विविध >> धीरूभाईज्म धीरूभाईज्मए. जी. कृष्णमूर्ति
|
8 पाठकों को प्रिय 349 पाठक हैं |
धीरूभाई अम्बानी की अद्भुत कार्य पद्धति
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मेरे पिता धीरुभाई अंबानी को महत्त्वाकांक्षा से अधिक, चुनौतियों से भरी
मुश्किलों ने ताकत दी, जिसके बल पर वे तीन दशकों से भी कम समय में इतना
बड़ा व्यवसाय खड़ा कर सके। वे कहते थे कि कोई भी बाधा; रुकावट नहीं, हमारे
लिए एक अवसर होता है। यह आपको नई राह खोजने व नए उपाय तलाशने का मौका देता है। कोई भी असफलता या पराजय, आगे छलांग भरने की तैयारी होती है। कठिन समय में ही आपका असली हुनर सामने आता है।
उनके मूल में ही ऐसी साहस की जड़े थीं। मेरे दादाजी एक स्कूल में अध्यापक थे। पापा को थोड़ी-सी औपचारिक शिक्षा मिली। यह दुनिया ही उनका विश्वविद्यालय बना और जीवन के उतार-चढ़ाव ही ‘शिक्षक’ बने। उन्होंने बिना किसी वित्तीय मदद, प्रभाव या शक्ति के, अपने बूते पर अपना काम शुरू किया। आज रिलायंस के अनेक रूप, उनके कड़े व्यावसायिक परिश्रम के गवाह हैं।
लेकिन हममें से कुछ-उनके पारिवारिक सदस्य, सहकर्मी व पुराने मित्रों के लिए, उनकी पैतृक संपत्ति के छोटे-छोटे अप्रत्यक्ष पहलू ज्यादा कीमती हैं। मुझसे प्रायः यह पूछा जाता है-धीरुभाई को सफलता के शिखर तक पहुंचने की प्रेरणा कहाँ से मिली ? मैं इसके कई खास बिंदुओं के बारे में बता सकता हूँ लेकिन मेरे विचार से इनमें से एक सबसे ज्यादा महत्त्व रखता है।
मेरे पिता वयस्क होने के बाद से ही, देश के गौरव व देशवाशियों के कल्याण से जुड़े सपने देखते आए थे। उन्हें अपने भारतीय होने पर गर्व था इसलिए वे देश को दूसरे देशों की बराबरी तक लाने के लिए अधीर रहते थे। यहाँ तक कि कठिन व बुरे हालात में भी उन्होंने देश की सुरक्षा व समृद्धि में योगदान देने का संकल्प नहीं छोड़ा। वे चाहते थे कि भारत का विश्व के साथ शांतिपूर्ण संबंध कायम रहे। भारतीय जनता पर भी उनका पूरा विश्वास था। सदियों से उनकी बौद्धिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक उपलब्धियों में इस विश्वास की जड़े समाई थीं। इसी ने उन्हें विश्वास दिलाया कि भारतीय उचित वातावरण मिलने पर, प्रत्येक क्षेत्र में अपनी रचनात्मक गतिविधियों से पूरी मानवजाति को आश्चर्य में डाल सकते हैं। धीरुभाई अपने विचारों व कर्मों से सच्चे देश भक्त थे।
जब वे अदन में एक सहायक के रूप में काम कर रहे थे, उन्होंने नए व प्रयोगशील तरीकों व माध्यमों से आगे बढ़ने की राह खोज निकाली। वे चाहते थे कि भारत व भारतवासी नए सिरे से अपने गुणों व योग्यता को खोजें। वे बहुत पहले ही जान गए थे कि आगे बढ़ने के लिए तीन लक्ष्यों को पाना बेहद जरूरी होगा। वे हैं अच्छी शिक्षा, व्यक्ति व समाज को शक्तिशाली बनाना तथा राज्य व समाज में उद्यमशीलता का भाव पैदा करना। उन्होंने कहा कि इन मोर्चों पर सफलता पाने के बाद हमें अर्थनीति को आधुनिक बनाने व सरकार को अधिक पारदर्शी व उत्तरदायी बनाने के लिए, सामाजिक व शारीरिक ढांचे का विकास करना होगा।
जब धीरूभाई ने कार्पोरेट जगत में कदम रखा, तो भारत में इस सोच को भी काफी भ्रांतिपूर्ण माना गया। लाइसेंस व कोटा के युग ने उद्यमियों को जकड़ रखा था। किंतु इससे उनके काम में कहीं रुकावट नहीं आई। उन्होंने अपने व्यवसाय को तेजी से फैलाव देने के लिए नई तकनीकी खोजों व प्रबंधन तकनीकों की मदद ली और एक साम्राज्य खड़ा कर दिया। बदले में उन्हें दूसरे कार्पोरेट हाउस, राजनीतिक वर्ग व दफ्तरशाही का रोष झेलना पड़ा, मीडिया के ताकतवर हिस्सों ने भी उनका तिरस्कार किया।
