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कथा यात्रा

रमेश नैयर

प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5209
आईएसबीएन :81-88267-18-x

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श्रेष्ठ कहानी-संग्रह.

Katha Yatra

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका


इराक में सद्दाम हुसैन के पतन और अमेरिका गठजोड़ के वर्चस्व की युगांतकारी उथल-पुथल के दौरान एक दिलचस्प बात सामने आई कि हताश-इराकी परिवारों को उनकी पुराकथाएँ आकृष्ट करने लगीं। मीडिया के सिलसिलेवार फरेब की मोटी तहों के नीचे सच को तलाशने में विफल इराकी मन अपनी हजारों वर्ष पुरानी ‘अलिफ लैला की लैला’ में कुछ सुकून तलाशने लगा। शताब्दियों पुराने किस्से सुने-सुनाए और पढ़े जाने लगे। इराक की राजधानी बगदाद में ही इस कथा-श्रृंखला को संकलित करके अरबी में लिपिबद्ध किया गया था। बाद में जब इन्हें फ्रेंच और फिर अरबी में अनूदित किया गया तो पूर्व और पश्चिम के बीच एक खिड़की खुली। तब पाया गया कि इन किस्सों की लंबी श्रृंखला में भारत सहित अन्य प्राचीन सभ्यताओं वाले देशों का भी योगदान था।
इधर बगदाद से सैकड़ों किलोमीटर दूर कश्मीर में भी इन कथाओं के प्रति रुचि जाग्रत होने की सूचनाएँ मिलीं। सन् 2003 के आरंभ में एक खबर छपी कि बहुरूपी हिंसा से त्रस्त घाटी के कश्मीरियों की ‘अरेबियन नाइट्स’ में रुचि बढ़ी है। उन्हें वे पुरानी कथाएँ बाँधती हैं। शताब्दियों पुरानी ये सिलसिलेवार कहानियाँ बदले हुए समाज और संदर्भों में भी यदि रुचिकर बनी हुई हैं तो इसका कारण है मनुष्य की जानने, सुनने-सुनाने और बूझने की आदिम इच्छा। कथाओं के अद्भुत लोक में रमने की यही आदिम प्रवृत्ति कहानियों को रचने और पढ़ने-सुनने को प्रेरित करती है।
भारत की कथा-परंपरा भी समृद्ध है। अपनी सार्वभौम और सार्वकालिक उपयोगिता के कारण हर तरफ कथाएँ रची जाती रही हैं। छत्तीसगढ़ जैसे दूरस्थ और विरल संचार साधनोंवाले अंचल की कथा-परंपरा भी उतनी ही पुरानी और समृद्ध है जितनी देश के किसी भी हिस्से की। यह बात कुछ विस्मयकारी लगती है कि इस अंचल में वे सारी कथाएँ प्रचलन में रही हैं, जो इतिहास में उत्थान-पतन की बड़ी घटनाओं की रंगभूमि रहे पश्चिमोत्तर और पूर्वोत्तर में सुनी और सुनाई जाती थीं। इस अंचल में प्राचीन समय से रामकथा का प्रचलन तो समझ में आता हैं, क्योंकि देवी कौशल्या का मायका और श्रीराम का ननिहाल यहीं पर थी; परंतु महाभारत की कथाओं का यहाँ के लोक-नाट्य और कथा-कहानी में रचा-बसा होना यह जिज्ञासा उत्पन्न करता है कि एक शताब्दी पूर्व तक घने वनों से घिरे रहे छत्तीसगढ़ में संस्कृति के ऐसे कौन से सेतु थे जिनसे होकर वे समस्त कथाएँ यहाँ की वाचिक परंपरा में शामिल हो गईं, जो पश्चिमोत्तर के पंजाब में और पूर्वोतर के अविभक्त बंगाल में प्रचलित थीं। भर्तृहरि की गाथा और माधवानल कामकंदला की कथा जितनी लोकप्रिय पंजाब और बंगाल में रही है उतनी ही छत्तीसगढ़ में भी। अनेक जातक कथाएँ भी शताब्दियों से छत्तीसगढ़ की लोक गाथाओं में घुली-मिली रही हैं।
