कहानी संग्रह >> इंतजार और तेरह अन्य कहानियाँ इंतजार और तेरह अन्य कहानियाँमोहन चोपड़ा
|
2 पाठकों को प्रिय 7 पाठक हैं |
इस कहानी-संग्रह की सभी कहानियाँ आम लोगों की कहानियाँ हैं। इन कहानियों की घटनाएँ व पात्र हमें आज भी अपने इर्द-गिर्द नज़र आएँगे।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जैसे प्रकृति की अद्भुत रचना है मानव, वैसे ही मानव की अद्भुत रचना है
कविता, कहानी उपन्यास या फिर नाटक। प्रश्न उठता है कि क्या प्रकृति द्वारा
रचे गए सभी मानव कवि, उपन्यासकार, कहानीकार या नाटककार होते हैं ? नहीं,
क्योंकि प्रकृति ने अपने इस वरदान को कुछ चुने हुए व्यक्तियों को ही दिया
है। इस अनूठे वरदान को पानेवाला व्यक्ति विशिष्ट व संवेदनशील होता है।
शायद यही वजह है कि यह विशिष्ट व्यक्ति अपने इर्द-गिर्द के वातावरण, लोग व
घटनाओं को अपनी सूक्ष्म दृष्टि से देखता है। उसके संवेदनशील व्यक्तित्व व
सूक्ष्म दृष्टि से रची गई रचना पाठक के मन को छू जाती है। इसीलिए आज भी
कालिदास या शेक्सपीयर की रचनाएँ पढ़कर पाठक का मन द्रवित हो उठता है।
हमारे अपने ही युग में रवींद्रनाथ ठाकुर, शरत, गोर्की, हार्डी रोलाँ या
फिर मुंशी प्रेमचंद ने अपने ईर्द-गिर्द लोगों और घटनाओं को बड़ी ही
सूक्ष्म दृष्टि से देखा होगा। उस वातावरण की हकीकत को पहचाना होगा। ज़रूर
इन सभी ने बीती हुई घटनाओं और देखे हुए लोगों को अपनी कलम तक लाने के लिए
घोर परिश्रम किया होगा। तभी तो आज भी इनकी रचनाएँ पाठक के मन को हिला देती
हैं। इन्हीं विशिष्ट लोगों की श्रेणी में आते हैं स्वर्गीय मोहन चोपड़ा।
कविता हो या नाटक, उपन्यास हो या कहानी स्वर्गीय मोहन चोपड़ा की हर रचना
पाठक के मन को छू लेती है।
स्वर्गीय मोहन चोपड़ा ने अपने साहित्य द्वारा पाठकों को नई दिशा दी है। उन्होंने अपने इर्द-गिर्द के वातावरण में पूर्णतया सजग रहकर, अपने पात्रों के भोगे हुए अनुभवों को, घटनाओं को, उनके नज़रिए को अपनी सशक्त लेखनी द्वारा पाठकों से परिचित करवाया है। यही वजह है कि स्वर्गीय मोहन चोपड़ा का साहित्य जिंदगी से जुड़ा हुआ है। जिंदगी से जुड़ा साहित्य हमेशा उच्चकोटि का माना जाता है।
इस कहानी-संग्रह की सभी कहानियाँ आम लोगों की कहानियाँ हैं। इन कहानियों की घटनाएँ व पात्र हमें आज भी अपने इर्द-गिर्द नज़र आएँगे। उदाहरण के लिए ‘कल वाला कुत्ता’ कहानी का मोटा मास्टर आज भी कहीं है जो अपरिचित लोगों में अपना रौब जमाना चाहता है। लेकिन पहचान लिए जाने पर वह सँभल जाता है। शायद यह मानव का मनोविज्ञान है कि वह अपरिचितों में ही अपना रौब जमाना चाहता है, क्योंकि परिचित लोग तो उसकी वास्तविकता, उसका इतिहास जानते ही हैं। ‘पुराने साथी’ कहानी में कैसे एक अभिन्न मित्र आगे बढ़ने की लालसा में अपने पुराने साथियों की अवहेलना कर देता है। गज़टेड अफसर बनने की चाह में वह पुरानी दोस्ती को नज़र-अंदाज कर देता है। कहानी ‘एक नया प्रतीक’ में गुड्डी एक पढ़ी-लिखी और सुंदर महिला है। उसका आत्मविश्वास कहता है कि आज के बदलते युग में वह किसी भी पुरुष से कम नहीं है। इसलिए गुड्डी विधवा होते हुए भी अपनी दूसरी शादी उस व्यक्ति के साथ करना चाहती है जो उसकी सोच के अनुकूल हो। कहानी ‘तीन बहनें’ में दो अमीर बहनों की एक तीसरी बहन है जिसकी आर्थिक हालत ठीक नहीं है। लेकिन वह बड़े आत्मविश्वास के साथ एक सीधासादा-सा रिश्ता रखना चाहती है जो सादगी और सच्चाई का रिश्ता होता है। उस रिश्ते का वज़न रुपये से भारी होता है। ‘सूट’ कहानी का पात्र अपने दिखावे के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए दूसरों से उधार माँगकर सूट पहनता है। वह उस उधार माँगे सूट को किसी और को देकर अपनी हैसियत कायम रखना चाहता है। वह भूल जाता है कि भूल-भुलैया में वह कभी पकड़ा भी जा सकता है और पकड़े जाने से उसके इस झूठे व्यक्तित्व को कितनी चोट मिल सकती है, इसकी कल्पना भी वह नहीं कर सकता। ‘इंतजार’ कहानी में हरीश डॉक्टर के वेटिंग रूम में बैठा एक ऐसी स्त्री को देखता है जो करुणा की जीती-जागती तस्वीर है। वह गरीब है क्योंकि उसका पति नहीं है। लेकिन उसके पास सादगी और सौम्यता है जिसके प्रति हरीश आकर्षित हो जाता है। चूँकि हरीश भी अकेला है, वह एक सहारा चाहता है। उस अपरिचित स्त्री के छोटे-से बच्चे को वह सीने से लगाकर एक नए रिश्ते का अनुभव करने लगता है।
‘क्लब की एक शाम’ में शहर के कुछ चुने हुए लोग, जो अपना एक ‘स्टेटस’ बनाना चाहते हैं, क्लब में आकर अपनी शामें गुज़ारते हैं। अकसर उन्हें क्लब की ज़िंदगी में ही ‘वेल्यूज़ ऑफ़ लाइफ’ दिखाई देती है। उन्हें इस भीड़ भरी और दिखावे की ज़िंदगी में अध्यात्मवाद खोखला लगता है। उन्हें लगाव है तो ताश, सिगरेट और कहकहों से, जो क्लब की शामों में होते हैं। यह सोच जिन लोगों में आ गई है, यह कहानी उनके प्रति लेखक का तीव्र व्यंग्य है। ‘शरीर का विरोध’ कहानी में स्त्री बार-बार माँ बनकर अपना सौंदर्य खराब नहीं करना चाहती। वह आज की औरत है जो अपना व्यक्तित्व बच्चों को पैदा करने तक ही सीमित नहीं रखना चाहती। ‘खामोश आदमी’ की कहानी अपनी स्वयं की स्त्री द्वारा की गई लापरवाही की गाथा बताती है। इस कहानी का रसगोत्रा अपनी पीड़ा में डूबकर शराब का सहारा लेता है। यह एक बहुत ही करुणामयी कहानी है।
