नारी विमर्श >> खून के रिश्ते खून के रिश्तेकमला विश्वनाथन
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एक बेबस लाचार व्यक्ति के अन्तर्गाथा.....
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
गहरी पैठ, प्रखर विचार ह्रासोन्मुख नैतिकता को चित्रित करता यह उपन्यास
लेखिका की प्रतिभा को उद्घाटित करता है। दर्शनीकरण की प्रक्रिया वास्तविक
जीवन के यथार्थ अनुभवों से आगे गतिशील होती है। जीवन घोर निराशा नहीं,
प्रत्युत उत्साहपूर्वक आगे बढ़ने का नाम है। लेखिका ने पराई पीर को अनुभव
किया है और वही अकुला देने वाली अनुभूति उसे सृजन करने की प्रेरणा देती
है। लेखिका ने ‘खून के रिश्ते’ उपन्यास में जीवन के
उन रिश्तों की ओर संकेत किया है, जो प्रत्यक्ष टूटे हुए से प्रतीत होकर भी
टूटते नहीं।
इस उपन्यास को पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करते हुए मुझे बेहद प्रसन्नता हो रही है। आज की बढ़ती समस्याओं को ध्यान में रखकर मैंने यह उपन्यास लिखा है। इस उपन्यास लेखन में डॉ. मधु धवन, रीडर, स्टेल्ला मारिस कॉलेज का मुझे प्रोत्साहन एवं मार्ग दर्शन मिला। इसलिए मैं इनकी कृतज्ञ हूं।
इस उपन्यास को पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करते हुए मुझे बेहद प्रसन्नता हो रही है। आज की बढ़ती समस्याओं को ध्यान में रखकर मैंने यह उपन्यास लिखा है। इस उपन्यास लेखन में डॉ. मधु धवन, रीडर, स्टेल्ला मारिस कॉलेज का मुझे प्रोत्साहन एवं मार्ग दर्शन मिला। इसलिए मैं इनकी कृतज्ञ हूं।
पुनरोवाक्
‘खून के रिश्ते’ उपन्यास की लेखिका कमला विश्वनाथन ने
जब मुझे भूमिका लिखने के लिए पांडुलिपि पकड़ाई तो मुझे अति प्रसन्नता हुई।
मैं अपनी सहयोगिनी को इसी स्थिति में देखने की आकांक्षा रखती हूं। मुझे वे
तमाम परिदृश्य समक्ष उभरते प्रतीत हुए जब वे एकाग्रता से सीखने की चेष्टा
किया करती थीं। उन्होंने अनुवाद कला सीखी और तमिल की जानी-मानी लेखिका
शिवशंकरी के उपन्यासों और कहानियों का अनुवाद किया। वे पुस्तकें राजकमल
प्रकाशन से प्रकाशित हुईं। उनकी आंखों की बढ़ती चमक की मैं चश्मदीद गवाह
हूं। ‘जहां चाह वहां रहा’ की उक्ति को चरितार्थ करती
लेखिका की जीवन शैली रही।
जीवन एक हरे-भरे विशाल वृक्ष की भांति है, जिस पर उल्लास एवं मधुर मुस्कान पुष्पों की भांति खिलते हैं, वृक्ष की शिराओं में बहती गरमाहट फलों के रूप में परिलक्षित होती है। सुन्न होते रिश्ते एक ऐसा भीषण रोग है जिससे आहत होने पर जीवन रूपी वृक्ष खड़ा रह कर भी लहलहा नहीं सकता क्योंकि कुम्हलाए पुष्पों से रिश्ते मृतप्राय हो लुप्त हो जाते हैं।
गहरी पैठ, प्रखर विचार ह्रासोन्मुख नैतिकता को चित्रित करता उपन्यास लेखिका की प्रतिभा को उद्घाटित करता है। दर्शनीकरण की प्रक्रिया वास्तविक जीवन के यथार्थ अनुभवों से आगे गतिशील होती है। जीवन घोर निराशा नहीं, प्रत्युत उत्साहपूर्वक आगे बढ़ने का नाम है। लेखिका ने पराई पीर को अनुभव किया है और वही अकुला देने वाली अनुभूति उसे सृजन करने की प्रेरणा देती है। लेखिका ने ‘खून के रिश्ते’ उपन्यास में जीवन के उन रिश्तों की ओर संकेत किया है, जो प्रत्यक्ष टूटे हुए से प्रतीत होकर भी टूटते नहीं।
‘खून के रिश्ते’ में निरुपित दर्द ऐसे परिवेश को उद्घाटित करता है जहां व्यक्ति बेबस लाचार असहाय हो जाता है। यह एक सलीबी सवाल है। इसका कोई सरल सहज जवाब नहीं। भौतिकवादी-यथार्थवादी दृष्टि, व्यक्तिगत प्रतिभा और अंतर्जगत् का परिणाम है। अतः कहा जा सकता है कि मनुष्य की श्रेष्ठता और ज्येष्ठता की कसौटी उसका वर्तमान है। वह वर्तमान को अपनी कर्मठता से संवार रहा है या गैर-जिम्मेदारी की चौखट में उसे फिट कर रहा है।
अपने गहन अनुभव के नाना प्रसंगों के माध्यम से लेखिका ने सारगर्भित वक्तव्यों द्वारा अपनी बात कही। लेखिका का प्रयास साधुवाद के योग्य है। भविष्य में वह ऐसे कई उपन्यास आनेवाली पीढ़ी को प्रदान करे। यही मेरी कामना है।
शुभकामनाओं सहित
जीवन एक हरे-भरे विशाल वृक्ष की भांति है, जिस पर उल्लास एवं मधुर मुस्कान पुष्पों की भांति खिलते हैं, वृक्ष की शिराओं में बहती गरमाहट फलों के रूप में परिलक्षित होती है। सुन्न होते रिश्ते एक ऐसा भीषण रोग है जिससे आहत होने पर जीवन रूपी वृक्ष खड़ा रह कर भी लहलहा नहीं सकता क्योंकि कुम्हलाए पुष्पों से रिश्ते मृतप्राय हो लुप्त हो जाते हैं।
