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आयाम

उर्वशी अरोरा

प्रकाशक : प्रकाशन केन्द्र, लखनऊ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :98
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5149
आईएसबीएन :81-7065-079-8

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एकदम नई कवियित्री उर्वशी की कविताओं में जीवन के अनेक दृश्य दिखते हैं-व्यक्ति के भीतर के भी और बाहर के भी।

Aayam a hindi book by Urvashi Arora - आयाम - उर्वशी अरोरा

प्रस्तुत हैं पु्स्तक के कुछ अंश

एकदम नई कवियित्री उर्वशी की कविताओं की पांडुलिपि पढ़ते हुए मुझे हिंदी कविता की मुख्य धारा और परंपरा की झलक बार-बार मिलती रही। गणित की मेधावी छात्रा होने के कारण उर्वशी ने गहराई से हिंदी काव्य परंपरा के महत्त्वपूर्ण पाठों का अध्ययन किया होगा, इसमें मुझे संदेह है। फिर यह कैसे संभव हुआ कि उर्वशी ने हिंदी की गहरी काव्यानुभूति के सार तत्त्व और अभिव्यक्ति की नई भाषा, भंगिमा और मुहावरे को पकड़ लिया ? मेरा विश्वास है कि इस कवियत्री में प्रातिभ योग्यता है जो किताबों से अधिक कठिन परिस्थितियों में घिरी ज़िंदगी के संघर्ष से लहूलुहान अनुभवों, शब्दों और संरचनाओं को सहज ही पा लेती है। मुझे हिंदी के महत्त्वपूर्ण कवि अशोक वाजपेयी की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं जो उर्वशी की कविताओं की विशेषता के उद्घाटन और उस पर उचित टिप्पणी करती लगती हैं। कविता है-
अगर बच सका तो वही बचेगा
हम सबमें थोड़ा सा आदमी
जो रोब के सामने नहीं गिड़गिड़ता..


जो धोखा खाता है पर प्रेम करने से नहीं चूकता....
प्रस्तुत संकलन की कविताएँ बार-बार इस मानुष-सत्य का काव्यात्मक प्रमाण देती हैं।
इस संकलन की कविताओं में जीवन के अनेक दृश्य दिखते हैं-व्यक्ति के भीतर के भी और बाहर के भी-जो व्यक्ति, समाज, घर गली सड़क और मुहल्लों में बिखरे पड़े हैं, लेकिन कवयित्री ने जिस भेदिनी दृष्टि से उन्हें देखा और अभिव्यक्त किया है वह विशिष्ट है। इन कविताओं के पाठक सहज ही अनुभव कर सकते हैं कि कवयित्री ने भावनाओं के आवेग को घनीभूत कर उन्हें हथौड़े की तरह कठोर बनाकर परिस्थितियों पर चोट की है। यही कारण है कि इन कविताओं में भावावेग नहीं, जीवन-परिस्थिति के पठार को तोड़ने की क्षमता है। दृष्टि संपन्न और सार्थक कविता का यही विशिष्ट स्वभाव है जिसे उर्वशी ने अपनी प्रातिभ योग्यता से हासिल कर लिया है।
बिजली सी चमकती आँखों में जीने की ‘सोई तमन्नाएँ’ जगाने की क्षमता और उसकी व्याख्या करने में शब्दों की सीमाएँ पहचान लेना जीवन को सिर्फ भावना नहीं वरन् उसे जीवन की समग्रता के अक्षय स्रोत के रूप में पहचान लेना है-

