-कैसे लोगों से मेरी तुलना की जाती है ! पारस। हाँ, पारस भी लायक आदमी है बल्कि आदमी नहीं केवल लायक है-सीधा-सादा गऊ। वह भी प्राइमरी में ही टीचर है और वह भी मेरे ही समान उसी चाली में एक कमरा लेकर रहता है। आता ही होगा दिन-भर ट्यूशन पढ़ाता है, एक वक्त चना खाता है, एक वक्त खाना बनाकर खाता है। उसे और कोई काम ही नहीं है-न पढ़ना, न लिखना, न किसी सभा-सोसायटी में जाना। बस स्कूल में पढ़ाता है और ट्यूशन करता है। हर महीने तीन-चार सौ रूपये भेजता है। उसकी एक-एक हड्डी गिन लो, उसके कपडों की दुर्गन्ध सौ कदम दूर से ही सूँघ लो, उसके चेहरे की झुर्रियों को रात में भी देख लो। उसके घरवाले बहुत मज़े में हैं, पालिटिक्स करते हैं और दूसरों की ज़मीन-जाएदाद के लिए मुकदमें लड़ते हैं।
मुझे सात साल हो गए अहमदाबाद में आय हुए। मैट्रिक पास करके आया था। मैं पढ़ना चाहता रहा, लेकिन घरवालों ने कहा-‘‘क्या पढ़ते ही रहोगे ? और कुछ करो-धरो।’’ पिताजी तब जीवित थे। उनका भी ज़ोर नौकरी पे था, और भाई साहब तो फिर दुश्मन ही बन गए थे मेरी पढ़ाई के। उन्होंने ताना भी मारा कि आगे पढ़कर क्या कर लोगे ? कलक्टर बनोगे ? घर-गृहस्थी का काम करो और कोई नौकरी कर खोजो। लेकिन मैंने ठान लिया था कि मैं पढ़ूँगा। किताबें शुरू से ही मुझे ललचाती रही हैं, मेरे भीतर शुरू से ही पढ़ते रहने की तड़प भरी है। मैं कलक्टर बनूँ या न बनूँ, विद्या-प्रेमी ज़रूर बना रहूँगा। मैं सामान्य और लीचड़ ज़िन्दगी जीने के लिए नहीं पैदा हुआ हूँ। मैं अपने जीवन का अर्थ समझता हूँ। शुरू से ही इसके अर्थ की छाया भीतर तैरती रही है, इसलिए मैं एक दिन अपने दोस्त के पिता का पता लेकर अहमदाबाद भाग आया। कुछ दिन इधर-उधर भटका किन्तु बाद में प्राइमरी स्कूल में मुझे नौकरी मिल गई। एक सहारा मिला। लेकिन प्राइमरी की नौकरी मेरा लक्ष्य तो नहीं थी। लोग ट्यूशन करते हैं, ट्यूशन पर ट्यूशन करते हैं और अनेक धन्धे करके पैसे बटोरते हैं, लेकिन मुझे इधर कभी आकर्षण नहीं दिखा। मुझे लगा कि अब मेरी पढ़ाई का रास्ता साफ़ है। पढ़ने लगा। प्राइवेट इण्टर पास किया। बी.ए. किया और अब हिन्दी से एम.ए. कर रहा हूँ। फ़ाइनल में हूँ। पैसों से किताबें खरीदता हूँ, फ़ीस देता हूँ, साफ़-सुन्दर रहने की कोशिश करता हूँ। चाहता हूँ यहाँ का कोई आदमी मेरा रहन-सहन देखकर यह न कहे कि भइया है। भला रूपये कहाँ बचते हैं कि मैं ढेर के ढेर घर भेजता रहूँ और गाँव में लायक कहाता रहूँ।
शंकर ने एक उसाँस ली। चिट्ठी पर निगाह फेरी, कुछ देर तक देखता रहा। खोलने की इच्छा हुई, नहीं खोली। आज तो यों ही मन उद्विग्न था, उस उद्विग्नता में चिट्ठी खोलकर उसे बढ़ाना नहीं चाहता था। उसे लगा कि चाय पीनी चाहिए। उठकर स्टोव जलाया। पानी रख दिया, चीनी डाली और वह बैठ गया। सोचने लगा-यह कोई नई बात तो नहीं है, क्यों चिन्ता करूँ ? यह तो प्रायः घटता है। लेकिन हद है गुरूओं की असहिष्णुता की और उनकी पेशगत बेईमानी की भी। दवे साहब एम.ए के अध्यापक हैं। पता नहीं कब का एक बना हुआ नोट है। उसी को क्लास में लिखवाते रहते हैं। मैं कभी-कभी हाज़िरी के लिए उनकी क्लास में बैठ जाता हूँ। नहीं लिखता हूँ, चुपचाप कोई उपन्यास पढ़ता हूँ। वे बुरा मानते हैं। एक दिन डपटकर बोले-‘‘अरे हज़रत, लिखते क्यों नहीं हैं ? क्या अपने को बड़ा कवि समझते हैं ? जब नम्बर नहीं आएँगे तो रोएँगे।’’ मैं केवल मुसकाया। बोला कुछ नहीं। क्या बोलता ? बोलता तो और बुरा मानते। लेकिन वे मुस्कराने से काफी़ जल गए। उन्होंने पूछा-‘‘आप क्लास में बैठे-बैठे क्या पढ़ते रहते हैं ?’’ कुछ नहीं सर, यों ही।’’ ‘‘कुछ नहीं क्यों ? कुछ पढ़ तो ज़रूर रहे हैं।’’ कहकर वे मेरी ओर झपटे और किताब मेरे हाथ से छीन ली। ‘पतन’ ।‘‘अच्छा तो आप ‘पतन’ पढ़ रहे हैं ! ऐसे सस्ते उपन्यास पढ़ने में आपको शर्म नहीं आती ?’’ कहकर उन्होंने किताब उठाकर क्लास में दिखाई। कुछ लड़के-लड़कियाँ हँसने लगे। मुझे भीतर-भीतर बहुत गुस्सा आया। इच्छा हुई कि पुस्तक इनके हाथ से छीन लूँ और क्लास के बाहर निकल जाऊँ। लेकिन मैंने अपना क्रोध संयत किया और कहा ‘‘सर, सस्ता उपन्यास नहीं है, यह कामू का उपन्यास है।’’
‘‘अरे भाई कामू क्या बला है ?’’ कहकर वे हँसने लगे-जैसे बहुत गहरा व्यंग्य कर बैठे हों। साथ में अनेक घटिया छात्र भी हँस पड़े।
‘‘सर, कामू बला नहीं है, विश्व का प्रसिद्ध अस्तित्वादी उपन्यासकार है,’’ मैंने कहा। और दो-चार और प्रबुद्ध विद्यार्थियों ने आँखों में मजा़क की मुस्कान भरकर कोरस के स्वर में कहा-‘‘हाँ, सर !’’
