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भूतनाथ - भाग 4

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : शारदा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :290
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5206
आईएसबीएन :81-85023-56-5

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भूतनाथ - भाग 4

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Bhootnath - Part 4 - A hindi book by Devkinandan Khatri



भूतनाथ-इक्कीस भाग, सात खण्डों में, ‘चन्द्रकान्ता’ वे ‘चन्द्रकान्ता-सन्तति’ की ही परम्परा और श्रृंखला का बाबू देवकीनन्दन खत्री विरचित एक अत्यन्त लोकप्रिय और बहुचर्चित प्रसिद्ध उपन्यास है। ‘चन्द्रकान्ता-सन्तति’ में ही बाबू देवकीनन्दन खत्री के अद्भुत पात्र भूतनाथ (गदाधर सिंह) ने अपनी जीवनी (जीवन-कथा) प्रस्तुत करने का संकल्प किया था। यह संकल्प वस्तुतः लेखक का ही एक संकेत था कि इसके बाद ‘भूतनाथ’ नामक बृहत् उपन्यास की रचना होगी। देवकीनन्दन खत्री की अद्भुत कल्पना-शक्ति को शत-शत नमन है। लाखों करोड़ों पाठकों का यह उपन्यास कंठहार बना हुआ है। जब यह कहा जाता है कि ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकान्ता-सन्तति’ उपन्यासों को पढ़ने के लिए लाखों लोगों ने हिन्दी भाषा सीखी तो इस कथन में ‘भूतनाथ’ भी स्वतः सम्मिलित हो जाता है क्योंकि ‘भूतनाथ’ उसी तिलिस्मी और ऐयारी उपन्यास परम्परा ही नहीं, उसी श्रृंखला का प्रतिनिधि उपन्यास है। कल्पना की अद्भुत उड़ान और कथारस की मार्मिकता इसे हिन्दी साहित्य की विशिष्ट रचना सिद्ध करती है। मनोरंजन का मुख्य उद्देश्य होते हुए भी इसमें बुराई और असत् पर अच्छाई और सत् की विजय का शाश्वत विधान ऐसा है जो इसे एपिक नॉवल (Epic Novel) यानी महाकाव्यात्मक उपन्यासों की कोटि में लाता है। ‘भूतनाथ’ का यह शुद्ध पाठ-सम्पादन और भव्य नवप्रकाशन, आशा है, पाठकों को विशेष रुचिकर प्रतीत होगा।

खण्ड-चार

दसवाँ भाग


जमानिया राज में आज बड़ा ही हड़कम मचा हुआ है क्योंकि सुबह ही राजमहल की चौमुहानी पर राजा के खास मुसाहिब और मित्र तथा जमानिया के प्रसिद्ध रईस दामोदरसिंह की लाश पाई गई है जिसके सर का पता न था. सारे शहर में इस बात का कोलाहल सा मचा हुआ है और जगह-जगह लोग इकट्ठे होकर इसकी चर्चा करते हुए अफसोस के साथ कह रहे हैं, ‘‘हाय-हाय, इस बेचारे की जान न जाने किस हत्यारे ने ली ! यह तो किसी के साथ दुश्मनी करना जानता ही न था, फिर किस कारण इसकी यह दुर्दशा हुई !’’
केवल एक यही नहीं बल्कि इसे लेकर और भी कई प्रकार की झूठी और सच्ची खबरें शहर में उड़ रही हैं जिनमें यदि बुद्धिमानों को नहीं तो अनपढ़ और अनजानों को अवश्य विश्वास हो रहा है. कोई इसे किसी प्रेत की कार्रवाई समझता है तो कोई डाकू-लुटेरों की. कोई इस काम को किसी षड्यंत्र का फल बताता है तो कोई किसी दूसरे राजा की करतूत कहता है, तथा यह बात भी रह-रहकर किसी-किसी के मुँह पर सुनाई पड़ती है कि—’इसी प्रकार रोज शहर के एक रईस की जान ली जायगी और अन्त में हमारे राजासाहब भी इसी तरह पर मारे जांयगे ! मगर ऐसी बातों पर विश्वास करने वाले बहुत ही कम पाये जाते हैं.