जो है व्याख्याओं के बंधनों से दूर
जो है इंद्रियों के सामर्थ्य से परे।



बस में सफ़र कर रही महिला (विशेषकर युवती) के साथ अभद्र व्यवहार आमतौर पर परिचित घटना है। युवती होने के कारण हो सकता है यह एक व्यक्तिगत प्रसंग भी हो जो क्रोधावेश को और उत्तेजित कर सकता है; लेकिन कविता इस भावावेग (व्यक्तिगतता) का अतिक्रमण करती है और बोध तथा अनुभूति की गहरी एवं व्यापक संरचनाओं का निर्माण करती है। ‘बस ! अब और नहीं’ कविता, महिला के प्रति पुरुष के आधारभूत नज़रिए का सवाल उठाती है-
‘‘बस में सफ़र कर रहे हैं आप यदि/और पहुँचती है अगर किसी महिला के सम्मान को क्षति/तो क्या होती है आपकी प्रतिक्रिया ? क्या होता है आपके सोचने का नज़रिया ?’’
इसी जिज्ञासा और प्रश्न ने कवयित्री को वह साहस दिया है जिससे वह सीता को राम के सामने एक चुनौती के रूप में प्रस्तुत कर सकी है। उसने सीता को बिलकुल नई भूमिका दे दी है जो यह प्रश्न कर सकती है कि ‘‘अगर मैं (सीता) तुम्हारे आचरण की पवित्रता का प्रमाण माँगू तो ?’’ क्या यह प्रश्न दांपत्य संबंध और भावना तक सीमित है ? यह नज़रिए का सवाल है, जिसे बदलना होगा। इस बदलाव के बिना स्त्री के सम्मान और समानता की अभिव्यक्तियाँ केवल प्रवचन मात्र हैं। यह ‘जेण्डर’ का सवाल है ‘सेक्स’ का नहीं। सेक्स के सवाल व्यक्तिगत हो सकते हैं लेकिन जेण्डर के सवाल सामाजिक, राजनीतिक होते हैं। कवयित्री ‘सेक्स’ और ‘जेण्डर’ की धारणाओं के बारे में सचेत हैं और इस बिंदु पर वह भारतीय संस्कृति की महान मिथक-परंपरा पर प्रश्न चिह्न लगाकर ‘स्त्री-अनुभव’ को नई ऊर्जा प्रदान करती है। सचमुच यह नज़रिए की चिंता है।
आलीशान इमारतों का निर्माण, मज़दूरों के खून पसीने का बहना, केवल बारह साल के मज़दूर बच्चे का सीमेंट की बोरी उठा लेना, होटलों और ढाबों में बच्चों की ललचाई किंतु मज़बूर आँखों के दबाव से भरा श्रम और उनके साथ ‘फील गुड’ का राजनीतिक नारा, जिसकी बनावटी समृद्धि पर तल्ख टिप्पणी—जैसे दुख और विडंबना के अनेक दृश्य उर्वशी की कविता में भरे पड़े हैं। इनके बीच निहायत व्यक्तिगत प्रसंग-जैसे ‘‘जिंदगी के एक मोड़ पर/तुम्हारा यूँ मिल जाना/माना कि है बहुत अजीब आकस्मिक/पर नहीं हैं सिर्फ, एक संयोग ये लेकिन।’’-एक कोमल धारा की तरह उनमें गुँथा हुआ है।
आज की कविता के भरे-पूरे संसार में यह नई कवयित्री अपने अनुभव की ईमानदारी, सचाई और भाषा तथा मुहावरे के हिंदीपन के साथ प्रवेश कर रही है। मुझे भरोसा है कि उर्वशी की कविताएँ सजग हिंदी पाठकों के बीच सराही जाएँगी।
मैं कवयित्री उर्वशी को शुभकामनाएँ देने में झिझक अनुभव कर रहा हूँ क्योंकि मुझे अंदेशा है कि उसकी कविताओं के भीतर उपस्थित काव्य-स्वभाव ऐसे आचरण की अनुमति शायद ही दें।
फिर भी शुभकामनाओं के साथ,

-नित्यानंद तिवारी
सेवानिवृत्त प्रोफेसर,
हिन्दी विभाग,
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।