धीरुभाई के आलोचकों व निंदकों के लिए सबसे बड़ी हैरानी की बात तो यही थी कि वे हर जगह सफल कैसे हो जाते थे। उन्होंने न केवल बड़े से बड़े सपने देखे, बल्कि उन्हें साकार करने के नए माध्यम भी खोजे। आम जनता के साथ अपना धन बाँटना भी, ऐसा ही एक माध्यम था। उन्होंने सुविधाहीन व कमजोर वर्ग को दिखाया कि वे किस तरह अपने व अपने बच्चों को आने वाले कल की सुनहरी उम्मीदें दे सकते हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कर सकता कि ऐसी दूरदर्शिता, भारतीय व्यवसाय के इतिहास में एक मिसाल थी। इसने हजारों तथा लाखों भारतवासियों के हृदय में चेतना जागृत की व भारत को अग्रिम देशों के साथ ले जाकर खड़ा कर दिया। जब भारतीय अर्थनीति में सुधार होने लगा और वह वैश्वीकरण के खिंचाव से सामने आने लगी, तो इस दूरदर्शिता का चेहरा और भी साफ दिखने लगा।
उन्होंने पूरे उत्साह व उमंग के साथ अपने साथियों को आत्म-संदेह से ऊपर उठने व अपने शब्दकोश से ‘असंभव’ शब्द हटाने को कहा। उन्होंने चारों ओर फैली निराशावादिता के बावजूद आशा का दामन नहीं छोड़ा। उन्होंने कहा कि वे सब, शक्ति के विचार को बल देने की बजाय विचारों की शक्ति पर बल दें। उन्होंने जोर दिया कि विचारों पर किसी एक का अधिकार नहीं होता। उनके अपने विचार भी नई सोच व सिद्धातों से भरपूर थे, उन्होंने इन्हें अपनी बुद्धिमता व व्यावहारिकता का भी रंग दिया।
वे चाहते थे कि जिस तरह पैट्रोल की एक-एक बूंद में ताकत छिपी है, उसी तरह व्यक्ति के भीतर छिपी ताकत को भी बाहर निकाला जाए। वे जानते थे कि लोग अपने ही भीतर छिपी प्रतिभा व दृढ़ निश्चय से अनजान हैं। उन्होंने ऐसी छिपी प्रतिभा को बाहर आने का अवसर दिया। दूसरे अनेक व्यक्तियों के अलावा, मैंने भी कार्पोरेट जगत के पाठ उन्हीं से सीखे।
धीरुभाई के लिए रिलायंस, एक व्यवसाय से कहीं ज्यादा महत्त्व रखता था। इसकी सामूहिक क्षमता ने न जाने कितनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा किया है। इसी प्रेरणा ने मेरा भी मार्गदर्शन किया और मुझे रिलायंस को समर्थ भारत का ग्लोबल ब्रांड बनाने के प्रयासों में सफलता मिली। हम ‘रिलायंस रिटेल’ के माध्यम से उन भले किसानों व ग्रामीण औरतों को आत्म निर्भर बनाना चाहते हैं, जो अपनी आवाज तक नहीं उठा सकते। किस हद तक ? इसका उत्तर साफ है-हमारे व्यवसाय के साथ यही आत्म विश्वास जुड़ा है कि जो भारत के लिए अच्छा है, वही रिलायंस के लिए भी अच्छा हो।
जैसे धीरुभाई ने अपने जीवन में किया, हम भी वैसे ही बड़े व शक्तिशाली सपने देख रहे हैं। व्यवसाय में सफलता पाने के लिए खतरा मोल लेने की प्रेरणा भी, हमने उन्हीं से पाई है। उन्होंने सफलता पाने के लिए जो मानदंड अपनाए, हम भी उन्हें अपनाना चाहते हैं। हम जो भी धन निवेश करें। उसे दूसरों द्वारा इसी क्षेत्र में निवेश किए धन से, ज्यादा फलदायक होना चाहिए। हमारी हर व्यावसायिक योजना पूरी दुनिया के मुकाबले कम से कम समय में लागू होनी चाहिए। उत्पादकता का स्तर भी किसी से कम न हो।
मैं यहाँ एक निजी अनुभव बाँटना चाहूँगा। मैंने पापा से सीखा कि, हमें हमेशा अपने सहकर्मीयों से श्रेष्ठ प्रदर्शन का आग्रह करना चाहिए, लेकिन निजी रूप से उनके साथ सहानुभूति भी रखनी चाहिए। वास्तव में, वे यही मानते थे कि दुखी व असहाय लोगों के जीवन में बदलाव के लिए कार्पोरेट शक्तियों का इस्तेमाल होना चाहिए।
यह पुस्तक बताती है कि किस तरह पापा ने पैट्रोकेमिकल उद्योग को किस तेजी से पाल-पोस कर रिलायंस की स्थापना की और उसी तेजी से उसे सुपर ब्रांड बना दिया। उन्होंने ‘विमल’ को भी एक बड़ा नाम दिया। उन्होंने रिलायंस के निवेशों को करोड़ों की समृद्धि परियोजना में बदल दिया। इसी प्रक्रिया में उन्हें आम भारतीय पुरुष व महिला तक पहुँचने का मार्ग मिला। उन्होंने अपने सपने उनके साथ बाँटे और बदले में जनता ने उन्हें अपना भरोसा व स्नेह दिया।
