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जीवन कथाएँ >> नूरजहाँ

नूरजहाँ

गोविन्द वल्लभ पंत

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :244
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5168
आईएसबीएन :000

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एक श्रेष्ठ उपन्यास...

Noorjahan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कुछ पंक्तियाँ

आरम्भ में मैंने नाटककार के रूप में ही हिन्दी में लिखना शुरू किया था। तब हिन्दी में नाटककार बहुत कम थे। क्योंकि अभिनेय नाटकों के लिए रंगमंच और प्रेक्षागृह का अभिज्ञान आवश्यक था। सन् 1920 ई. में मुझे मेरठ की व्याकुल भारत नाटक की व्यावसायिक कम्पनी में नाटक लेखक की नियुक्ति मिल गई थी। मैंने उनके सुप्रसिद्ध नाटक बुद्धदेव में सहयोग दिया। फिर न्यूअल्फ्रेड नाटक कम्पनी में नाटक द्रौपदी-स्वयंवर में भी। फिर मैं अधिक समय तक नाटक के अभिलेख को जारी नहीं रख सका। क्योंकि नाटक के रंगमंच पर सिनेमा ने अपनी छाया डालनी आरम्भ कर दी थी। और कुछ समय बाद मुखर होकर वह सर्वग्रासी हो गया। रंगमंच की यवनिका पर उसने अपना रजतपट फैला दिया।

शिक्षा-क्रम में भी तब नाटकों की कोई आवश्यकता नहीं उपजी थी, न ही रेडियो में भी। प्रकाशक भी उपन्यास ही छापना चाहते थे। तब मैंने भी उपन्यास ही लिखना आरम्भ किया। उपन्यास लिखना नाटक लिखने से सरल होता है। मेरी लेखनी चल पड़ी। यह नूरजहाँ 1945 में लिखा था। पाठकों ने इसे सराहा था, पर इसका प्रकाशन बन्द हो जाने से यह दुष्प्रभाव था। ‘आर्य बुक डिपो’ ने इसे नई रूप-सज्जा में छापकर हिन्दी के बढ़ते हुए पाठकों के लिए सुलभ कर दिया। आशा है उनका मनोरंजन हो सकेगा।

गोविन्दवल्लभ पंत


1
ऐसे उड़ गया !


‘‘नहीं मेहेर, उधर न जाओ।’’
दासी का वर्जन पाकर वह उदीयमान यौवना, चपला सहम उठी। बिजली सी यह विचारधारा उसके मानस में चमक उठी, ‘बकने भी दो, अपने ही भय से बुझी हुई इस दासी की लड़की को। यह जान क्या सकती है मेरे रूप के स्वप्नों को। सम्राट् का कोई निशेध नहीं है यहाँ पर। हम उनके राजभवन के बाहर हैं।’ उस सुन्दरी ने साहस एकत्र किया। एक अज्ञात आकांक्षा से खिंची हुई वह आगे बढ़ी। उसने दासी के अनुरोध की उपेक्षा कर दी।

सम्राट् अकबर के राजप्रासाद के सिंहद्वार के बाहर द्वारपाल की एक छोटी कुटिया थी। उसमें वह अपने परिवार के साथ रहता था। दासी तेहरान से नवागत मिर्जा की लड़की थी। वह संभ्रात पर आर्थिक संकटों में घिरा हुआ साहसी मनुष्य; अपने गिरि, वनों, मरु और सरिताओं को पार करता हुआ इतनी दूर भारतवर्ष में चला आया था, मुगल सम्राटों के उस विश्व राज्य की देश-देशांतर में फैली हुई कीर्ति को सुनकर। उसकी स्त्री का वियोग हो गया था। एक पुत्र और एक कन्या उसके साथ थे। दोनों की अवस्था विवाह के योग्य थी। मिर्जा ने फिर विवाह नहीं किया। अकबर की स्त्री से उसका पीहर का संबंध है।