इसी तरह से इस संग्रह की बाक़ी कहानियाँ, ‘गुड्डो की माँ’, ‘दोस्ती’, ‘ऑपरेशन’, ‘पत्नी के नाम पत्र’, ‘यथार्थ और कल्पना’ आदि बहुत ही सुंदर कहानियाँ हैं।
इन कहानियों को पढ़कर पाठक वर्ग ज़रूर लेखक के प्रति उपकृत होगा क्योंकि ये ज़िंदगी की कहानियाँ हैं।
ये कहानियाँ 1955 और 1967 वर्षों के दौरान विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपी थीं।
स्वर्गीय मोहन चोपड़ा ने अपने साहित्य द्वारा पाठकों को नई दिशा दी है। उन्होंने अपने इर्द-गिर्द के वातावरण में पूर्णतया सजग रहकर, अपने पात्रों के भोगे हुए अनुभवों को, घटनाओं को, उनके नज़रिए को अपनी सशक्त लेखनी द्वारा पाठकों से परिचित करवाया है। यही वजह है कि स्वर्गीय मोहन चोपड़ा का साहित्य जिंदगी से जुड़ा हुआ है। जिंदगी से जुड़ा साहित्य हमेशा उच्चकोटि का माना जाता है।
इस कहानी-संग्रह की सभी कहानियाँ आम लोगों की कहानियाँ हैं। इन कहानियों की घटनाएँ व पात्र हमें आज भी अपने इर्द-गिर्द नज़र आएँगे। उदाहरण के लिए ‘कल वाला कुत्ता’ कहानी का मोटा मास्टर आज भी कहीं है जो अपरिचित लोगों में अपना रौब जमाना चाहता है। लेकिन पहचान लिए जाने पर वह सँभल जाता है। शायद यह मानव का मनोविज्ञान है कि वह अपरिचितों में ही अपना रौब जमाना चाहता है, क्योंकि परिचित लोग तो उसकी वास्तविकता, उसका इतिहास जानते ही हैं। ‘पुराने साथी’ कहानी में कैसे एक अभिन्न मित्र आगे बढ़ने की लालसा में अपने पुराने साथियों की अवहेलना कर देता है। गज़टेड अफसर बनने की चाह में वह पुरानी दोस्ती को नज़र-अंदाज कर देता है। कहानी ‘एक नया प्रतीक’ में गुड्डी एक पढ़ी-लिखी और सुंदर महिला है। उसका आत्मविश्वास कहता है कि आज के बदलते युग में वह किसी भी पुरुष से कम नहीं है। इसलिए गुड्डी विधवा होते हुए भी अपनी दूसरी शादी उस व्यक्ति के साथ करना चाहती है जो उसकी सोच के अनुकूल हो। कहानी ‘तीन बहनें’ में दो अमीर बहनों की एक तीसरी बहन है जिसकी आर्थिक हालत ठीक नहीं है। लेकिन वह बड़े आत्मविश्वास के साथ एक सीधासादा-सा रिश्ता रखना चाहती है जो सादगी और सच्चाई का रिश्ता होता है। उस रिश्ते का वज़न रुपये से भारी होता है। ‘सूट’ कहानी का पात्र अपने दिखावे के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए दूसरों से उधार माँगकर सूट पहनता है। वह उस उधार माँगे सूट को किसी और को देकर अपनी हैसियत कायम रखना चाहता है। वह भूल जाता है कि भूल-भुलैया में वह कभी पकड़ा भी जा सकता है और पकड़े जाने से उसके इस झूठे व्यक्तित्व को कितनी चोट मिल सकती है, इसकी कल्पना भी वह नहीं कर सकता। ‘इंतजार’ कहानी में हरीश डॉक्टर के वेटिंग रूम में बैठा एक ऐसी स्त्री को देखता है जो करुणा की जीती-जागती तस्वीर है। वह गरीब है क्योंकि उसका पति नहीं है। लेकिन उसके पास सादगी और सौम्यता है जिसके प्रति हरीश आकर्षित हो जाता है। चूँकि हरीश भी अकेला है, वह एक सहारा चाहता है। उस अपरिचित स्त्री के छोटे-से बच्चे को वह सीने से लगाकर एक नए रिश्ते का अनुभव करने लगता है।
‘क्लब की एक शाम’ में शहर के कुछ चुने हुए लोग, जो अपना एक ‘स्टेटस’ बनाना चाहते हैं, क्लब में आकर अपनी शामें गुज़ारते हैं। अकसर उन्हें क्लब की ज़िंदगी में ही ‘वेल्यूज़ ऑफ़ लाइफ’ दिखाई देती है। उन्हें इस भीड़ भरी और दिखावे की ज़िंदगी में अध्यात्मवाद खोखला लगता है। उन्हें लगाव है तो ताश, सिगरेट और कहकहों से, जो क्लब की शामों में होते हैं। यह सोच जिन लोगों में आ गई है, यह कहानी उनके प्रति लेखक का तीव्र व्यंग्य है। ‘शरीर का विरोध’ कहानी में स्त्री बार-बार माँ बनकर अपना सौंदर्य खराब नहीं करना चाहती। वह आज की औरत है जो अपना व्यक्तित्व बच्चों को पैदा करने तक ही सीमित नहीं रखना चाहती। ‘खामोश आदमी’ की कहानी अपनी स्वयं की स्त्री द्वारा की गई लापरवाही की गाथा बताती है। इस कहानी का रसगोत्रा अपनी पीड़ा में डूबकर शराब का सहारा लेता है। यह एक बहुत ही करुणामयी कहानी है।
इसी तरह से इस संग्रह की बाक़ी कहानियाँ, ‘गुड्डो की माँ’, ‘दोस्ती’, ‘ऑपरेशन’, ‘पत्नी के नाम पत्र’, ‘यथार्थ और कल्पना’ आदि बहुत ही सुंदर कहानियाँ हैं।
इन कहानियों को पढ़कर पाठक वर्ग ज़रूर लेखक के प्रति उपकृत होगा क्योंकि ये ज़िंदगी की कहानियाँ हैं।
ये कहानियाँ 1955 और 1967 वर्षों के दौरान विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपी थीं।
पुष्पा हीरालाल
मुंबई
मुंबई
इंतज़ार
सुबह सवेरे ही डॉक्टर सचदेव के क्लीनिक में बीमार लोगों की भीड़ जमा होने
लगती। क्लीनिक में कुल तीन कमरे हैं। एक में डॉक्टर बैठता है दूसरे में
दवाइयाँ रखी हैं और तीसरा कमरा जो ख़ासा बड़ा है, बीमार लोगों के लिए
वेटिंग-रूम बना दिया गया है।