दिल की बात


दिल से कहूँ, तो विश्वास नहीं होता कि वर्षों से संजोया मेरा एक सपना पूरा हो गया। ‘आयाम’ मेरा वह स्वप्न है, जो यथार्थ में बदल गया। सोचती ज़रूर थी पर शायद पूरी तरह से विश्वास न था कि एक अबोध सी चाह, एक दिन सच बनकर सामने खड़ी हो सकती है। पर ‘आयाम’ ने मुझे विश्वास करना सिखा दिया। ‘आयाम’ ने मेरे सपनों को अंजाम देकर, मेरी एक कविता की इन पंक्तियों को सत्य प्रमाणित कर दिया है, कि-
‘वैसा ही होगा यथार्थ,
जैसा करूंगा मैं चिंतन,
वैसा ही आएगा नज़र मुझको,
जैसा चाहेगा देखना मेरा मन।


‘आयाम’ मेरी सोच, मेरे विचारों और मेरी व्यक्तित्व का विस्तार है। मैं नहीं जानती कितने लोग ‘आयाम’ को पढ़ेंगे। कितने लोग उसे सराहेंगे या उसकी आलोचना करेंगे। पर मेरे लिए तो ‘आयाम’ मेरा बच्चा है और माँ को अपना बच्चा हर हाल में सर्वप्रिय होता है।
अगर मैं बिलकुल सच कहूँ तो ‘आयाम’ मेरी नहीं, ईश्वर की कृ़ति है। प्रभु ने जो मुझसे लिखवाया, मैंने वह लिखा। ईश्वर ने जो विचार नभ से मेरे जहन में उतारे, उन्हीं को मैंने कविता का रूप दे दिया। परमेश्वर के लिए ‘धन्यवाद’ जैसे छोटे से शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहती। प्रभु के साथ मेरा बंधन तो कल्पनाओं की सीमाओं से कोसों दूर हैं। उनका इस छोटे से शब्द से आभार प्रकट कैसे करूँ ? पर हाँ कृतज्ञ हूँ मैं, इनसान रूपी उन दो शक्तियों की, जो प्रभु की कृपा से मेरे जीवन से आईं, एक ने जीवन दिया, तो दूसरी ने जीना सिखाया। एक ने शरीर में रक्त डाला, तो दूसरी ने उसका संचार किया। एक ने हँसी दी, तो दूसरी ने हँसना सिखाया। एक ने रास्ता दिखाया, तो दूसरी ने हाथ पकड़कर चलाया। आज मैं जो कुछ हूँ, मेरे पास जो कुछ भी है, तो ईश्वर और ईश्वर की दी हुई इन शक्तियों की बदौलत।
अंत में शुक्रगुज़ार हूँ उन सभी की जिन्होंने ‘आयाम’ को आकार देने में किसी भी तरह का योगदान दिया है। अब बस इतना ही कहना चाहूँगी, कि अगर मेरा स्वप्न पूरा हो सकता है, तो किसी का भी, कैसा भी, स्वप्न पूरा हो सकता है। इसलिए,
बड़े-बड़े और भिन्न-भिन्न
सपने देखो, देखो ज़रूर,
पूरा हो जाए सपना कोई तुम्हारा,
वो दिन होता नहीं है दूर।



जून, 2004
दिल्ली
-डॉ. उर्वशी अरोरा



1.
ज़िंदगी की डगर पर



ज़िंदगी की डगर पर
चलते-चलते मैं अकसर,
ढूँढ़ती हूँ साथ,
उन परछाइयों का,
मेरे पास से,
निकल जाती हैं जो होकर।
छोड़ कर उन्हें,
जो हमसफर हैं मेरे,
बीचोंबीच राह के,
भागती हूँ मैं,
पीछे-पीछे,
उन परछाइयों के,
राहें बदल-बदलकर,
बहुत अकसर।

ज़िंदगी की डगर पर,
चलते-चलते मैं अकसर,
चाहती हूँ बटोर लेना,
वो तैरते बुलबुले हवा में,
एक सतरंगी जहाँ बसता है जिनमें।
गिरा कर मुट्ठियों से,
वो सौंधी मिट्टी की ढेरी,
झपटना चाहती हूँ मैं,
उन उड़ते बुलबुलों को,
ऊँचा कूद-कूद कर,
बहुत अकसर।

ज़िंदगी की डगर पर,
चलते-चलते मैं अकसर,
पहुँचना चाहती हूँ मैं वहाँ पर,
सूर्य की किरणों से चमकता, दमकता,
एक स्वर्ण महल बसा हो जहाँ पर।
तोड़कर अपने ही पैरों से,
बहुत छोटा-सा रेत का घरौंदा,
खोजती हूँ मैं, बौखलाई-सी,
उस स्वर्ण महल को,
तेज़ भाग भागकर,
बहुत अकसर।

ज़िंदगी की डगर पर,
चलते-चलते मैं अकसर...