निकट ही एक छोटे से सरोवर में अन्तःपुर के कुछ प्रतिपालित कपोत क्रीड़ा कर रहे हैं ! सरोवर के चारों ओर संगमर्मर के चबूतरे ओर सोपान पंक्तियाँ बनी हुई हैं। कुछ कपोत जल में स्नान कर रहे हैं और कुछ चबूतरों पर खेल रहे हैं। उस नवयुवती का मन उधर ही खिंचा हुआ था। उसने अपनी कल्पना में यह ठान लिया था कि एक दो कबूतर पकड़कर वह अवश्य ही अपने घर ले जावेगी, और उन्हें अपना सहचर बनावेगी वह अपने हृदय में कहने लगी-‘सम्राट् के हैं, तो क्या हुआ। अनगिनती यहीं पर हैं। भीतर राजभवन में और न जाने कितने होंगे। क्या कमी पड़ जायगी, यदि दो कबूतर मैं अपने साथ ले गई तो ! कौन देखता है ?’

परन्तु, देख रहा था युवराज सलीम। सिंहद्वार के परकोटे पर चढ़ा हुआ सलीम। लगभग पच्चीस-छब्बीस वर्ष की कच्ची आयु का वह राजकुमार, जिसके हृदय में उद्दाम यौवन की लालसाएँ अनेक सुप्त और अधिकांश जागती हुई थीं। वह देख रहा था, उस एक अपरिचित नारी को। प्रथम दर्शन ही में सलीम उसकी ओर बलात् आकृष्ट हो गया-‘कौन है यह ? एक-एक अंग मानो रूप की चरम आदर्श साँचे में ढला हुआ ! एक-एक चेष्टा मानो माधुरी का उद्गम स्रोत हृदय में गड़कर वहाँ गढ़ बना लेने वाला। इसकी छवि अलौकिक है। वेशभूषा से भी यह किसी संभ्रांत कुटुंब की जान पड़ती है, फिर यह हमारे राजभवन में क्यों नहीं आई ? पहले कब देखा मैंने इसे ? नहीं, आज ही, यहीं तो पहली बार है।’ सलीम परकोटे पर से उतरने लगा।
‘‘शिशु-अवस्था में ही माता मर गई इसकी।’’ दासी ने कहा।

‘‘भाई की आयु कितने वर्ष की है ?’’ द्वारपाल की स्त्री ने पूछा।
‘‘होगा कोई इक्कीस-बाईस साल का, इससे चार-पाँच वर्ष बड़ा।’’
‘‘बड़ी सुन्दर, रूप और लक्षणों से युक्त है यह कन्या।’’
‘‘अभी देखा ही क्या है तुमने इसे। जिस कौशल से यह समस्त गृहस्थ का काम करती है, मैं तो देख-देखकर विस्मत मूक हो जाती हूँ।’’
‘‘गृहस्थ ही क्या हुआ ? पिता, पुत्र और लड़की।’’

‘‘काम तो हुए ही सब। खाना-पीना, स्वच्छता सजावट धरना-ढकना स्नान श्रृंगार, साधु अतिथि, सभी तो हुए ही। छोटा बालक नहीं है एक घर में। दासी केवल एक मैं हूँ, सब कुछ यह अपने हाथ से करती है। किसे देखा इसने ? किसने सिखाया इसे यह सब ?’’
‘‘विवाह योग्य तो हो गई है। कहीं चल रही है बातचीत ?’’
‘‘कहाँ से, अभी तो आए हैं। विदेश ही तो ठहरा यह इनका। जाति कुल का नहीं कोई यहाँ अपना, जान-पहचान नहीं किसी से। बड़ी कठिनता से अभी पिता को एक नौकरी मिली है टकसाल में। वृत्ति की विषम चिंता से अभी छुटकारा पाया है, अब कन्या के विवाह की चेष्टा होगी।’’
‘‘राजा के अन्तःपुर के योग्य है यह।’’

‘‘कोई संदेह नहीं इसमें, इसके पिता ईरान के राजा के प्रमुख सरदारों में से थे। दुर्भाग्यवश राजा के अनुग्रह से च्युत हो बैठे। जीविका से तो हाथ धोने ही पड़े। रातोंरात जीवन बचाने के लिए घर छोड़ प्रवास की शरण लेनी पड़ी। गर्व की गंध भी नहीं है इसमें दासी नहीं सहेली का सा व्यवहार करती है मेरे साथ। भीतर-बाहर एक सा कोई कृत्रिमता है नहीं उस व्यवहार में।’’
‘‘घर में अकेले ऊब उठती होगी बेचारी। पास-पड़ोस है कोई ?’’