मुद्रित कहानियों के इतिहास में भी छत्तीसगढ़ की उपस्थिति कम-से-कम एक शताब्दी पुरानी है। पं. माधवराव सप्रे की कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ सन् 1901 में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ में प्रकाशित हुई थी। देवी प्रसाद वर्मा (बच्चू जाँजगीरी) ने ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को अनेक प्रमाणों और तर्कों के आधार पर हिंदी की प्रथम प्रकाशित कहानी करार दिया था। कमलेश्वरजी सहित अनेक साहित्यकारों ने श्री वर्मा के दावे का समर्थन किया। कमलेश्वरजी तो यहाँ तक कहते हैं कि आज हिंदी में जिसे द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है, उसे सप्रे युग कहा जा सकता है। छत्तीसगढ़ कथा साहित्य के सृजन का केंद्र बना रहा है। पं. लोचन प्रसाद पांडेय द्वारा छद्म नाम से कुछ कहानियाँ लिखे जाने का उल्लेख मिलता है। सन् 1905 के आस-पास पांडेयजी की कहानी ‘जंगलरानी’ गल्पमाला में प्रकाशित हुई थी, जिस पर उन्हें स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ था। पं. मुकुटधर पांडेय और बाबू कुलदीप सहाय की कहानियाँ बीसवीं सदी के दूसरे दशक में प्रकाशित हुई। उस समय की सर्वाधिक सम्मानित साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ ने कथा-प्रतियोगिता में रायपुर के श्री मावली प्रसाद श्रीवास्तव की कहानी ‘कुलद्रोही’ को तृतीय पुरस्कार दिया था। सन् 1995 में श्री प्यारेलाल गुप्त का भी एक कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ।
छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ के कथाकारों को हिंदी साहित्य जगत् में विशेष प्रतिनिधित्व श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी द्वारा किए गए ‘सरस्वती’ के संपादन काल में मिला। राजनांदगाँव के श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी स्वयं भी अच्छे कहानीकार थे। उन्होंने सन् 1911 से कहानियाँ लिखना शुरू किया था। बख्शीजी को प्रेमचंद युग का महत्त्वपूर्ण कथाकार माना गया है। बातचीत के अंदाज में कहानी कह जाने की विशिष्ट शैली बख्शीजी ने विकसित की थी। बख्शीजी की मान्यता थी कि छत्तीसगढ़ की समवन्यवादी और परोपकारी संस्कृति की छाप यहाँ के कथाकारों के लेखन पर गहराई से पड़ी। छत्तीसगढ़ के प्रतिनिधि कथाकारों के एक संकलन का संपादन करते हुए बख्शीजी ने लिखा था, ‘छत्तीसगढ़ की अपनी संस्कृति है जो उसके जनजीवन में लक्षित होती है। छत्तीसगढ़ियों के जीवन में विश्वास की दृढ़ता, स्नेह की विशुद्धि सहिष्णुता और निश्छल व्यवहार की महत्ता है। ये स्वयं धोखा खाकर भी दूसरों को धोखा नहीं देते हैं। गंगाजल, महापरसाद और तुलसीदास के द्वारा भिन्न-भिन्न जातियों के लोगों में भी जो एक बंधुत्व स्थापित होता है, उसमें स्थायित्व रहता है। जाति-भेद रहने पर भी सभी लोगों में एक पारिवारिक भावना उत्पन्न हो जाती है।’
छत्तीसगढ़ की संस्कृति का स्थायी भाव समवन्य और औदार्य रहा है। यहाँ के कहानीकारों की रचनाओं में ये मुखर होते हैं। श्रीमती शशि तिवारी, श्री जगन्नाथ प्रसाद चौबे, ‘बनमाली’, श्री प्यारेलाल गुप्त, श्री केशव प्रसाद वर्मा, श्री मधुकर खेर, श्री टिकेंद्र टिकरिया और श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सहित पुरानी पीढ़ी के साहित्यकारों की कहानियों से छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विशिष्टता पूरी भव्यता के साथ झाँकती है। उन्हीं दिनों सर्वश्री यदुनंदन प्रसाद श्रीवास्तव, नारायणलाल परमार, शरद कोठारी, हनुमंत लाल बख्शी, श्याम व्यास, प्रदीप कुमार, प्रदीप, हिमाद्रि, भारत चंद्र काबरा, प्रमोद वर्मा, चंद्रिका प्रसाद सक्सेना और देवी प्रसाद वर्मा सहित अनेक कथाकारों की कहानियाँ प्रकाश में आई। सन् 1956 के बाद नई कहानी के दौर में शरद देवड़ा और शानी ने राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई। शानी कथादशक के लेखकों में चर्चित रहे। कहानी के सचेतनवादी आंदोलन में मनहर चौहान सक्रियता के साथ सामने आए। ‘झाड़ी’ और कुछ अन्य कहानियों के प्रकाशन के साथ श्रीकांत वर्मा ने महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया। नामवर सिंह ने श्रीकांत वर्मा में अपरिमित संभावनाएँ देखीं। सरगुजा से श्रीमती कुंतल गोयल और रायपुर की श्रीमती शांति यदु की कुछ कहानियाँ भी चर्चित रहीं।
