लोगों की राय

कहानी संग्रह >> सिसकियाँ

सिसकियाँ

शोभा त्रिपाठी

प्रकाशक : ज्ञान गंगा प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5158
आईएसबीएन :81-88139-86-6

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

168 पाठक हैं

समाज के गर्भ से उत्पन्न समस्याओं पर आधारित कहानियाँ.

Siskiyan

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

‘दंश’ उपन्यास बहु प्रशंसित हुआ। सराहना भरे कई फोन व प्रतिक्रियाएँ मुझे मिलीं, जिससे लेखन के प्रति अभिरुचि और गहरी हुई। अभी कलम उठाकर पाठकों से रू-बरू होना चाहती ही थी कि अचानक कई सियासी परेशानियों ने मस्तिष्क को पंगु कर दिया। बहुत ही कठिन दौर से हमें गुजरना पड़ा। गाड़ी के दुर्घटनाग्रस्त होने पर शारीरिक क्षति उठानी पड़ी। उससे उबर भी नहीं पाए थे कि हमारा पूरा परिवार सियासी षड्यंत्रों के जाल में फँस गया। उस गहरे मानसिक आघात के कारण मुझे अपने परिवार को बचाने के लिए प्राणपण से जूझना पड़ा। अवसर और अफसर का एक नया चेहरा हमारे सामने था। कई प्रयासों से हम मानसिक यंत्रणा से बाहर आए। रहीम के दोहे का सच हमारे सामने उजागर था-


रहिमन विपदा हूँ भली जो थोड़े दिन होय।
हित अनहित या जगत में जान परत सब कोय।।


दोष मुक्त होने पर भी लोगों की चुभती निगाहों का सामना हम लोगों को करना पड़ा। रिश्तेदारों की झूठी सहानुभूति के तीर हृदय पर झेलने पड़े। मन-मस्तिष्क पीड़ा से कराह उठा। उस समय माँ व पत्नी का दायित्व निभाने के लिए कलम को एक तरफ कर दिया। समय बदला, स्थिति सामान्य हुई। सबकुछ पहले जैसा हो गया, नहीं हो पाया तो वह थी मेरी हृदय की पीड़ा, जो जब-तब रिसने लगती है। शायद लेखिका होने के कारण, जो दूसरों के दर्द को भी समझती है, उसे अपने ही दर्द से निजात पाने में न जाने कितना समय और लग जाएगा। विगत वर्षों में लोगों के असली चेहरे हमने देखे। वहीं बहुत से सच्चे हितैषी भी मिले। उन सबका मैं आभार प्रकट करती हूँ।

‘सिसकियाँ’ कहानी नारी की उस दशा का वर्णन है, जब वह ममत्व की चाह व शारीरिक कामना के वशीभूत हो जाती है और हर पल छली जाती है। अंत में वह अपनी स्थिति का आकलन अपने बेटे पर छोड़ देती है।
‘मौन’ कहानी स्वयं के मौन से जूझती एक स्त्री की कहानी है। पहले तो मौन वह हँसी-खेल में धारण करती है, बाद में वही मौन उसके जीवन का एक अंग बन जाता है।
‘कब्ज़ा’ कहानी वर्तमान समय में जबरन भू-संपत्ति व अचल संपत्ति पर होनेवाले कब्जे का एक समाधान प्रस्तुत करती है। वास्तव में इस कहानी की रचना ट्रेन में मिले एक युवा दंपती के साथ घटी वास्तविक घटना को सुनकर की गई है। पर वे लोग अपनी संपत्ति को यों ही अपनी माँ के हत्यारों को सौंपकर चले गए। उनकी मजबूरी बहुत दिनों तक मुझे मथती रही कि आखिर भले लोगों की इस समस्या का समाधान क्या है ? इसी तरह अन्य कहानियाँ समाज के गर्भ से उत्पन्न समस्याओं पर आधिरत हैं।