खैर जाने दीजिए, इन बातों में तो कोई तत्त्व नहीं है और न इन अनपढ़ लोगों में इतनी बुद्धि ही है कि किसी गूढ़ मामले को समझ सकें, हम तो आपको लेकर खास राजा साहब के महल में चलते हैं और देखते हैं कि वहाँ क्या हो रहा है.
खास महल की एक लम्बी-चौड़ी बारहदरी में राजा गिरधरसिंह सुस्त और उदास बैठे हुए हैं. उनकी आँखों से रह-रहकर आँसू टपक पड़ते हैं जिन्हें वे रूमाल से पौंछते जाते हैं. बगल ही में संगमर्मर की एक बड़ी चौकी पर दामोदरसिंह की सिर कटी लाश पड़ी हुई है जिसकी तरफ बार-बार उनकी निगाह घूम जाती है और वे लम्बी साँस लेकर गर्दन फेर लेते हैं.
उनकी गद्दी से कुछ दूर हट कर बाईं तरफ हम दारोगा साहब को बैठे हुए देख रहे हैं जिसके बाद दो-तीन और मुसाहिब भी गरदन झुकाए बैठे हैं. राजा साहब की तरह दारोगा की आँखों से भी आँसू गिर रहे हैं. बार-बार वह आँसू पौंछ कर और दिल सम्हाल कर राजा साहब से कुछ कहना चाहता है जो उसकी तरफ कुछ गौर के साथ देखते हुए अपनी किसी बात का जवाब सुना चाहते हैं पर उसकी आँख के आँसू उसे बोलने नहीं देते और बार-बार मुँह खोल कर भी कोई बात बाहर निकाल नहीं सकता.

आखिर बड़ी मुश्किल से अपने को सम्हालकर दारोगा ने कहा, ‘‘महाराज, मैं क्योंकर बताऊँ कि यह काम किसका है. किस दुष्ट पापी ने हमारे खैरखाह दामोदरसिंह की जान ली यह मैं कैसे जान सकता हूँ, हाँ इतना अवश्य कह सकता हूँ कि चाहे मेरी जान इसके लिए चली जाय तो कोई परवाह नहीं पर मैं इनके खूनी का पता अवश्य लगाऊँगा.’’
महा: सो तो ठीक है मगर मेरी बात का जवाब आपने नहीं दिया. क्या उस गुप्त कमेटी का पता हम लोगों को कुछ नहीं लगेगा जिसके विषय में मैं बहुत कुछ सुन चुका और आपको सुना भी चुका हूँ ? मुझे विश्वास है कि यह काम भी उसी कमेटी का है और उसी ने (लाश की तरफ बताकर) इस बेचारे की जान ली है.
इतना कहकर महाराज कुछ रुके, मानो दारोगा से कुछ जवाब पाने की आशा करते हों, मगर जब उसने कुछ न कहकर सिर झुका लिया तो बोले, ‘‘और मुझे बार-बार यह सन्देह होता है कि आप उस कम्बख्त कमेटी का हाल कुछ न कुछ ज़रूर जानते हैं.’’

महाराज की बात सुन दारोगा भीतर ही भीतर काँप गया मगर अपने को संभाले रह कर बोला, ‘‘न मालूम महाराज के दिल में किस तरह ऐसा बेबुनियाद खयाल जड़ पकड़ गया ! पर खैर, यदि महाराज का ऐसा ही खयाल है तो मैं भी प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि अगर ऐसी कोई कमेटी वास्तव में हमारी रियासत में मौजूद है तो मैं शीघ्र ही इसका पूरा-पूरा पता लगाकर महाराज को बताऊँगा.’’
महा: (कुछ संतोष के साथ) बेशक आप ऐसा करें और बहुत जल्द पता लगाकर मुझे बतायें कि यह कमेटी क्या बला है और क्यों इस तरह मेरे पीछे पड़ गई है. अगर आप इसका ठीक-ठीक हाल मुझे बतावेंगे तो मैं बहुत खुश हूँगा !
दारोगा: (सलाम करके) बहुत खूब !
महा: (बाकी मुसाहिबों और दरबारियों की तरफ देख कर) और आप लोग भी इस काम में कोशिश करें, जो कोई भी यह काम पूरा करेगा उससे मैं बहुत खुश हूँगा और उसे मुँहमाँगा इनाम मिलेगा.
इतना कह राजा गिरधरसिंह उठ खड़े हुए और दामोदरसिंह की लाश को उनके रिश्तेदारों के सुपुर्द करने की आज्ञा देकर आँसू बहाते हुए महल की तरफ चले गये. दरबारी लोग भी इस विचित्र कमेटी और महाराज की नई आज्ञा के विषय में बातें करते हुए बिदा हुए और दारोगा लाश का बन्दोबस्त करने के बाद किसी गहरे सोच में सिर झुकाए हुए अपने घर की तरफ रवाना हुआ।

