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काल का प्रहार

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5202
आईएसबीएन :000

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आशापूर्णा देवी का एक श्रेष्ठ उपन्यास

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ये ही सारे दोषों की जड़ होते थे, यही उम्र होती थी इन्हें ठीक करने की, यह बात ऊपरी स्तर के प्राणियों के मन में कूट-कूट कर भरी थी। (आहा ! ये कितने दूरदर्शी और परिणाम ज्ञाता लोग हुआ करते थे)।

हम इसी श्रेणी में थे। इस टीनएजर की श्रेणी में गिने जाते थे। मैं, दलूमौसी, चिनुमौसी, कचिमौसी, ननीदी, मटरुदि-उधर भजन, साधनघेमामा, पिन्टूमामा।

इस स्तर पर सभी की कड़ी नजर और शासन रहता था। जिसमें कर्ता, गृहिणियाँ, दादाबाबू से लेकर बलराम, दक्ष की माता भी शामिल रहते। ये सब अपना कर्तव्य दिलोजान से करते। तभी हमारी हालत-रहने दे वह प्रसंग।

हाँ इस टिनएजरे ग्रुप का भी भेदाभेद था। लड़कों के लिए अच्छा खाद्यान्न। लड़कियों के लिए जैसे तैसे-उन्हें पराये घर जाना है। किस जगह जायें, किस घर में पढ़े, उसका ठिकाना है? अगर आदत बिगड़ जाये तो परेशानी होगी। बारह बरस की उम्र से ही साड़ी पहनना आवश्यक हो जाता था। संसार का काम भी कर्तव्य में था। खाना नहीं बनाने दिया जाती था। थाली भर-भर कर पान बनाना, कटोरी भर कर सुपारी काटना, कमरों को साफ करना, बड़ों के खाने के समय पंखा झलना और माँ, चाची के गोद के बच्चों को संभालना। इनके लिए दिया जाता–काठ की पीड़ी, चुमकी छोटा लोटा (मुकेश का कामदार), बड़ा गिलास।

इस टीनएजर के पश्चात बालवाहिनी का नम्बर आता था। असल में यही सर्वनाश का मूल थे। यह बात ऊपरी स्तर वालों के भेजे में नहीं आती। यह जिसे भली प्रकार समझते थे।

यह बालखिल्य दल बड़ों के सामने भोले-भोले बन कर रहते जैसे अभी-अभी बाबा भोलेनाथ का स्वर्ग से आगमन हुआ हो। पर हमारे साथ? एक-एक थे, एक नम्बर के शैतान। परिवार का अनिष्ठ करने में इन्हीं की मुख्य भूमिका रहती।

बड़े ही सरल तरीके से इस कमरे की बात उस कमरे तक, उसकी स्वउक्तियाँ उसके कान में करते रहते। किसी के बच्चे को चिऊँगी कल के जगा कर, दूसरे कमरे में हँस-हँस कर कहते छोटी चाची की बेटी ऐसा पाजी है रोता ही रहता है। तभी तो चाची कुछ भी काम नहीं कर पाती।

हमारी समस्त गतिविधियों पर नजर रखना फिर रिपोर्टर को कार्य निवाहना। ये ही अबोध सज कर बड़ों के कर्णगोचर कर देते। और छोले, कुल्फी झालचना में हिस्सा प्राप्त कर लेते।

इन्हीं में से एक ने दलूमौसी-वह प्रसंग तो बाद में आयेगा।

उत्तर कलकत्ता वाले दलूमौसी के उस परिवार की तस्वीर में रंग इनसे काफी भर जाया करता था। इनके लिए रहता-गला भात, जीयन मछली, गरम दूध, मिसरी, गुड़, लैमनजूस। ये पाँच, छ: हाथ की धोती या इजर पहनते थे।

एक और स्तर था जो सिर्फ कथरी पर सोने वालों का था। इनके बारे में अधिक जानकारी नहीं थी। भगवान को पता है वह क्या खाते या पहना करते थे। हांलाकि हर समय जन्मदिन वाले पोशाक में ही देखे जाते थे। इनको देखने का भार हमारी उम्र वाली लड़कियों का था, जिन्हें पराये घर जाने का प्रशिक्षण मिल रहा था।

इस स्तर विन्यास के बाद भी ऊपरी स्तर के सदस्यों के ऊपर अप्रत्यक्ष रूप से दो प्रकार के सदस्यों की उपस्थिति हुआ करती थी। भूत एवंम भगवान। इनमें से एक को कभी भी देखे तो नहीं पाते थे पर उपस्थिति का अहसास-बुआ दादी जो हमेशा अपने लड्डूगोपाल' की निर्देशना, आदेश, मुनहार, इजहारे सुन पातीं थीं।

और द्वितिय-सब ना देख सकें पर कोई-कोई कभी देख लेता। मझले दादू का पालित भूत जो उनसे बातचीत करता-बीच-बीच में मझले दादा उन्हें किसी प्रकार नीचे उतारते।

प्रत्यक्ष रह कर भी यह दो पार्टियाँ हमें काफी मुसीबत में डाल दिया करती थी।

हाँ इस प्रकार के परिवार में और भी इधर-उधर होता था। आर्थिक अवस्था का भेद भी नजर आता। जैसे इस परिवार वर्ग की महिलाओं, ठाकुर, बलराम और दक्ष की माँ के लिए रहता मोटे दाने वाला चावल, साधारण तरकारी, पतली दाल, इमली की चटनी और छोटे-छोटे झींगा मछली और ऊपरी प्राप्ति में था-भेट की मछली को काँटा, गंगा का हिस्सा का सिर-पूंछ वाला हिस्सा, पोना मछली को सबसे निकृष्ट भाग।

परन्तु अन्य परिवारों में तो महिलाओं के लिए इतनी अधिक इन्तजाम भी नहीं किया जाता था।

पर जो गृहिणी की पदमर्यादा पर आसीन हो जाती थी वे दूध, ताजा मछली की तरी की हकदार हो जातीं क्योंकि उन्हें साधारण बदहजमी की बीमारी लग जाती थी। विधवाओं की अलग कथा थी।

सच में वह किसी प्रकार जीवित रह जातीं ये तो हमारे जैसे तुच्छ जनों के समझ से बाहर की बात थी। कभी-कभार बड़े मालिकों के परोसने में जो दिखता किसी महान तिथि पर जब छानापट्टी से बड़े-बड़े पनीर के टुकड़े, टोकरी भर कर फल-जिसे बलराम फल सहित नल के नीचे रख कर थोड़ा खंखारकर बूओं दादियों के भंडारे के सामने रख आता।

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