गहरी पैठ, प्रखर विचार ह्रासोन्मुख नैतिकता को चित्रित करता उपन्यास लेखिका की प्रतिभा को उद्घाटित करता है। दर्शनीकरण की प्रक्रिया वास्तविक जीवन के यथार्थ अनुभवों से आगे गतिशील होती है। जीवन घोर निराशा नहीं, प्रत्युत उत्साहपूर्वक आगे बढ़ने का नाम है। लेखिका ने पराई पीर को अनुभव किया है और वही अकुला देने वाली अनुभूति उसे सृजन करने की प्रेरणा देती है। लेखिका ने ‘खून के रिश्ते’ उपन्यास में जीवन के उन रिश्तों की ओर संकेत किया है, जो प्रत्यक्ष टूटे हुए से प्रतीत होकर भी टूटते नहीं।
‘खून के रिश्ते’ में निरुपित दर्द ऐसे परिवेश को उद्घाटित करता है जहां व्यक्ति बेबस लाचार असहाय हो जाता है। यह एक सलीबी सवाल है। इसका कोई सरल सहज जवाब नहीं। भौतिकवादी-यथार्थवादी दृष्टि, व्यक्तिगत प्रतिभा और अंतर्जगत् का परिणाम है। अतः कहा जा सकता है कि मनुष्य की श्रेष्ठता और ज्येष्ठता की कसौटी उसका वर्तमान है। वह वर्तमान को अपनी कर्मठता से संवार रहा है या गैर-जिम्मेदारी की चौखट में उसे फिट कर रहा है।
अपने गहन अनुभव के नाना प्रसंगों के माध्यम से लेखिका ने सारगर्भित वक्तव्यों द्वारा अपनी बात कही। लेखिका का प्रयास साधुवाद के योग्य है। भविष्य में वह ऐसे कई उपन्यास आनेवाली पीढ़ी को प्रदान करे। यही मेरी कामना है।
शुभकामनाओं सहित
खून के रिश्ते
देख तेरे पिताजी आए हैं। ज्योति की आवाज सुन नलिनी को झटका सा लगा।
ख्यालों के सागर में गोते लगाते-लगाते वह बुत बनी बैठी हुई थी। उसे तो
ध्यान भी नहीं था कि ज्योति उसके पास खड़ी थी। कॉलेज के अहाते में आज
अत्यधिक शोरगुल था। फर्स्ट इयर की छात्राओं को छोड़ने अभिभावक आए थे।
बच्चे कॉलेज में पहुँच जाएँ तो भी माता-पिता उन्हें अपरिपक्व एवं बच्चा ही
समझते हैं।
कुछ छात्राएँ हॉस्टल में रहती थीं, कुछ घर से आती थीं। सब के माता-पिता आए थे। कॉलेज का प्रांगण किलकारियों से गूंज रहा था।
ज्योति और नलिनी भी जमशेदपुर जैसे चेन्नै कॉलेज में प्राणिशास्त्र पढ़ने आई थीं। ज्योति की मां को चेन्नै आना था। अतः वह अपनी बेटी का साल बर्बाद किए बगैर उसे दाखिला कराने आई थी।
ज्योति और नलिनी में चोली दामन का साथ था। एल.के.जी. से साथ-साथ पड़ी थीं। ज्योति का चेन्नै आना सुन नलिनी भी जिद कर चेन्नै आ गई।
नलिनी अपने माता-पिता से कभी जुदा नहीं हुई थी। दोस्ती की बदौलत इतनी दूर आ गई थी पर उसे अकेलापन खा रहा था।
एक तरफ ज्योति चुलबुली एवं मस्त लड़की थी तो दूसरी तरफ नलिनी शर्मीली एवं संकोचशील थी। ज्योति की स्कूल में कई सहेलियाँ थीं पर उसकी सबसे करीबी सहेली नलिनी ही थी जिससे वह अपना सुख-दुख बांटती थी।
नलिनी की माँ शालिनी को पन्द्रह साल बाद समीर हुआ था सब उसे बेहद प्यार करते। नलिनी को यह अच्छा नहीं लगता था। वह खुद को अनावश्यक एवं बोझ सा समझने लगी थी।
समीर के जन्म के बाद से शालिनी बेहद कमजोर हो गई थी। नलिनी की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दे पाती थी।
वैसे भी लोग कहते ही थे, ‘नलिनी काफी सयानी हो गई है...अपना सारा काम खुद ही कर लेती है। तुम्हें उसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है।
शालिनी की देखभाल करने उसकी माँ आई थी। सारे लोग केवल समीर को ही प्यार करते थे। नलिनी भीतर ही भीतर कुढ़कर आत्मसीमित हो गई थी।
उसी दौरान उसकी एक मात्र सहेली ज्योति के चेन्नै जाने की खबर से वह विचलित हो गई। उसने पापा से कहा—
‘पापा...मैं भी चेन्नै जाकर ज्योति के साथ पढ़ूँगी।
बेटा तुझे इंजीनियरिंग करनी है। अच्छे अंक मिले हैं...तू क्यों उसके साथ जायेगी ?’
माता-पिता के लाख समझाने पर भी वह नहीं मानी थी। आखिर उन लोगों को हामी भरनी पड़ी। पिता गुस्से से बोले ‘जहाँ जाना है। जा...पर मैं तुझे भर्ती कराने या छोड़ने नहीं जाऊँगा। खुद ही सब कुछ कर लेना।’
जवानी के जोश में पापा से रूठ कर ज्योति नलिनी के साथ आ तो गई थी पर घर वालों याद उसे बहुत सता रही थी। ख्यालों में खोयी नलिनी पीठ पर प्यार भरे हाथ की थाप से होश में आई।
‘‘पापा आप।’
‘प....क्या तूने सोचा था कि हम तुम्हें छोड़ देंगे ?’