महल में पहुँच राजा साहब सीधे उस तरफ बढ़े जिधर कुँअर गोपालसिंह रहते थे. गोपालसिंह उसी समय संध्या-पूजन समाप्त कर उठे ही थे जब महाराज के आने की खबर उन्हें लगी और वे घबराए हुए उनकी तरफ बढ़े क्योंकि दामोदरसिंह की लाश के पाये जाने की खबर उन्हें भी लग चुकी थी.
महाराज ने गोपालसिंह का हाथ पकड़ लिया और उनके बैठने के कमरे की तरफ बढ़े. नौकरों को हट जाने का इशारा कर वे एक कुर्सी पर जा बैठे और गोपालसिंह को अपने पास बैठने का हुक्म दिया.
कुछ देर सन्नाटा रहा और दामोदरसिंह की याद में महाराज आँसू बहाते रहे, इसके बाद अपने को सम्हाल कर बोले, ‘‘तुमने दामोदरसिंह के मरने की खबर सुनी ही होगी ?’’
गोपाल: जी हाँ, अभी कुछ ही देर हुई यह दुखदायी खबर मुझे मालूम हुई है. न जाने किस हत्यारे ने उन बेचारे की जान ली !
महाराज: तुम यह किसका काम खयाल करते हो ?
गोपाल: (कुछ सोच कर) शायद दामोदरसिंह का कोई दुश्मन हो ?
महाराज: नहीं नहीं, यह काम दामोदरसिंह के किसी दुश्मन का नहीं है बल्कि मेरे और जमानिया राज्य के दुश्मनों का है. बेटा, अब तो तुम खुद सोचने-विचारने लायक हो गये हो. क्या इधर कुछ दिनों से जो-जो बातें देखने-सुनने में आ रही हैं उन पर ध्यान देने पर यह नहीं कहा जा सकता कि हम लोगों का कोई दुश्मन पैदा हुआ जो हमारे खिलाफ काम कर रहा है ?
गोपाल: बेशक इधर की घटनाओं को देखकर तो यही कहने की इच्छा होती है.
महा: हाय हाय, हमारे खैरखाह लोग इस तरह मारे जायें और हम कुछ न कर सकें, हमारे जिगर के टुकड़े इस तरह हमसे अलग कर दिये जायें और हम लोग हाथ न उठा सकें ! ओफ, हद हो गई !
दिल के कमजोर राजा गिरधरसिंह इतना कह फिर आँसू बहाने लगे जिसे देख गोपालसिंह हाथ जोड़कर बोले, ‘‘पिताजी, इस तरह सुस्त हो जाने से काम न चलेगा, हम लोगों को दामोदरसिंह के खूनी का पता लगाने की कोशिश करनी चाहिए. मैंने यह खबर सुनते ही अपने मित्र इन्द्रदेव के पास अपना आदमी भेजा है, और वे बड़े ही तेज ऐयार हैं, जरूर कुछ न कुछ पता लगावेंगे.’’
महा: बेशक इन्द्रदेव अगर इस काम को अपने जिम्मे ले ले तो अवश्य बहुत कुछ कर सकता है, और उसे करना भी चाहिए क्योंकि दामोदरसिंह उसके ससुर ही थे.