मुझसे लोग पूछते हैं कि आपके मानस में ये कहानियाँ कहाँ से आती हैं ? मैं लोगों को जवाब देती हूँ, अपने आस-पास से ही बिखरी कहानियों को मैं समेटती हूँ। कभी जो लोगों के लिए मात्र एक कथन या खबर होती है, कहानी-लेखक के लिए वह कहानी बन जाती है। बस, चाहिए एक संवेदना भरा हृदय। लेखक अगर संवेदना से परिपूर्ण है, लोगों के दर्द को अपना दर्द समझता है तो लोग तो मात्र एक जीवन के सुख-दुःख जीते हैं, पर सच्चा लेखक अपने हर पात्र के साथ जीता-मरता है और एक जन्म में ही न जाने कितने जन्मों को जीता है।

लेखक व कहानी को जो आधार प्रदान करता है वह है हमारा पाठक वर्ग। यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि दूरदर्शन व मनोरंजन के कई साधन होते हुए भी पुस्तकों के प्रति लोगों की अभिरुचि कम नहीं हुई है। इसका पता हमें आयोजित पुस्तक मेलों की सफलता से लगता है। ऐसे पाठकों को हम लेखकों की तरफ से साधुवाद। ऐसे ही जिज्ञासु पाठकों के समक्ष अपना नवीन कथा-संग्रह ‘सिसकियाँ’ प्रस्तुत करते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा है। इसमें नौ कहानियों का संग्रह है। मैं अपने प्रयास में कहाँ तक सफल रही हूँ, यह आप पाठकगण ही बता पाएँगे। आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा में-
शोभा त्रिपाठी

सिसकियाँ


शिप्रा अभी अर्धनिद्रा में ही थी कि काकी की घबराई आवाज ने उसकी तंद्रा को भंग कर दिया-‘‘शिप्रा, जल्दी उठो ! देखो, तुम्हारी बुआ को क्या हो गया है ? शायद अब वह नहीं बचेगी।’’ काकी को यूँ ही सुबकती छोड़कर शिप्रा बदहवास-सी बुआ के कमरे में भागी। कमरे के दरवाजे पर आकर, बुआ को आँखें खोले शून्य में ताकते हुए देखकर उसे कुछ राहत हुई। बुआ का पीला, क्लांत, थका शरीर शिप्रा को सामने देखकर पल भर के लिए जीवंत हो उठा। हाथ के इशारे से शिप्रा को अपने पास बुलाया। शिप्रा रोती हुई बुआ से लिपट गई। बुआ ने उखड़ती साँसों से शिप्रा से कहा, ‘‘बेटी, मेरे पास ज्यादा समय नहीं है। मैं जो कह रही हूँ उसे ध्यान से सुनो।’’

काँपते हाथों से अपने तकिया के नीचे से चाबी निकालकर शिप्रा को दी और अलमारी के एक गुप्त खाने से शिप्रा द्वारा एक लाल डायरी मँगवाई। शिप्रा यंत्रवत् बुआ के निर्देशानुसार कार्य संपादित करती रही, लेकिन डायरी देखकर वह भी उत्सुकता से भर आखिर पूछ ही बैठी, ‘‘बुआ, इस डायरी में क्या है ?’’ बुआ ने वह डायरी शिप्रा को देते हुए कहा, ‘‘शिप्रा, इसमें मेरे जीवन का वह सच है जो मैंने सिर्फ तुम्हें सौंपा है। मेरी मृत्यु के बाद, विषम परिस्थितियों में ही इसके पन्नों को पलटना और इस तूफान को अपने तक ही सीमित रखना। इसे किसी के हाथ नहीं लगने देना। जाओ, पहले इसको किसी सुरक्षित स्थान पर रख आओ।’’

शिप्रा भागकर अपने कमरे में गई और डायरी को छिपाकर पुनः बुआ के कमरे में आई। बुआ आँखें खोले अब भी शून्य में ताक रही थीं; लेकिन अब वे आँखें स्पंदनहीन हो चुकी थीं। शिप्रा दहाड़ मारकर रोने लगी। पल भर में सभी को पता लगा गया कि प्रिया देवी का निधन हो गया। पूरे घर में मातम छा गया। शिप्रा अश्रुपूरित आँखों से बुआ के एकाकी व अभिशप्त जीवन को चलचित्र की भाँति देखती रही, क्योंकि वही तो थी जिसने बुआ के जीवन के हर पहलू को जाना-समझा था। बुआ के दर्द की एकमात्र साक्षी वही थी।