‘‘नहीं, गृहस्थी के काम में से जो समय बचा लेती है, उसे पुस्तक पाठ और कला कौशल में बिताती है, इसके पिता कहते हैं, यह भाई से अवस्था में कम है, विद्या में नहीं।’’
मेहेर बड़ी सतर्कता से आगे बढ़ी। उसने अपने दोनों हाथों में दो कबूतर पकड़ लिए।
इस समय पीछे से किसी ने कहा-‘‘दृढ़ता से पकड़ लो इन्हें, कहीं उड़ न जावें।’’

मेहेर ने लौटकर देखा। एक परम कांति और श्री-सम्पन्न नवयुवक विमुग्ध दृष्टि से उसे निहार रहा है। उसके कपोल रक्तिम हो उठे, नेत्र विनत। आबद्ध कपोतों का बाहुपाश शिथिल होने लगा।
‘‘नहीं-नहीं, उड़ा न देना इन्हें। ये मेरे पालतू पक्षी हैं। मैं इन्हें प्यार करता हूँ। इन्होंने तुम्हारा ममत्व आकृष्ट किया है। मैं तुम्हें दे देता हूँ, इन्हें ले जाओ।’’
मेहेर मन-ही-मन पछताने लगी-‘क्यों पकड़ लिए मैंने ये कबूतर देख भी नहीं सकी मैं इन्हें आते हुए। कौन होंगे यह ?’
सलीम कह रहा था-‘‘मैं युवराज सलीम हूँ।’’
सुनते ही मेहेर ने अत्यन्त संकुचित होकर पीठ फिरा ली।

द्वारपाल की स्त्री ने युवराज को आता हुआ देख लिया था। वह बोली-‘‘भीतर आ जाओ। युवराज आ रहे हैं।’’
दासी ने कहा-‘‘मेहेर ?’’
‘‘रहने दो जहाँ भी है।’’
‘‘इतनी देर से बुला रही थी।’’ कहकर दासी भी उस कुटीर के भीतर चली गई, कुंठित होकर।
दोनों द्वार के पीछे छिपकर देखने लगीं।
‘‘तुम परम रूपवती हो, कहाँ से आई हो ?’’ सलीम ने पूछा। पर उसने कोई उत्तर नहीं दिया।
‘‘तुम कहाँ रहती हो ?’’

मेहेर फिर भी पाषाण-प्रतिमा बनी रही।
‘‘दुराग्रह न करूँगा कुछ भी, पर इतना ही अवश्य ही प्रकट करूँगा कि बिना वाक्यालाप किए थोड़े समय में मेरे हृदय के भीतर बहुत बड़ा स्थान बना लिया है। तुम बड़ी सरलता से अपना पथ ग्रहण करो। इन कबूतरों को ले जाओ। मैं युवराज सलीम हूँ-सम्राट् अकबर के इस भारतव्यापी साम्राज्य का एक अधिकारी। इच्छा करने पर क्या नहीं दे सकता तुम्हें ! यदि कभी मुझसे कुछ कहने की आवश्यकता पड़ जावे, तो लिखकर एक कबूतर के पैर में बाँध देना। मैं इसके लौट आने की प्रतीक्षा करूँगा।’’

अचानक दूर पर जय घोष सुनाई दिया-‘‘भारत-सम्राट् की जय !’’
‘‘सम्राट् की सवारी आ रही है।’’ सलीम ने उस सुन्दरी की दिशा से दृष्टि फिरा ली।
रोमांचित हो उठी मेहेर। कुछ क्षण के लिए देश-काल और अपने अस्तित्व को भी भूल गई। उसके आलिंगन में से एक कबूतर मुक्त होकर उड़ गया अपने पंख फड़फड़ाकर।
सलीम ने उस ओर दृष्टि कर पूछा-‘‘उड़ गया ?’’
मेहेर ने मौन रहकर सम्मति जताई।
युवराज ने फिर पूछा-‘‘कैसे ?’’