गोपाल: वे जरूर अपने ससुर के खूनी का पता लगावेंगे और मैं खुद उनकी मदद करूँगा. अब बेफिक्री के साथ बैठे रहने का ज़माना बीत गया और मुझे तो यह मालूम होता है कि इतने ही पर खैर नहीं है, अभी हम लोगों पर कोई और भी मुसीबत आने वाली है.
महा: बेशक ऐसी ही बात है, यह मामला यहाँ ही तक नहीं रहेगा. मगर बेटा, तुम होशियार रहना और जान-बूझ कर अपने को मुसीबत में न फँसाना क्योंकि मैंने यह सुना है कि हम लोगों के बर्खिलाफ कोई कमेटी भी बनी है जिसका यह काम हो सकता है.
गोपाल: जी हाँ मैंने भी इस विषय में कुछ सना है मगर यह खबर कहाँ तक सच है सो कुछ नहीं कह सकता.
महा: मैंने दारोगा साहब के सुपुर्द इस कमेटी का पता लगाने का काम सौंपा है, उम्मीद है कि वे जल्दी ही कुछ न कुछ पता लगावेंगे.
गोपाल: अफसोस ! इस वक्त चाचाजी (भैयाराजा) न हुए, नहीं तो वे बहुत कुछ कर सकते थे, इस कमेटी का जिक्र उन्होंने ही पहिले पहल मुझसे किया था.
महा: न जाने शंकरसिंह कहाँ चले गए, मुझसे बिगड़कर जो गए तो फिर नजर ही न आए !
गोपाल: मैं कह तो नहीं सकता पर आपके बर्ताव से उनके दिल को बड़ी चोट पहुँची.
महा: मेरे बर्ताव से ! मैंने भला क्या किया ?

गोपाल: (रुकते हुए) यही कि उनके मुकाबिले में दारोगा साहब की इज्जत की. माना कि उन्हें दारोगा साहब से कुछ चिढ़ हो गई थी और वे उनका विश्वास न करते थे पर तो भी क्या हुआ, वे फिर भी अपने ही थे और दारोगा साहब फिर भी एक नौकर ही. हम मान लेते हैं कि चाहे चाचाजी का दारोगा साहब पर झूठा शक ही क्यों न हो पर एक बार उनकी बात मानकर पीछे उनकी गलती दिखाना ज्यादा वाजिब होता. जैसा बर्ताव हमारे यहाँ से उनके साथ किया गया उसे देख कर भी अगर वे चले न जाते तो ही ताज्जुब की बात थी ! खैर अब जो हुआ सो हो गया !
गोपालसिंह की बात सुन राजा साहब ने सिर झुका लिया और कुछ जवाब न दिया. गोपालसिंह ने भी यह देख बात का सिलसिला बदलने के खयाल से कहा, ‘‘हमारे यहाँ भी तो कई ऐयार हैं, वे सब क्या किया करते हैं ? बिहारीसिंह और हरनामसिंह को आपने दामोदरसिंह के खूनी का पता लगाने का हुक्म दिया ?’’
महा: (चौंक कर) नहीं, उनकी तरफ तो मेरा खयाल ही नहीं गया. मैं अभी उन्हें बुलाता हूँ.
यह सुन गोपालसिंह उठे और एक खिदमतगार को जो आवाज की पहुँच के बाहर खड़ा हुआ था बुलाकर महाराज का हुक्म सुना जल्दी दोनों ऐयारों को ले आने का हुक्म दिया. कुछ ही देर बाद हरनामसिंह हाजिर हुआ और महाराज तथा कुंअर साहब को अदब से सलाम कर हाथ जोड़ बोला, ‘‘आज्ञा ?’’
गोपाल: बिहारीसिंह कहाँ है ?

हरनाम: वे दामोदरसिंहजी वाली घटना का हाल सुन खोज लेने उधर ही कहीं गए हैं.
महा: ठीक किया, तुम भी जाओ और बहुत जल्द पता लगा कर मुझे बताओ कि यह काम किसका है. बस सीधे चले जाओ.
‘‘बहुत खूब !’’ कह कर हरनामसिंह ने झुककर सलाम किया और पीछे पाँव लौटा. उसके चले जाने के बाद गोपालसिंह ने अपने पिता की तरफ देख कर कहा, ‘‘महाराज ने भी अभी तक कदाचित नित्य कृत्य से छुट्टी नहीं पाई.....’’
महा: कहाँ, सुबह से तो इसी तरद्दुद में पड़ा हुआ था, अब जाता हूँ. (रुक कर) क्या कहूँ, तुम्हारा ब्याह हो जाता तो तुम्हें राज्य दे मैं तपस्या करने चला जाता, अब इस संसार से मुझे बिल्कुल विरक्ति हो गई है.
कुछ और बातचीत के बाद महाराज जरूरी कामों से छुट्टी पाने की फिक्र में पड़े और गोपालसिंह भी आवश्यक काम में लग गए.