छत्तीसगढ़ के दूरस्थ कस्बों में रहकर कुछ रचनाकारों ने अच्छी कहानियाँ लिखीं, जो राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित रहीं। कवर्धा के पास एक छोटे से गाँव में रहते हुए तेज बहादुर चौधरी ने कहानियाँ लिखीं। नई कहानियों में कमलेश्वर के संपादन में उनकी दो कहानियाँ प्रकाशित हुई, जिसमें ‘बच्चे’ शीर्षक कहानी को व्यापक प्रशंसा मिली। बेमेतरा के लाल मुहम्मद रिजवी की कहानियाँ भी सराही गईं।
बिलासपुर संभाग में अपने प्रवास के दौरान रवीन्द्रनाथ ठाकुर और विभूति भूषण बंद्योपाध्याय ने बँगला में साहित्य सृजन किया। विमल मित्र ने अनेक वर्ष छत्तीसगढ़ में व्यतीत किए। यहाँ के जनजीवन पर आधारित उनकी बँगला और फिर हिंदी में अनेक कहानियाँ प्रकाशित हुईं। छत्तीसगढ़ के लोक-जीवन पर आधारित विमल मित्र की कहानी ‘सुरसतिया’ विवादों में घिरी रही, जिसे लेकर यहाँ आक्रोश के स्वर भी फूटे। श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का कहना था कि छत्तीसगढ़ की संस्कृति की मूल धारा से परिचित न होने के कारण ही विमल मित्र ने ऐसी विवादास्पद कहानी लिख डाली। बख्शीजी ने लिखा, ‘छत्तीसगढ़ की रीति-नीति को न समझने के कारण कुछ साहित्यकारों से भूल हो जाती है। इसी से विमल मित्र की ‘सुरसतिया’ को लेकर छत्तीसगढ़ में आंदोलन हुआ। मनहर चौहान की भी एक रचना से छत्तीसगढ़ के कुछ लोग क्षुब्ध हुए।’
हिंदी कहानी की प्राय: सभी लहरों और आंदोलनों में छतीसगढ़ की उपस्थिति रही है। माधवराय सप्रे, बख्शीजी, गजानन माधव मुक्तिमोध, श्रीकांत वर्मा, शानी, मेहरून्निसा परवेज और विनोद कुमार शुक्ल व्यापक ख्याति के साहित्यकार हैं। छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने राजनीतिक विचारक के साथ ही कहानीकार के रूप में भी अपनी पहचान बनाई है। इस संकलन में छत्तीसगढ़ से निरंतर जुड़े रहे साहित्यकारों की कहानी संकलित की गई है। मेरे अनुरोध पर जिस सहजता के साथ लेखकों ने अपनी सहमति दी, उसके लिए मैं कृतज्ञ हूँ। उदार लेखकों ने अपनी पसंद की कहानी भेजकर मेरा काम और भी आसान कर दिया। स्व. माधवराव सप्रे, स्व.पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी स्व. गजानन माधव मुक्तिबोध, स्व.श्रीकांत वर्मा, स्व. गुलशेर शानी के उत्तराधिकारियों ने उनकी कहानियाँ इस संकलन में शामिल करने की जो उदारता दिखाई, उनके प्रति आभारी हूँ। स्व. श्रीमती शशि तिवारी और स्व. तेज बहादुर चौधरी के परिजनों से संपर्क नहीं हो पाया। उनकी कहानियाँ इस संकलन में सम्मिलित किए बगैर छत्तीसगढ़ में कथा लेखन की विकासधारा के अक्स अधूरे रह जाते। उनकी सदाशयता पर भरोसा करते हुए उनकी पूर्व-प्रकाशित कहानियाँ डॉ. हरिशंकर शुक्ल के परामर्श पर शामिल की गई हैं। स्व. बनमाली और स्व. केशवप्रसाद वर्मा सहित पुरानी पीढ़ी के कुछ श्रेष्ठ कथाकारों की रचनाएँ सम्मिलित न कर पाने का मलाल बना रहेगा। इस संकलन को तैयार करने और कुछ दुर्लभ कहानियाँ उपलब्ध कराने में विभु कुमार, प्रेम दुबे, रमेश अनुपम और विनोद मिश्र का विशिष्ट सहयोग रहा।