आज बुआ की मृत्यु पर पूरा घर किस तरह आँसू बहा रहा है ! ये वही लोग हैं जो बुआ के रहने पर यह भी पूछने नहीं आते थे कि वह जिंदा भी हैं या मर गईं। कहने को तो बुआ का भरा-पूरा परिवार था-देवर, ननद, उनके बच्चे। मायके में भाई-भावज, बहन-बहनोई-सब थे, लेकिन वे भी परायापन लिये, जो मात्र दिखावे के लिए कभी-कभी आ जाया करते थे। लेकिन शिप्रा ही नि:संतान बुआ की एकमात्र आस थी। फूफा की मृत्यु के बाद ही बुआ उसे अपने साथ ले आई थी। बड़े उद्योगपति घराने की मालकिन की मृत्यु हुई थी, इसलिए प्रदर्शन के लिए बड़े-बड़े शोक आयोजन तेरह दिन तक होते रहे। अखबारवाले, मीडियावाले भी छाए रहे। लेकिन तेरहवीं के बाद बुआ की वसीयत ने लोगों के चेहरों पर चढ़े नकाबों को उतार दिया।

तेरहवीं के पश्चात् घर के हर चेहरे पर अनचाही खुशी की चमक शिप्रा से छिपी न रह सकी, क्योंकि आज ही प्रिया बुआ की वसीयत पढ़ी जाने वाली थी। सब यही समझकर खुश हो रहे थे कि आखिर नि:संतान विधवा घर की संपत्ति घरवालों को ही देकर जाएगी। इन लोगों का यह घृणित रूप देखकर शिप्रा का वहाँ बैठना मुश्किल हो गया। वह अपने कमरे में चली आई। घर में उठते तेज, क्रोध भरे स्वरों ने उसको वापस लौटने को मजबूर कर दिया। जब शिप्रा वहाँ पहुँची तो बुआ की मृत्यु पर सबसे ज्यादा आँसू बहानेवाले बुआ के देवर क्रोध भरे शब्दों में बुआ को चरित्रहीन व कुलच्छिनी कह संबोधित कर रहे थे। मातम क्रोध में बदल गया था। घर में बुआ पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला चल पड़ा था।
बुआ की ननद सुबकती हुई कह रही थी, ‘‘भाभी के ये लक्षण, कितनी बड़ी घाघ थी ! ऑफिस के बहाने रँगरलियाँ मनाती रही और पता नहीं क्या-क्या गुल खिलाए हों।’’

शिप्रा अचरज में खड़ी सभी का निकलता गुबार देखती रही। जब उससे नहीं रहा गया तो आखिर वह चीख ही पड़ी-‘‘आप लोग क्यों मेरी बुआ के पीछे पड़े हैं ? क्यों उनके लिए गंदी-गंदी बातें कह रहे हैं ? मेरी बुआ बहुत अच्छी थीं मैं जानती हूँ। आखिर ऐसा क्या हो गया, जो आप लोग मर्यादाहीन हो रहे हैं ?’’
तभी बुआ के देवर की बड़ी बहू शिप्रा के पास हाथ नचाती हुई बोली, ‘‘तो तुम भी जान लो अपनी बुआ के लक्षण। वकील साहब, इस बुआ की लाडली को बुआ की वसीयत सुना दो।’’

शिप्रा प्रश्नवाचक निगाहों से वकील की तरफ देखने लगी। वकील साहब ने संक्षेप में सुनाया कि प्रिया देवी ने अपनी सारी चल व अचल संपत्ति पूरे होशो-हवास में अपने मैनेजर सावन कुमार के पुत्र यश के नाम कर दी थी। कुछ संपत्ति में शिप्रा को भी हिस्सेदार बनाया था। वकील साहब की बात अभी अधूरी ही थी कि शिप्रा पर चारों ओर से वाक्य-बाण चलने लगे। शिप्रा भी हैरान थी कि बुआ को यह क्या सूझी, क्योंकि यह सच है कि अकारण ही 16 हजार करोड़ की संपत्ति कोई किसी को यूँ ही नहीं दे देता। यश व बुआ में क्या संबंध है ? शिप्रा ने कभी बुआ के बारे में ऐसा नहीं सोचा था। शिप्रा ने अपने को शब्दहीन समझ मन-मन भर भारी हो गए पैरों की छिसटती वहाँ से चली गई।