2

अपने पति को सामने पा एकबार तो रामदेई घबरा गई पर मौका बेढब जान उसने शीघ्र ही अपने को चैतन्य किया और भूतनाथ को हाथ जोड़कर प्रणाम करने के बाद प्रसन्नता के ढंग पर बोली, ‘‘इस समय आप बड़े अच्छे मौके पर आये !’’
भूत: सो क्या, और इस जगह खड़ी क्या कर रही हो ?
रामदेई: आज आपके मकान में चोर घुसे थे.
भूत: (चौंक कर) क्या ! लामाघाटी में चोर ?

राम: जी हाँ, लगभग घण्टे भर के हुआ मैं जरूरी काम से उठी और घर के बाहर निकली. चाँदनी खूब छिटकी हुई थी और घाटी में उसकी खूब शोभा फैल रही थी इससे जी में आया कि कुछ देर टहल कर चाँदनी रात की बहार लूँ. धीरे-धीरे टहलती हुई उस तरफ बढ़ी जिधर आपके शागिर्दों का डेरा है तो एकाएक किसी के बोलने की आहट आई. पहिले तो खयाल हुआ कि शायद अपना ही कोई आदमी है पर जब इस बात की तरफ गौर किया कि कई आदमी बातें कर रहे हैं और वह भी बहुत धीरे-धीरे फुस-फुस करके तो मेरा शक बढ़ा. मैंने अपने को एक पेड़ की आड़ में छिपाया ही था कि पास ही की एक झाड़ी में से कई हथियारबन्द आदमी निकले जो गिनती में छः से कम न होंगे. मैं घबड़ा गई पर चुपचाप खड़ी देखती रही कि ये लोग कौन हैं और किस इरादे से आए हैं. उनमें से दो आदमी तो वहीं खड़े रहे और बाकी के दो-चार किसी तरफ को चले गये. मैं बड़े तरद्दुद में पड़ी क्योंकि यह तो मुझे निश्चय हो गया कि इन आदमियों की नीयत अच्छी नहीं है और इनके काम में अवश्य बाधा डालनी चाहिए पर करती तो क्या करती, मुझसे कुछ फासले पर वे दोनों आदमी खड़े बड़ी होशियारी के साथ चारों तरफ देख रहे थे ! अगर मैं जरा भी अपनी जगह से हिलती या किसी को आवाज देती तो जरूर पकड़ी जाती, इससे मौका न समझ ज्यों की त्यों छिपी खड़ी रही और उनलोगों की कार्रवाई देखती रही क्योंकि इस बात का विश्वास था कि मेरे आदमी ऐसे बेफिक्र नहीं होंगे कि घर में इतने आदमी घुस आवें और किसी को खबर न हो. आखिर कुछ देर बाद ही वे चारों आदमी लौटते हुए दिखाई पड़े जिनमें से एक आदमी अपने सिर पर एक भारी गठरी उठाए हुए था. अब मुझे पूरा विश्वास हो गया कि ये लोग बेशक चोर हैं और कुछ माल उठाकर भाग रहे हैं क्योंकि उन चारों के आते ही वे दोनों आदमी भी जो वहाँ खड़े हुए थे उनमें शामिल हो गए और तब सब के सब तेजी के साथ बाहर की तरफ रवाना हुए. पहिले तो मेरा इरादा हुआ कि लौटकर अपने आदमियों को होशियार करके इन सभी को गिरफ्तार कराने की कोशिश करूँ पर फिर यह सोचा कि जब तक मैं अपने आदमियों के पास पहुँचूँगी तब तक ये लोग बाहर निकल जायेंगे क्योंकि उस जगह से जहाँ मैं थी वह मुहाना दूर न था, अस्तु मैंने वह खयाल छोड़ दिया और दबे पाँव उन आदमियों के पीछे चलती हुई यहाँ तक पहुँची. वे सब पहाड़ी के नीचे उतर गए और मैं लौटा ही चाहती थी कि आप आते हुए दिखाई पड़े इससे रुक गई कि शायद आपने उन आदमियों को देखा हो या उनके बारे में कुछ जानते हों ?