‘पर आपने छोड़ ही तो दिया था।’
‘नहीं बेटा...तेरी जिद के कारण गुस्से में थे।’
बेटी और बाप को अकेला छोड़ ज्योति खिसक गई। उसे पता था कि नलिनी को समीर के होने के बाद से केवल पापा का ही सहारा था।
कुछ छात्राएँ हॉस्टल में रहती थीं, कुछ घर से आती थीं। सब के माता-पिता आए थे। कॉलेज का प्रांगण किलकारियों से गूंज रहा था।
ज्योति और नलिनी भी जमशेदपुर जैसे चेन्नै कॉलेज में प्राणिशास्त्र पढ़ने आई थीं। ज्योति की मां को चेन्नै आना था। अतः वह अपनी बेटी का साल बर्बाद किए बगैर उसे दाखिला कराने आई थी।
ज्योति और नलिनी में चोली दामन का साथ था। एल.के.जी. से साथ-साथ पड़ी थीं। ज्योति का चेन्नै आना सुन नलिनी भी जिद कर चेन्नै आ गई।
नलिनी अपने माता-पिता से कभी जुदा नहीं हुई थी। दोस्ती की बदौलत इतनी दूर आ गई थी पर उसे अकेलापन खा रहा था।
एक तरफ ज्योति चुलबुली एवं मस्त लड़की थी तो दूसरी तरफ नलिनी शर्मीली एवं संकोचशील थी। ज्योति की स्कूल में कई सहेलियाँ थीं पर उसकी सबसे करीबी सहेली नलिनी ही थी जिससे वह अपना सुख-दुख बांटती थी।
नलिनी की माँ शालिनी को पन्द्रह साल बाद समीर हुआ था सब उसे बेहद प्यार करते। नलिनी को यह अच्छा नहीं लगता था। वह खुद को अनावश्यक एवं बोझ सा समझने लगी थी।
समीर के जन्म के बाद से शालिनी बेहद कमजोर हो गई थी। नलिनी की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दे पाती थी।
वैसे भी लोग कहते ही थे, ‘नलिनी काफी सयानी हो गई है...अपना सारा काम खुद ही कर लेती है। तुम्हें उसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है।
शालिनी की देखभाल करने उसकी माँ आई थी। सारे लोग केवल समीर को ही प्यार करते थे। नलिनी भीतर ही भीतर कुढ़कर आत्मसीमित हो गई थी।
उसी दौरान उसकी एक मात्र सहेली ज्योति के चेन्नै जाने की खबर से वह विचलित हो गई। उसने पापा से कहा—
‘पापा...मैं भी चेन्नै जाकर ज्योति के साथ पढ़ूँगी।
बेटा तुझे इंजीनियरिंग करनी है। अच्छे अंक मिले हैं...तू क्यों उसके साथ जायेगी ?’
माता-पिता के लाख समझाने पर भी वह नहीं मानी थी। आखिर उन लोगों को हामी भरनी पड़ी। पिता गुस्से से बोले ‘जहाँ जाना है। जा...पर मैं तुझे भर्ती कराने या छोड़ने नहीं जाऊँगा। खुद ही सब कुछ कर लेना।’
जवानी के जोश में पापा से रूठ कर ज्योति नलिनी के साथ आ तो गई थी पर घर वालों याद उसे बहुत सता रही थी। ख्यालों में खोयी नलिनी पीठ पर प्यार भरे हाथ की थाप से होश में आई।
‘‘पापा आप।’
‘प....क्या तूने सोचा था कि हम तुम्हें छोड़ देंगे ?’
‘पर आपने छोड़ ही तो दिया था।’
‘नहीं बेटा...तेरी जिद के कारण गुस्से में थे।’
बेटी और बाप को अकेला छोड़ ज्योति खिसक गई। उसे पता था कि नलिनी को समीर के होने के बाद से केवल पापा का ही सहारा था।
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ज्योति ने तो अपने पिता को देखा भी नहीं था। नाना-नानी की गोद में पली
बढ़ी। जब भी वह अपनी माँ से पापा के बारे में पूछती तो माँ कह देती
‘पापा को ज्योति अच्छी नहीं लगती। तभी वह माँ-बेटी को छोड़कर
चले गए।’
ज्योति की माँ अखिला अपनी बेटी के दिल में पिता के लिए नफरत भरना चाहती थी। अपनी माँ से हमेशा यही कहती ‘मेरी बेटी के मन में उस धोखेबाज स्वार्थी व्यक्ति के लिए रत्ती भर भी हमदर्दी होगी तो मेरा खून खौल उठेगा। मैं इसे कतई सहन नहीं कर पाऊँगी।’
माँ बेटी को समझाने की भरसक कोशिश करती रहती।
‘बेटी मर्द ऐसे ही होते हैं। हमें उनके संग होशियारी से पेश आना चाहिए। पति को चंगुल में रखना अक्लमंदी है...तुम चूक गईं बेटी। तभी उसने तुम्हें छोड़ दिया।’
‘पर माँ मुझसे तंग आकर छोड़ दिया होता तो मन में उम्मीद बँधी रहती कि कभी लौटेगा। पर अब तो वह भी नहीं रही। उसने तो दूसरी शादी भी कर ली है।’
ऐसे वक्त में माँ-बेटी बेटी को अकेला छोड़ देती। बातें करने से कोई फायदा भी तो नहीं था।
ज्योति के मन में पिता को जानने, उनसे बातें करने की इच्छा हर वक्त बनी रहती। नाना-नानी का भरपूर प्यार तो मिलता था पर रईस घरानों में बच्चे कितना अकेलापन एवं मायूसी का अनुभव करते हैं वह ज्योति के अलावा कोई नहीं जानता था।
ज्योति की माँ अखिला की दिमागी हालत ठीक नहीं थी। जब वह 21 साल की थी तब शंकर उसे देखने आया था। अखिला के माता-पिता ने लड़के वालों को धोखे में रखा था। डॉक्टर ने अखिला की जाँच करने पर कहा था, शादी कर दीजिए। सब ठीक हो जाएगा।’
बेचारे वे भी इसी उम्मीद में रहे कि शादी के बाद सब ठीक हो जाएगा। पैसे पानी की तरह बहाकर शानो-शौकत से शादी की। दूल्हे पर करोड़ों रुपये बरसाये। दूल्हा शंकर अपने ससुराल वालों से बेहद प्रसन्न था। माँ से सदा यही कहता ‘माँ मेरे ससुराल वाले तो मेरे लिए किस्मत की चाबी हैं।’