उनके जीवन के आखिरी वर्षों में, उनके ज्यादातर कटु आलोचकों ने भी उनकी उपलब्धियों को पहचाना। हालांकि इस प्रशंसा से उन्हें खुशी तो हुई पर वे हैरान नहीं हुए। उन्होंने हमें सिखाया कि आलोचकों की निंदा, चापलूसों की चापलूसी से ज्यादा मायने रखती है। उपनिषद् के एक वाक्य में इस सीख की गूँज छिपी है-
‘‘सत्य हर जगह रहता है, यहाँ तक कि भूल में भी थोड़ा सत्य छिपा होता है।’’
वे आलोचकों को अपना शुभचिंतक, कष्टों व संघर्षों को अपना मित्र तथा दुखी व निर्धन जन को अपना साझेदार मानते थे।
हम उनके जीवन से सबक लेकर, उनके मूल्यों व सपनों को अपना कर ही, उनकी स्मृति में सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं। गुजरात के एक गाँव से भारत के कार्पोरेट जगत की ऊँचाइयों तक पहुँचने की उनकी यात्रा, भारत के पुनरुत्थान में काफी मायने रखती है। इतिहास ने मेरी पीढ़ी के उद्यमियों को इस कार्य में सहयोग के लिए पुकारा है। मैं पापा को भी यही आह्वान करते हुए सुन सकता हूँ, जो हमारी आशाओं और विश्वास को बनाए रखता है, और हमे रिलायंस के कर्मचारियों व शेयरधारकों (शेयर होल्डर) को आगे कदम बढ़ाने की प्रेरणा देता है।
उनके मूल में ही ऐसी साहस की जड़े थीं। मेरे दादाजी एक स्कूल में अध्यापक थे। पापा को थोड़ी-सी औपचारिक शिक्षा मिली। यह दुनिया ही उनका विश्वविद्यालय बना और जीवन के उतार-चढ़ाव ही ‘शिक्षक’ बने। उन्होंने बिना किसी वित्तीय मदद, प्रभाव या शक्ति के, अपने बूते पर अपना काम शुरू किया। आज रिलायंस के अनेक रूप, उनके कड़े व्यावसायिक परिश्रम के गवाह हैं।
लेकिन हममें से कुछ-उनके पारिवारिक सदस्य, सहकर्मी व पुराने मित्रों के लिए, उनकी पैतृक संपत्ति के छोटे-छोटे अप्रत्यक्ष पहलू ज्यादा कीमती हैं। मुझसे प्रायः यह पूछा जाता है-धीरुभाई को सफलता के शिखर तक पहुंचने की प्रेरणा कहाँ से मिली ? मैं इसके कई खास बिंदुओं के बारे में बता सकता हूँ लेकिन मेरे विचार से इनमें से एक सबसे ज्यादा महत्त्व रखता है।
मेरे पिता वयस्क होने के बाद से ही, देश के गौरव व देशवाशियों के कल्याण से जुड़े सपने देखते आए थे। उन्हें अपने भारतीय होने पर गर्व था इसलिए वे देश को दूसरे देशों की बराबरी तक लाने के लिए अधीर रहते थे। यहाँ तक कि कठिन व बुरे हालात में भी उन्होंने देश की सुरक्षा व समृद्धि में योगदान देने का संकल्प नहीं छोड़ा। वे चाहते थे कि भारत का विश्व के साथ शांतिपूर्ण संबंध कायम रहे। भारतीय जनता पर भी उनका पूरा विश्वास था। सदियों से उनकी बौद्धिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक उपलब्धियों में इस विश्वास की जड़े समाई थीं। इसी ने उन्हें विश्वास दिलाया कि भारतीय उचित वातावरण मिलने पर, प्रत्येक क्षेत्र में अपनी रचनात्मक गतिविधियों से पूरी मानवजाति को आश्चर्य में डाल सकते हैं। धीरुभाई अपने विचारों व कर्मों से सच्चे देश भक्त थे।
जब वे अदन में एक सहायक के रूप में काम कर रहे थे, उन्होंने नए व प्रयोगशील तरीकों व माध्यमों से आगे बढ़ने की राह खोज निकाली। वे चाहते थे कि भारत व भारतवासी नए सिरे से अपने गुणों व योग्यता को खोजें। वे बहुत पहले ही जान गए थे कि आगे बढ़ने के लिए तीन लक्ष्यों को पाना बेहद जरूरी होगा। वे हैं अच्छी शिक्षा, व्यक्ति व समाज को शक्तिशाली बनाना तथा राज्य व समाज में उद्यमशीलता का भाव पैदा करना। उन्होंने कहा कि इन मोर्चों पर सफलता पाने के बाद हमें अर्थनीति को आधुनिक बनाने व सरकार को अधिक पारदर्शी व उत्तरदायी बनाने के लिए, सामाजिक व शारीरिक ढांचे का विकास करना होगा।