मेहेर ने दूसरा हाथ ऊपर उठाकर खोल दिया, मानो समस्त मूक प्रकृति ने वाणी में प्रकट होकर कहा-‘‘ऐसे उड़ गया !’’
उस कोमल भुजपाश का बन्दी दूसरा कबूतर भी उड़ गया निकटवर्ती आम की सघन डालियों पर।
‘‘सुन्दरी ! तुमने जिस भाव की सरलता से इस पक्षी को विमुक्त किया है, तुम नहीं जानतीं, उतनी ही जटिलता से तुमने इस सलीम का हृदय बन्दी कर लिया है। अब तुम्हें अपना परिचय देकर ही जाना होगा।’’ सलीम मेहेर की ओर आगे को बढ़ा।

एक ओर मेहेर का संकोच या हठ न जाने क्या था और दूसरी दिशा में सम्राट् की सवारी का बढ़ता हुआ कोलाहल। सलीम द्रुत गति से फिर दुर्ग के परकोटे पर चढ़ गया।’’
कुटीर के भीतर से दासी ने उच्च स्वर में कहा-‘‘मेहेर लौट आओ, सम्राट की सवारी आ रही है।’’
मेहेर ने यह सब लौटते हुए सुना, दासी के वाक्य के समाप्त होने से पूर्व ही वह कुटीर के भीतर पहुँच गई थी।
‘‘क्या कर रही थीं ?’’ दासी ने पूछा।
‘‘कुछ नहीं। कबूतर पकड़ रही थी।’’

‘‘युवराज ने क्या कहा ?’’
‘‘युवराज ने ?’ मेहेर ने विस्मय प्रकट किया।
‘‘हाँ, युवराज ने । तुम परम सौभाग्यशालिनी हो। युवराज ने हँस-हँसकर तुमसे बातें कीं। क्या कहा ?’’ दासी ने फिर पूछा।
मेहेर अपने हृदय की गहराई में सब कुछ छिपा गई। बड़ा प्रयास करना पड़ा उसे। उसके नेत्र विद्रोही होकर उसका भेद खोल देने के लिए मचल रहे थे। वह अपने दोनों नेत्रों को मलने लगी। दासी ने फिर पूछा-‘‘क्या कहा उन्होंने तुमसे ?’’
‘‘तुमने देखा यहाँ से ?’’

‘‘हाँ।’’
‘‘कुछ नहीं कहा उन्होंने। केवल यही कि कबूतर ले जाना चाहती हो, तो ले जाओ।’’
‘‘लाईं क्यों नहीं ?’’
‘‘दोनों उड़ गए। एक अपने प्रयास से और दूसरा कदाचित् मेरी असावधानी से।’’ मेहेर अब भी आँखें मल रही थी।
‘‘क्या कुछ चला गया आँख में ?’’
‘‘पवन में उड़ता हुआ कोई धूल का कण संभवतः।’’

सम्राट् आखटे से आ रहे थे। उनकी तीक्ष्ण आँखों ने दूर से ही सलीम को मेहर के साथ बातें करते हुए देख लिया था। उन्होंने अज्ञात और अपरिचित उस सुन्दरी के द्वारपाल की कुटिया में प्रवेश करते हुए भी लक्ष्य किया।
न जाने किस गहराई तक इस साधारण दृश्य को अकबर ने विचार लिया। सिंहद्वार से कुछ दूरी पर ही अचानक सम्राट् के आदेश से महावत ने हाथी रोक लिया।
सम्राट् ने हाथी से उतरकर अपने एक अंतरंग चर के कान में कुछ कहा। चर वहीं पर रुक गया, और महाराज अपने विशेष सहचरों के साथ अंतपुर के भीतर प्रविष्ट हुए।
परकोटे की ओट में छिपे युवराज ने यह सब कुछ देखा। वह संशय में पड़ गया, और अवधान के साथ उस गुप्तचर की गति-विधि का अवलोकन करने लगा।
 