शादी के बाद डॉक्टर के कथनानुसार सब कुछ ठीक ही चल रहा था। अखिला की दिमागी हालत में भी काफी सुधार आ गया था। उसे दवा आदि लेने की जरूरत भी नहीं पड़ी। कभी-कभी पति से जिक्र करती ‘शादी के पहले जो दवाइयाँ लेती थी मुझे अब उनकी जरूरत नहीं पड़ती...।’
पति झट से उसे बाहों में भींचकर कहता ‘क्यों अब मैं जो दवा बनकर आ गया हूँ।’
शंकर को ससुराल से उपहार में काफी कुछ मिलता रहता ताकि अखिला से कोई शियाकत न हो। वह पैसों के जाल में ऐसा लिपटा कि ससुराल वालों का ही हो कर रह गया। डॉक्टर ने अखिला के माता-पिता को हिदायत दी थी कि महीने में एक बार अखिला को जाँच के लिए अवश्य लाया जाए। वे अखिला को शंकर के घर से अपने घर किसी न किसी बहाने ले आते और डॉक्टर को दिखा देते। डॉक्टर भी उसकी दिमागी हालत में सुधार देख प्रसन्न थे।
ऐसे ही हँसी-खुशी के दिन कटते रहे। शंकर को अखिला की दिमागी हालत की भनक भी न हो पाई। वैसे भी करोड़पति ससुर ने उसकी आँखों पर धन की जो पट्टी बाँध दी थी।
अचानक एक दिन अखिला बेहोश हो गई। सास ससुर ने सोचा कि शायद थकान के कारण ऐसा हुआ हो।
सास ने शंकर से कहा ‘कल पार्टी में काफी देर तक बातें करती रही। दौड़-धूप से शायद थक गई होगी। पानी के छींटे दे दें तो ठीक हो जाएगी।’
पानी के छींटे पड़ने पर उसने धीमे से पलकें खोलीं। बदहवासी में बोली ‘मैं कहाँ हूँ...इस जंगल में कैसे आई ? मुझे बचाओ...मुझे बचाओ।’
किसी की समझ में नहीं आया कि वह ऐसी ऊल जलूल बातें क्यों कर रही है।
शंकर उसे अस्पताल ले गया। अखिला को घरवालों ने सख्त ताकीद दे रखी थी कि चाहे जो हो वह पति या सास के साथ कभी डॉक्टर के पास नहीं जाएगी बल्कि फोन करके माँ को बुलाएगी।
वह शंकर से मिन्नतें करती रही ‘माँ को बुला लीजिए। वे नाराज़ होंगी मेरी तबियत के बारे में उन्हें ही ज्यादा पता है।’
शंकर को उसकी कोई बात समझ नहीं आ रही थी। वह जबरदस्ती उसे डॉक्टर के पास ले गया। डॉक्टर ने बधाई देते हुए कहा कि वह बाप बनने वाला है।
शंकर अस्पताल से उसे सीधे मायके ले आया। जब लोगों को पता चला कि वह अखिला को अस्पताल ले गया था तो उनके होशोहवास उड़ गए।
हकलाते हुए पूछा, ‘‘क्यों ले गए थे उसे डॉक्टर के पास...हमें बताते तो क्या हम नहीं ले जाते ?’ शंकर ने हँसते हुए कहा ‘कोई भी पिता अपने बच्चे के बारे में जानकारी पाने का हकदार होता है। डॉक्टर से यही जानकारी प्राप्त करके आ रहा हूँ।’
‘ओह हम लोग तो डर ही गए थे।’
‘इसमें डरने की क्या बात है। आप नाना-नानी बनने वाले हो।’ उन्हें यह जान प्रसन्नता हुई और घबराहट भी दूर हो गई।
‘आप अखिला को दो दिन के लिए हमारे पास छोड़ जाइए। हम अगले बुधवार को आपके घर पहुँचा देंगे।’
शंकर को तनिक भी शक नहीं हुआ। वह उसे छोड़ घर चला गया। उसके घर पर खुशियों का आलम छा गया।
अखिला को मनोचिकित्सक डॉ. कल्याणी को दिखाने ले जाया गया। डॉक्टर ने जाँच करने के बाद सूचना दी कि जहाँ तक हो सके अखिला को अकेला न छोड़ें। उसे ऐसे माहौल की जरूरत है जहाँ उसे खूब प्यार मिले। लोग उसकी जरूरत महसूस करें।
अखिला की माँ निश्चिंत थी कि शंकर या उसके घरवाले उसके साथ दुर्व्यवहार नहीं करते। उसने अखिला को वहाँ भेज तो दिया पर मन से भय पूरी तरह नहीं मिटा था। अकसर वहाँ जाकर उसका हाल-चाल देख आती।
शंकर छेड़ते हुए कहता ‘आपकी बेटी हमारे साथ खुश है चिंता न करें।’
जब उनका अक्सर इस प्रकार आना ससुराल वालों को खटकने लगा और उन्होंने बेटी से उसे मिलने नहीं दिया तो वह लौट आईं। पति ने भी समझाया ‘इस प्रकार तो तुम उनके मन में शक का बीज बो दोगी। उन लोगों को उसके दिमागी हालत की भनक भी पड़ गई तो तुम्हारी बेटी की जीना भी दूभर हो जाएगा।’
पति के लाख समझाने पर भी माँ की ममता काबू में नहीं रह पाई। इससे मायके और ससुराल वालों के आपसी संबंधों में तनाव शुरू हो गया। अखिला का आठवाँ महीना चल रहा था। तनाव से उत्पन्न दरार को तूल देकर बड़ा बनाने के बजाए उसे भरने की इच्छा से अखिला के पिता गोद भराई की रस्म के बहाने उसे घर ले आए।
अखिला को मायके आये महीना हो गया। शंकर उससे मिलने आता तो वह बेहद खुश होती। शंकर को व्यापार के सिलसिले में बम्बई जाना था। उसने अखिला को समझाया ‘मैं बम्बई जा रहा हूँ। वापस आने में महीना लग सकता है। इस बीच अगर बच्चा हो जाए तो सूचना दे देना।’ अखिला को शंकर का इस समय जाना अखर रहा था। उसके जाते ही अचानक उसे दौरे पड़ने लगे। पुरानी बीमारी फिर से दिलो दिमाग पर हावी हो गई। उसे तुरंत डॉ. ललिता के पास ले जाया गया। डॉक्टर बेहद परेशान दिखाई पड़ीं। बीमारी का यह प्रतिघात मरीज के लिए अच्छा नहीं है। प्रभु से प्रार्थना कीजिए कि गर्भ में पल रहे बच्चे पर असर न पड़े।’
‘डॉक्टर...प्रसव के बाद तो सब ठीक हो जाएगा न ?’