वेटिंग-रूम में जिस दिन अधिक भीड़ आ जुटती है, लोगों को अपनी बारी के लिए घंटा, पौन घंटा इंतज़ार करना पड़ता है। वहाँ उस कमरे में एक साँवली अधेड़ उम्र की नर्स भी है जो इस बात का ख्याल रखती है कि लोग अपनी बारी आने पर ही डॉक्टर के कमरे में जाएँ। ऐसा कभी नहीं होता कि जो बाद में आया है, डॉक्टर के पास पहले चला जाए। कदाचित् इस नियम की पाबंदी के कारण ही रोगियों को लंबा इंतज़ार अखरता नहीं। वे चुपचाप अपनी-अपनी जगह पर बैठे रहते हैं।
इंतज़ार करते वक्त अगर कोई आदमी बीड़ी या सिगरेट सुलगा लेता है तो साँवली, अधेड़ उम्र की नर्स इसका बुरा नहीं मानती। समय काटने के लिए हिंदी और अंग्रेज़ी के प्रतिदिन के रोज़नामचे भी वेटिंग-रूम में रखे रहते हैं।
हरीश परसों से डॉक्टर सचदेव के क्लीनिक में आ रहा है। उसके पेट की आँतों में सूजन है। इतनी ज्यादा नहीं कि घंटा, पौन घंटा भर वेटिंग-रूम की बेंच पर बैठे होने पर कसमसाने लगे। हरीश आकर चुपचाप बैठ जाता है। अपनी बारी आने तक दो-एक सिगरेट फूँक लेता है और हिंदी रोज़मानचे का कोई पन्ना मिल जाने पर सरसरी तौर से कुछ खबरें भी पढ़ लेता है।
डॉक्टर सचदेव की दवाई से उसे निश्चय ही कुछ आराम पहुँचा है। इसलिए उसने सोचा है कि कुछ दिन टिककर इलाज करवाए। उसकी दो दिनों की दवाई अब खत्म है, इसलिए वह आज भी चला आया है। दिसंबर का तीसरा हफ़्ता लग गया है और सरदी ज़ोरों पर है। इसलिए अपने कमरे से क्लीनिक के लिए तैयार होते वक्त ऊनी स्वेटर के साथ गले में मफ़लर लपेट लेना भूला नहीं।
अपनी बारी के इंतज़ार में अभी कुछ मिनट ही बीते होंगे कि उसने देखा कि दरवाज़े से एक स्त्री अंदर आई है और उसने कंधे के साथ अपना बच्चा भी चिपका रखा है। वह स्त्री उसके निकट ही दूसरे बेंच पर आ बैठी।
स्त्री की त्वचा गंदमी रंग की थी। आँखें, नाक, होंठ सभी साधारण ही लगते थे। मुश्किल से चौबीस-पच्चीस की होगी। वस्त्र सादे ही थे मगर वे साफ़ नहीं थे। उन पर मैल और धब्बे भी दीखते थे। पैरों में पुरानी किस्म के सस्ते से चप्पल थे। उसने फीके बैंगनी-से रंग का शॉल भी ओढ़ रखा था।
बैठ जाने पर उसने अपने बच्चे को कंधे के साथ ही चिपके रहने दिया। शायद बच्चा सो रहा था। हरीश को ऐसे ही विचार आया कि इसे अपने बच्चे को गोद में डाल लेना चाहिए या फिर जाँघों पर लिटा लेना चाहिए। यह उसके लिए अधिक सुविधाजनक होगा। इस विचार को नज़रों में सहेजकर उसने स्त्री की ओर देखा।
स्त्री की नज़रें उससे दो-चार हुईं। झेंप उठने का प्रश्न नहीं था। डॉक्टर के क्लीनिक में आकर अपरिचित से स्त्री-पुरुष एक-दूसरे को देखकर झेंप उठना नहीं चाहते। कारण कुछ भी हो। लेकिन हरीश की नज़रों का भाव स्त्री समझ नहीं सकी।....और बच्चा कंधे से ही लगा रहा। हरीश इधर से ध्यान हटाकर और दूसरे बीमार लोगों को ओर देखने लगा।
सभी तरह के लोग थे...माँएँ, बाप, मर्द और बीवियाँ। कुछ ऐसे थे जो स्वयं बीमार नहीं थे, सिर्फ़ बीमार संबंधियों को लेकर आए थे। बीमार व्यक्तियों की मुद्राएँ स्पष्टतः कमज़ोर और बुझी हुईं दिखाई देती थीं। उनकी आँखों को देखकर उनकी दैहिक पीड़ा का अनुमान किया जा सकता था। बीमारी से जूझते रहने की गहरी-सी थकान और एक तरह की विवशता उन नज़रों में थी। वे लोग हँस नहीं रहे थे। ख़ामोश थे या फिर दबे-दबे कोई बात कर लेते।
कई बार डॉक्टर के कमरे से किसी बच्चे के चीख़ पड़ने या किसी वयस्क-कंठ से उमड़ आई कराहट की आवाज़ सुनाई दे जाती, जैसे उन्हें इंजेक्शन की सूई चुभोई गई हो। अगर बच्चे की रुलाई देर तक बनी रहती तो लगता उसके किसी फोड़े या घाव की मरहम-पट्टी की जा रही है। कई बार वेटिंग-रूम में भी कोई-न-कोई मरीज कराहता-सा सुनाई देने लगता, जैसे उसे इस बात का ख्याल ही न हो कि वहाँ और लोग बैठे हैं। उसकी कराहट से लगता जैसे बाहरी दुनिया का अस्तित्व है ही नहीं। जो भी यथार्थ है वह उसकी निजी पीड़ा में ही केंद्रित है। लोग कौतूहलवश कुछ क्षणों के लिए उसे देख लेते, फिर आत्मरत-से होकर अपनी-अपनी बीमारी के बारे में सोचने लगते।
हरीश अपने लिए भी कई बार सोचने लगता है। जब से होश सँभाला है, उसका स्वास्थ्य कभी ठीक नहीं रहा...थोडे़-थोड़े वक़्फे बाद बिगड़ जाता है या वह अपनी लापरवाही से स्वयं बिगाड़ बैठता है। क्योंकि अब तक चालीस का हो जाने पर भी उसकी जिंदगी में स्थायित्व नहीं आ सका। घर-बार से वंचित। माँ-बाप को परलोक गए एक युग बीत गया। सगे-संबंधी परवाह नहीं करते। दो-चार दोस्तों के सिवा इस दुनिया में ऐसा कोई नहीं जिसे वह अपना कह सके। खाना-पीना आज तक ढाबों पर ही चलता रहा है। अब किसी प्राइवेट कंसर्न में मामूली-सी क्लर्की मिल गई है। पहले कई सालों तक चपरासी भी रहा है।
उसने सुना था कि जब वह अभी डेढ़ वर्ष का ही था कि उसका माँ छाती में फूट आए कैंसर रोग से मर गई। माँ की कोई याद उसके पास नहीं। किंतु पिता की अवश्य है क्योंकि तब तेरह या चौदह साल का था जब पिता की अधिक शराब पीते रहने के कारण मौत हुई। किसी वकील के वे मुंशी थे। अकसर वे उसे बहुत ज्यादा प्यार करने लगते और बहुत ज्यादा पीटने भी लगते थे।