-रमेश नैयर
152-ए समता कॉलोनी,
रायपुर-492010


एक टोकरी भर मिट्टी
-माधवराव सप्रे


किसी श्रीमान जमींदार के महल के पास एक गरीब अनाथ विधवा की झोंपड़ी थी। जमींदार साहब को अपने महल का हाता उस झोंपड़ी तक बढ़ाने की इच्छा हुई। विधवा ने बहुतेरा कहा कि अपनी झोंपड़ी हटा ले। पर वह तो कई जमाने से वहीं बसी थी। उसका पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोंपड़ी में मर गया था। पतोहू भी एक पाँच बरस की कन्या को छोड़कर चल बसी थी। अब उसकी यही पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी। जब कभी उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दु:ख के फूट-फूटकर रोने लगती थी। और जब से उसने अपने श्रीमान पड़ोसी की इच्छा का हाल सुना तब से वह मृतप्राय हो गई थी। उस झोंपड़ी में उसका मन लग गया था कि बिना मरे वहाँ से वह निकलना ही नहीं चाहती थी। श्रीमान के सब प्रयत्न निष्फल हुए। तब वे जमींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालनेवाले वकीलों की थैली गरम कर उन्होंने अदालत से झोंपड़ी पर अपना कब्जा कर लिया और विधवा को वहाँ से निकाल दिया। बिचारी अनाथ तो थी ही। पास-पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी।
एक दिन श्रीमान उस झोंपड़ी के आस-पास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे। इतने में वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहाँ पहुँची। श्रीमान ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि उसे यहाँ से हटा दो। पर वह गिड़गिड़ाकर बोली, ‘‘महाराज, अब तो यह झोंपड़ी तुम्हारी हो गई है। मैं उसे लेने नहीं आई हूँ। महाराज, क्षमा करें तो एक विनती है।’’ जमींदार साहब के सिर हिलाने पर उसने कहा, ‘‘जब से यह झोंपड़ी छूटी है तब से मेरी पोती ने खाना-पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत समझाया, पर वह एक नहीं मानती। यही कहा करती है कि अपने घर चल ! टोकरी भर मिट्टी लेकर उसका चूल्हा बनाकर रोटी पकाऊँगी। इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज, कृपा करके आज्ञा दीजिए तो इस टोकरी में मिट्टी ले जाऊँ।’’ श्रीमान ने आज्ञा दे दी।
विधवा झोंपड़ी के भीतर गई। वहाँ जाते ही उसे पुरानी बातों का स्मरण हुआ और उसकी आँखों में आसूँ की धारा बहने लगी। अपने आंतरिक दु:ख को किसी तरह सँभालकर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली और हाथ से उठाकर बाहर ले आई। फिर हाथ जोड़कर श्रीमान से प्रार्थना करने लगी कि ‘महाराज’ कृपा करके इस टोकरी को जरा हाथ लगाइए, जिससे मैं इसे अपने सिर पर धर लूँ। जमींदार साहब पहले तो बहुत नाराज हुए, पर जब वह बार-बार हाथ जोड़ने लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके भी मन में कुछ दया आ गई। किसी नौकर से न कहकर आप ही स्वयं टोकरी उठाने को आगे बढ़े। ज्यों ही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे त्यों ही देखा कि यह काम उनकी शक्ति से बाहर है। फिर तो उन्होंने अपनी सब ताकत लगाकर टोकरी को उठाना चाहा, पर जिस स्थान पर टोकरी रखी थी वहाँ से वह एक हाथ भी ऊँची न हुई। वह लज्जित होकर कहने लगे, ‘‘नहीं, यह टोकरी हमसे न उठाई जावेगी।’’
यह सुनकर विधवा ने कहा, ‘‘महाराज, नाराज न हों, आपसे तो एक टोकरी भर मिट्टी नहीं उठाई जाती और इस झोंपड़ी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़ी है। उसका भार आप जन्म भर क्योंकर उठा सकेंगे ? आप ही इस बात पर विचार कीजिए।’’
जमींदार साहब धन-मद से गर्वित हो अपना कर्तव्य भूल गए थे, पर विधवा के उपर्युक्त वचन सुनते ही उनकी आँखें खुल गई। कृतकर्म का पश्चाताप कर उन्होंने विधवा से क्षमा माँगी और उसकी झोंपड़ी उसको वापस दे दी।
झलमला

-पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी


मैं बरामदे में टहल रहा था। इतने में मैंने देखा कि विमला दासी अपने आँचल के नीचे एक प्रदीप लेकर बड़ी भाभी के कमरे की ओर जा रही है। मैंने पूछा, ‘‘क्यों री, यह क्या है ?’’ वह बोली, ‘‘झलमला।’’ मैंने फिर पूछा, ‘इससे क्या होगा ?’’ उसने उत्तर दिया, ‘‘नहीं जानते हो बाबू, आज तुम्हारी बड़ी भाभी पंडितजी की बहू की सखी होकर आई हैं। इसीलिए मैं उन्हें झलमला दिखाने जा रही हूँ।’’ तब तो मैं भी किताब फेंककर घर के भीतर दौड़ गया। दीदी से जाकर मैं कहने लगा, ‘‘दीदी, थोड़ा तेल तो दो।’’ दीदी ने कहा, ‘‘जा, अभी मैं काम में लगी हूँ।’’ मैं निराश होकर अपने कमरे में लौट आया। फिर मैं सोचने लगा-यह अवसर जाने न देना चाहिए, अच्छी दिल्लगी होगी। मैं इधर-उधर देखने लगा। इतने में मेरी दृष्टि एक मोमबत्ती के टुकड़े पर पड़ी। मैंने उसे उठा लिया और एक दियासलाई का बक्स लेकर भाभी के कमरे की ओर गया। मुझे देखकर भाभी ने पूछा, ‘‘कैसे आए, बाबू ?’’ मैंने बिना उत्तर दिए ही मोमबत्ती के टुकड़े को जलाकर उनके सामने रख दिया। भाभी ने हँसकर पूछा, ‘‘यह क्या है ?’’
मैने गंभीर स्वर में उत्तर दिया, ‘‘झलमला।’’
भाभी ने कुछ न कहकर मेरे हाथ पर पाँच रुपए रख दिए। मैं कहने लगा, ‘‘भाभी, क्या तुम्हारे प्रेम के आलोक का इतना ही मूल्य है ?’’ भाभी ने हँसकर कहा, ‘‘तो कितना चाहिए ?’’ मैंने कहा, ‘‘कम-से-कम एक गिनी।’’ भाभी कहने लगी, ‘‘अच्छा, इसपर लिख दो; मैं अभी देती हूँ।’’
मैंने तुरंत ही चाकू से मोमबत्ती के टुकड़े पर लिख दिया-मूल्य एक गिनी। भाभी ने गिनी निकालकर मुझे दे दी और मैं अपने कमरे में चला आया। कुछ दिनों बाद, गिनी के खर्च हो जाने पर, मैं यह घटना बिलकुल भूल गया।
आठ वर्ष व्यतीत हो गए। मैं बी.ए.,एल.एल.बी.होकर इलाहाबाद से घर लौटा। घर की वैसी दशा न थी जैसे आठ वर्ष पहले थी। न भाभी थी और न विमला दासी ही। भाभी हम लोगों को सदा के लिए छोड़कर स्वर्ग चली गई थीं, और विमला कटंगी में खेती करती थी। संध्या का समय था। मैं अपने कमरे में बैठा न जाने क्या सोच रहा था। पास ही कमरे में पड़ोस की कुछ स्त्रियों के साथ दीदी बैठी थीं। कुछ बातें हो रही थीं, इतने में मैंने सुना, दीदी किसी स्त्री से कह रही हैं, ‘कुछ भी हो, बहन, मेरी बड़ी बहू घर की लक्ष्मी थी।’