‘नहीं...यह ऐसी बीमारी है कि अगर दुबारा आई तो उसके इलाज की कोई गारंटी नहीं दी जा सकती। अच्छा होगा कि आप शंकर को इसकी पूरी जानकारी दे दें।’
पर अखिला के घरवालों ने ऐसा कुछ नहीं किया। बीमारी बढ़ती गई और शंकर को इसकी खबर ही नहीं हुई।
प्रसव वेदना के उठते ही ससुराल खबर भेजी गई। उनके रिश्तों में पड़ी दरार बेवजह गहरी होती जा रही थी।
अखिला ने एक खूबसूरत बेटी को जन्म दिया। सिर में इतने काले, घने बाल, कजरारी काली बड़ी-बड़ी आँखें, गोरा रंग, गोल-चांद-सा चेहरा...एकदम शंकर पर गई थी। कोई भी देखता यही कहता। शंकर दो दिन बाद ही आ पाया था। बच्ची का नामकरण धूमधाम से मनाया गया। नामकरण के वक्त भी अखिला सोई-सोई-सी रही। शंकर उससे अकेले में बात भी नहीं कर पाया। अखिला को नींद की गोली देकर वे सुलाए रखते। उसकी दिमागी हालत काफी सोचनीय हो गयी थी। ऐसे ही तनावमय वातावरण में पूरा महीना गुजर गया।
शंकर के लिए अब यह सब कुछ सहन करना असंभव लगा। सीधे मायके पहुँचा और बोला, ‘मुझे लगता है कि आप जान बूझकर मेरी पत्नी को मुझसे अलग कर रहे हैं। मैं अपनी बच्ची और अखिला को अब आपके पास छोड़ने को तैयार नहीं। आपकी रजामंदी हो या नहीं हो, मैं उन्हें ले जा रहा हूँ।’
ससुर ने दामाद को करीब बिठाकर प्यार से समझाया ‘देखो बेटे....अखिला शारीरिक रूप से बहुत कमजोर हो गई है। उसे आराम की सख्त जरूरत है। डॉक्टर ने कहा है कि उसे पाँच महीने तक ससुराल न भेजा जाए। तुम्हें अगर उनकी इतनी याद आती है तो तुम यहीं रह जाओ।’
‘कौन है वह डॉक्टर जिसने ऐसा कहा...मैं खुद उसका इलाज करवाऊँगा। सारी नारियाँ बच्चे जनती हैं...इतनी कमजोर तो कोई नहीं होती कि न बच्ची को दूध पिला सके और न पति से दो बातें कर सके। बड़ा अजीब माहौल है यहां। मैं उसे तुरन्त अपने साथ ले जाना चाहता हूँ।’
वैसे ही रिश्तों में दरार पड़ चुकी थी। उन लोगों ने निश्चय कर लिया कि अखिला को बच्ची के साथ ससुराल भेज दिया जाए। आगे किस्मत में जो होगा देखा जाएगा।
ससुराल आते ही अखिला बदहवास एवं उखड़ी-सी रहने लगी। ससुराल में बच्ची को उसके पास छोड़ते ही नहीं थे। जब भी होश में आती चीखती-चिल्लाती ‘आप लोग मेरे दुश्मन हो। बच्ची को मुझसे अलग करना चाहते हो’ कहकर हाथ में जो कुछ आता उसे सामने खड़े व्यक्ति पर दे मारती।
उसके व्यवहार में आए इस परिवर्तन से सब हैरान थे। शंकर ने निश्चय कर लिया कि वह उसे डॉक्टर के पास ले जाएगा। किसी तरह उसने अखिला से डॉक्टर कल्याणी का नाम पूछ ही लिया जिससे वह मिला करती थी। जब वहाँ पहुँचा तो उसे मानसिक रोग चिकित्सक जान उसे गहरा सदमा पहुँचा। डॉक्टर ने जब उसे अखिला के स्वास्थ्य की पूरी जानकारी मिली तो उसके रोंगेटे खड़े हो गए।
‘मानसिक रोग से ग्रस्त रोगी मेरे मत्थे मढ़ दिया। कम से कम सूचित कर दिया होता तो शायद मेरे लिए इतनी बड़ी समस्या नहीं आती।’ उसके मन में उधेड़बुन थी। उसने अपने माता-पिता से मिलकर यह निर्णय लिया कि वह अखिला का इलाज करवाएगा।
उसकी हालत दिन पर दिन बिगड़ती गई। कोई भी घर आता तो उनके सामने वह पागलों की तरह व्यवहार करने लगती। ज्योति को कोई गोद में लेकर पुचकारता तो उस पर झपटती उसे नोचती बाल खींचती दांत काटती।
एक बार अखिला के माता-पिता उससे मिलने आए। शंकर ने ससुर जी से कहा—
‘आप चाहें तो बेटी को कुछ दिन घर ले जाकर रख लें।
‘क्यों इतनी जल्दी उकता गए। आप लोग तो उसका इलाज करवाने वाले थे।’
‘हमने कोशिश की थी पर नाकामयाबी हासिल हुई। आप लोगों ने झूठ बोलकर हमें धोखा दिया है। इतने दिन हमसे इतना बड़ा रहस्य छिपाया।’
‘रहस्योद्घाटन होने पर आपने कौन-सा तीर मार लिया है।’
‘हम अपने कुल का दीपक अपने पास रखेंगे। आप अपनी बेटी का इलाज करवाएँ। ठीक हो जाए तो खबर भेंजे, हम उसी समय उसे ले जाएंगे।’
माता-पिता बेटी की हालत से अनभिज्ञ न थे। उन्होंने सोचा कि नातिन को साथ ले जाने पर शंकर उनके पास जरूर लौट आएगा। जबरदस्ती नातिन और अखिला को साथ ले गए।
शंकर ने उन्हें समझाने की भरसक कोशिश की पर उनका झूठा अहं उन्हें झुकने नहीं दे रहा था। शंकर के पास कोई चारा न था। उसने तलाक के कागजात भेज दिए। पारिवारिक कोर्ट में मामला दर्ज हुआ। और साल भर में तलाक हो गया।
नलिनी पिता अखिलेश के संग बार अहाते में आ गई। कॉलेज का कैम्पस बहुत विशाल था। बड़े-बड़े वृक्ष खूबसूरती में चार-चाँद लगा रहे थे। क्यारियों में खिले गेंदे के फूल, सूरजमुखी एवं गुलाब के फूलों की महक से वातावरण सौरभयुक्त था। ठंडी-ठंडी हवा गर्मी के मौसम में सुकून दे रही थी। वृक्षों पर चहचहाते पक्षी वातावरण को आनन्दमय कर रहे थे। प्रकृति की इस अनुपम छटा को देख मदमस्त खड़े अखिलेश को नलिनी ने झकझोरा।
‘पापा आप मुझसे मिलने आए थे या यहाँ का वातावरण देखने ?’