कई बार यह सोचकर एक टीसता-सा एहसास उसे विचलित कर देता है कि माँ की कोई याद उसके पास नहीं। अपने कमरे के एकांत में कभी अस्वस्थ हो जाने पर या कभी किसी कठिन-सी समस्या के बोझ से दबे होने पर उसने इस अभाव को महसूस किया है और उस समय भी किया है जब उसने किसी स्त्री को अपने बच्चे को गोद उठाए आते-जाते देखा है।
इस बार निकट बैठी हुई स्त्री की ओर उसने देख लिया। बच्चा अब कंधे से उतरकर गोद में आ गया था और अपनी बड़ी-सी आँखे पूरी तरह खोले हुए, अपरिचित-से वातावरण में आ जाने के कारण विस्मय या भय से बिटर-बिटर ताक रहा था। उसके पतले-से चेहरे में अस्वाभाविक-सा पीलापन था जिसे देखकर सहज ही उसके अस्वस्थ होने का अनुमान होने लगता।
स्त्री गरदन को झुकाकर बच्चे के चेहरे के निकट ही अपने चेहरे को किए थी। बच्चा मुश्किल से साल भर का होगा। पतले-से होंठ, माथे पर बाल और चमकती-सी बटन जैसी नाक। जिस्म पर मटमौला-सा स्वेटर लेकिन टागें नंगी थीं। स्त्री सतर्क-सी मुद्रा में उसे ताक रही थी। कुछ क्षण बाद बच्चे के होंठों में विकृत-सी कंपन हुई। कदाचित् यह रुलाई का संकेत था। स्त्री ने उसे थोड़ा-सा उठाकर अपने वक्षस्थल से लगा लिया और उसका मुँह वक्षस्थल की ओर करके उसके नितंबों को थपथपाने लगी। बच्चा कई क्षणों तक उस मुद्रा में बिलकुल संतुष्ट, शांत-सा पड़ा रहा...जैसे अतिरिक्त उष्णता की अनुभूति उसे हुई हो।
देखकर हरीश को ख्याल आया...याद नहीं पड़ता मेरी माँ ने ऐसा मुझसे कभी किया हो। अगर किया भी हो तो बहुत थोड़े समय के लिए ही। इसलिए वह वंचित है, भूखा है। माँ के दुलार-प्यार का उसे पर्याप्त सुख नहीं मिल सका।...लेकिन उस क्षण उस बच्चे के प्रति उसके मन में क़तई ईर्ष्या नहीं थी। वह उस अनुभव को महसूस कर लेना चाहता था जो बच्चा महसूस कर रहा था।
बच्चा अधिक देर उस अवस्था में संतुष्ट, शांत-सा पड़ा नहीं रह सका। वह अपनी टाँगें चलाने लगा, पहले धीमे फिर तेज़। हरीश को ख्याल आया, हो सकता है वह जिस रोग से पीड़ित है, वह उसे अस्थिर किए दे रहा है और अब किसी भी क्षण उसकी रुलाई फूट सकती है। लेकिन स्त्री उसे चूमने लगी। वह अपने गाल उसके गालों से छुआ देती। भाव-विह्वल-सी आँखों से उसकी ओर देखते हुए वह अपने होंठों से पुच-पुच जैसी ध्वन भी निकालने लगती।
देखते हुए हरीश अपने रोओं में एक विचित्र-सी गुदगुदी को फूटते हुए महसूस करने लगा। जैसे उस माँ के होंठ उसके होंठों से छुआए जा रहे हों और पुच-पुच की ध्वनि उसके अपने श्रवणों में घुलती जा रही हो। नज़रें उठाकर, इस बार अधिक खुलकर स्त्री की ओर देख लिया। स्त्री के देखने में किसी तरह की परेशानी...विरोध का भाव नहीं था। ऐसा खुलापन भी नहीं था जो उसके लाज-विहीन होने का संदेह पैदा कर सके।
उसके पहरावे से इतना तो स्पष्ट था कि वह गरीब थी। कलाई में काँच की चूड़ियों के सिवा उसके अंगों पर कोई भी गहना नहीं था। कान में सोने या चाँदी की मामूली-सी बालियाँ भी नहीं थीं। हो सकता है हरीश को ख्याल आया, कि जिस आदमी के साथ इसकी शादी हुई है वह बहुत ही गरीब व्यक्ति हो।...या वह इसे छोड़ चुका हो...या ? लेकिन इन सभी विचारों को ठेलता हुआ एक और विचार उठ आया कि यह स्त्री उसे बहुत अच्छी लगी है...अपने प्रति खींच रही है, और यह सब पहले उसने कभी किसी और स्त्री के प्रति महसूस नहीं किया। वह सोचने लगा कि उससे क्या कहकर बात करे।
कुछ क्षण बाद उसने पूछा, ‘‘यह बच्चा, साल-सवा साल का होगा ?’’
उत्तर मिला, ‘‘नहीं, दो साल का।’’
‘‘अच्छा !’’ हरीश ने इस भाव से यह कहा जैसे आश्चर्य से अधिक उसे क्षोभ हो, ‘‘काफ़ी कमज़ोर है।’’
‘‘हाँ’’, स्त्री का स्वर कारुणिक हो जाने के कारण हरीश को काफ़ी आकर्षक-सा सुनाई दिया, ‘‘बेचारा शुरू से ही कमज़ोर है।’’
हरीश कुछ और भी कहता लेकिन वह रुक गया। स्त्री की आँखों में, इसी तरह उसके चेहरे की पतली-सी झिल्ली में, जैसे कँपकँपाती-सी व्यथा डोल उठी हो। सचमुच यह बहुत ही बुरी हालत में हैं..हरीश का यह पूर्व अनुमान अब विश्वास में बदल रहा था।
उसे ख्याल आया कोई भी ब्याहता स्त्री किसी पर-पुरुष के आगे इस तरह निरीह-सी मुद्रा बनाकर पसीज उठना नहीं चाहेगी।...वह चाहता था कि उसके पति के बारे में कुछ पूछे। लेकिन यह बात उसे नामुनासिब-सी लगी।
उधर, माँ का ध्यान बँट जाने के कारण बच्चे को शायद बौखलाहट-सी हुई लेकिन स्त्री ने उसे रुलाई का अवसर नहीं दिया और फिर उसे अपने चेहरे के साथ लाकर दुलारने-सहलाने लगी। हरीश भी पूर्वस्थिति में लौट आया और अपने रोओं में उसी विचित्र-सी गुदगुदी को फूटते हुए महसूस करने लगा।
बच्चे को यथावत् संतुष्ट कर देने के बाद उस स्त्री ने हरीश से शिकायत की, ‘‘पता नहीं और कितनी देर लग जाए।’’
‘‘मेरा ख्याल है पंद्रह-बीस मिनट और।’’ फिर अपने में किंचित् आत्मीयता-सी लाकर हरीश ने कहा, ‘‘मुन्ना तो अब सँभल गया है। बिलकुल परेशान नहीं करता।’’
‘‘हाँ’’, स्वीकृति देकर उस स्त्री ने अपने मुन्ने की ओर देख लिया और कुछ सोचती-सी रह गई।
‘‘इसे क्या तकलीफ़ है ?’’