‘‘अरे होगा, लेकिन तुम लोगों को अपने कोर्स की चीज़ पढ़नी चाहिए, कोर्स के बाहर की चीजों को पढ़ने का अभी समय नहीं है.’’
‘‘सर, अस्तित्ववाद का हमारे साहित्य पर असर पड़ता है और हमें अपने साहित्य की प्रवृत्तियों का अध्ययन करते समय अस्तित्ववाद को जानना चाहिए।’’
‘‘बेकार बात मत करो, जो कहता हूँ करो। मैं पन्द्रह साल से एम.ए. पढ़ा रहा हूँ। मेरे अनुभव से लाभ उठाओ।’’ कहकर वे फिर नोट बोलने लगे थे।
आज मैं फिर उनकी क्लास में बैठा था। आज एक पत्रिका में छपा ‘नई कहानी’ पर लेख पढ़ रहा था। दवे साहब भी कहानी का इतिहास पढ़ा रहे थे। एक लड़के ने पूछ लिया-‘‘सर, स्वाधीनता के बाद की कहानी और प्रेमचन्द्र की कहानी में क्या अन्तर है ?’’
दवे साहब एक पल को ठिठके, फिर विश्वास से मुस्कराए और बोले-‘‘अरे भाई, प्रेमचन्द्र के बाद कहानी लिखी ही कहाँ गई है ?’’
पूरी क्लास ठहाका मारकर हँस पड़ी। वे समझे कि सभी लोग हमारे बुद्धिमत्तापूर्ण उत्तर को सराह रहे हैं।
मुझसे नहीं रहा गया। बोला- ‘‘आप क्या कह रहे हैं, ? प्रेमचन्द्र के बाद जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल जैसी हस्तियाँ आईं और नई कहानी में तो अनेक अच्छे कहानीकार हैं और आप कह रहे हैं कि प्रेमचन्द्र के बाद कहानी लिखी ही नहीं गई !’’ शायद मेरे स्वर में कुछ रोष भी उग रहा था।
‘‘ओ हो, आप नहीं समझे। मैंने यह बात अभिधा में थोड़े कही है। कहानियाँ लिखी गई हैं, किंतु प्रेमचन्द्र ने जैसी अच्छी कहानियाँ लिखी हैं वैसी फिर नहीं लिखी गईं। लोग आते रहते हैं, लिखते रहते हैं, उन्हें कोई मना थोडे ही कर सकता है। ’’
फिर एक ठहाका लगा। दवे साहब को महशूस हुआ कि यह ठहाका बहुत साफ तौर पर उनके खिलाफ़ मजा़क था। एक लड़के ने पूछा-‘‘सर, कहानियाँ अच्छी लिखी गई हों या बुरी, उनमें प्रवृत्तिगत अन्तर तो होता ही है। वह अन्तर तो स्पष्ट होना ही चाहिए।’’
‘‘क्यों होना चाहिए ? क्या कभी यह सवाल परीक्षा में पूछा गया है ? मैं आप लोगों को फालतू चीज़े नहीं पढ़ाऊँगा। इतना समय कहाँ है अपने पास। और देखिए, मेरे पढ़ाते समय आप लोग फालतू सवाल पूछकर मेरा समय बर्बाद मत किया कीजिए। मेरा मूड खराब हो जाता है। अब जो भी मुझे डिस्टर्ब करेगा, उसे क्लास से बाहर निकाल दूँगा और गै़र हाज़िरी ठोक दूँगा।’
’
मैंने चिल्लाकर कहा-‘‘सर, मेरे पास एक पत्रिका है-उसमें यह अन्तर स्पष्ट किया गया है। आप चाहे तो आपके पढ़ने के लिए यह पत्रिका दे सकता हूँ।’’
‘‘तुम मुझे सिखाओगे अब ? मैं तुम्हें पिछले साल से ही मार्क कर रहा हूँ। तुम बदतमीज़ हो, अपने को बहुत बड़ा स्कालर समझते हो। और कविता भी लिखते हो न ? अपने को जयशंकर प्रसाद समझने लगे हो। लो, मैं तुम्हारा दिमाग ठीक करता हूँ।’’ कहकर उन्होंने तीन-चार दिन की ग़ैरहाज़िरी ठोंक दी और रजिस्टर उठाकर बाहर चले गए। मेरी इच्छा हुई कि दौड़कर कालर पकड़ लूँ और कहूँ कि आइन्दा से मुझे बदतमीज़ मत कहिएगा, लेकिन मैं जहाँ का तहाँ मर्माहत खड़ा रह गया।
यह कोई नई बात नहीं है और न यह बात दवे साहब के साथ ही है- दो तिहाई प्रोफेसरों का यही हाल है-चाहे वे गुजरात के हों, चाहे उत्तर भारत से आए हों। उत्तर भारत से आए हुए लोग भाषा की शुद्धता के बल पर स्कालर बन जाते हैं। दरअसल शुद्ध हिन्दी बोलना न कोई पुरुषार्थ है और न गुजराती प्रभाव वाली हिन्दी बोलना कोई अपुरूषार्थ है। एक को हिन्दी मातृभाषा के रूप में मिली है दूसरे को नहीं मिली तो यह अन्तर तो होगा ही। असल चीज़ है ज्ञान, जिसे दोनों को ही अर्जित करना पड़ता है। वह ज्ञान जहाँ होता है वहाँ भाषा चाहे गुजरती प्रभाव वाली हो चाहे शुद्ध हिन्दी हो, अर्थ से भारी हो उठती है, नहीं तो खोखले वाग्जाल के सिवा और बचता ही क्या है ?