2.
असमर्थता



कैसे करूँ मैं व्याख्या
बिजली-सी चमकती,
उन आँखों की
जगा देती हैं जो,
सोई तमन्नाएँ जीने की।

कैसे पिरोऊँ शब्दों में मैं,
उस अद्वितीय खिली
मुसकान को,
शरमा जाए फूलों की बगिया भी
देखकर जिसको।

कैसे करूँ मैं बयान
वह अपार शक्ति,
वह गरजती, जीवंत हँसी,
वह अथाह प्रेम का सागर,
वह भव्य विवेक की धरोहर,
वह बचपने भरा यौवन,
वह ज्ञान का खलिहान,

असमर्थ हूँ मैं,
देने में परिचय उसका,
करने में स्पष्ट वह,
जो है शब्दों की सीमाओं से बाहर,
जो है व्याख्याओं के बंधनों से दूर,
जो हैं इंद्रियों के सामर्थ्य से परे।

3.


बस ! अब और नहीं
वक्त : सुबह के सवा नौ।

डी.टी.सी. की है बस,
नंबर है नौ सौ दस,
जा रहे हैं लोग घर से दफ़्तर,
रोज़ की तरह बस में लद-लदकर।

बस के अंदर जब हो रहा है,
भीड़ से बुरा हाल,
तभी भीड़ में खड़ी एक युवती का,
मुँह हो जाता है लाल।

युवती के पीछे चिपककर खड़ा है,
अधेड़ उम्र का आदमी जो,
तंग कर रहा है युवती को कबसे,
करके कोई छेड़खानी वो।
बरस पड़ती है ज़ोर से,
उस आदमी पर वह युवती,
इस पर बस की भीड़ मिलकर,
दोनों को है घूरती।

घटना देखकर ऐसी,
आम जनता का आखिर, क्या है सोचने का नज़रिया,
यह समझिए, जानकर,
कि दे सकती है बस की भीड़ कैसी-कैसी प्रतिक्रिया।

लोग आँखें हैं बंद कर लेते और व्यवहार करते हैं ऐसा,
जैसे कुछ हुआ ही न हो।
या फिर कहते हैं लड़की से,
‘अगर इतनी ही होती है, मुश्किल,
तो बस में आती ही क्यों हो ?’
या फिर,
‘पहनकर ये कसी हुई जीन्स टॉप,
मुसीबत को यूँ बुलाती क्यों हो ?’
कुछ तो कर ही देते हैं लड़की को पानी-पानी,
पूछ-पूछ कर यह, कि आखिर आदमी ने क्या की है छेड़खानी।
और कुछ लोग तो हैं चाहते,
दोनों लड़की और आदमी बस से नीचे ही उतर जाएँ,
और बस से बाहर जाकर ही, अपना झगड़ा सुलझाएँ।
कदाचित ही निकलता है, भीड़ में कोई ऐसा शख्स,
जो करता है लड़की के आत्मसम्मान की रक्षा,
या फिर लेता है उसका पक्ष।

किसी विशिष्ट बस की ही नहीं है यह घटना,
दोहराया जाता है यह प्रसंग, हर बस में रोज़ाना।
किसी विशिष्ट युवती की ही नहीं होती है सम्मान हानि,
बस में सफ़र कर रही हर उम्र की महिला की यही है कहानी।

बस में सफ़र कर रहे हैं आप यदि,
और पहुँचती है अगर किसी महिला के सम्मान को क्षति।
तो क्या होती है आपकी प्रतिक्रिया ?
क्या होता है आपका सोचने का नज़रिया ?

 

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