चर द्वारपाल के घर की ओर गया। दासी बाहर आई। चर ने न जाने उसके साथ क्या बातें कीं। सम्राट् राजभवनों की ओर चले गए थे। सलीम ने उसका हाथ पकड़कर पूछा-‘‘कौन है वह ?’’
भयाकुल होकर गुप्तचर ने कहा-‘‘कौन ?’’
वह जिसका परिचय पाकर अभी तुम लौटे हो।’’
‘‘वह, हाँ’’ बड़ी साधारण हँसी के साथ चर ने गंभीरता तोड़कर कहा-‘‘आगरे की टकसाल में पिछले दिनों कोई नायब नियुक्त हुए हैं, ईरान से नवागत, उनका नाम है मिर्जा गयास। उन्हीं की लड़की है।’’
‘‘वह सुन्दरी है न, असाधारण ?’’ सलीम ने पूछा।
मैं नहीं जानता युवराज। उसने बुरके से अपना समस्त अंग ढक रक्खा था।’’
‘‘कहाँ रहते हैं ?’’
‘‘ईरानियों के मुहल्ले में।’’

‘‘हो गया, जाओ। सम्राट् के पास जा रहे हो न ?’’
‘‘न।’’ तत्क्षण ही चर ने भूल सुधार ली-‘‘हाँ।’’
सलीम ने उच्च स्वर में अट्हास किया, और उस चर की पीठ पर थपकी मारकर कहा-‘‘देखो, सलीम अपने भाई मुराद और दानियाल के समान नहीं है उसकी वासनाएँ उसके अधीन रहती हैं।’’
‘‘इसमें क्या संदेह है।’’ चर ने चाटुकरिता से कहा।
‘‘आज अचानक ही सम्राट् आखेट से लौट आए। बता सकते हो किसलिए ?’’
‘‘मैं नहीं कह सकता युवराज ! कदाचित् दक्षिण विजय के ही सिलसिले में !’’

सलीम निटक ही उपवन में घूमने लगा, और चर सम्राट् के पास चला गया।
पर समस्त स्थैर्य डगमगा उठा था सलीम के मन का। फूलों और हरियाली पर उसकी दृष्टि थी, पर मस्तिष्क में प्रतिबिम्म पड़ा हुआ उस नवयौवना नारी का, जिसकी एक-एक चेष्टा में खिले हुए थे शत-शत वसंत !
सलीम आगे की ओर कदम बढ़ाता, उसी समय सोचने लगता-‘कोई देखेगा, तो क्या कहेगा। मैं इतने विशाल साम्राज्य का सिंहासनाधिकारी। एक साधारण स्त्री के मोह में पड़ा हुआ, क्या विचारेंगे ये प्रहरी और द्वारपाल ! पर वह एक सामान्य स्त्री नहीं है। मैं महाराज से कहकर उसके पिता की पद-वृद्धि करा दूँगा। मैं अपने उपकारों के भार से विनत कर उसकी कन्या का प्रेम जीत लूगा।’

सलीम राजभवन की ओर जाने लगा, हठात् उसे निश्चय हुआ-‘सम्राट् ने उस युवती के साथ बात करते हुए देख लिया है मुझे। फिर इसमें हानि ही क्या हो गई। यदि उन्होंने इस विषय को लेकर कोई भर्त्सना की मेरी तो ?’ सलीम ने मुख की गंभीरता को तुरन्त ही पोंछकर कहा-‘देख लिया जायेगा।’
निकट ही एक बारहदरी में जाकर बैठ गया वह-‘किसी प्रकार नहीं भूली जाती वह। मेरे मानस में कितनी साकार होकर पैठ गई वह। जैसे कोई जादू कर दिया उसने। नितांत समीप ही उसे देख रहा हूँ। जीवित रहने के लिए श्वास के समान कौन है यह ? फिर आज तक इसकी स्मृति के बिना कैसे जीवित रहा ?’