डॉ, गौतम सीनियर प्रोफेसर हैं। उनसे अपना दुःख-दर्द कहता हूँ। उनकी क्लास में तृप्ति मिलती है। वे जाने-माने साहित्यकार तो हैं ही, अच्छे अध्यापक भी हैं और छात्रों के प्रति अत्यन्त सहृदय हैं। वे समझते हैं कि किसी को छेड़ो मत। जो जो देता है ले लो या सुन लो।
गौतमजी मेरे भले के लिए व्यावहारिक बात कहते हैं। लेकिन मैं जानता हूँ कि वे भीतर-भीतर कितने दुःखी हैं, असन्तुष्ट हैं इस सारे परिवेश से। वे भीतर-भीतर विद्रोहा हैं किंतु बाहर-बाहर मुरौवती हैं। बाहर-भीतर को इतना नहीं अलगा पाता। अपने अहित की बात जानते हुए भी फूट पड़ता हूँ चाहे क्लास हो, चाहे समाज, चाहे परिवार हो, चाहे कवियों का समाज। इसीलिए लोग घमण्डी, बदतमीज़ आदि समझते हैं। कितनी टकराहटें हैं ज़िन्दगी में ? झूठ को आखिर कहाँ तक बर्दाश्त किया जाए ? कभी-कभी सोचता हूँ, अपने को बदलूँ।
खल खल खल खल....
अरे चाय का पानी तो कब से खौल रहा है। धत्तेरी की, पानी तो आधा जल गया, मुझे पता नहीं चला। चलो थोड़ा और पानी डाल देते हैं।
इस बीच पत्र पढ़ लिया। कुछ खास बात नहीं थी। वही पैसों की पुरानी माँग और हालचाल। खेत खरीदने के लिए कुछ पैसे चाहिए।
चाय पीकर शंकर कुछ आश्वस्त हुआ तो सोचा अनुभव होता है कि यह दर्शन उसके बहुत करीब है। उसे कहीं विश्वास और ऊर्जा दे रहा है। उसने पढ़ना शुरू ही किया था कि किसी के पुकारने की आवाज़ आई-‘‘शंकर भाई !’’ और पारस अन्दर घुस गया।
‘‘ओ पारस भइया ! आइए आइए।’’ शंकर का मन तीता हो गया, लेकिन ऊपर-ऊपर हँसने का प्रयत्न करता रहा।
पारस के आते ही झक-से कपड़ों की एक दुर्गन्ध कमरे में फैल गई। ‘‘क्या बात है पारस भइया, बहुत थके दिखाई पड़ रहे हैं। ?’’
‘‘नहीं भाई, थका-वका कहाँ हूँ। थकना तो रोज़ की आदत बन गया है।’’
‘‘नहीं, फिर भी आज कुछ विशेष थके दिखाई पड़ रहे हैं। ’’
‘‘नहीं, कुछ खास नहीं। पचास रुपये हों तो दे दो। पहली को दे दूँगा।’’
‘‘रुपये ?’’ ऐसी क्या आफत आ गयी है पारस भैया ?’’
‘‘भाई बात यह है कि घर से चिट्ठी आई है, कोई खेत बिक रहा है, गाँव में चढ़ा-ऊपरी हो रही है। वह खेत खरीदना है। घर की प्रतिष्ठा का सवाल है। कुछ पैसे जमा थे, कुछ ट्यूशन के इकट्ठे किए, फिर भी पचास रूपये कम पड़ रहे हैं।’’
‘‘हाँ भाई, घर की प्रतिष्ठा का सवाल है। ज़रूर भेजना चाहिए। मेरे घर से भी चिट्ठी आई है। वहाँ भी प्रतिष्ठा का सवाल है। मैं दरिद्रानारायण बनकर उनकी झूठी प्रतिष्ठा की रक्षा करता रहूँ, यह तो मुझसे नहीं होगा। आप महान् हैं, आदर्श हैं, आपके क्या कहने ! मेरे पास पैसे होते तो मैं जरूर देता लेकिन आप जानते हैं मैं ट्यूशन तो करता नहीं पढ़ता हूँ और किताबें ख़रीदता हूँ, दस-पाँच रुपये बचे हैं सो वे महीने के बचे हुए दिनों की भेंट चढेंगें।’’
पारस दुखी हो गया।
‘‘पारस भैया आप थके लग रहे हैं। मैं आपके लिए चाय बनाता हूँ।’’
‘‘नहीं-नहीं, भाई चाय तो अभी पी है।’’
‘‘कोई बात नहीं आप शाम को खाना तो खाते नहीं, मेरे लिए चाय ही पी लीजिए। कुछ नमकीन भी है साथ ले लीजिए।’’
पानी उबलने लगा तो शंकर ने पारस से कहा-‘‘भइया, आपके घर कौन-कौन हैं ?’’
‘‘माता-पिता जी, हैं, तीन भाई हैं, एक छोटी बहन है, मेरा और भाइयों के परिवार हैं।’’
‘‘और खेत कितने हैं’’
‘‘चालीस बीघे।’’
‘‘भाई लोग क्या करते हैं ?’’
‘‘एक खेती कराते हैं और एक जवार में ही हाई स्कूल में पढ़ाते हैं।’’
‘‘इतने पर भी घर का खर्चा पूरा नहीं पड़ता ?’’
‘‘पूरा क्यों नहीं पड़ेगा, लेकिन सवाल निरन्तर विकास का है न। जर-जवार में धन-दौलत से ही मान बढ़ता है। हमारे घर में आप शहर की अनेक चीजे़ पाएँगे-कालीन, तिरपाल, कुर्सियाँ, फोनोग्राफ, नये-नये छाते, कपड़े, पैट्रोमैक्स, साइकिलें वगैरह।’’
‘‘और यहाँ आपके यहाँ क्या-क्या है ?’’
‘‘यहाँ रखने की क्या ज़रूरत ? यहाँ तो परदेस है। यहाँ मेरी कौन इज्ज़त होने वाली है ? यहाँ कौन देखता है ?’’
‘‘क्यों, अपनी कोई इज्ज़त ही नहीं समझते ? आप तो शिक्षक हैं, क्या यह नहीं समझते कि यहाँ आपकी इज्ज़त का सवाल केवल आपसे ही नहीं समूचे उत्तर भारत के लोगों के साथ जुड़ा है क्या आपको नहीं लगता कि यहाँ के लोग हम लोगों का रहन-सहन देखकर व्यंग्य कसते हैं ?’’