‘आया तो तुझसे ही मिलने था बेटी...पर यह जगह बड़ी खूबसूरत है।’ ‘माँ कैसी हैं पिताजी...समीर की वजह से मुझे तो मिस भी नहीं करती होंगी ?
ज्योति की माँ अखिला अपनी बेटी के दिल में पिता के लिए नफरत भरना चाहती थी। अपनी माँ से हमेशा यही कहती ‘मेरी बेटी के मन में उस धोखेबाज स्वार्थी व्यक्ति के लिए रत्ती भर भी हमदर्दी होगी तो मेरा खून खौल उठेगा। मैं इसे कतई सहन नहीं कर पाऊँगी।’
माँ बेटी को समझाने की भरसक कोशिश करती रहती।
‘बेटी मर्द ऐसे ही होते हैं। हमें उनके संग होशियारी से पेश आना चाहिए। पति को चंगुल में रखना अक्लमंदी है...तुम चूक गईं बेटी। तभी उसने तुम्हें छोड़ दिया।’
‘पर माँ मुझसे तंग आकर छोड़ दिया होता तो मन में उम्मीद बँधी रहती कि कभी लौटेगा। पर अब तो वह भी नहीं रही। उसने तो दूसरी शादी भी कर ली है।’
ऐसे वक्त में माँ-बेटी बेटी को अकेला छोड़ देती। बातें करने से कोई फायदा भी तो नहीं था।
ज्योति के मन में पिता को जानने, उनसे बातें करने की इच्छा हर वक्त बनी रहती। नाना-नानी का भरपूर प्यार तो मिलता था पर रईस घरानों में बच्चे कितना अकेलापन एवं मायूसी का अनुभव करते हैं वह ज्योति के अलावा कोई नहीं जानता था।
ज्योति की माँ अखिला की दिमागी हालत ठीक नहीं थी। जब वह 21 साल की थी तब शंकर उसे देखने आया था। अखिला के माता-पिता ने लड़के वालों को धोखे में रखा था। डॉक्टर ने अखिला की जाँच करने पर कहा था, शादी कर दीजिए। सब ठीक हो जाएगा।’
बेचारे वे भी इसी उम्मीद में रहे कि शादी के बाद सब ठीक हो जाएगा। पैसे पानी की तरह बहाकर शानो-शौकत से शादी की। दूल्हे पर करोड़ों रुपये बरसाये। दूल्हा शंकर अपने ससुराल वालों से बेहद प्रसन्न था। माँ से सदा यही कहता ‘माँ मेरे ससुराल वाले तो मेरे लिए किस्मत की चाबी हैं।’
शादी के बाद डॉक्टर के कथनानुसार सब कुछ ठीक ही चल रहा था। अखिला की दिमागी हालत में भी काफी सुधार आ गया था। उसे दवा आदि लेने की जरूरत भी नहीं पड़ी। कभी-कभी पति से जिक्र करती ‘शादी के पहले जो दवाइयाँ लेती थी मुझे अब उनकी जरूरत नहीं पड़ती...।’
पति झट से उसे बाहों में भींचकर कहता ‘क्यों अब मैं जो दवा बनकर आ गया हूँ।’
शंकर को ससुराल से उपहार में काफी कुछ मिलता रहता ताकि अखिला से कोई शियाकत न हो। वह पैसों के जाल में ऐसा लिपटा कि ससुराल वालों का ही हो कर रह गया। डॉक्टर ने अखिला के माता-पिता को हिदायत दी थी कि महीने में एक बार अखिला को जाँच के लिए अवश्य लाया जाए। वे अखिला को शंकर के घर से अपने घर किसी न किसी बहाने ले आते और डॉक्टर को दिखा देते। डॉक्टर भी उसकी दिमागी हालत में सुधार देख प्रसन्न थे।
ऐसे ही हँसी-खुशी के दिन कटते रहे। शंकर को अखिला की दिमागी हालत की भनक भी न हो पाई। वैसे भी करोड़पति ससुर ने उसकी आँखों पर धन की जो पट्टी बाँध दी थी।
अचानक एक दिन अखिला बेहोश हो गई। सास ससुर ने सोचा कि शायद थकान के कारण ऐसा हुआ हो।
सास ने शंकर से कहा ‘कल पार्टी में काफी देर तक बातें करती रही। दौड़-धूप से शायद थक गई होगी। पानी के छींटे दे दें तो ठीक हो जाएगी।’
पानी के छींटे पड़ने पर उसने धीमे से पलकें खोलीं। बदहवासी में बोली ‘मैं कहाँ हूँ...इस जंगल में कैसे आई ? मुझे बचाओ...मुझे बचाओ।’