जब धीरूभाई ने कार्पोरेट जगत में कदम रखा, तो भारत में इस सोच को भी काफी भ्रांतिपूर्ण माना गया। लाइसेंस व कोटा के युग ने उद्यमियों को जकड़ रखा था। किंतु इससे उनके काम में कहीं रुकावट नहीं आई। उन्होंने अपने व्यवसाय को तेजी से फैलाव देने के लिए नई तकनीकी खोजों व प्रबंधन तकनीकों की मदद ली और एक साम्राज्य खड़ा कर दिया। बदले में उन्हें दूसरे कार्पोरेट हाउस, राजनीतिक वर्ग व दफ्तरशाही का रोष झेलना पड़ा, मीडिया के ताकतवर हिस्सों ने भी उनका तिरस्कार किया।
धीरुभाई के आलोचकों व निंदकों के लिए सबसे बड़ी हैरानी की बात तो यही थी कि वे हर जगह सफल कैसे हो जाते थे। उन्होंने न केवल बड़े से बड़े सपने देखे, बल्कि उन्हें साकार करने के नए माध्यम भी खोजे। आम जनता के साथ अपना धन बाँटना भी, ऐसा ही एक माध्यम था। उन्होंने सुविधाहीन व कमजोर वर्ग को दिखाया कि वे किस तरह अपने व अपने बच्चों को आने वाले कल की सुनहरी उम्मीदें दे सकते हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कर सकता कि ऐसी दूरदर्शिता, भारतीय व्यवसाय के इतिहास में एक मिसाल थी। इसने हजारों तथा लाखों भारतवासियों के हृदय में चेतना जागृत की व भारत को अग्रिम देशों के साथ ले जाकर खड़ा कर दिया। जब भारतीय अर्थनीति में सुधार होने लगा और वह वैश्वीकरण के खिंचाव से सामने आने लगी, तो इस दूरदर्शिता का चेहरा और भी साफ दिखने लगा।
उन्होंने पूरे उत्साह व उमंग के साथ अपने साथियों को आत्म-संदेह से ऊपर उठने व अपने शब्दकोश से ‘असंभव’ शब्द हटाने को कहा। उन्होंने चारों ओर फैली निराशावादिता के बावजूद आशा का दामन नहीं छोड़ा। उन्होंने कहा कि वे सब, शक्ति के विचार को बल देने की बजाय विचारों की शक्ति पर बल दें। उन्होंने जोर दिया कि विचारों पर किसी एक का अधिकार नहीं होता। उनके अपने विचार भी नई सोच व सिद्धातों से भरपूर थे, उन्होंने इन्हें अपनी बुद्धिमता व व्यावहारिकता का भी रंग दिया।
वे चाहते थे कि जिस तरह पैट्रोल की एक-एक बूंद में ताकत छिपी है, उसी तरह व्यक्ति के भीतर छिपी ताकत को भी बाहर निकाला जाए। वे जानते थे कि लोग अपने ही भीतर छिपी प्रतिभा व दृढ़ निश्चय से अनजान हैं। उन्होंने ऐसी छिपी प्रतिभा को बाहर आने का अवसर दिया। दूसरे अनेक व्यक्तियों के अलावा, मैंने भी कार्पोरेट जगत के पाठ उन्हीं से सीखे।
धीरुभाई के लिए रिलायंस, एक व्यवसाय से कहीं ज्यादा महत्त्व रखता था। इसकी सामूहिक क्षमता ने न जाने कितनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा किया है। इसी प्रेरणा ने मेरा भी मार्गदर्शन किया और मुझे रिलायंस को समर्थ भारत का ग्लोबल ब्रांड बनाने के प्रयासों में सफलता मिली। हम ‘रिलायंस रिटेल’ के माध्यम से उन भले किसानों व ग्रामीण औरतों को आत्म निर्भर बनाना चाहते हैं, जो अपनी आवाज तक नहीं उठा सकते। किस हद तक ? इसका उत्तर साफ है-हमारे व्यवसाय के साथ यही आत्म विश्वास जुड़ा है कि जो भारत के लिए अच्छा है, वही रिलायंस के लिए भी अच्छा हो।
जैसे धीरुभाई ने अपने जीवन में किया, हम भी वैसे ही बड़े व शक्तिशाली सपने देख रहे हैं। व्यवसाय में सफलता पाने के लिए खतरा मोल लेने की प्रेरणा भी, हमने उन्हीं से पाई है। उन्होंने सफलता पाने के लिए जो मानदंड अपनाए, हम भी उन्हें अपनाना चाहते हैं। हम जो भी धन निवेश करें। उसे दूसरों द्वारा इसी क्षेत्र में निवेश किए धन से, ज्यादा फलदायक होना चाहिए। हमारी हर व्यावसायिक योजना पूरी दुनिया के मुकाबले कम से कम समय में लागू होनी चाहिए। उत्पादकता का स्तर भी किसी से कम न हो।