‘‘कसने दो। उससे हमारी सेहत पर क्या असर पड़ता है ? मुझे तो अपना घर-द्वार देखना है।’’
‘‘आपकी सेहत पर तो नहीं, लेकिन हमारे प्रदेश की सेहत पर तो अवश्य पड़ता है।’’ पानी खौल गया था। चाय बनाकर शंकर ने पारस को दी। साथ ही प्लेट में कुछ नमकीन भी रख दिया। वह चपर-चपर नमकीन खाने लगा और प्लेट में चाय गिराकर सुर्र-सुर्र सुड़कने लगा, जैसे बैल सानी के भीतर मुँह धँसाकर सुड़कते हैं।
चाय पी चुकने के बाद पारस ने उदास होकर उच्छवास छोड़ा और बोला, ‘‘रूपये का इन्तज़ाम नहीं हुआ तो बहुत बुरा होगा।’’
‘‘हाँ भाई, बुरा तो होगा, घर की प्रतिष्ठा चली जाएगी। ऐसा कीजिए कि चाली-भर के सभी लोगों से एक-एक रुपया घर की प्रतिठा के नाम पर चन्दा या उधार मांग लीजिए। लीजिए, एक रुपया देकर मैं शुरुआत कर रहा हूँ।’’
‘‘अरे नहीं शंकर भाई, यह आप क्या कर रहे हैं ? आखिरी सप्ताह है महीने का। किसके पास पैसे होंगे !’’
‘‘तभी तो कह रहा हूँ एक-एक रुपया मांग लीजिए। सभी दे देंगे। और देखिए, इस चाली में अपनी ओर के धोबी, नाई और दैनिक मज़दूरी पर काम करने वाले बहुत से लोग हैं, उनके पास पैसे होंगे, उनसे इकट्ठा कीजिए। वे दे भी देंगे।’’
‘‘हाँ, यह ठीक कह रहे हो। बिलकुल ठीक। कल सुबह यही करूँगा। कह कर पारस चला गया।
शंकर व्यंग्य से मुसकराया-‘‘वाह रे ब्राह्मण देवता पारसनाथ-पाठकजी ! घर की प्रतिष्ठा के लिए क्या –क्या कर सकते हैं !’’
हवा में शरद के आगमन का आभास मिलने लगा था। क्वार का प्रथम पक्ष चढ़ गया था। भादों की उमस टूट रही थी और वातावरण में एक खुलापन उभर रहा था। निकलकर घूमना अच्छा लगता था। हवा में पारिजात की हल्की-हल्की गन्ध भीन रही थी
सहसा ढोलक झाल की आवाज़ गमक उठी। कल रविवार है, लोग मस्ती में आ गये हैं एकत्र होकर रामायण गा रहे हैं।
शंकर सोच रहा था कि किताब पढ़े, लेकिन बाहर की यह आवाज़ बार-बार उससे टकरा रही थी।
‘‘शंकर !’’
‘‘आओ, विनोद।’’
‘‘चलो यार, क्या कमरे में पड़े हुए हो। चलो ज़रा घूमें कल छुट्टी है।’’
‘‘यार, पढ़ना भी तो है, लेकिन चलो।’’
दोनों निकलकर बाहर आए। कुछ दूर गए कि देखा एक पेड़ के नीचे कोई आदमी बैठा हुआ धीरे-धीरे रो रहा है।
‘‘कौन हो भाई ?’
वह आदमी कुछ नहीं बोला। धीरे-धीरे सुबगता रहा। शंकर उसके पास बढ़ आया।
‘‘कौन हो भाई ?’’
‘‘का है, मालिक ?’’
‘‘अरे फेंकू ? रो क्यों रहे हो भाई ?’’
‘‘उसने अपने फटे कुर्ते की बहोरी से आँखें पोछते हुए भरे हुए स्वर से कहा-‘‘कुछ नहीं मालिक !’’
‘‘हे फेंकू, देखो पहले तो यह मालिक-फालिक शब्द मुझसे मत बोलो, और बताओ तो सही क्या बात है ?’’
-ठीक ही तो कहते हैं घरवाले। मैं घर के लिए क्या कर सका ? सात साल से प्राइमरी में पढ़ा रहा हूँ। प्राइमरी स्कूल में मिलता ही क्या है। मैं क्या खाऊँ, क्या बचाऊँ ? घर पर खाने-पीने की कमी नहीं है। इतने खेत हैं कि खाने भर को हो ही जाता है। लेकिन केवल खाना ही जरूरी नहीं है न। कच्चा मकान है तो पक्का मकान बनवाना है। एक पक्का मकान है तो दूसरा बनवाना है। अगर कहीं खेत बिक रहा है तो चढ़ा-ऊपरी करके उसे खरीद भी लेना है नहीं तो घर की इज्ज़त चली जाएगी। जिसके घर के लोग परदेश में हों, उसके घर पैट्रोमैक्स, कालीन, फोनोग्राफ, नई-नई दरियाँ वगैरह-वगैरह होनी ही चाहिएँ अच्छे-अच्छे कपड़े न हों तो शान में कमी आती है। हर खाते-पीते घर के लोग बाहर कमाने वाले सदस्यों से बहुत-बहुत उम्मीदें पालते हैं और जब उम्मीदें पूरी नहीं होतीं तो वह सदस्य नालायक करार दे दिया जाता है- घर में ही नहीं, गाँव-जवार में भी उसकी नालायकी की चर्चा होने लगती है। घर पर माँ है दो बड़े भाई हैं, एक भाई गाँव के पास के ही मिडिल स्कूल में मास्टर हैं और दूसरे खेती-बारी भी कराते हैं। उनके बच्चें है। भाई घर का खाते हैं और कुछ पैसे बचाकर घर दे देते हैं और मैं जब मुश्किल से कुछ बचा पाता हूँ तब भेज देता हूँ। इसलिए भाइयों की तुलना में मेरी इज्ज़त कुछ भी नहीं है। मेरी पत्नी और दो बच्चे भी घर पर ही हैं। यह भी एक दर्द है। माँ का आग्रह है कि बहु और बच्चो को घर पर ही रहने दो। मैं जानता हूँ कि माँ मेरी पत्नी और बच्चों से बहुत प्यार करती हैं और उनसे सेवा भी पाती है। भाभी तो माँ को कुछ खतियाती ही नहीं। उनके बच्चे भी उनकी उपेक्षा करते हैं। भाई साहब हमेशा मेरी शिकायत लेकर बैठ जाते हैं, भला-बुरा कहते हैं तो माँ कुछ बोल देती है, इससे वह और भी तीती हो जाती है उन लोगों के लिए मेरे बच्चों और बीबी की उपेक्षा होती है इसलिए कि मैं जमकर रुपये नहीं भेज पाता। कभी-कभी पत्नी बेटे से पत्र लिखवाती है-‘‘क्यों हमें यहाँ मुसीबत में छोड़ गए हैं, हर समय कोंचा जाता है।’’ क्या करूँ ? क्या मुझे नहीं इच्छा होती कि बाल-बच्चे साथ रहें ? बच्चों की याद सताती रहती है बीवी प्रायः याद आती है। कभी-कभी तो सूनापन बेहद काटने लगता है। शरीर जोरों से टूटने लगता है। क्या मैं नहीं चाहता कि परदेस में मेरा भी एक घर हो ! काम पर से लौटूँ तो पत्नी के हाथ की गरम-गरम चाय मिले, ढ़ंग का खाना मिले और बाहर खेलते हुए बच्चे को उठाकर गोद में भर लूँ। और जब गुजरात के लोग पूरब वालों पर बोली कसते हैं कि सबके सब बाल-बच्चों को छोड़कर चले आते हैं और व्यभिचार फैलाते हैं, तब अपमान से मेरा जी ऐंठ जाता है। मैं भी तो उन्हीं निघरे लोगों में से हूँ। क्या मैं व्यभिचार फैलाता हूँ। ठीक है मैं नहीं फैलाता तो क्या मैं सभी लोगों का प्रतिनिधि हूँ ? क्या मैं नहीं जानता कि शरीर की अपनी जरूरत होती है ? उस ज़रूरत को कोई कब तक दबाएगा ? मैं दबा लेता हूँ तो क्या सभी लोग दबा लेंगे ? परिवार-विहीन लोग गन्ध तो फैलाएँगे ही। लेकिन वे क्या करें ? पेट की भूख तो सबसे बड़ी भूख है। केवल अपने ही पेट की नहीं, अपने पिता के, माँ के, भाई के, सभी के पेट की जरूरत पुरबिहा की ज़रूरत में शामिल है। वे बाल-बच्चों को साथ लाएँ तो घर कैसे पैसे भेजेंगे, इसे गुजरात के लोग नहीं समझ सकते, क्योंकि यहाँ सभी अपनी-अपनी दुनिया बसाते हैं, किसी की ज़रूरत से उन्हें मतलब नहीं।
मैं चाहता हूँ परिवार ले आऊँ लेकिन-यहाँ भी लेकिन-वहाँ भी लेकिन। यहाँ लेकिन यह कि लाकर कहाँ रखूँगा ? मैं तो दूसरे के क्वार्टर में एक कमरा किराये पर लेकर रहता हूँ और दूसरे, परिवार के आने पर तो घर भेजने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा। बचने का सवाल ही कहाँ उठता है, मेरा खर्च नहीं चलेगा। तीसरे, माँ अकेली पड़ जाएगी, कोई उसकी देखभाल भी नहीं करेगा। कितना बड़ा मकड़ी का जाला है। जिसमें मैं या मेरे जैसे लोग फँसे हैं, जाले को तोड़ने के लिए ज़ोर मारते हैं, जाला हिलता है तो वे स्वयं थर्रा जाते हैं और ज़ोर मारना बंद कर देते हैं।
घर से शिकायत आती है कि ‘‘उसी नौकरी में और लोग हैं, खुद इसी जवार के पारस हैं जो रूपयों से घर भर दे रहे हैं और एक तुम हो जो अपने बाल-बच्चों का ही पेट पालने योग्य पैसे नहीं भेज पाते।’’ओह, कैसे-कैसे लोगों से मेरी तुलना की जाती है ! पारस। हाँ, पारस भी लायक आदमी है बल्कि आदमी नहीं केवल लायक है-सीधा-सादा गऊ। वह भी प्राइमरी में ही टीचर है और वह भी मेरे ही समान उसी चाली में एक कमरा लेकर रहता है। आता ही होगा दिन-भर ट्यूशन पढ़ाता है, एक वक्त चना खाता है, एक वक्त खाना बनाकर खाता है। उसे और कोई काम ही नहीं है-न पढ़ना, न लिखना, न किसी सभा-सोसायटी में जाना। बस स्कूल में पढ़ाता है और ट्यूशन करता है। हर महीने तीन-चार सौ रूपये भेजता है। उसकी एक-एक हड्डी गिन लो, उसके कपडों की दुर्गन्ध सौ कदम दूर से ही सूँघ लो, उसके चेहरे की झुर्रियों को रात में भी देख लो। उसके घरवाले बहुत मज़े में हैं, पालिटिक्स करते हैं और दूसरों की ज़मीन-जाएदाद के लिए मुकदमें लड़ते हैं।
