नारी विमर्श >> प्यार का चेहरा प्यार का चेहराआशापूर्णा देवी
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नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....
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उसके बाद कमरे के एक दूसरे कोने से एक मोढ़ा उठाकर ले आयीं और उसे रखकर कहा, "अब खानेबैठो तो।”
विनयेन्द्र बैठे, थाली पर आंख टिकाकर कहते हैं, "लो, फिर ढेर सारा खाना पकाकर ले आयो?तुझसे सकना मुश्किल है।
"है तो रहने दो।"
यह कहकर पटेश्वरी एक तिपाई खींचकर बैठ गई और अभ्यासवश आंचल हिला-हिलाकर हवा खानेलगी।
विनयेन्द्र रोटी तोड़ते हुए परितृप्ति के स्वर में कह्ते हैं, “पर हां, तू जो कहती है झूठनहीं है। अपनी जगह में बैठ खाना खाने में सुकून का अहसास होता है। तुम लोगों के घर जाने से पुंटू की लड़कियां पंखा झलने भागी-भागी आती हैं, जटाईकी औरत हाथ धुलाने भागी-भागी आती है, ऐसे में बेचैनी महसूस होती है।"
"स्वीकार कर रहे हो न?” पटेश्वरी आंचल हिलाना बन्द कर देती है।
"यह सब तूने पकाया है?"
"इस वक्त तो सभी निरामिष खाना खाते हैं, मेरे अलावा कौन पकाएगा? सवेरे जटाई की औरत मछलीरांधती है।”
"नारियल का डालना (व्यंजन विशेष) कितना स्वादिष्ट है ! वाकई फर्स्ट क्लास !''
"चुप रहो बिनू-दा। तुम तो लक्ष्मी होकर भी भिखारी बने हुए हो। राजा की वेश-भूषाछोड़ चरवाहे की वेश-भूषा धारण करके रहना ! देख-देखकर मुझे सिर पटकने की इच्छा होती है।"
"ऐ खबरदार ! जो इच्छा होती है उसे करने मत बैठ जाना।"
“नहीं। कर कहां पाती हूं?" पटेश्वरी कहती है, “मुझे इच्छा होती है कि तुम्हारी पत्नी केपास जाकर जमकर झगड़ा करूं।"
विनयेन्द्र हंस पड़ते हैं, “तुममें यदि यह साहस हो तो करो। मना नहीं कर रहा हूं।”
"मेरे अन्दर भरपूर साहस है। पटेश्वरी किसी से डरती नहीं है।”
"तो फिर जा सकती है।"
पटेश्वरी फिर आंचल हिलाने-डुलाने लगती है और कहती है, "बहुत कुछ सोचने के बाद ही नहींजाती हूं।"
कुछ देर तक तल्लीनता के साथ खाते रहते हैं विनयेन्द्र, उसके वाद कहते हैं, "पटाई, वहीजो तुमने एक कामगार लड़के के बारे में कहा था, जो खाना पका सकता है, वर्धमान से लाने की बात थी, उसका क्या हुआ?”
पटेश्वरी क्षुब्ध-गंभीर स्वर में कहती है, “फिर क्यों कहा कि नारियल का डालनाफर्स्ट क्लास है? बात बनाकर बोले?"
“अरे, मैं क्या कह रहा था और उसे तुम खींचकर कहां ले आयी? अचानक ऐसी बात क्यों?
“तुम नासमझे लड़के नहीं हो, बिन दा?''
विनयेन्द्र फिर खुलकर हंस पड़ते हैं।
“तो फिर असली बात तू समझ ही गई? तेरा पकाया खाना रुचिकर नहीं लग रहा है, इसलिए एक नयेआदमी की तलाश कर रहा हूं।"
“इसके अलावा और क्या कहूंगी? सड़क पर दर-दर भटकने वाले छोकरे को पकड़, तुम्हारे खाने-पीनेकी जिम्मेदारी उसे सौंपकर निश्चिन्त हो जाऊं, तुम यही कह रहे हो न?”
विनयेन्द्र हंसते हुए कहते हैं, "तू हमेशा जस की तस रह गई। लेकिन पटाई, तू कब तक भूतका बेगार खटती रहेगी?"
पटेश्वरी सहसा तिपाई से उठकर खड़ी हो जाती है।
धीमी की हुई लालटेन की बत्ती उकसाकर कहती है, “चलती हूं। बैठे-बैठे आलतू-फालतू बातेंसुनना नहीं चाहती।”
विनयेन्द्र कहते हैं, "लो, यह क्या ! यूं ही कहता हूं कि तुझसे सकना मुश्किल है !...जा रहीहै? ठीक है, यह रही तेरी चिउड़ा की खीर..."
बस, हो चुका।
पटेश्वरी दुबारा बैठ जाती है और कहती है, “पटाई क्या इस तरह की औरत है बिनू दा, कि तुझेचिन्ता हो? भगवान ने भूत का बेगार खटने के वास्ते भेजा है, जब से होश संभाला है, उसी तरह खटती आ रही हूं। लेकिन भूत और भगवान का फर्क समझने कीसामर्थ्य न हो, ऐसी अधम नहीं हूं। हां, लाचार अवश्य हूं।"
विनयेन्द्र हंसकर कहते हैं, “भगवान का नैवेद्य सजाकर पगले जन्म के लिए काम कर रही हो।"
पटेश्वरी फिर से आंचल हिलाने-डुलाने लगती है और कहती है, मगर बीच-बीच में यह भी सोचती हूंबिन-दा, कि तुम्हारी यह जिन्दगी किस तरह की है।"
विनयेन्द्र कहते हैं, "क्यों, मेरी यह जिन्दगी क्या गईं-गुजरी है?"
"बहुत ही अच्छी !”
“हां, अच्छी ही है। अपनी इच्छा के अनुसार घूमता-फिरता हूं, काम करता हूं, न करता हूं तोभी घर पर बैठे-बैठे जायकेदार तरह-तरह के व्यंजनों के साथ भोजन करता हूँ। खाने-पीने के लिए आदमी को बाजार-दुकान आदि के कितने ही झमेलों का मुकाबलाकरना पड़ता है, मगर मुझे अंगुली तक हिलानी-डुलानी नहीं पड़ती। इससे सुखी जीवन और क्या हो सकता है?
“अहा, बलिहारी है ! हमेशा तुमने जैसे खुद ही खटकर घर-गृहस्थी की है? यह है तुम्हारा शौकसे दुख जीने का तौर-तरीका। सुख से रहने पर भी भूत का मुक्का सहना ! अब पटाई कितना भूत को बेगार खटती रहेगी, यही है मेरी चिन्ता !"
विनयेन्द्र खाना खाकर उठ जाते हैं।
हाथ धोकर आने के बाद कहते हैं, "चल, तुझे पहुंचा आऊं।”
"लो, यह भी कोई बात है ! मुझे पहुंचा आओगे ! भूत-प्रेतिनी, सांप-बिच्छू, चोर-डाकू सभीपटाई ब्राह्मणी से डरते हैं।''
“सो चाहे हो। मैं तेरा गुरुजन हूं, यह मत भूलना।" हा-हा कर हंस पड़ते हैं।
लिहाजा जमकर गपशप करते हुए दोनों प्रौढ़ भाई-बहन रास्ते को मुखरित करते हुए जाने लगतेहैं।
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