सलीम चिन्ता सागर में डूबा पड़ा रह गया वहाँ पर। उसे भान ही नहीं रहा, कौन उस मार्ग से आया, और कौन गया ! वह अपने मन में कहने लगा-‘सम्राट् दुर्ग में पधारे हैं, बहुत समय हो गया। मुझे उनकी अभ्यर्थना के लिए चला जाना चाहिए था अब तक। सहज ही उनके मन में संतान के लिए उदार भाव नहीं है।’ वह उठ गया, भारी पैरों से, मानो उनमें पारा भर दिया गया था, वह खड़ा होकर दिशा खोजने लगा सम्राट् के अवस्थान की। मन के अंधकार में फिर वही रमणी नाच उठी। उसके हाथ से छूटे और छोड़ दिए गए हुए कबूतर अपने अन्य साथियों के दल में मिलकर खो गए थे।
एक प्रहरी आकर उसके सामने विनीत भाव से खड़ा हो गया।

‘‘क्या आज्ञा है ?’’ सलीम ने पूछा उससे।
प्रहरी इस व्यंग्य से अप्रतिभ हो उठा-‘‘अपराध क्षमा हों सेवक के युवराज ! प्रजावत्सल महाराज आपको स्मरण कर रहे हैं।’’’
‘‘चलो, मैं आता हूँ।’’
प्रहरी चला गया।
सम्राट् अकबर एकान्त कक्ष में सलीम की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनके मुखमंडल पर गहराई के साथ विषाद अंकित था।
सलीम ने अत्यन्त आदर और धैर्य के साथ प्रवेश कर अभिवादन किया। अकबर ने आशीर्वाद देकर उसे आसन करने का संकेत दिया-
‘‘देखो सलीम, तुम मुझे एक महात्मा के वरदान-रूप में प्राप्त हुए हो।’’
‘‘उस महात्मा के प्रति मेरे हृदय में उचित श्रद्धा है पिता !’’

‘‘होनी ही चाहिए। मेरा तुम पर विशेष स्नेह है। सदैव ही तुम्हारी हित चिन्ता में मैं रहता हूँ। तुम्हें अन्यथा नहीं सोचना चाहिए कभी, सुनो भारतवर्ष का यह विशाल साम्राज्य हमारे पास धरोहर है। इसे यदि हम केवल व्यक्तिगत तृप्ति का साधन समझेंगे, तो वह हमारी बड़ी भयंकर भूल होगी। दानियाल और मुराद की विलासिता को लक्ष्य न बनाओ। तुम मेरे सबसे बड़े पुत्र हो।’’
‘‘मैं हर घड़ी महाराज के गौरव की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहता हूँ।’’
‘‘मेरे स्पष्ट, पर सत्य शब्दों को मानसकि उत्तेजना खोकर सुनो युवराज। मैंने तुम्हें दक्षिण-विजय की यात्रा का सेनापति बनाया था।’’

‘‘मैं मुराद को उस पद के लिए अत्यन्त लालयित देखकर उसका उत्साह बढ़ाना उचित समझा।’’
‘‘मुझे उसका बिल्कुल भरोसा नहीं है। वह सुरा की उन्मत्तता में मुगल सम्राटों की कीर्ति में अपमानजनक कलंक लेकर लौटेगा। मैं फिर तुमसे कहता हूँ, तुम जाकर उसका कार्य भार सँभालने को प्रस्तुत हो।’’
‘‘मैं ?’’ सलीम ने घबराकर पूछा। उसके मानस में फिर वह ईरान की कन्या नृत्य करने लगी।
‘‘हाँ तुम ! इसी सप्ताह के भीतर और एक बड़ी सेना के साथ दक्षिण को कूच कर दो।’’
‘‘अपराध क्षमा हो महाराज ! इससे हम दोनों भाइयों के बीच में विद्रोह उत्पन्न हो जायेगा। मैं भारत के राजमुकुट का लोभ छोड़ दूँगा, भाई का प्रेम नहीं।’’
‘‘तुम्हारी यह नैतिकता पोली है। मुराद के सहायक होकर जाओ।’’
‘‘मुराज की चढ़ाई का फल प्रकट होने दीजिए।’’ सलीम खाँसता हुआ कहने लगा तब तक मेरा स्वास्थ भी ठीक हो जायेगा।’’

 

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