मुझे सात साल हो गए अहमदाबाद में आय हुए। मैट्रिक पास करके आया था। मैं पढ़ना चाहता रहा, लेकिन घरवालों ने कहा-‘‘क्या पढ़ते ही रहोगे ? और कुछ करो-धरो।’’ पिताजी तब जीवित थे। उनका भी ज़ोर नौकरी पे था, और भाई साहब तो फिर दुश्मन ही बन गए थे मेरी पढ़ाई के। उन्होंने ताना भी मारा कि आगे पढ़कर क्या कर लोगे ? कलक्टर बनोगे ? घर-गृहस्थी का काम करो और कोई नौकरी कर खोजो। लेकिन मैंने ठान लिया था कि मैं पढ़ूँगा। किताबें शुरू से ही मुझे ललचाती रही हैं, मेरे भीतर शुरू से ही पढ़ते रहने की तड़प भरी है। मैं कलक्टर बनूँ या न बनूँ, विद्या-प्रेमी ज़रूर बना रहूँगा। मैं सामान्य और लीचड़ ज़िन्दगी जीने के लिए नहीं पैदा हुआ हूँ। मैं अपने जीवन का अर्थ समझता हूँ। शुरू से ही इसके अर्थ की छाया भीतर तैरती रही है, इसलिए मैं एक दिन अपने दोस्त के पिता का पता लेकर अहमदाबाद भाग आया। कुछ दिन इधर-उधर भटका किन्तु बाद में प्राइमरी स्कूल में मुझे नौकरी मिल गई। एक सहारा मिला। लेकिन प्राइमरी की नौकरी मेरा लक्ष्य तो नहीं थी। लोग ट्यूशन करते हैं, ट्यूशन पर ट्यूशन करते हैं और अनेक धन्धे करके पैसे बटोरते हैं, लेकिन मुझे इधर कभी आकर्षण नहीं दिखा। मुझे लगा कि अब मेरी पढ़ाई का रास्ता साफ़ है। पढ़ने लगा। प्राइवेट इण्टर पास किया। बी.ए. किया और अब हिन्दी से एम.ए. कर रहा हूँ। फ़ाइनल में हूँ। पैसों से किताबें खरीदता हूँ, फ़ीस देता हूँ, साफ़-सुन्दर रहने की कोशिश करता हूँ। चाहता हूँ यहाँ का कोई आदमी मेरा रहन-सहन देखकर यह न कहे कि भइया है। भला रूपये कहाँ बचते हैं कि मैं ढेर के ढेर घर भेजता रहूँ और गाँव में लायक कहाता रहूँ।
शंकर ने एक उसाँस ली। चिट्ठी पर निगाह फेरी, कुछ देर तक देखता रहा। खोलने की इच्छा हुई, नहीं खोली। आज तो यों ही मन उद्विग्न था, उस उद्विग्नता में चिट्ठी खोलकर उसे बढ़ाना नहीं चाहता था। उसे लगा कि चाय पीनी चाहिए। उठकर स्टोव जलाया। पानी रख दिया, चीनी डाली और वह बैठ गया। सोचने लगा-यह कोई नई बात तो नहीं है, क्यों चिन्ता करूँ ? यह तो प्रायः घटता है। लेकिन हद है गुरूओं की असहिष्णुता की और उनकी पेशगत बेईमानी की भी। दवे साहब एम.ए के अध्यापक हैं। पता नहीं कब का एक बना हुआ नोट है। उसी को क्लास में लिखवाते रहते हैं। मैं कभी-कभी हाज़िरी के लिए उनकी क्लास में बैठ जाता हूँ। नहीं लिखता हूँ, चुपचाप कोई उपन्यास पढ़ता हूँ। वे बुरा मानते हैं। एक दिन डपटकर बोले-‘‘अरे हज़रत, लिखते क्यों नहीं हैं ? क्या अपने को बड़ा कवि समझते हैं ? जब नम्बर नहीं आएँगे तो रोएँगे।’’ मैं केवल मुसकाया। बोला कुछ नहीं। क्या बोलता ? बोलता तो और बुरा मानते। लेकिन वे मुस्कराने से काफी़ जल गए। उन्होंने पूछा-‘‘आप क्लास में बैठे-बैठे क्या पढ़ते रहते हैं ?’’ कुछ नहीं सर, यों ही।’’ ‘‘कुछ नहीं क्यों ? कुछ पढ़ तो ज़रूर रहे हैं।’’ कहकर वे मेरी ओर झपटे और किताब मेरे हाथ से छीन ली। ‘पतन’ ।‘‘अच्छा तो आप ‘पतन’ पढ़ रहे हैं ! ऐसे सस्ते उपन्यास पढ़ने में आपको शर्म नहीं आती ?’’ कहकर उन्होंने किताब उठाकर क्लास में दिखाई। कुछ लड़के-लड़कियाँ हँसने लगे। मुझे भीतर-भीतर बहुत गुस्सा आया। इच्छा हुई कि पुस्तक इनके हाथ से छीन लूँ और क्लास के बाहर निकल जाऊँ। लेकिन मैंने अपना क्रोध संयत किया और कहा ‘‘सर, सस्ता उपन्यास नहीं है, यह कामू का उपन्यास है।’’
‘‘अरे भाई कामू क्या बला है ?’’ कहकर वे हँसने लगे-जैसे बहुत गहरा व्यंग्य कर बैठे हों। साथ में अनेक घटिया छात्र भी हँस पड़े।
‘‘सर, कामू बला नहीं है, विश्व का प्रसिद्ध अस्तित्वादी उपन्यासकार है,’’ मैंने कहा। और दो-चार और प्रबुद्ध विद्यार्थियों ने आँखों में मजा़क की मुस्कान भरकर कोरस के स्वर में कहा-‘‘हाँ, सर !’’
‘‘अरे होगा, लेकिन तुम लोगों को अपने कोर्स की चीज़ पढ़नी चाहिए, कोर्स के बाहर की चीजों को पढ़ने का अभी समय नहीं है.’’
‘‘सर, अस्तित्ववाद का हमारे साहित्य पर असर पड़ता है और हमें अपने साहित्य की प्रवृत्तियों का अध्ययन करते समय अस्तित्ववाद को जानना चाहिए।’’
‘‘बेकार बात मत करो, जो कहता हूँ करो। मैं पन्द्रह साल से एम.ए. पढ़ा रहा हूँ। मेरे अनुभव से लाभ उठाओ।’’ कहकर वे फिर नोट बोलने लगे थे।
आज मैं फिर उनकी क्लास में बैठा था। आज एक पत्रिका में छपा ‘नई कहानी’ पर लेख पढ़ रहा था। दवे साहब भी कहानी का इतिहास पढ़ा रहे थे। एक लड़के ने पूछ लिया-‘‘सर, स्वाधीनता के बाद की कहानी और प्रेमचन्द्र की कहानी में क्या अन्तर है ?’’
दवे साहब एक पल को ठिठके, फिर विश्वास से मुस्कराए और बोले-‘‘अरे भाई, प्रेमचन्द्र के बाद कहानी लिखी ही कहाँ गई है ?’’