‘‘यह तो कुछ ठीक है’’, फीकी-सी मुस्कराहट में स्त्री के होंठ थोड़े-से खुले, ‘‘लेकिन कई दिनों से मेरी तबीयत ठीक नहीं। कुछ हरारत-सी रहती है।’’
हरीश को अपने भुलावे पर मन-ही-मन कुछ खेद-सा हुआ। वह बच्चे को बीमार और स्त्री को स्वस्थ समझ रहा था। वह अब गहराई से महसूस करने लगा कि यह स्त्री चौबीस-पच्चीस बरस से अधिक नहीं लगती। अगर वह सजी-धजी यहाँ आई होती तो वह उसके प्रति आकर्षित तो हो गया होता लेकिन उससे कोई बात कर सकने का उसे साहस न होता। लेकिन अब वह उसे समझ रहा था। अपरिचित होते हुए भी, उस दूरी को जो अपरिचित के साथ जुड़ी रहती है, वह इसे पर्याप्त सीमा तक किसी सूक्ष्म-सी अनुभूति के वश में आकर लाँघ गया है। आसपास उस क्षण भी बीमार लोगों की भीड़ उसी तरह जुड़ी हुई थी। कुछ लोग चले गए थे और कुछ और आ गए थे। अपने-अपने दुख से घिरी हुईं पहले जैसी मुद्राएँ जैसे कमरे के कैन्वेस पर चित्रित-सी दिखाई देती थीं।
‘‘मेरे पेट की आँतों में सोज़श है’’, वह उस स्त्री से कहने लगा, ‘‘दो दिनों से दवाई खा रहा हूँ और पहले से काफी आराम लगता है।’’
‘‘सोज़श ?’’ बहुत ज्यादा परेशान-सी होकर उस स्त्री ने पूछ लिया, आँखें आतंक से फैल गई थीं।
हरीश को उस स्त्री का उसके रोग के प्रति सहानुभूति प्रकट करना अच्छा ही लगा। उसने हँसते हुए उत्तर दिया, ‘‘नहीं-नहीं। अब मुझे काफ़ी आराम है। मैं बिलकुल ठीक हो जाऊँगा।...आप कहाँ रहती हैं ?’’
स्त्री ने बता दिया।
‘‘आप के शौहर..मेरा मतलब है क्या नाम है उनका ? क्या काम करते हैं ?’’ उसने आत्मीयता के आवेश में यह भी पूछ लिया।
कठिन, गहरी-सी ख़ामोशी। पूछी गई बात का उत्तर पाने के लिए कुछ क्षण की प्रतीक्षा के बाद उसने स्त्री की ओर देखा।
स्त्री का चेहरा अकस्मात् बदल गया था। चेहरे पर कई भाव उठते, काँपते-से दिखाई दिए। हरीश जो कुछ भी समझ सका उससे कुछ भी अंदाज़ लगा सकना सहज नहीं था। ‘‘क्या बात ? आप कुछ सोच रही हैं ?’’
उत्तर मिला, ‘‘वे तो अब नहीं रहे ! उन्हें गए सवा साल से ऊपर हो गया !’’
‘‘बहुत बुरा !....बहुत बुरी बात हुई !’’ हरीश के होंठों से निकला। वह चाहता था कि कुछ और भी कहे, इस परिस्थिति के अनुकूल। ज़हन पर दबाव-सा डालकर वह कुछ सोचता रहा। स्त्री चुप थी। उसे ख्याल आया कि वह कुछ सोच लेना चाहती है, कुछ सोच रही है।...और क्या, सोचती होगी बेचारी कि शादी के कुछ साल बाद ही विधवा हो जाना पड़ा और अब जिंदगी-भर का वैधव्य कैसे कटेगा ?..शायद वह यह भी सोचती हो कि कई दिनों से बीमार हूँ। अगर ठीक से इलाज न हुआ तो रोग भयंकर भी बन सकता है। ओफ़ ! अकेली जान और उस पर बच्चे का बोझ ! लेकिन हरीश को ख्याल आया वह स्वयं भी तो अकेला है, बीमार है अब और अधिक अकेलापान सहा नहीं जाता। वह इसका, जैसे भी हो, समाधान कर लेना चाहता है।
वह इन्हीं विचारों की उधेड़बुन में डूबा हुआ था कि उसने अपने न निकट साँवली, अधेड़ उम्र की नर्स की भारी-सी आवाज़ को सुना, ‘‘अंदर जाओ। अब तुम्हारा नंबर है।’’
तत्क्षण हरीश को स्मरण हो आया कि अब उसे क्या करना चाहिए। उसने स्त्री से कहा, ‘‘आप चली जाएँ। मैं आपके बाद चला जाऊँगा।’’
स्त्री ने बच्चे को कंधे से लगा लिया और उठने लगी। हरीश ने याचना के स्वर में उससे कहा, ‘‘बच्चा मुझे दे दीजिए। मैं सँभाल लूँगा। इसे साथ रखने में आपको मुश्किल ही होगी।’’
स्त्री दो-एक क्षण ठिठकी रही। फिर उसने बच्चा उसकी ओर बढ़ा दिया। हरीश की आँखों में मुस्कुराहट थी।
अब वह काफ़ी संतुष्ट-सी दिख रही मुद्रा में बच्चे को गोद में लिए बैठा है। बच्चा बिना पलकें झपकाए उसे देखता है जैसे पहचान रहा हो। हरीश को लगता है कि उसने कुछ पा लिया है, न केवल इस बच्चे को, इस बच्चे के माध्यम से कुछ और भी। उसके ज़हन में एक अस्पष्ट-सी तस्वीर है। फिर भी उसे अनुभव होता है कि इस तस्वीर के स्पष्ट हो जाने में अब अधिक देर नहीं।...इसे स्पष्ट किया जा सकता है। अब उसे अपने आसपास बीमार लोगों की बेबस, चिंता-कातर, मुद्राओं का बोझ महसूस नहीं होता। अब उसके थोड़े फासले पर कोई बूढ़ा व्यक्ति आ गया है और कराहने लगा है लेकिन वह उसकी ओर ध्यान नहीं देता।
वेटिंग-रूम में जिस दिन अधिक भीड़ आ जुटती है, लोगों को अपनी बारी के लिए घंटा, पौन घंटा इंतज़ार करना पड़ता है। वहाँ उस कमरे में एक साँवली अधेड़ उम्र की नर्स भी है जो इस बात का ख्याल रखती है कि लोग अपनी बारी आने पर ही डॉक्टर के कमरे में जाएँ। ऐसा कभी नहीं होता कि जो बाद में आया है, डॉक्टर के पास पहले चला जाए। कदाचित् इस नियम की पाबंदी के कारण ही रोगियों को लंबा इंतज़ार अखरता नहीं। वे चुपचाप अपनी-अपनी जगह पर बैठे रहते हैं।