मैं यहाँ एक निजी अनुभव बाँटना चाहूँगा। मैंने पापा से सीखा कि, हमें हमेशा अपने सहकर्मीयों से श्रेष्ठ प्रदर्शन का आग्रह करना चाहिए, लेकिन निजी रूप से उनके साथ सहानुभूति भी रखनी चाहिए। वास्तव में, वे यही मानते थे कि दुखी व असहाय लोगों के जीवन में बदलाव के लिए कार्पोरेट शक्तियों का इस्तेमाल होना चाहिए।
यह पुस्तक बताती है कि किस तरह पापा ने पैट्रोकेमिकल उद्योग को किस तेजी से पाल-पोस कर रिलायंस की स्थापना की और उसी तेजी से उसे सुपर ब्रांड बना दिया। उन्होंने ‘विमल’ को भी एक बड़ा नाम दिया। उन्होंने रिलायंस के निवेशों को करोड़ों की समृद्धि परियोजना में बदल दिया। इसी प्रक्रिया में उन्हें आम भारतीय पुरुष व महिला तक पहुँचने का मार्ग मिला। उन्होंने अपने सपने उनके साथ बाँटे और बदले में जनता ने उन्हें अपना भरोसा व स्नेह दिया।
उनके जीवन के आखिरी वर्षों में, उनके ज्यादातर कटु आलोचकों ने भी उनकी उपलब्धियों को पहचाना। हालांकि इस प्रशंसा से उन्हें खुशी तो हुई पर वे हैरान नहीं हुए। उन्होंने हमें सिखाया कि आलोचकों की निंदा, चापलूसों की चापलूसी से ज्यादा मायने रखती है। उपनिषद् के एक वाक्य में इस सीख की गूँज छिपी है-
‘‘सत्य हर जगह रहता है, यहाँ तक कि भूल में भी थोड़ा सत्य छिपा होता है।’’
वे आलोचकों को अपना शुभचिंतक, कष्टों व संघर्षों को अपना मित्र तथा दुखी व निर्धन जन को अपना साझेदार मानते थे।
हम उनके जीवन से सबक लेकर, उनके मूल्यों व सपनों को अपना कर ही, उनकी स्मृति में सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं। गुजरात के एक गाँव से भारत के कार्पोरेट जगत की ऊँचाइयों तक पहुँचने की उनकी यात्रा, भारत के पुनरुत्थान में काफी मायने रखती है। इतिहास ने मेरी पीढ़ी के उद्यमियों को इस कार्य में सहयोग के लिए पुकारा है। मैं पापा को भी यही आह्वान करते हुए सुन सकता हूँ, जो हमारी आशाओं और विश्वास को बनाए रखता है, और हमे रिलायंस के कर्मचारियों व शेयरधारकों (शेयर होल्डर) को आगे कदम बढ़ाने की प्रेरणा देता है।
मुकेश डी.
अंबानी
चेयरमैन
रिलायंस इंडस्ट्रीज़ लि.
चेयरमैन
रिलायंस इंडस्ट्रीज़ लि.
भूमिका
कोई भी व्यक्ति, जो धीरूभाई से एक भी बार मिला हो, उस मुलाकात को भुला
नहीं सकता। उस मुलाकात को भुलाना आसान भी नहीं है क्योंकि उनकी जीवन-ऊर्जा
अतुलनीय थी। मुझे उनके साथ ही अपनी पहली मुलाकात इसी तरह याद है, मानो कल
की ही बात हो। वह दिन सचमुच काफी अलग था।
सन् 1975 की बात है, विमल साड़ियाँ उन दिनों बाजार में अपनी जगह बना रही थीं। एक छोटी सी दुकान ही, थोड़ा बहुत विज्ञापन कर रही थी। उन दिनों विमल की नॉयलान साड़ियों की काफी धूम थी और वे गृहिणियों की पसंद बनती जा रही थीं। उन दिनों मैं ‘शिल्पी विज्ञापन एजेंसी’ में एकाउंट एक्ज़ीक्यूटिव के पद पर था और दूसरे उत्सुक लोगों की तरह हम भी रिलायंस से व्यावसायिक नाता जोड़ना चाह रहे थे। हम बंबई व अहमदाबाद में कई अधिकारियों से मिले लेकिन धीरुभाई से मिलने का मौका नहीं मिला। एक दिन जब हमने फोन किया, तो हमें रिलायंस टैक्सटाइल प्राइवेट लिमिटेड में सुबह 11:30 बजे मिलने का समय दिया गया। उन दिनों वह कंपनी, कोर्ट हाउस, धोबी तालाब, बंबई में थी।
शिल्पी के चीफ एक्ज़ीक्यूटिव, क्रिएटिव चीफ, शाखा प्रमुख तथा मैं, हम सब ठीक समय पर पहुँच गए। हम मीटिंग शुरू होने का इंतजार करते रहे...करते रहे...करते रहे। मिनट घंटों में बदल गए मेरे दो सहकर्मी निराश होकर उठे व यह कह कर चले गए कि उनके साथ ऐसी अजीब घटना कभी नहीं घटी। आखिर शाम 6:30 बजे मुझे व शाखा प्रमुख को मिलने के लिए बुलवाया गया। उस समय तक, हम सचमुच काफी थक चुके थे और यही चाहते थे कि जल्दी से जल्दी मीटिंग खत्म हो और हम घर लौटें।