पूरी क्लास ठहाका मारकर हँस पड़ी। वे समझे कि सभी लोग हमारे बुद्धिमत्तापूर्ण उत्तर को सराह रहे हैं।
मुझसे नहीं रहा गया। बोला- ‘‘आप क्या कह रहे हैं, ? प्रेमचन्द्र के बाद जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल जैसी हस्तियाँ आईं और नई कहानी में तो अनेक अच्छे कहानीकार हैं और आप कह रहे हैं कि प्रेमचन्द्र के बाद कहानी लिखी ही नहीं गई !’’ शायद मेरे स्वर में कुछ रोष भी उग रहा था।
‘‘ओ हो, आप नहीं समझे। मैंने यह बात अभिधा में थोड़े कही है। कहानियाँ लिखी गई हैं, किंतु प्रेमचन्द्र ने जैसी अच्छी कहानियाँ लिखी हैं वैसी फिर नहीं लिखी गईं। लोग आते रहते हैं, लिखते रहते हैं, उन्हें कोई मना थोडे ही कर सकता है। ’’
फिर एक ठहाका लगा। दवे साहब को महशूस हुआ कि यह ठहाका बहुत साफ तौर पर उनके खिलाफ़ मजा़क था। एक लड़के ने पूछा-‘‘सर, कहानियाँ अच्छी लिखी गई हों या बुरी, उनमें प्रवृत्तिगत अन्तर तो होता ही है। वह अन्तर तो स्पष्ट होना ही चाहिए।’’
‘‘क्यों होना चाहिए ? क्या कभी यह सवाल परीक्षा में पूछा गया है ? मैं आप लोगों को फालतू चीज़े नहीं पढ़ाऊँगा। इतना समय कहाँ है अपने पास। और देखिए, मेरे पढ़ाते समय आप लोग फालतू सवाल पूछकर मेरा समय बर्बाद मत किया कीजिए। मेरा मूड खराब हो जाता है। अब जो भी मुझे डिस्टर्ब करेगा, उसे क्लास से बाहर निकाल दूँगा और गै़र हाज़िरी ठोक दूँगा।’
’
मैंने चिल्लाकर कहा-‘‘सर, मेरे पास एक पत्रिका है-उसमें यह अन्तर स्पष्ट किया गया है। आप चाहे तो आपके पढ़ने के लिए यह पत्रिका दे सकता हूँ।’’
‘‘तुम मुझे सिखाओगे अब ? मैं तुम्हें पिछले साल से ही मार्क कर रहा हूँ। तुम बदतमीज़ हो, अपने को बहुत बड़ा स्कालर समझते हो। और कविता भी लिखते हो न ? अपने को जयशंकर प्रसाद समझने लगे हो। लो, मैं तुम्हारा दिमाग ठीक करता हूँ।’’ कहकर उन्होंने तीन-चार दिन की ग़ैरहाज़िरी ठोंक दी और रजिस्टर उठाकर बाहर चले गए। मेरी इच्छा हुई कि दौड़कर कालर पकड़ लूँ और कहूँ कि आइन्दा से मुझे बदतमीज़ मत कहिएगा, लेकिन मैं जहाँ का तहाँ मर्माहत खड़ा रह गया।
यह कोई नई बात नहीं है और न यह बात दवे साहब के साथ ही है- दो तिहाई प्रोफेसरों का यही हाल है-चाहे वे गुजरात के हों, चाहे उत्तर भारत से आए हों। उत्तर भारत से आए हुए लोग भाषा की शुद्धता के बल पर स्कालर बन जाते हैं। दरअसल शुद्ध हिन्दी बोलना न कोई पुरुषार्थ है और न गुजराती प्रभाव वाली हिन्दी बोलना कोई अपुरूषार्थ है। एक को हिन्दी मातृभाषा के रूप में मिली है दूसरे को नहीं मिली तो यह अन्तर तो होगा ही। असल चीज़ है ज्ञान, जिसे दोनों को ही अर्जित करना पड़ता है। वह ज्ञान जहाँ होता है वहाँ भाषा चाहे गुजरती प्रभाव वाली हो चाहे शुद्ध हिन्दी हो, अर्थ से भारी हो उठती है, नहीं तो खोखले वाग्जाल के सिवा और बचता ही क्या है ?
डॉ, गौतम सीनियर प्रोफेसर हैं। उनसे अपना दुःख-दर्द कहता हूँ। उनकी क्लास में तृप्ति मिलती है। वे जाने-माने साहित्यकार तो हैं ही, अच्छे अध्यापक भी हैं और छात्रों के प्रति अत्यन्त सहृदय हैं। वे समझते हैं कि किसी को छेड़ो मत। जो जो देता है ले लो या सुन लो।
गौतमजी मेरे भले के लिए व्यावहारिक बात कहते हैं। लेकिन मैं जानता हूँ कि वे भीतर-भीतर कितने दुःखी हैं, असन्तुष्ट हैं इस सारे परिवेश से। वे भीतर-भीतर विद्रोहा हैं किंतु बाहर-बाहर मुरौवती हैं। बाहर-भीतर को इतना नहीं अलगा पाता। अपने अहित की बात जानते हुए भी फूट पड़ता हूँ चाहे क्लास हो, चाहे समाज, चाहे परिवार हो, चाहे कवियों का समाज। इसीलिए लोग घमण्डी, बदतमीज़ आदि समझते हैं। कितनी टकराहटें हैं ज़िन्दगी में ? झूठ को आखिर कहाँ तक बर्दाश्त किया जाए ? कभी-कभी सोचता हूँ, अपने को बदलूँ।
खल खल खल खल....
अरे चाय का पानी तो कब से खौल रहा है। धत्तेरी की, पानी तो आधा जल गया, मुझे पता नहीं चला। चलो थोड़ा और पानी डाल देते हैं।
इस बीच पत्र पढ़ लिया। कुछ खास बात नहीं थी। वही पैसों की पुरानी माँग और हालचाल। खेत खरीदने के लिए कुछ पैसे चाहिए।
चाय पीकर शंकर कुछ आश्वस्त हुआ तो सोचा अनुभव होता है कि यह दर्शन उसके बहुत करीब है। उसे कहीं विश्वास और ऊर्जा दे रहा है। उसने पढ़ना शुरू ही किया था कि किसी के पुकारने की आवाज़ आई-‘‘शंकर भाई !’’ और पारस अन्दर घुस गया।
‘‘ओ पारस भइया ! आइए आइए।’’ शंकर का मन तीता हो गया, लेकिन ऊपर-ऊपर हँसने का प्रयत्न करता रहा।
पारस के आते ही झक-से कपड़ों की एक दुर्गन्ध कमरे में फैल गई। ‘‘क्या बात है पारस भइया, बहुत थके दिखाई पड़ रहे हैं। ?’’
‘‘नहीं भाई, थका-वका कहाँ हूँ। थकना तो रोज़ की आदत बन गया है।’’
‘‘नहीं, फिर भी आज कुछ विशेष थके दिखाई पड़ रहे हैं। ’’
‘‘नहीं, कुछ खास नहीं। पचास रुपये हों तो दे दो। पहली को दे दूँगा।’’
‘‘रुपये ?’’ ऐसी क्या आफत आ गयी है पारस भैया ?’’
‘‘भाई बात यह है कि घर से चिट्ठी आई है, कोई खेत बिक रहा है, गाँव में चढ़ा-ऊपरी हो रही है। वह खेत खरीदना है। घर की प्रतिष्ठा का सवाल है। कुछ पैसे जमा थे, कुछ ट्यूशन के इकट्ठे किए, फिर भी पचास रूपये कम पड़ रहे हैं।’’
‘‘हाँ भाई, घर की प्रतिष्ठा का सवाल है। ज़रूर भेजना चाहिए। मेरे घर से भी चिट्ठी आई है। वहाँ भी प्रतिष्ठा का सवाल है। मैं दरिद्रानारायण बनकर उनकी झूठी प्रतिष्ठा की रक्षा करता रहूँ, यह तो मुझसे नहीं होगा। आप महान् हैं, आदर्श हैं, आपके क्या कहने ! मेरे पास पैसे होते तो मैं जरूर देता लेकिन आप जानते हैं मैं ट्यूशन तो करता नहीं पढ़ता हूँ और किताबें ख़रीदता हूँ, दस-पाँच रुपये बचे हैं सो वे महीने के बचे हुए दिनों की भेंट चढेंगें।’’
पारस दुखी हो गया।
‘‘पारस भैया आप थके लग रहे हैं। मैं आपके लिए चाय बनाता हूँ।’’
‘‘नहीं-नहीं, भाई चाय तो अभी पी है।’’
‘‘कोई बात नहीं आप शाम को खाना तो खाते नहीं, मेरे लिए चाय ही पी लीजिए। कुछ नमकीन भी है साथ ले लीजिए।’’
पानी उबलने लगा तो शंकर ने पारस से कहा-‘‘भइया, आपके घर कौन-कौन हैं ?’’