भूतनाथ: (ताज्जुब के साथ) नहीं, मैंने तो किसी आदमी को नहीं देखा. उनको गए कितनी देर हुई ?
रामदेई: बस वे लोग इधर बाईं तरफ उस टीले की ओट हुए हैं और सामने से आते आप दिखाई पड़े हैं.
भूतनाथ: बड़े ताज्जुब की बात है. लामाघाटी में और इस तरह चोरी हो जाय ! बेशक यह किसी जानकार आदमी का काम है मामूली चोरों का नहीं, क्योंकि यहाँ का रास्ता हर एक को मालूम हो जाना जरा टेढ़ी खीर है.
रामदेई: जरूर, और इसी बात से मैं और भी फिक्र में पड़ गई हूँ.
भूत: (घूम कर) मैं अभी उनका पीछा करता हूँ.
रामदेई: (प्यार से हाथ पकड़ कर) नहीं-नहीं, तुम अभी थके हुए आ रहे हो इस समय मैं जाने न दूँगी, और तुम पहिले भीतर चल के देख भी तो लो कि कुछ चीज भी गायब हुई है या मेरा झूठा ही खयाल है.
भूत: जब तुमने अपनी आँखों से गठरी लेकर भागते देखा तो बेशक कोई न कोई चीज चोरी गई ही होगी. इसी समय उन लोगों का पीछा करना मुनासिब होगा.

राम: नहीं, सो तो न होगा, तुम आप ही थके चले आ रहे हो, फिर अगर पीछा ही करना है तो तुम्हारे यहाँ क्या आदमियों की कमी है जो तुम खुद यह काम करोगे ? पहिले अपने शागिर्दों से पूछताछ कर लो शायद उन्हें कुछ खबर हो.
भूत: (कुछ क्रोध के साथ) उन कम्बख्तों को कुछ खबर ही होती तो यह नौबत भला क्योंकर आती, खैर मैं एक बार चलकर उन्हीं से दरियाफ्त करता हूं.
इतना कह भूतनाथ अपनी स्त्री को लिए अपनी घाटी के अन्दर घुसा. भीतर सब जगह सन्नाटा छाया हुआ था. सब लोग गहरी नींद में मस्त पड़े हुए थे, और कोई यदि जागता भी हो तो इस समय की सर्दी चादर से बाहर मुँह निकालने की इजाजत नहीं देती थी.
भूतनाथ को लिए रामदेई उधर चली जिधर गौहर कैद की गई थी. कुछ ही दूर बढ़ी होगी कि सामने से एक आदमी आता दिखाई पड़ा जो वास्तव में वही था जिसके सुपुर्द गौहर की हिफाजत की गई थी. नींद टूटने पर गौहर को कहीं न पा वह घबराया हुआ इधर से उधर उसे ढूँढ़ रहा था. भूतनाथ को देखते ही सहम गया और प्रणाम करके बोला, ‘‘गुरुजी, गौहर तो कहीं चली गई.’’

भूत: (अपने क्रोध को दबा कर) क्यों कहाँ चली गई ? क्या भाग गई ? तुम क्या कर रहे थे ?
शागिर्द: (सकपका कर) जी मैं.....मुझे..... कुछ झपकी सी आने लगी थी, जरा सी आँख बन्द की कि वह गायब हो गई, मालूम होता है कोई उसे छुड़ा ले गया.
भूत: तो तुम लोगों को यहाँ झख मारने के लिए मैंने रख छोड़ा है ? एक अपने कैदी की हिफाजत तुमसे न हुई तो और क्या करोगे ? लो सुनो की रात को पाँच-छः आदमी इस घाटी में घुस आए और गौहर को बेहोश कर उठा ले गए !
इस बीच में भूतनाथ के और भी कई शागिर्द वहाँ आ पहुँचे और गौहर का गायब होना सुन आश्चर्य करने लगे क्योंकि किसी को कुछ भी आहट नहीं लगी थी. भूतनाथ ने उन लोगों को बहुत कुछ टेढ़ी-सीधी सुनाई और तब कहा, ‘‘तुम लोगों में से चार आदमी तो अभी उन लोगों का पीछा करो और बाकी के देखो कि सिर्फ गौहर ही गायब हुई है या कुछ सामान भी चोरी गया है.’’
चार आदमी तो उसी समय गौहर का पता लगाने चले गये और बाकी के लोग घाटी भर में फैलकर देखने लगे कि और कुछ गायब तो नहीं हुआ है, मगर शीघ्र ही विश्वास हो गया कि सिवाय गौहर के और कुछ नहीं गया. भूतनाथ ने इतने ही को गनीमत समझा, क्योंकि वह अपना कुछ खजाना भी इसी घाटी में रखता था और एक बार धोखा खाकर अब बराबर इस मामले में चौकन्ना रहता था.