धीरुभाई ने बोलना शुरू किया। अचानक कमरे में चारों ओर सम्मोहन-सा छा गया। हालांकि वे बातों को ज्यादा स्पष्ट रूप से नहीं करते थे लेकिन अपनी बात कहने का जुनून ऐसा था कि सुनने वाला, पूरे ध्यान से सुनने लगता। वे अपने साथ सुनने वाले को भी रौ में बहा ले जाते। हम दोनों मंत्रमुग्ध होकर, विमल से जुड़े सपनों व आने वाले कल की बातें सुनते रहे और हमारी सारी थकान हवा हो गई। हालाँकि हमें काम नहीं मिला लेकिन कुछ सप्ताह बाद ही धीरूभाई ने मुझे अपने यहाँ नौकरी करने का प्रस्ताव भेजा और आगे तो आप सब जानते ही हैं।
धीरुभाई चाहते थे कि उनके कर्मचारी उनसे सहज भाव से, खुलकर अपनी बात कहें। इसके लिए बड़ा दिल चाहिए, अपने बेबाक कर्मचारी किसी को पसंद नहीं आते ! मुझे याद है, उन दिनों रिलायंस में मेरी नई-नई नियुक्ति हुई थी। मुझे कुछ सहकर्मियों ने बताया कि धीरूभाई मेरे काम से नाखुश हैं। इस बात से मुझे चोट पहुँचना स्वाभाविक ही था लेकिन मैंने इस बारे में उन्हीं से बात का फैसला किया। मैं आज भी अपने उस फैसले का आभारी हूँ क्योंकि उसी मुलाकात में उन्होंने मुझसे कुछ खास बातें कहीं। उन्होंने मेरी आंखों में आंखें डालकर कहा कि मुझे जो कुछ भी पता चला है, झूठ है। इसके साथ ही उन्होंने कुछ ऐसा कहा, जो मैं कभी नहीं भूल सकता-‘‘अगर मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ, तो मैं तुम्हें ही कहूँगा।’’
इसी वाक्य ने हमारे दृढ़ संबंधों की नींव रखी। वे जानते थे कि अगर मैं किसी बात से परेशानी महसूस करूँगा तो उनसे खुल कर बात कर लूँगा और मैं यह भी जानता था कि वे भी मेरी तरह खुलापन और ईमानदारी बरतेंगे। इस तरह हमारा यही संबंध 28 सालों तक चलता रहा।
एक और घटना याद आ रही है जिसने मुझे बेहद प्रभावित किया। शायद यही कारण था कि मुद्रा का ‘‘क्रिएटिव विभाग’’ गलतियाँ करने से घबराने लगा था। मैं व्यावसायिक कार्य से बंगलौर में था कि मुझे धीरू भाई का फोन आया। वे रिलायंस पातालगंगा जा रहे थे और रास्ते में रुक कर मुझसे बात कर रहे थे। उन्होंने मुझे कहा कि अचानक उनकी नजर हमारे विज्ञापन बोर्ड पर पड़ी, जिसमें एक गलती है। क्या मैं तत्काल उस गलती को सुधार सकता हूँ ? मैं अगली ही उड़ान से वहाँ पहुँचा और गलती को ठीक कर दिया। यह उनकी तेज नजर का कमाल था कि गाड़ी चलाते-चलाते भी विज्ञापन में आई गलती को भांप लिया था। उस गलती को लेकर वे इतने अधीर थे कि उसी समय ठीक करवा देना चाहते थे। मैंने भी अपनी ओर से कसम खाई कि उन्हें दोबारा ऐसी शिकायत का मौका नहीं दूँगा।
हालांकि वे हर काम को संपूर्ण रूप में करने व देखने के आदी थे लेकिन वे एक अनौपचारिक बॉस थे। हो सकता है कि आपको विश्वास न हो लेकिन यह सच है, चाहे वे कितने भी बड़े और महत्त्वपूर्ण क्यों न हो गए, मुझे उनसे मिलने के लिए, कभी भी समय नहीं लेना पड़ा। चाहे वे किसी के भी साथ क्यों न बैठे हों, मैं दरवाजा खटखटा कर भीतर चला जाता। मैं घूमकर उनकी कुर्सी के पास पहुँचता और जरूरी बात कर लेता। अगर कोई बात ज्यादा खास होती तो वे मुझे एक दो मिनट के लिए एक ओर ले जाकर बात कर लेते। मुझे उनकी निजी सहायिका से इतना ही पूछना पड़ता था कि क्या वे शहर में हैं या फिर किसी खास व्यक्ति के साथ मीटिंग में तो नहीं हैं ? उन्होंने ज्यादातर लोगों के साथ यही नीति अपनाई हुई थी। उन्हें भरोसा था कि हम उनका समय बर्बाद नहीं करेंगे और वे यह भी नहीं चाहते थे कि उनसे मुलाकात करने में हमारा समय बर्बाद हो।