पर लोगों का अनर्गल प्रलाप बंद नहीं हुआ। शिप्रा कमरे में आकर बेजान हो बिस्तर पर गिर पड़ी। वह जितना मंथन करती उतना ही अपने मस्तिष्क को मथा हुआ पाती। तभी बुआ की आखिरी थाती लाल डायरी उसके जेहन में कौंध उठी। शिप्रा को बुआ के कहे अंतिम शब्द याद आने लगे। उसे लगा-हो न हो, उसके सारे सवालों का जवाब वही लाल डायरी है। वह बिजली की तेजी से उठकर लाल डायरी में छिपे बवंडर का सामना करने के लिए स्वयं को तैयार करने लगी। आखिर उसने ज्वालामुखी का मुहाना कुरेदकर खोल ही दिया और इबारतों पर अपनी निगाहें फिराने लगी।

चंचल हिरनी-सी कुलाँचें भरती सत्रह वर्षीया बाला प्रिया घर में प्रवेश करती है। आधुनिक वस्त्रों से सजा उसका यौवन ज्यादा ही मुखारित हो उठा था। उसकी चपल शरारत भरी शोख आँखें मानो अपनी चितवन से किसी को घायल करने के लिए प्रयत्नशील सी मालूम हो रही थीं। अपने में ही खोई थी कि माँ ने आकर उसका माथा चूम लिया-‘बिटिया, कितनी भाग्यशालिनी है तू ! पता है, शहर क्या देश के धनाढ्य घरानों में से एक रायचंद्र के यहाँ से तेरा रिश्ता आया है। माँ अपनी ही रौ में बही जा रही थी। बार-बार बेटी की बलाएँ ले रही थी कि बेटी के विद्रोह स्वर ने उनके दिवास्वप्न को तोड़ दिया।
‘मैं अभी शादी नहीं करूँगी, मैं अभी और पढ़ना चाहती हूँ।’

माँ ने उसे समझाते हुए कहा, ‘क्या बार-बार ऐसा रिश्ता आएगा ?’
‘न आएगा तो न सही।’ कहकर प्रिया कमरे में जा छुपी।
माँ तड़पकर अपने आखिरी संबल के पास दुखड़ा सुनाने पहुँच गई-‘पता नहीं अपने को क्या समझती है ये छोकरी ! अभी ब्याह नहीं करना, ऐसा घर-वर चिराग लेकर ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेगा। कोई अपने भाग्य को अपने हाथों से बार दे तो कोई क्या करेगा।’

पत्नी की बड़-बड़ सुनकर आजिज आ प्रिया के पिता बोले, ‘‘मान जाएगी, चिंता मत करो। सुरेश रायचंद्र का सुदर्शन व्यक्तित्व और सरल स्वभाव देखकर कौन मना कर सकता है।’
सहेलियों की छेड़छाड़, माँ के मान-मनौवल तथा पिता की हृदय चीरती दृष्टि को प्रिया कब तक अपने मर्मस्थल पर झेलती। आखिर सर्वेच्छा को मान देकर वह विवाह के लिए स्वयं को तैयार करने लगी। लेकिन वह एक बार अपने होने वाले पति से अवश्य मिलना चाहती थी। पिता ने उसकी इच्छा पूरी करने के लिए सुरेश को घर पर आमंत्रित किया।

प्रिया से ज्यादा प्रिया की सहेलियाँ सज-सँवरकर आई थीं और सुरेश के सुदर्शन व्यक्तित्व पर बार-बार न्योछावर हुई जा रही थीं। प्रिया सुरेश की बेचैनी और घबराहट का आनंद ले रही थी। प्रिया की सहेलियों की छेड़छाड़ से वह घबरा-से गए थे कि प्रिया की माँ ने सभी को वहाँ से बुलाकर उनको इस विषम परिस्थिति से उबार लिया। कमरे में रह गए प्रिया और सुरेश। प्रिया ने कनखियों से देखा तो सुरेश के मस्तक पर जल-कणों की लड़ी-सी बह निकली। उनके इसी सीधेपन पर रीझकर प्रिया ने ‘हाँ’ कर दी। सुरेश के होंठ जैसे कुछ कहना चाह रहे थे, पर प्रिया की लजीली मुसकान व लावण्य को देखकर उनके होंठ मानो थरथराकर संकुचित हो गए और एक मूक संबंध दोनों में स्थापित हो गया।