‘‘माता-पिता जी, हैं, तीन भाई हैं, एक छोटी बहन है, मेरा और भाइयों के परिवार हैं।’’
‘‘और खेत कितने हैं’’
‘‘चालीस बीघे।’’
‘‘भाई लोग क्या करते हैं ?’’
‘‘एक खेती कराते हैं और एक जवार में ही हाई स्कूल में पढ़ाते हैं।’’
‘‘इतने पर भी घर का खर्चा पूरा नहीं पड़ता ?’’
‘‘पूरा क्यों नहीं पड़ेगा, लेकिन सवाल निरन्तर विकास का है न। जर-जवार में धन-दौलत से ही मान बढ़ता है। हमारे घर में आप शहर की अनेक चीजे़ पाएँगे-कालीन, तिरपाल, कुर्सियाँ, फोनोग्राफ, नये-नये छाते, कपड़े, पैट्रोमैक्स, साइकिलें वगैरह।’’
‘‘और यहाँ आपके यहाँ क्या-क्या है ?’’
‘‘यहाँ रखने की क्या ज़रूरत ? यहाँ तो परदेस है। यहाँ मेरी कौन इज्ज़त होने वाली है ? यहाँ कौन देखता है ?’’
‘‘क्यों, अपनी कोई इज्ज़त ही नहीं समझते ? आप तो शिक्षक हैं, क्या यह नहीं समझते कि यहाँ आपकी इज्ज़त का सवाल केवल आपसे ही नहीं समूचे उत्तर भारत के लोगों के साथ जुड़ा है क्या आपको नहीं लगता कि यहाँ के लोग हम लोगों का रहन-सहन देखकर व्यंग्य कसते हैं ?’’
‘‘कसने दो। उससे हमारी सेहत पर क्या असर पड़ता है ? मुझे तो अपना घर-द्वार देखना है।’’
‘‘आपकी सेहत पर तो नहीं, लेकिन हमारे प्रदेश की सेहत पर तो अवश्य पड़ता है।’’ पानी खौल गया था। चाय बनाकर शंकर ने पारस को दी। साथ ही प्लेट में कुछ नमकीन भी रख दिया। वह चपर-चपर नमकीन खाने लगा और प्लेट में चाय गिराकर सुर्र-सुर्र सुड़कने लगा, जैसे बैल सानी के भीतर मुँह धँसाकर सुड़कते हैं।
चाय पी चुकने के बाद पारस ने उदास होकर उच्छवास छोड़ा और बोला, ‘‘रूपये का इन्तज़ाम नहीं हुआ तो बहुत बुरा होगा।’’
‘‘हाँ भाई, बुरा तो होगा, घर की प्रतिष्ठा चली जाएगी। ऐसा कीजिए कि चाली-भर के सभी लोगों से एक-एक रुपया घर की प्रतिठा के नाम पर चन्दा या उधार मांग लीजिए। लीजिए, एक रुपया देकर मैं शुरुआत कर रहा हूँ।’’
‘‘अरे नहीं शंकर भाई, यह आप क्या कर रहे हैं ? आखिरी सप्ताह है महीने का। किसके पास पैसे होंगे !’’
‘‘तभी तो कह रहा हूँ एक-एक रुपया मांग लीजिए। सभी दे देंगे। और देखिए, इस चाली में अपनी ओर के धोबी, नाई और दैनिक मज़दूरी पर काम करने वाले बहुत से लोग हैं, उनके पास पैसे होंगे, उनसे इकट्ठा कीजिए। वे दे भी देंगे।’’
‘‘हाँ, यह ठीक कह रहे हो। बिलकुल ठीक। कल सुबह यही करूँगा। कह कर पारस चला गया।
शंकर व्यंग्य से मुसकराया-‘‘वाह रे ब्राह्मण देवता पारसनाथ-पाठकजी ! घर की प्रतिष्ठा के लिए क्या –क्या कर सकते हैं !’’
हवा में शरद के आगमन का आभास मिलने लगा था। क्वार का प्रथम पक्ष चढ़ गया था। भादों की उमस टूट रही थी और वातावरण में एक खुलापन उभर रहा था। निकलकर घूमना अच्छा लगता था। हवा में पारिजात की हल्की-हल्की गन्ध भीन रही थी
सहसा ढोलक झाल की आवाज़ गमक उठी। कल रविवार है, लोग मस्ती में आ गये हैं एकत्र होकर रामायण गा रहे हैं।
शंकर सोच रहा था कि किताब पढ़े, लेकिन बाहर की यह आवाज़ बार-बार उससे टकरा रही थी।
‘‘शंकर !’’
‘‘आओ, विनोद।’’
‘‘चलो यार, क्या कमरे में पड़े हुए हो। चलो ज़रा घूमें कल छुट्टी है।’’
‘‘यार, पढ़ना भी तो है, लेकिन चलो।’’
दोनों निकलकर बाहर आए। कुछ दूर गए कि देखा एक पेड़ के नीचे कोई आदमी बैठा हुआ धीरे-धीरे रो रहा है।
‘‘कौन हो भाई ?’
वह आदमी कुछ नहीं बोला। धीरे-धीरे सुबगता रहा। शंकर उसके पास बढ़ आया।
‘‘कौन हो भाई ?’’
‘‘का है, मालिक ?’’
‘‘अरे फेंकू ? रो क्यों रहे हो भाई ?’’
‘‘उसने अपने फटे कुर्ते की बहोरी से आँखें पोछते हुए भरे हुए स्वर से कहा-‘‘कुछ नहीं मालिक !’’
‘‘हे फेंकू, देखो पहले तो यह मालिक-फालिक शब्द मुझसे मत बोलो, और बताओ तो सही क्या बात है ?’’
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