इंतज़ार करते वक्त अगर कोई आदमी बीड़ी या सिगरेट सुलगा लेता है तो साँवली, अधेड़ उम्र की नर्स इसका बुरा नहीं मानती। समय काटने के लिए हिंदी और अंग्रेज़ी के प्रतिदिन के रोज़नामचे भी वेटिंग-रूम में रखे रहते हैं।
हरीश परसों से डॉक्टर सचदेव के क्लीनिक में आ रहा है। उसके पेट की आँतों में सूजन है। इतनी ज्यादा नहीं कि घंटा, पौन घंटा भर वेटिंग-रूम की बेंच पर बैठे होने पर कसमसाने लगे। हरीश आकर चुपचाप बैठ जाता है। अपनी बारी आने तक दो-एक सिगरेट फूँक लेता है और हिंदी रोज़मानचे का कोई पन्ना मिल जाने पर सरसरी तौर से कुछ खबरें भी पढ़ लेता है।
डॉक्टर सचदेव की दवाई से उसे निश्चय ही कुछ आराम पहुँचा है। इसलिए उसने सोचा है कि कुछ दिन टिककर इलाज करवाए। उसकी दो दिनों की दवाई अब खत्म है, इसलिए वह आज भी चला आया है। दिसंबर का तीसरा हफ़्ता लग गया है और सरदी ज़ोरों पर है। इसलिए अपने कमरे से क्लीनिक के लिए तैयार होते वक्त ऊनी स्वेटर के साथ गले में मफ़लर लपेट लेना भूला नहीं।
अपनी बारी के इंतज़ार में अभी कुछ मिनट ही बीते होंगे कि उसने देखा कि दरवाज़े से एक स्त्री अंदर आई है और उसने कंधे के साथ अपना बच्चा भी चिपका रखा है। वह स्त्री उसके निकट ही दूसरे बेंच पर आ बैठी।
स्त्री की त्वचा गंदमी रंग की थी। आँखें, नाक, होंठ सभी साधारण ही लगते थे। मुश्किल से चौबीस-पच्चीस की होगी। वस्त्र सादे ही थे मगर वे साफ़ नहीं थे। उन पर मैल और धब्बे भी दीखते थे। पैरों में पुरानी किस्म के सस्ते से चप्पल थे। उसने फीके बैंगनी-से रंग का शॉल भी ओढ़ रखा था।
बैठ जाने पर उसने अपने बच्चे को कंधे के साथ ही चिपके रहने दिया। शायद बच्चा सो रहा था। हरीश को ऐसे ही विचार आया कि इसे अपने बच्चे को गोद में डाल लेना चाहिए या फिर जाँघों पर लिटा लेना चाहिए। यह उसके लिए अधिक सुविधाजनक होगा। इस विचार को नज़रों में सहेजकर उसने स्त्री की ओर देखा।
स्त्री की नज़रें उससे दो-चार हुईं। झेंप उठने का प्रश्न नहीं था। डॉक्टर के क्लीनिक में आकर अपरिचित से स्त्री-पुरुष एक-दूसरे को देखकर झेंप उठना नहीं चाहते। कारण कुछ भी हो। लेकिन हरीश की नज़रों का भाव स्त्री समझ नहीं सकी।....और बच्चा कंधे से ही लगा रहा। हरीश इधर से ध्यान हटाकर और दूसरे बीमार लोगों को ओर देखने लगा।
सभी तरह के लोग थे...माँएँ, बाप, मर्द और बीवियाँ। कुछ ऐसे थे जो स्वयं बीमार नहीं थे, सिर्फ़ बीमार संबंधियों को लेकर आए थे। बीमार व्यक्तियों की मुद्राएँ स्पष्टतः कमज़ोर और बुझी हुईं दिखाई देती थीं। उनकी आँखों को देखकर उनकी दैहिक पीड़ा का अनुमान किया जा सकता था। बीमारी से जूझते रहने की गहरी-सी थकान और एक तरह की विवशता उन नज़रों में थी। वे लोग हँस नहीं रहे थे। ख़ामोश थे या फिर दबे-दबे कोई बात कर लेते।
कई बार डॉक्टर के कमरे से किसी बच्चे के चीख़ पड़ने या किसी वयस्क-कंठ से उमड़ आई कराहट की आवाज़ सुनाई दे जाती, जैसे उन्हें इंजेक्शन की सूई चुभोई गई हो। अगर बच्चे की रुलाई देर तक बनी रहती तो लगता उसके किसी फोड़े या घाव की मरहम-पट्टी की जा रही है। कई बार वेटिंग-रूम में भी कोई-न-कोई मरीज कराहता-सा सुनाई देने लगता, जैसे उसे इस बात का ख्याल ही न हो कि वहाँ और लोग बैठे हैं। उसकी कराहट से लगता जैसे बाहरी दुनिया का अस्तित्व है ही नहीं। जो भी यथार्थ है वह उसकी निजी पीड़ा में ही केंद्रित है। लोग कौतूहलवश कुछ क्षणों के लिए उसे देख लेते, फिर आत्मरत-से होकर अपनी-अपनी बीमारी के बारे में सोचने लगते।
हरीश अपने लिए भी कई बार सोचने लगता है। जब से होश सँभाला है, उसका स्वास्थ्य कभी ठीक नहीं रहा...थोडे़-थोड़े वक़्फे बाद बिगड़ जाता है या वह अपनी लापरवाही से स्वयं बिगाड़ बैठता है। क्योंकि अब तक चालीस का हो जाने पर भी उसकी जिंदगी में स्थायित्व नहीं आ सका। घर-बार से वंचित। माँ-बाप को परलोक गए एक युग बीत गया। सगे-संबंधी परवाह नहीं करते। दो-चार दोस्तों के सिवा इस दुनिया में ऐसा कोई नहीं जिसे वह अपना कह सके। खाना-पीना आज तक ढाबों पर ही चलता रहा है। अब किसी प्राइवेट कंसर्न में मामूली-सी क्लर्की मिल गई है। पहले कई सालों तक चपरासी भी रहा है।
उसने सुना था कि जब वह अभी डेढ़ वर्ष का ही था कि उसका माँ छाती में फूट आए कैंसर रोग से मर गई। माँ की कोई याद उसके पास नहीं। किंतु पिता की अवश्य है क्योंकि तब तेरह या चौदह साल का था जब पिता की अधिक शराब पीते रहने के कारण मौत हुई। किसी वकील के वे मुंशी थे। अकसर वे उसे बहुत ज्यादा प्यार करने लगते और बहुत ज्यादा पीटने भी लगते थे।
कई बार यह सोचकर एक टीसता-सा एहसास उसे विचलित कर देता है कि माँ की कोई याद उसके पास नहीं। अपने कमरे के एकांत में कभी अस्वस्थ हो जाने पर या कभी किसी कठिन-सी समस्या के बोझ से दबे होने पर उसने इस अभाव को महसूस किया है और उस समय भी किया है जब उसने किसी स्त्री को अपने बच्चे को गोद उठाए आते-जाते देखा है।
इस बार निकट बैठी हुई स्त्री की ओर उसने देख लिया। बच्चा अब कंधे से उतरकर गोद में आ गया था और अपनी बड़ी-सी आँखे पूरी तरह खोले हुए, अपरिचित-से वातावरण में आ जाने के कारण विस्मय या भय से बिटर-बिटर ताक रहा था। उसके पतले-से चेहरे में अस्वाभाविक-सा पीलापन था जिसे देखकर सहज ही उसके अस्वस्थ होने का अनुमान होने लगता।
स्त्री गरदन को झुकाकर बच्चे के चेहरे के निकट ही अपने चेहरे को किए थी। बच्चा मुश्किल से साल भर का होगा। पतले-से होंठ, माथे पर बाल और चमकती-सी बटन जैसी नाक। जिस्म पर मटमौला-सा स्वेटर लेकिन टागें नंगी थीं। स्त्री सतर्क-सी मुद्रा में उसे ताक रही थी। कुछ क्षण बाद बच्चे के होंठों में विकृत-सी कंपन हुई। कदाचित् यह रुलाई का संकेत था। स्त्री ने उसे थोड़ा-सा उठाकर अपने वक्षस्थल से लगा लिया और उसका मुँह वक्षस्थल की ओर करके उसके नितंबों को थपथपाने लगी। बच्चा कई क्षणों तक उस मुद्रा में बिलकुल संतुष्ट, शांत-सा पड़ा रहा...जैसे अतिरिक्त उष्णता की अनुभूति उसे हुई हो।
देखकर हरीश को ख्याल आया...याद नहीं पड़ता मेरी माँ ने ऐसा मुझसे कभी किया हो। अगर किया भी हो तो बहुत थोड़े समय के लिए ही। इसलिए वह वंचित है, भूखा है। माँ के दुलार-प्यार का उसे पर्याप्त सुख नहीं मिल सका।...लेकिन उस क्षण उस बच्चे के प्रति उसके मन में क़तई ईर्ष्या नहीं थी। वह उस अनुभव को महसूस कर लेना चाहता था जो बच्चा महसूस कर रहा था।
बच्चा अधिक देर उस अवस्था में संतुष्ट, शांत-सा पड़ा नहीं रह सका। वह अपनी टाँगें चलाने लगा, पहले धीमे फिर तेज़। हरीश को ख्याल आया, हो सकता है वह जिस रोग से पीड़ित है, वह उसे अस्थिर किए दे रहा है और अब किसी भी क्षण उसकी रुलाई फूट सकती है। लेकिन स्त्री उसे चूमने लगी। वह अपने गाल उसके गालों से छुआ देती। भाव-विह्वल-सी आँखों से उसकी ओर देखते हुए वह अपने होंठों से पुच-पुच जैसी ध्वन भी निकालने लगती।
देखते हुए हरीश अपने रोओं में एक विचित्र-सी गुदगुदी को फूटते हुए महसूस करने लगा। जैसे उस माँ के होंठ उसके होंठों से छुआए जा रहे हों और पुच-पुच की ध्वनि उसके अपने श्रवणों में घुलती जा रही हो। नज़रें उठाकर, इस बार अधिक खुलकर स्त्री की ओर देख लिया। स्त्री के देखने में किसी तरह की परेशानी...विरोध का भाव नहीं था। ऐसा खुलापन भी नहीं था जो उसके लाज-विहीन होने का संदेह पैदा कर सके।
उसके पहरावे से इतना तो स्पष्ट था कि वह गरीब थी। कलाई में काँच की चूड़ियों के सिवा उसके अंगों पर कोई भी गहना नहीं था। कान में सोने या चाँदी की मामूली-सी बालियाँ भी नहीं थीं। हो सकता है हरीश को ख्याल आया, कि जिस आदमी के साथ इसकी शादी हुई है वह बहुत ही गरीब व्यक्ति हो।...या वह इसे छोड़ चुका हो...या ? लेकिन इन सभी विचारों को ठेलता हुआ एक और विचार उठ आया कि यह स्त्री उसे बहुत अच्छी लगी है...अपने प्रति खींच रही है, और यह सब पहले उसने कभी किसी और स्त्री के प्रति महसूस नहीं किया। वह सोचने लगा कि उससे क्या कहकर बात करे।
कुछ क्षण बाद उसने पूछा, ‘‘यह बच्चा, साल-सवा साल का होगा ?’’
उत्तर मिला, ‘‘नहीं, दो साल का।’’
‘‘अच्छा !’’ हरीश ने इस भाव से यह कहा जैसे आश्चर्य से अधिक उसे क्षोभ हो, ‘‘काफ़ी कमज़ोर है।’’
‘‘हाँ’’, स्त्री का स्वर कारुणिक हो जाने के कारण हरीश को काफ़ी आकर्षक-सा सुनाई दिया, ‘‘बेचारा शुरू से ही कमज़ोर है।’’
हरीश कुछ और भी कहता लेकिन वह रुक गया। स्त्री की आँखों में, इसी तरह उसके चेहरे की पतली-सी झिल्ली में, जैसे कँपकँपाती-सी व्यथा डोल उठी हो। सचमुच यह बहुत ही बुरी हालत में हैं..हरीश का यह पूर्व अनुमान अब विश्वास में बदल रहा था।
उसे ख्याल आया कोई भी ब्याहता स्त्री किसी पर-पुरुष के आगे इस तरह निरीह-सी मुद्रा बनाकर पसीज उठना नहीं चाहेगी।...वह चाहता था कि उसके पति के बारे में कुछ पूछे। लेकिन यह बात उसे नामुनासिब-सी लगी।
उधर, माँ का ध्यान बँट जाने के कारण बच्चे को शायद बौखलाहट-सी हुई लेकिन स्त्री ने उसे रुलाई का अवसर नहीं दिया और फिर उसे अपने चेहरे के साथ लाकर दुलारने-सहलाने लगी। हरीश भी पूर्वस्थिति में लौट आया और अपने रोओं में उसी विचित्र-सी गुदगुदी को फूटते हुए महसूस करने लगा।
बच्चे को यथावत् संतुष्ट कर देने के बाद उस स्त्री ने हरीश से शिकायत की, ‘‘पता नहीं और कितनी देर लग जाए।’’
‘‘मेरा ख्याल है पंद्रह-बीस मिनट और।’’ फिर अपने में किंचित् आत्मीयता-सी लाकर हरीश ने कहा, ‘‘मुन्ना तो अब सँभल गया है। बिलकुल परेशान नहीं करता।’’
‘‘हाँ’’, स्वीकृति देकर उस स्त्री ने अपने मुन्ने की ओर देख लिया और कुछ सोचती-सी रह गई।
‘‘इसे क्या तकलीफ़ है ?’’
