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नारी विमर्श >> प्यार का चेहरा

प्यार का चेहरा

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :102
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5135
आईएसबीएन :000

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नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....

6

बस !

उसकी जैसी लड़की को जो हरकत करनी चाहिए, वैसी ही हरकत की उस लड़की ने। ही-ही कर हंसती हुईआयी और खिसकते हुए चट से खाट पर बैठ गई।

सागर को कुछ बोलना नहीं है इसलिए उसके लिए ऊब जाहिर करना भी नामुमकिन है। सागर मनलगाकर देखने लगा कि वैशम्पायन ने क्या कहा?

लड़की बोल उठी, “हज़रत इस तरह किताब लेकर बैठे हैं जैसे बड़े-बूढ़े हों। इस कच्ची उम्रमें इस बूढ़े महाभारत को क्यों पढ़ रहा है, रे? पढ़ना है तो बच्चों का महाभारत पढ़।"

सागर क्या इसके बाद भी चप्पी साधे रहेगा?

बिगड़कर बोल पड़ा, “तुम मुझे 'तू-तू' कर रही हो, इसका मतलब इसका मतलब क्या है?”

लड़की के उत्साह में कोई कमी नहीं आयी। बोली, "मतलब यह कि मैं तेरी दीदी हूं। साल और तारीखका हिसाब करने से साबित हो गया है कि तू मुझसे आठ महीने छोटा है। इसलिए तु मुझे दीदी कहा करना–लत दी। समझा? मेरा नाम है लतिका सरकार।"

"तुम्हारा नाम जानने की मुझे कोई जरूरत नहीं है।' सागर फिर महाभारत के पन्ने में डूबगया।

लतिका कहती है, "कलजुग में किसी की भलाई नहीं करनी चाहिए। सोचा-अहा, पैर में मोच आने केकारण यह लड़का पड़ा हुआ है। चलू, जरा गपशप करूं। पर तू ऐसा भाव दिखा रहा है जैसे मैं दुश्मनी कर रही हूं। हम लोग देहात के आदमी अपने-पराये को।''तुम' ही कहकर पुकारते हैं, 'आप' और 'जी' कहकर नहीं। खैर, अब आप ही कहा करूंगी। एक पका हुआ अमरूद ले आयी हूं, खाना है तो खाइए। और यदि इच्छा न होतो खिड़की से बाहर फेंक दीजिए।"

यह कहकर खाट से उतर पड़ती है।

दो पत्तों सहित एक सुडौल पुष्ट अमरूद। अभी-अभी पेड़ से तोड़ा हुआ। देखकर लोभ संभालनामुश्किल है।

सागर को एकाएक लगता है, इस लतिका नामक लड़की का चेहरा इस अमरूद जैसा ही हैं—सुडौल, अकमकऔर ताजगी से भरा-पूरा।

जा रही है, यह देखकर थोड़ी-बहुत शर्म का एहसास हुआ। उसका बर्ताव अच्छा नहीं रहा। यह सचहै कि गांव के आदमी में देहातीपन रहेगा ही।

सागर ने उधेड़बुन के साथ कहा, "जाने को किसने कहा है?" रुकने को भी किसी ने नहींकहा है !" कहने की कौन-सी बात है? तुम तो बैठने के खयाल से ही आयी थी।"

लतिका कहती है, "आयी थी पर अपने दुश्मन मान लिया।"

"ओह ! फिर आप क्यों कह रही हो?"

"क्या करूं? मैं या तो 'तू' कहूंगी या 'आप'। बीच की बात नहीं।"

"ठीक है, तू ही कहना।"

“खैर, जान में जान आयी। मर्जी हो तो तू भी मुझे तू कह सकता है। मैं अपनी दीदी को तू हीकहीं करती हूं।"

"मैं भी तो अपने भैया को यही कहा करती हूं।" लतिका बोली, “लो, फिर तो झमेला खत्म। अमरूद खाले।"

"तुम्हारे लिए कहां है?" "फिर तुम?”

सागर लज्जित होकर कहता है, "बाद में कहूंगा। इतनी जल्दी’::"

"अच्छा, दो दिन का वक्त देती हैं। लेकिन खबरदार, नाम लेकर मत पुकारना। लतू दी कहना। मुझेक्यः अमरूद का कोई अभाव है? यह देख, कितने सारे हैं।"

आंचल के नीचे से चार अदद अच्छे अमरूद निकालकर दिखाये। बोली, "एक को ही देखकर चिनु बुआबोली, इतना बड़ा अमरूद पूरा का पूरा खाएगा तो सागर का पेट दर्द करने लगेगा, दे, काट दूं। मैंने नहीं दिया। पत्ता सहित देखने में कितना खूबसूरतहै ! दो अमरूद तेरे भैया को दूंगी। इतना जरूर है कि मेरा भी भैया ही है। वह कहां है रे?"

सागर ने सिर हिलाया, "मुझे क्या मालूम।”

"फिर अपने पास रख दे। आने पर देना। चिनु बुआ को दे देने से काटकर टुकड़ा कर देगी। अमरूदकाटकर खाने से कहीं स्वादिष्ट लगता है? छि: !"

सागर उसका स्वाद लेते हुए बोला, "बात तो सही है।” लतू भी एक अदद ले दांत से काटते हुए कहतीहै, “तेरा भैया,

यानी प्रवाल दा किस क्लास में पढ़ता है, रे?"

"पार्ट-टू का इक्जामिनेशन देने वाला है। बहुत पहले ही दे चुका होता और ग्रेजुएट हो गयाहोता। परीक्षा की तारीख बढ़ते-बढ़ने इतना लंबा खिंचता जा रहा है।"

भैया को कहीं गया-गुजरा न समझ बैठे, इसीलिए सागर अपने भाई के संबंध में इतनासहेज-संवारकर कहता है।

लतू अमरूद चबाते-चबाते कमरे के इर्द-गिर्द निगाह दौड़ाकर कहती है, "इस कमरे में तुमलोग रहते हो?”

"मैं, मां और नानी।"

"और प्रवाल दा?”

"बगलयाले कमरे में। बहुत सारे कमरे हैं न। बूढ़ी नानी सीढ़ियां नहीं चढ़ सकतीं, इसलिएनिचले तल में रहती हैं।"

लतू एक अमरूद खत्म कर दूसरे को घुमा-फिराकर देखते हुए कहती है, "गृहस्वामी मगर अब भीहट्टे-कट्टे हैं, अस्सी साल के हो गये, फिर भी रथयात्रा देखने पुरी गए हैं।"

सागर को यह बात मालूम है।

सागर की मां उंगलियों से गिनकर देख चुकी हैं कि वे कब वापस आएंगे?

लतू कहती हैं, “साहब दादू को देख चुका है?"

"हर वक्त उन पर नजर पड़ती है।”

सागर बाहर की तरफ ताकता है।

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