आखिर वह दिन भी आया जब प्रिया ब्याहकर ससुराल आ गई। ब्याह की रस्म निभाते हुए उसे एक अनछुई कसमसाहट ने घेर रखा था। आखिर मिलन की घड़ियाँ आ ही गईं। बड़े धनाढ्य खानदान की बहू के अनुरूप उसका साज-श्रृंगार किया गया। घर में बड़ी बहू का दर्जा उसे स्वतः ही प्राप्त हो गया था। दोनों छोटे देवर व छोटी ननद उसके इर्द-गिर्द ही मँडरा रहे थे कि दूर की चाची की मीठी झिड़की ने उन्हें वहाँ से हटा दिया। प्रिया को सजे विशाल कक्ष में बिठाकर सभी महिलाएँ वहाँ से चली गईं। तब हँसी-ठिठोली करती महिलाओं के एक दल ने सुरेश को कमरे में ढकेलकर दरवाजा बाहर से बंद कर दिया। प्रिया सुहाग-सेज पर घूँघट निकाले अपने में सिमटी घड़कते दिल से अपने प्रियतम के प्रथम स्पर्श का इंतजार करती रही। उसको इंतजार मिनटों से घंटों में तब्दील हो गया।

एक ही मुद्रा में बैठे-बैठे उसका शरीर जकड़ने लगा और मन की अकुलाहट बढ़ने लगी। उसने घूँघट की ओट से देखा कि सुरेश सोफे पर लेटे हैं। अपनी सारी नारी सुलभ लज्जा को छोड़कर वह स्वयं सुरेश के पास अभी पहुँच भी नहीं पाई थी कि एक सर्द आवाज ने उसके पैरों को जमा दिया-‘मैं थक गया हूँ, तुम भी जाकर सो जाओ।’
प्रिया आँखों में आँसू थामे सुहाग की जलती शय्या पर लौट आई और उसके आँसू शय्या पर बिछे फूलों में समाने लगे। आखिर में मन को समझाने लगी कि शायद सच में ज्यादा थक गए हों। तन-मन से थकी शरीर की गठरी बिस्तर पर सिमट गई।

अर्धनिद्रा व बेचैनी ने प्रिया को सारी रात अपने शिकंजे में जकड़े रखा। पौ फटने के साथ ही प्रिया बिस्तर से उठ बैठी। एक खोजी दृष्टि पति पर डाली, जो सोफे पर सो रहे थे; लेकिन सोते हुए भी चेहरे पर तनाव की छाप स्पष्ट थी। प्रिया बाथरूम के शॉवर के नीचे खड़ी हो अपने दहकते हुए शरीर को जल की फुहारों से शीतल करने लगी। जब वह नहाकर उठी तो दरवाजे को खटकता पाया। सुरेश भी उठकर कहीं चले गए थे। सामने खड़ी नौकरानी को वापस भेजकर प्रिया स्वयं तैयार होने लगी। निर्जीव-से हो गए शरीर को वह श्रृंगार द्वारा सजीव बनाने पर तुल गई। लेकिन मन के रीते कोने में वह कैसे रंग भरेगी। उसका जी चाहा कि वह चीख-चीखकर अपने मन का गुबार निकाल दे। मुँह से मात्र सिसकी ही निकलकर कमरे की नि:शब्दता को भंग कर अनंत में विलीन हो गई।

यंत्रवत् सी चलती प्रिया बाहर आई तो कई शरारत भरी आँखों ने उसे घेर लिया और उसके अंग-प्रत्यंग का निरीक्षण करने लगीं। ननद हाथों पर पड़ी हीरे की नई अँगूठी, जो वह मायके से ही पहनकर आई थी, देखकर चहककर बोली, ‘भाभी, ये रात में भैया ने दी है न !’ वह किंकर्तव्यविमूढ़-सी बैठी जीवन में आए इस नए अध्याय को पढ़ने का प्रयास करने लगी। मस्तिष्क शून्य सा हो गया, मानो शब्दों ने उसके कानों में जाने से इनकार कर दिया। सबकी सम्मिलित हँसी भी उसके मन को नहीं गुदगुदा पाई, क्योंकि उसकी मनोदशा को कोई नहीं समझ पा रहा था। तभी देवर ने उसके हाथों में प्लेन के दो टिकट थमा दिए कि वह और भैया हनीमून के लिए यूरोप की सैर पर जा रहे हैं। वह खोखली-सी हँसी हँस पड़ी। वाह ! यहाँ सुहागरात मने बिना ही वह हनीमून के लिए जा रही है।