‘‘यह तो कुछ ठीक है’’, फीकी-सी मुस्कराहट में स्त्री के होंठ थोड़े-से खुले, ‘‘लेकिन कई दिनों से मेरी तबीयत ठीक नहीं। कुछ हरारत-सी रहती है।’’
हरीश को अपने भुलावे पर मन-ही-मन कुछ खेद-सा हुआ। वह बच्चे को बीमार और स्त्री को स्वस्थ समझ रहा था। वह अब गहराई से महसूस करने लगा कि यह स्त्री चौबीस-पच्चीस बरस से अधिक नहीं लगती। अगर वह सजी-धजी यहाँ आई होती तो वह उसके प्रति आकर्षित तो हो गया होता लेकिन उससे कोई बात कर सकने का उसे साहस न होता। लेकिन अब वह उसे समझ रहा था। अपरिचित होते हुए भी, उस दूरी को जो अपरिचित के साथ जुड़ी रहती है, वह इसे पर्याप्त सीमा तक किसी सूक्ष्म-सी अनुभूति के वश में आकर लाँघ गया है। आसपास उस क्षण भी बीमार लोगों की भीड़ उसी तरह जुड़ी हुई थी। कुछ लोग चले गए थे और कुछ और आ गए थे। अपने-अपने दुख से घिरी हुईं पहले जैसी मुद्राएँ जैसे कमरे के कैन्वेस पर चित्रित-सी दिखाई देती थीं।
‘‘मेरे पेट की आँतों में सोज़श है’’, वह उस स्त्री से कहने लगा, ‘‘दो दिनों से दवाई खा रहा हूँ और पहले से काफी आराम लगता है।’’
‘‘सोज़श ?’’ बहुत ज्यादा परेशान-सी होकर उस स्त्री ने पूछ लिया, आँखें आतंक से फैल गई थीं।
हरीश को उस स्त्री का उसके रोग के प्रति सहानुभूति प्रकट करना अच्छा ही लगा। उसने हँसते हुए उत्तर दिया, ‘‘नहीं-नहीं। अब मुझे काफ़ी आराम है। मैं बिलकुल ठीक हो जाऊँगा।...आप कहाँ रहती हैं ?’’
स्त्री ने बता दिया।
‘‘आप के शौहर..मेरा मतलब है क्या नाम है उनका ? क्या काम करते हैं ?’’ उसने आत्मीयता के आवेश में यह भी पूछ लिया।
कठिन, गहरी-सी ख़ामोशी। पूछी गई बात का उत्तर पाने के लिए कुछ क्षण की प्रतीक्षा के बाद उसने स्त्री की ओर देखा।
स्त्री का चेहरा अकस्मात् बदल गया था। चेहरे पर कई भाव उठते, काँपते-से दिखाई दिए। हरीश जो कुछ भी समझ सका उससे कुछ भी अंदाज़ लगा सकना सहज नहीं था। ‘‘क्या बात ? आप कुछ सोच रही हैं ?’’
उत्तर मिला, ‘‘वे तो अब नहीं रहे ! उन्हें गए सवा साल से ऊपर हो गया !’’
‘‘बहुत बुरा !....बहुत बुरी बात हुई !’’ हरीश के होंठों से निकला। वह चाहता था कि कुछ और भी कहे, इस परिस्थिति के अनुकूल। ज़हन पर दबाव-सा डालकर वह कुछ सोचता रहा। स्त्री चुप थी। उसे ख्याल आया कि वह कुछ सोच लेना चाहती है, कुछ सोच रही है।...और क्या, सोचती होगी बेचारी कि शादी के कुछ साल बाद ही विधवा हो जाना पड़ा और अब जिंदगी-भर का वैधव्य कैसे कटेगा ?..शायद वह यह भी सोचती हो कि कई दिनों से बीमार हूँ। अगर ठीक से इलाज न हुआ तो रोग भयंकर भी बन सकता है। ओफ़ ! अकेली जान और उस पर बच्चे का बोझ ! लेकिन हरीश को ख्याल आया वह स्वयं भी तो अकेला है, बीमार है अब और अधिक अकेलापान सहा नहीं जाता। वह इसका, जैसे भी हो, समाधान कर लेना चाहता है।
वह इन्हीं विचारों की उधेड़बुन में डूबा हुआ था कि उसने अपने न निकट साँवली, अधेड़ उम्र की नर्स की भारी-सी आवाज़ को सुना, ‘‘अंदर जाओ। अब तुम्हारा नंबर है।’’
तत्क्षण हरीश को स्मरण हो आया कि अब उसे क्या करना चाहिए। उसने स्त्री से कहा, ‘‘आप चली जाएँ। मैं आपके बाद चला जाऊँगा।’’
स्त्री ने बच्चे को कंधे से लगा लिया और उठने लगी। हरीश ने याचना के स्वर में उससे कहा, ‘‘बच्चा मुझे दे दीजिए। मैं सँभाल लूँगा। इसे साथ रखने में आपको मुश्किल ही होगी।’’
स्त्री दो-एक क्षण ठिठकी रही। फिर उसने बच्चा उसकी ओर बढ़ा दिया। हरीश की आँखों में मुस्कुराहट थी।
अब वह काफ़ी संतुष्ट-सी दिख रही मुद्रा में बच्चे को गोद में लिए बैठा है। बच्चा बिना पलकें झपकाए उसे देखता है जैसे पहचान रहा हो। हरीश को लगता है कि उसने कुछ पा लिया है, न केवल इस बच्चे को, इस बच्चे के माध्यम से कुछ और भी। उसके ज़हन में एक अस्पष्ट-सी तस्वीर है। फिर भी उसे अनुभव होता है कि इस तस्वीर के स्पष्ट हो जाने में अब अधिक देर नहीं।...इसे स्पष्ट किया जा सकता है। अब उसे अपने आसपास बीमार लोगों की बेबस, चिंता-कातर, मुद्राओं का बोझ महसूस नहीं होता। अब उसके थोड़े फासले पर कोई बूढ़ा व्यक्ति आ गया है और कराहने लगा है लेकिन वह उसकी ओर ध्यान नहीं देता।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book