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नारी विमर्श >> प्यार का चेहरा

प्यार का चेहरा

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :102
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5135
आईएसबीएन :000

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नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....

12

मृण्मयी देवी फुर्सत के वक्त बरी, आचार, अमावट नहीं बनाती, यहां तक कि चावल केकंकड़-पत्थर भी नहीं चुनतीं, इसके फलस्वरूप उन्हें चूंकि अपने अन्दरआक्रोश संहत रखना पड़ता है, इसलिए उनके क्रोध की मात्रा बढ़ जाती है।

ससुर भी बहू से अदब से पेश आते हैं और अदब से बातचीत भी करते हैं।

सागर की मां के एक छोटे चाचा हैं—सगोत्र के चाचा, वे ही गृहरू के सब कुछ की देखरेख करतेहैं। घर के काम-धाम की देखभाल करने वाला और कोई है ही नहीं।

दो बूढ़ा-बूढ़ी और एक अधबूढ़ी—ये ही तो घर के सदस्य हैं। अभिभावक के नाम पर वही छोटे चाचाहैं। लेकिन कितने विनम्र, कितनी शान्त प्रकृति के ! नानी से जब बातचीत करते हैं तो लगता है बड़े-बुजुर्गों से बातचीत कर रहे हैं, जबकि उम्र मेंये सागर की

नानी यानी मृण्मयो देवी से बड़े हैं।

उस छोटे चाचा, जिनका नाम अरुणेन्द्र है, उनका भी तौर-तरीका वैसा ही देखा है सागर ने।

शायद बरामदे पर से ही पूछते हैं, "धान क्या अभी कुटवाना होगा, संझली भाभी?" या फिर कहतेहैं, “आमवाला आम दे गया था?”

इन लोगों का आम का एक बगीचा है जिसे निर्धारित राशि पर ठेके पर दे दिया जाता है। उन लोगोंसे अनुबन्ध रहती है कि कुछ आम खाने के लिए दे जाएंगे।

नानी बरामदे के किनारे आकर खड़ी होती हैं।

कहती हैं, "दे गये हैं। बहुत ही कम, सो भी छोटे-छोटे। नाती आए हुए हैं।”

कहती हैं, "नहीं-नहीं, चावल अभी काफी मात्रा में हैं।"

वे बाजार से सामान ला देते हैं।

मछली लाने पर असंतोष प्रकट करते हुए कहते हैं, "नीती आए हैं, पर अच्छी मछली नहीं ला पारहा हूँ। कितनी छोटी-छोटी मछलियां हैं !”

नानी कहती हैं, "दाती मछली कहां खाते हैं? थाली में डालने भी नहीं देते। खाती है तो सिर्फचिनु ही।”

"तो फिर उन लोगों के लिए हर रोज थोड़ा-सा मांस ले आनी चाहिए।"

नानी कहती हैं, “हर रोज कहां मिलेगा? बीच-बीच में ले आना..."

इसी तरह की संक्षेप में दो-चार बातें नानी अपने उस देवर से करती हैं बाकायदा दूरीरखकर। और जरूरत से ज्यादा एक शब्द भी नहीं। अलबत्ता इसका कारण नानी का व्यक्तित्व ही है।

हालांकि नानी यों कोई खास गंभीर नहीं हैं, पर ब्यादा बातें भी नहीं करतीं। नानी की सासमौका मिलते ही चुपके से कहती हैं, “तुम

लोगों की नानी यदि दो-चार बातें करतीं तो मन इतना बेकल नहीं होता। चूंकि तुम लोग आए हुएहो इसलिए दो-चार बातें कर चैन की। सांस लेने का मौका मिलता है। बहूरानी का मेरे प्रति जो कर्तव्य होना चाहिए, अच्छी तरह करती है, कोई खोट नहीं रहतीहै उसमें। लेकिन उसके बाद लगता है, वह किसी की नहीं है, सिर्फ किताब से नाता जुड़ा रहता हैं।...वह अरुण है न, वह हम लोगों के लिए जी-जान से खटतारहता है मगर जरूरत के अलावा कभी दो-चार शब्द भी उससे बोलती है? नहीं, नहीं बोलती है। एक कटोरी चाय भी कभी सामने रखकर नहीं कहती कि पियो, देवर जी !मैरे जेठ का लड़का है, मैं थोड़ी-बहुत बातचीत करती हूं। तुम लोगों की नानी क्या कहती हैं, जानते हो? बिठाने से वक्त बर्वाद होगा।"

बूढ़ी नानी अपने विशाल शरीर में एक चौड़ी किनारी की साड़ी लपेट हर वक्त लेटी रहती हैं औरपंखा झलती रहती हैं। उनकी क़लाइयों में सोने के मोटे-मोटे कंगन दमकते रहते हैं।

बूढ़ी नानी के गंजे सिर पर लगे सिंदूर के फैल जाने से उनका सिर लाल दिखता है।

अरुणेन्द्र के जाते ही बूढ़ी नानी अपने आप बुड़बुड़ाती रहती हैं। कोई आदमी कब से तुमलोगों की गृहस्थी के लिए प्राण निछावर कर रहा है, मगर उसकी जरा भी खातिरदारी नहीं की जाती। यह जो घर आम के ढेर से भरा हुआ है, उनमें से दोअदद काटकर नहीं दिए जा सकते हैं?...धूप में तपते हुए तुम लोगों का बाजार करके ला दिया, एक गिलास नींबू का शर्बत नहीं दिया जा सकता? वह अगर इतनानहीं करता तो तुम लोगों को क्या तनख्वाह देकर एक आदमी रखना नहीं पड़ता?"

नानी हंसकर कहती हैं, “न करने से रखना ही पड़ेगा। मान लीजिए, मैं अगर लेटे-लेटे दिन बितातीतो आप लोगों को एक रसोइया रखना ही पड़ता।”

नानी का यह माया-ममताविहीन भाव सागर को भी पसन्द नहीं

आता है। बात तो सच ही है। छोटे नाना के प्रति नानी को थोड़ी बहुत ममता दर्शाना उचित नहींथा क्या?

सागर के नानी के घर में रोजहा कामगार के नाम पर कोई आदमी नहीं है। फिर भी राजा-रजवाड़े केठाट-बाट से गृहस्थी चल रही है और इसका श्रेय तो अरुण नाना को ही है।

बगीचे के आम से लेकर तालाब की मछली, खेत के धान की देखरेख और खरीद-बिक्री का भार उन्हींके कंधे पर है।  

वह जो कारखाना बना है, उसकी कुछ जमीन नानी की है। उसे लीज पर देने को इन्तजाम कौन करताअरुणेन्द्र के सिवाम?  

अरुणेन्द्र की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। रेल में काम करते थे, साधारण-सी नौकरी।अब तो सेवा-निवृत्त हो चुके हैं। लेकिन कोई क्या यह कह सकता है कि असहाय रिश्तेदारों की जगहजमीन, रुपया-पैसा में कोई हेरा-फेरी की है?

"उपकारी का मर्म नहीं समझती..."

यह है बूढ़ी नानी की शिकायत-भरी उक्ति। बीच-बीच में एकाध दिन निमंत्रित कर सकती हो याघर में पका हुआ खाना खिला सकती हो। इतनी तो मानवता होनी ही चाहिए।”

लेकिन नानी इन बातों पर ध्यान नहीं देती हैं।

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