किसी की समझ में नहीं आया कि वह ऐसी ऊल जलूल बातें क्यों कर रही है।
शंकर उसे अस्पताल ले गया। अखिला को घरवालों ने सख्त ताकीद दे रखी थी कि चाहे जो हो वह पति या सास के साथ कभी डॉक्टर के पास नहीं जाएगी बल्कि फोन करके माँ को बुलाएगी।
वह शंकर से मिन्नतें करती रही ‘माँ को बुला लीजिए। वे नाराज़ होंगी मेरी तबियत के बारे में उन्हें ही ज्यादा पता है।’
शंकर को उसकी कोई बात समझ नहीं आ रही थी। वह जबरदस्ती उसे डॉक्टर के पास ले गया। डॉक्टर ने बधाई देते हुए कहा कि वह बाप बनने वाला है।
शंकर अस्पताल से उसे सीधे मायके ले आया। जब लोगों को पता चला कि वह अखिला को अस्पताल ले गया था तो उनके होशोहवास उड़ गए।
हकलाते हुए पूछा, ‘‘क्यों ले गए थे उसे डॉक्टर के पास...हमें बताते तो क्या हम नहीं ले जाते ?’ शंकर ने हँसते हुए कहा ‘कोई भी पिता अपने बच्चे के बारे में जानकारी पाने का हकदार होता है। डॉक्टर से यही जानकारी प्राप्त करके आ रहा हूँ।’
‘ओह हम लोग तो डर ही गए थे।’
‘इसमें डरने की क्या बात है। आप नाना-नानी बनने वाले हो।’ उन्हें यह जान प्रसन्नता हुई और घबराहट भी दूर हो गई।
‘आप अखिला को दो दिन के लिए हमारे पास छोड़ जाइए। हम अगले बुधवार को आपके घर पहुँचा देंगे।’
शंकर को तनिक भी शक नहीं हुआ। वह उसे छोड़ घर चला गया। उसके घर पर खुशियों का आलम छा गया।
अखिला को मनोचिकित्सक डॉ. कल्याणी को दिखाने ले जाया गया। डॉक्टर ने जाँच करने के बाद सूचना दी कि जहाँ तक हो सके अखिला को अकेला न छोड़ें। उसे ऐसे माहौल की जरूरत है जहाँ उसे खूब प्यार मिले। लोग उसकी जरूरत महसूस करें।
अखिला की माँ निश्चिंत थी कि शंकर या उसके घरवाले उसके साथ दुर्व्यवहार नहीं करते। उसने अखिला को वहाँ भेज तो दिया पर मन से भय पूरी तरह नहीं मिटा था। अकसर वहाँ जाकर उसका हाल-चाल देख आती।
शंकर छेड़ते हुए कहता ‘आपकी बेटी हमारे साथ खुश है चिंता न करें।’
जब उनका अक्सर इस प्रकार आना ससुराल वालों को खटकने लगा और उन्होंने बेटी से उसे मिलने नहीं दिया तो वह लौट आईं। पति ने भी समझाया ‘इस प्रकार तो तुम उनके मन में शक का बीज बो दोगी। उन लोगों को उसके दिमागी हालत की भनक भी पड़ गई तो तुम्हारी बेटी की जीना भी दूभर हो जाएगा।’
पति के लाख समझाने पर भी माँ की ममता काबू में नहीं रह पाई। इससे मायके और ससुराल वालों के आपसी संबंधों में तनाव शुरू हो गया। अखिला का आठवाँ महीना चल रहा था। तनाव से उत्पन्न दरार को तूल देकर बड़ा बनाने के बजाए उसे भरने की इच्छा से अखिला के पिता गोद भराई की रस्म के बहाने उसे घर ले आए।
अखिला को मायके आये महीना हो गया। शंकर उससे मिलने आता तो वह बेहद खुश होती। शंकर को व्यापार के सिलसिले में बम्बई जाना था। उसने अखिला को समझाया ‘मैं बम्बई जा रहा हूँ। वापस आने में महीना लग सकता है। इस बीच अगर बच्चा हो जाए तो सूचना दे देना।’ अखिला को शंकर का इस समय जाना अखर रहा था। उसके जाते ही अचानक उसे दौरे पड़ने लगे। पुरानी बीमारी फिर से दिलो दिमाग पर हावी हो गई। उसे तुरंत डॉ. ललिता के पास ले जाया गया। डॉक्टर बेहद परेशान दिखाई पड़ीं। बीमारी का यह प्रतिघात मरीज के लिए अच्छा नहीं है। प्रभु से प्रार्थना कीजिए कि गर्भ में पल रहे बच्चे पर असर न पड़े।’
‘डॉक्टर...प्रसव के बाद तो सब ठीक हो जाएगा न ?’