धीरुभाई अपने आप में एक पूरा विश्वविद्यालय थे उनसे मिलने वाले प्रत्येक व्यक्ति को उनसे कुछ न कुछ सीखने का मौका मिलता था। इस पुस्तक में वे सभी सबक शामिल किए गए हैं, जो मैंने उनसे काम के दौरान सीखे। मैं बहुत ध्यान से देखता था कि वे किस तरह लोगों से पेश आते थे। उन्होंने एक छोटी सी टीम के साथ ‘रिलायंस नरोदा’ की शुरुआत की। तीन दशक से भी थोड़े ही समय में एक बड़ा साम्राज्य खड़ा कर दिया। इसके अलावा उन्हें शक्तिशाली नेताओं का दल भी तैयार किया। इसके लिए उनके पास प्रबंधन या मनोविज्ञान की कोई डिग्री नहीं थी लेकिन फिर भी वे साधारण व्यक्तित्व को असाधारण बनाना जानते थे।
वे करोड़ों में एक थे और मुझे उन जैसे व्यक्ति के साथ काम करने का सौभाग्य मिला। उन्होंने मुझे काफी कुछ सिखाया, जिसके बल पर मैं एक साधारण एक्ज़ीक्यूटिव से मुद्रा के संस्थापक, चेयरमैन व प्रबंधक पद तक पहुँचा। ‘मुद्रा’ एक विज्ञापन एजेंसी थी जो बहुत छोटे स्तर से शुरु होकर, भारत की विशाल एजेंसियों की कतार तक पहुँची। मैं उनके बिना यह सब कभी नहीं पा सकता था इसलिए मैंने फैसला किया कि जो लोग उनके जैसा बनना चाहते हैं, उन्हें वे सारे सबक बताऊं जो मैंने धीरूभाई से सीखे।
सन् 1975 की बात है, विमल साड़ियाँ उन दिनों बाजार में अपनी जगह बना रही थीं। एक छोटी सी दुकान ही, थोड़ा बहुत विज्ञापन कर रही थी। उन दिनों विमल की नॉयलान साड़ियों की काफी धूम थी और वे गृहिणियों की पसंद बनती जा रही थीं। उन दिनों मैं ‘शिल्पी विज्ञापन एजेंसी’ में एकाउंट एक्ज़ीक्यूटिव के पद पर था और दूसरे उत्सुक लोगों की तरह हम भी रिलायंस से व्यावसायिक नाता जोड़ना चाह रहे थे। हम बंबई व अहमदाबाद में कई अधिकारियों से मिले लेकिन धीरुभाई से मिलने का मौका नहीं मिला। एक दिन जब हमने फोन किया, तो हमें रिलायंस टैक्सटाइल प्राइवेट लिमिटेड में सुबह 11:30 बजे मिलने का समय दिया गया। उन दिनों वह कंपनी, कोर्ट हाउस, धोबी तालाब, बंबई में थी।
शिल्पी के चीफ एक्ज़ीक्यूटिव, क्रिएटिव चीफ, शाखा प्रमुख तथा मैं, हम सब ठीक समय पर पहुँच गए। हम मीटिंग शुरू होने का इंतजार करते रहे...करते रहे...करते रहे। मिनट घंटों में बदल गए मेरे दो सहकर्मी निराश होकर उठे व यह कह कर चले गए कि उनके साथ ऐसी अजीब घटना कभी नहीं घटी। आखिर शाम 6:30 बजे मुझे व शाखा प्रमुख को मिलने के लिए बुलवाया गया। उस समय तक, हम सचमुच काफी थक चुके थे और यही चाहते थे कि जल्दी से जल्दी मीटिंग खत्म हो और हम घर लौटें।
धीरुभाई ने बोलना शुरू किया। अचानक कमरे में चारों ओर सम्मोहन-सा छा गया। हालांकि वे बातों को ज्यादा स्पष्ट रूप से नहीं करते थे लेकिन अपनी बात कहने का जुनून ऐसा था कि सुनने वाला, पूरे ध्यान से सुनने लगता। वे अपने साथ सुनने वाले को भी रौ में बहा ले जाते। हम दोनों मंत्रमुग्ध होकर, विमल से जुड़े सपनों व आने वाले कल की बातें सुनते रहे और हमारी सारी थकान हवा हो गई। हालाँकि हमें काम नहीं मिला लेकिन कुछ सप्ताह बाद ही धीरूभाई ने मुझे अपने यहाँ नौकरी करने का प्रस्ताव भेजा और आगे तो आप सब जानते ही हैं।
धीरुभाई चाहते थे कि उनके कर्मचारी उनसे सहज भाव से, खुलकर अपनी बात कहें। इसके लिए बड़ा दिल चाहिए, अपने बेबाक कर्मचारी किसी को पसंद नहीं आते ! मुझे याद है, उन दिनों रिलायंस में मेरी नई-नई नियुक्ति हुई थी। मुझे कुछ सहकर्मियों ने बताया कि धीरूभाई मेरे काम से नाखुश हैं। इस बात से मुझे चोट पहुँचना स्वाभाविक ही था लेकिन मैंने इस बारे में उन्हीं से बात का फैसला किया। मैं आज भी अपने उस फैसले का आभारी हूँ क्योंकि उसी मुलाकात में उन्होंने मुझसे कुछ खास बातें कहीं। उन्होंने मेरी आंखों में आंखें डालकर कहा कि मुझे जो कुछ भी पता चला है, झूठ है। इसके साथ ही उन्होंने कुछ ऐसा कहा, जो मैं कभी नहीं भूल सकता-‘‘अगर मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ, तो मैं तुम्हें ही कहूँगा।’’