भूतनाथ अपनी स्त्री के साथ अपने खास रहने की जगह चला गया जहाँ मामूली बातचीत के बाद उसने कहा, ‘‘अब मुझे कुछ दिनों के लिए तुमसे अलग होना पड़ेगा.’’
रामदेई: (चौंक कर) क्यों, सो क्यों ?
भूत: जमानिया से एक बुरी खबर आई है.
रामदेई: क्या ?
भूत: दुश्मनों ने दामोदरसिंह को मार डाला.
रामदेई: हाय हाय, वह बेचारा तो बड़ा सीधा आदमी था, उसकी जान किसने ली ?
भूत: मालूम होता है कि यह काम भी उसी दारोगा वाली कमेटी का है.
राम: दारोगा वाली कमेटी कौन ? क्या वही जिसका हाल तुमने.....
भूत: हाँ वही.
रामदेई: (अफसोस करती हुई) उस बेचारे से उन्हें भला क्या दुश्मनी हो गई ? वह तो किसी से लड़ाई-झगड़ा करने वाला आदमी न था.
भूत: कुछ तो होगा ही !
रामदेई: खैर तो इसमें तुम्हें मुझसे अलग होने की क्या जरूरत पड़ी ?
भूत: यद्यपि मुझे और भी दो-एक ऐसी बातें मालूम हुई हैं जिन्होंने मुझे बेचैन कर दिया है जिनका ठीक-ठीक हाल मालूम करना मेरे लिए जरूरी हो गया है, मगर उन्हें छोड़ भी दिया जाय तो मुख्य बात यह है कि मेरे मालिक रणधीरसिंह को मेरी ज़रूरत पड़ गई है. यद्यपि मैंने एक शागिर्द वहाँ अपनी सूरत में छोड़ा हुआ है पर मैं चाहता हूँ कि खुद उनके पास जाऊँ और उनका काम करूँ तथा उस शागिर्द को जो वहाँ मेरी सूरत बन कर रहता है कोई और काम सुपुर्द करूँ, इसी से जल्दी से जल्दी उधर ही जाना चाहता हूँ, शायद अब कुछ दिनों तक तुमसे मुलाकात न हो सकेगी.
रामदेई: (रंज के साथ) खैर मालिक के काम की फिक्र तो ज़रूरी है, मगर तो क्या बीच में भी कभी मुलाकात न होगी ?
भूत: कुछ ठीक नहीं कह सकता, अपना हाल चाल तो बराबर तुमको पहुँचाया ही करूँगा. (कुछ देर ठहर कर) हाँ एक बात और भी बहुत जरूरी है.
रामदेई: कहो.
भूत: मैं यहाँ से जाकर तुम्हारे पास कुछ बहुत ही ज़रूरी चीजें भेजूँगा. उन्हें अपनी जान से ज्यादा हिफाजत से रखना.
राम: (आश्चर्य से) ऐसी कौन सी चीज़ है जिसकी इतनी हिफाजत ज़रूरी है ?

भूत: कई जरूरी कागजा़त वगैरह हैं जो इतने कीमती हैं कि उनका दुश्मन के हाथ में जाना मेरे लिए मौत से बदतर होगा. इसी सबब से मैं उन्हें अपने घर पर भी नहीं रखना चाहता और तुम्हारे सुपुर्द कर देना चाहता हूँ.
रामदेई: उन कागजों में क्या है ?
भूतनाथ ने इस सवाल का कुछ जवाब नहीं दिया. कुछ देर तक वह किसी गम्भीर चिन्ता में डूबा रहा और तब एक लम्बी साँस लेकर बोला, ‘‘खैर तुम इस बात का खयाल रखना कि उन कागजों का भेद किसी को लगने न पाए ! अपनी जुबान से तो कदापि किसी से जिक्र तक न करना, तुम्हारे ऊपर मेरा बहुत बड़ा विश्वास है और इसी से मैं उन्हें तुम्हारे सुपुर्द करता हूँ.’’
इतना कह भूतनाथ ने बातों का सिलसिला बदल दिया और फिर दूसरे ढंग की बातें होने लगीं.

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