‘नहीं...यह ऐसी बीमारी है कि अगर दुबारा आई तो उसके इलाज की कोई गारंटी नहीं दी जा सकती। अच्छा होगा कि आप शंकर को इसकी पूरी जानकारी दे दें।’
पर अखिला के घरवालों ने ऐसा कुछ नहीं किया। बीमारी बढ़ती गई और शंकर को इसकी खबर ही नहीं हुई।
प्रसव वेदना के उठते ही ससुराल खबर भेजी गई। उनके रिश्तों में पड़ी दरार बेवजह गहरी होती जा रही थी।
अखिला ने एक खूबसूरत बेटी को जन्म दिया। सिर में इतने काले, घने बाल, कजरारी काली बड़ी-बड़ी आँखें, गोरा रंग, गोल-चांद-सा चेहरा...एकदम शंकर पर गई थी। कोई भी देखता यही कहता। शंकर दो दिन बाद ही आ पाया था। बच्ची का नामकरण धूमधाम से मनाया गया। नामकरण के वक्त भी अखिला सोई-सोई-सी रही। शंकर उससे अकेले में बात भी नहीं कर पाया। अखिला को नींद की गोली देकर वे सुलाए रखते। उसकी दिमागी हालत काफी सोचनीय हो गयी थी। ऐसे ही तनावमय वातावरण में पूरा महीना गुजर गया।
शंकर के लिए अब यह सब कुछ सहन करना असंभव लगा। सीधे मायके पहुँचा और बोला, ‘मुझे लगता है कि आप जान बूझकर मेरी पत्नी को मुझसे अलग कर रहे हैं। मैं अपनी बच्ची और अखिला को अब आपके पास छोड़ने को तैयार नहीं। आपकी रजामंदी हो या नहीं हो, मैं उन्हें ले जा रहा हूँ।’
ससुर ने दामाद को करीब बिठाकर प्यार से समझाया ‘देखो बेटे....अखिला शारीरिक रूप से बहुत कमजोर हो गई है। उसे आराम की सख्त जरूरत है। डॉक्टर ने कहा है कि उसे पाँच महीने तक ससुराल न भेजा जाए। तुम्हें अगर उनकी इतनी याद आती है तो तुम यहीं रह जाओ।’
‘कौन है वह डॉक्टर जिसने ऐसा कहा...मैं खुद उसका इलाज करवाऊँगा। सारी नारियाँ बच्चे जनती हैं...इतनी कमजोर तो कोई नहीं होती कि न बच्ची को दूध पिला सके और न पति से दो बातें कर सके। बड़ा अजीब माहौल है यहां। मैं उसे तुरन्त अपने साथ ले जाना चाहता हूँ।’
वैसे ही रिश्तों में दरार पड़ चुकी थी। उन लोगों ने निश्चय कर लिया कि अखिला को बच्ची के साथ ससुराल भेज दिया जाए। आगे किस्मत में जो होगा देखा जाएगा।
ससुराल आते ही अखिला बदहवास एवं उखड़ी-सी रहने लगी। ससुराल में बच्ची को उसके पास छोड़ते ही नहीं थे। जब भी होश में आती चीखती-चिल्लाती ‘आप लोग मेरे दुश्मन हो। बच्ची को मुझसे अलग करना चाहते हो’ कहकर हाथ में जो कुछ आता उसे सामने खड़े व्यक्ति पर दे मारती।
उसके व्यवहार में आए इस परिवर्तन से सब हैरान थे। शंकर ने निश्चय कर लिया कि वह उसे डॉक्टर के पास ले जाएगा। किसी तरह उसने अखिला से डॉक्टर कल्याणी का नाम पूछ ही लिया जिससे वह मिला करती थी। जब वहाँ पहुँचा तो उसे मानसिक रोग चिकित्सक जान उसे गहरा सदमा पहुँचा। डॉक्टर ने जब उसे अखिला के स्वास्थ्य की पूरी जानकारी मिली तो उसके रोंगेटे खड़े हो गए।
‘मानसिक रोग से ग्रस्त रोगी मेरे मत्थे मढ़ दिया। कम से कम सूचित कर दिया होता तो शायद मेरे लिए इतनी बड़ी समस्या नहीं आती।’ उसके मन में उधेड़बुन थी। उसने अपने माता-पिता से मिलकर यह निर्णय लिया कि वह अखिला का इलाज करवाएगा।
उसकी हालत दिन पर दिन बिगड़ती गई। कोई भी घर आता तो उनके सामने वह पागलों की तरह व्यवहार करने लगती। ज्योति को कोई गोद में लेकर पुचकारता तो उस पर झपटती उसे नोचती बाल खींचती दांत काटती।
एक बार अखिला के माता-पिता उससे मिलने आए। शंकर ने ससुर जी से कहा—
‘आप चाहें तो बेटी को कुछ दिन घर ले जाकर रख लें।
‘क्यों इतनी जल्दी उकता गए। आप लोग तो उसका इलाज करवाने वाले थे।’
‘हमने कोशिश की थी पर नाकामयाबी हासिल हुई। आप लोगों ने झूठ बोलकर हमें धोखा दिया है। इतने दिन हमसे इतना बड़ा रहस्य छिपाया।’
‘रहस्योद्घाटन होने पर आपने कौन-सा तीर मार लिया है।’
‘हम अपने कुल का दीपक अपने पास रखेंगे। आप अपनी बेटी का इलाज करवाएँ। ठीक हो जाए तो खबर भेंजे, हम उसी समय उसे ले जाएंगे।’
माता-पिता बेटी की हालत से अनभिज्ञ न थे। उन्होंने सोचा कि नातिन को साथ ले जाने पर शंकर उनके पास जरूर लौट आएगा। जबरदस्ती नातिन और अखिला को साथ ले गए।
शंकर ने उन्हें समझाने की भरसक कोशिश की पर उनका झूठा अहं उन्हें झुकने नहीं दे रहा था। शंकर के पास कोई चारा न था। उसने तलाक के कागजात भेज दिए। पारिवारिक कोर्ट में मामला दर्ज हुआ। और साल भर में तलाक हो गया।
नलिनी पिता अखिलेश के संग बार अहाते में आ गई। कॉलेज का कैम्पस बहुत विशाल था। बड़े-बड़े वृक्ष खूबसूरती में चार-चाँद लगा रहे थे। क्यारियों में खिले गेंदे के फूल, सूरजमुखी एवं गुलाब के फूलों की महक से वातावरण सौरभयुक्त था। ठंडी-ठंडी हवा गर्मी के मौसम में सुकून दे रही थी। वृक्षों पर चहचहाते पक्षी वातावरण को आनन्दमय कर रहे थे। प्रकृति की इस अनुपम छटा को देख मदमस्त खड़े अखिलेश को नलिनी ने झकझोरा।
‘पापा आप मुझसे मिलने आए थे या यहाँ का वातावरण देखने ?’
‘आया तो तुझसे ही मिलने था बेटी...पर यह जगह बड़ी खूबसूरत है।’ ‘माँ कैसी हैं पिताजी...समीर की वजह से मुझे तो मिस भी नहीं करती होंगी ?
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