दो दिन बाद की फ्लाइट थी। प्रिया की आगामी दोनों रातें भी पहली रात की तरह ही बीत गईं। सुरेश आते, मुँह फेरकर सोकर चले जाते और वह आग-से दहकते बिस्तर पर अपने तपते शरीर को गलाती रहती। अब वह अच्छी तरह से जान गई थी कि कहीं तो कुछ-न-कुछ बात अवश्य है। शायद हनीमून पर यह बात खुल जाए। एक-एक पल वह अपने हृदय में आशा की नई किरण भरती, अगले ही पल उसको डूबते हुए देखती। इसी मन:स्थिति में वह यूरोप रवाना हुई। यूरोप में सुरेश उसे दिन में घुमाते, जगह-जगह के बारे में विस्तार से बताते, उसके खाने-पीने का ध्यान रखते; लेकिन उसकी जिज्ञासा का जवाब वह न दे पाते। प्रिया

रात को नित नवीन श्रृंगार करके पति को रिझाने का प्रयास करती। सुरेश उससे उतनी ही बेरुखी दिखाते। अंत में प्रिया ने विवश हो अपना नारी सुलभ आवरण उतार फेंका, स्वयं ही निद्रा में मग्न पति को आलिंगनवद्ध कर लिया और अपने दग्ध शरीर को सुरेश के हवाले कर दिया।
थोड़ी देर सुरेश प्रिया के आलिंगन में लिपटे रहे फिर उन्होंने प्रिया से स्वयं को मुक्त करते हुए कहा, ‘यह क्या कर रही हो ?’
प्रिया तड़प उठी-‘जो तुम्हें करना चाहिए। मैं क्या करूँ, मुझमें क्या कमी है जो आप मुझसे दूर-दूर भागते हैं ?’ प्रिया के आँसू फूटकर उसके शरीर की तपिश में भस्म होते रहे।
तभी एक ठंडी सी आवाज उसके कानों में पड़ी, ‘कमी तुममें नहीं प्रिया, मुझमें है। मैं तुम्हारे क्या किसी भी औरत के लायक नहीं। मैं तुम्हारा अपराधी हूँ।’

प्रिया के दहकते शरीर पर मानो किसी ने ठंडा पानी डाल दिया हो। फिर वह चीखकर बोली, ‘फिर मेरी जिंदगी बरबाद क्यों की ?’
सुरेश-‘मैं घरवालों को अपनी इस कमजोरी के बारे में नहीं बता सका, अब अंतिम फैसला मैं तुम्हारे ऊपर छोड़ता हूँ।’
प्रिया-‘ठीक है, अब मैं आपके साथ नहीं रहूँगी। मैं यहाँ से ही अपने मायके चली जाऊँगी।’
सुरेश-‘जैसा ठीक समझो।’

दूसरे ही दिन प्रिया भारत लौट आई। एयरपोर्ट से ही अपने मायके जा पहुँची। वह बिफरी-सी अपने घर पहुँची। घर के सभी सदस्य पहले तो उसको देखकर प्रसन्न हो उठे, फिर कई जोड़ी निगाहें उसके बगल में गड़ने लगीं।
‘मैं अकेली ही आई हूँ।’ कहकर प्रिया तेजी से अपने कमरे की ओर भाग गई। घर में सभी लोग अनजानी आशंका से थरथरा उठे। प्रिया की माँ फौरन प्रिया के पास पहुँची। प्रिया उन्हें देखकर उनसे लिपटकर फूट-फूटकर रो पड़ी।
माँ-‘प्रिया, क्या बात है ? कुछ तो बता ?
प्रिया-‘माँ, मैं अब वहाँ नहीं जाऊँगी। मैं वहाँ नहीं रह सकती।’