इसी वाक्य ने हमारे दृढ़ संबंधों की नींव रखी। वे जानते थे कि अगर मैं किसी बात से परेशानी महसूस करूँगा तो उनसे खुल कर बात कर लूँगा और मैं यह भी जानता था कि वे भी मेरी तरह खुलापन और ईमानदारी बरतेंगे। इस तरह हमारा यही संबंध 28 सालों तक चलता रहा।
एक और घटना याद आ रही है जिसने मुझे बेहद प्रभावित किया। शायद यही कारण था कि मुद्रा का ‘‘क्रिएटिव विभाग’’ गलतियाँ करने से घबराने लगा था। मैं व्यावसायिक कार्य से बंगलौर में था कि मुझे धीरू भाई का फोन आया। वे रिलायंस पातालगंगा जा रहे थे और रास्ते में रुक कर मुझसे बात कर रहे थे। उन्होंने मुझे कहा कि अचानक उनकी नजर हमारे विज्ञापन बोर्ड पर पड़ी, जिसमें एक गलती है। क्या मैं तत्काल उस गलती को सुधार सकता हूँ ? मैं अगली ही उड़ान से वहाँ पहुँचा और गलती को ठीक कर दिया। यह उनकी तेज नजर का कमाल था कि गाड़ी चलाते-चलाते भी विज्ञापन में आई गलती को भांप लिया था। उस गलती को लेकर वे इतने अधीर थे कि उसी समय ठीक करवा देना चाहते थे। मैंने भी अपनी ओर से कसम खाई कि उन्हें दोबारा ऐसी शिकायत का मौका नहीं दूँगा।
हालांकि वे हर काम को संपूर्ण रूप में करने व देखने के आदी थे लेकिन वे एक अनौपचारिक बॉस थे। हो सकता है कि आपको विश्वास न हो लेकिन यह सच है, चाहे वे कितने भी बड़े और महत्त्वपूर्ण क्यों न हो गए, मुझे उनसे मिलने के लिए, कभी भी समय नहीं लेना पड़ा। चाहे वे किसी के भी साथ क्यों न बैठे हों, मैं दरवाजा खटखटा कर भीतर चला जाता। मैं घूमकर उनकी कुर्सी के पास पहुँचता और जरूरी बात कर लेता। अगर कोई बात ज्यादा खास होती तो वे मुझे एक दो मिनट के लिए एक ओर ले जाकर बात कर लेते। मुझे उनकी निजी सहायिका से इतना ही पूछना पड़ता था कि क्या वे शहर में हैं या फिर किसी खास व्यक्ति के साथ मीटिंग में तो नहीं हैं ? उन्होंने ज्यादातर लोगों के साथ यही नीति अपनाई हुई थी। उन्हें भरोसा था कि हम उनका समय बर्बाद नहीं करेंगे और वे यह भी नहीं चाहते थे कि उनसे मुलाकात करने में हमारा समय बर्बाद हो।
धीरुभाई अपने आप में एक पूरा विश्वविद्यालय थे उनसे मिलने वाले प्रत्येक व्यक्ति को उनसे कुछ न कुछ सीखने का मौका मिलता था। इस पुस्तक में वे सभी सबक शामिल किए गए हैं, जो मैंने उनसे काम के दौरान सीखे। मैं बहुत ध्यान से देखता था कि वे किस तरह लोगों से पेश आते थे। उन्होंने एक छोटी सी टीम के साथ ‘रिलायंस नरोदा’ की शुरुआत की। तीन दशक से भी थोड़े ही समय में एक बड़ा साम्राज्य खड़ा कर दिया। इसके अलावा उन्हें शक्तिशाली नेताओं का दल भी तैयार किया। इसके लिए उनके पास प्रबंधन या मनोविज्ञान की कोई डिग्री नहीं थी लेकिन फिर भी वे साधारण व्यक्तित्व को असाधारण बनाना जानते थे।
वे करोड़ों में एक थे और मुझे उन जैसे व्यक्ति के साथ काम करने का सौभाग्य मिला। उन्होंने मुझे काफी कुछ सिखाया, जिसके बल पर मैं एक साधारण एक्ज़ीक्यूटिव से मुद्रा के संस्थापक, चेयरमैन व प्रबंधक पद तक पहुँचा। ‘मुद्रा’ एक विज्ञापन एजेंसी थी जो बहुत छोटे स्तर से शुरु होकर, भारत की विशाल एजेंसियों की कतार तक पहुँची। मैं उनके बिना यह सब कभी नहीं पा सकता था इसलिए मैंने फैसला किया कि जो लोग उनके जैसा बनना चाहते हैं, उन्हें वे सारे सबक बताऊं जो मैंने धीरूभाई से सीखे।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book