उस स्त्री ने कहा, ‘हाँ बहन ! खूब याद आई, मैं तुमसे पूछनेवाली थी। उस दिन तुमने मेरे पास सखी का संदूक भेजा था न ?’ दीदी ने उत्तर दिया, ‘हाँ बहन, बहू कह गई थी कि उसे रोहिणी को दे देना।’ उस स्त्री ने कहा, ‘उसमें सब तो ठीक था, पर एक विचित्र बात थी।’ दीदी ने पूछा, ‘कैसी विचित्र बात ?’ वह कहने लगी, ‘उसे मैंने खोलकर एक दिन देखा तो उसमें एक जगह खूब हिफाजत से रेशमी रूमाल में कुछ बँधा हुआ मिला। मैं सोचने लगी, यह क्या है। कौतूहलवश उसे खोलकर मैंने देखा। बहन, कहो तो उसमें भला क्या रहा होगा ?’ दीदी ने उत्तर दिया, ‘गहना रहा होगा।’ उसने हँसकर कहा, ‘नहीं, उसमें गहना न था वह तो एक अधजली मोमबत्ती का टुकड़ा था और उसपर लिखा हुआ था ‘मूल्य एक गिनी।’ क्षण भर के लिए मैं ज्ञानशू्न्य हो गया, फिर अपने हृदय के आवेग को न रोककर मैं उस कमरे में घुस पड़ा और चिल्लाकर कहने लगा, ‘वह मेरी है; मुझे दे दो।’’ कुछ स्त्रियाँ मुझे देखकर भागने लगीं। कुछ इधर-उधर देखने लगीं। उस स्त्री ने अपना सिर ढाँकते-ढाँकते कहा, ‘‘अच्छा बाबू, मैं कल उसे भेज दूँगी।’’
पर मैंने रात को एक दासी भेजकर उस टुकड़े को मँगा लिया। उस दिन मुझसे कुछ नहीं खाया गया।
पूछे जाने पर मैंने कहकर टाल दिया कि सिर में दर्द है। बड़ी देर तक मैं इधर-उधर टहलता रहा। जब सब सोने के लिए चले गए, तब मैं अपने कमरे में आया। मुझे उदास देखकर कमला पूछने लगी, ‘सिर का दर्द कैसा है ?’ पर मैंने कुछ उत्तर न दिया; चुपचाप जेब से मोमबत्ती को निकालकर जलाया और उसे एक कोने में रख दिया।
कमला ने पूछा, ‘‘यह क्या है ?’’
मैंने उत्तर दिया, ‘‘झलमला।’’
कमला कुछ न समझ सकी। मैंने देखा कि थोड़ी देर में मेरे झलमले का क्षुद्र आलोक रात्रि के अनंत अंधकार में विलीन हो गया।



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