‘माँ-‘क्या ससुराल में किसी ने कुछ कहा ?’
प्रिया-‘नहीं माँ, मैं आपको बता नहीं सकती।’
माँ का वात्सल्य धीरे-धीरे क्रोध में बदलने लगा-‘यह बात नहीं, वह बात नहीं, तो अपना घर छोड़कर यहाँ क्यों आई ?’
प्रिया भी क्रोध में भरकर बोली, ‘तो सुनो माँ, आपके दामादजी मुझे कभी माँ नहीं बना सकते। वह नपुंसक हैं, नपुंसक।’
माँ सकते में आ गई और चुपचाप कमरे से बाहर चली गई। फिर आधी रात को माँ पुनः प्रिया के कमरे में दाखिल हुई-‘प्रिया, मुझे तुमसे कुछ बात करनी है। अब आगे तुमने क्या सोचा है ?’
प्रिया-‘मैं यहीं रहूँगी और नौकरी करके जीवन बिता दूँगी।’

माँ-‘बेटा, सोचो जरा, क्या तुझे वह सम्मान यहाँ मिलेगा ? लोगों को जब सबकुछ पता चलेगा तो सुरेश इस शर्मिंदगी को शायद न झेल पाए। पूरा खानदान एक मजाक बनकर रह जाएगा। खैर, तू उनकी छोड़, तेरी भी क्या जिंदगी होगी। भैया-भाभी ही तुझे बोझ समझेंगे। रही बात नौकरी करके अकेले रहने की, वह इतना आसान नहीं। राह चलते शोहदे तेरे पर फब्तियाँ कसेंगे और भेड़िए की खाल ओढ़े आदमी गंदे-गंदे प्रस्ताव तेरे पास भेजेंगे। बेटी, तुम उनका सामना नहीं कर सकोगी। बाकी तू खुद समझदार है।’

प्रिया के कानों में माँ के शब्दों के साथ कई चित्र आँखों के आगे नाच उठे-‘फंदे से झूलता सुरेश का शरीर’, ‘तेरा पति तेरे लायक नहीं। चल, मेरे साथ चल, मैं तुझे खुश कर दूँगा।’-कई ताने प्रिया के जेहन को मथने लगे। प्रिया स्वयं ही बुदबुदा उठी-‘यही ठीक रहेगा, मैं अपनी सिसकियों को हमेशा के लिए अपने हृदय में दफन कर लूँगी।’ मर्यादा में बँधी प्रिया किसी से कुछ न कहकर जिस प्रकार मायके आई थी उसी प्रकार लौट गई। प्रिया को वापस आया देखकर सुरेश ने आगे बढ़कर उसका स्वागत किया। सुरेश ने घरवालों को प्रिया की तबीयत खराब होने का बहाना बना थमा दिया था। षायद वह भी जानते थे कि प्रिया वापस लौट आएगी। वह प्रिया के पास आकर बैठ गए-‘प्रिया, मुझे गलत मत समझो।

मैं तुमसे वादा करता हूँ कि मैं अपने अपराध का प्रायश्चित करूँगा।’ प्रिया के सिर पर हाथ फेरकर वह चले गए। अपने अंदर के क्रोध को उसने स्वयं पी लिया। प्रिया के सामने धीरे-धीरे सुरेश का दूसरा रूप उभरने लगा, जो बहुत ही सुहृदय और भावुक अभिभावक का था। सुरेश उसकी छोटी-से-छोटी जरूरतों का ध्यान रखते, उसका मन बहलाने का प्रयास करते। पर पति व ससुराल का भरपूर प्यार मिलने पर भी प्रिया का मन रोता ही रहा। हाँ, मन के किसी कोने में सुरेश ने अपना स्थायी स्थान बना ही लिया। प्रिया भी सुरेश से खुलने लगी। सुरेश ने स्वयं को और ज्यादा कामों में व्यस्त कर लिया। फिर सुरेश कुछ अस्वस्थ रहने लगे। शायद मन के अपराध-बोध ने उनके खोखले शरीर को और खोखला कर दिया।

एक दिन सुरेश बोले, ‘प्रिया, अब तुम रोज मेरे साथ ऑफिस चला करोगी।’ प्रिया तैयार होकर ऑफिस के लिए चल पड़ी। वहीं उसकी मुलाकात सुरेश की कंपनी के मैनेजर सावन कुमार से हुई। सावन एक आकर्षक व्यक्तित्व का नौजवान था।

प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai