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दो सखियाँ

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5215
आईएसबीएन :978-81-8361-131

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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।


दो सखियाँ

निःस्वार्थ मैत्री की डोर शायद जीवन की दो ही अवस्थाओं में मनुष्य को बाँध पाती है-कैशोर्य में और वार्धक्य में, शैशव की धरणी मैत्री के अंकुर प्रस्फुटित होने के लिए बहुत कच्ची रहती है। यौवन हमें अपने ही स्वार्थ के प्रति सजग बना देता है-किससे की गई मैत्री कितनी फलप्रसू होगी? किस मित्र से हमें क्या लाभ होगा? यह सोचते-समझते जब हम प्रौढ़ होते हैं तो मैत्री की परिभाषा ही बदल जाती है। नाना अनुभूत तथ्य हमें धीरे-धीरे इतना स्वार्थप्रद बना देते हैं कि हमारा संसार केवल हमारी संतान तक ही सीमित रह जाता है। यहाँ तक कि कभी-कभी अपने उस पारिवारिक एकान्त में हम वर्षों से बिछुड़े और सहसा वर्षों बाद मिले किसी इष्ट मित्र की उपस्थिति को भी भार समझने लगते हैं। मैत्री के प्रगाढ़पन के दुहे शीतोष्ण जलरहित दूध की असली चूट तो हमें वार्धक्य में ही मिल सकती है।

सखुबाई और आनंदी की मैत्री इसी अवस्था में परिपक्व हुई थी। दोनों के स्वभाव, व्यक्तित्व, रुचि, प्रदेश किसी में भी कहीं भी तो साम्य नहीं था। एक थी अकोला की, दूसरी उन्नाव की। एक प्रिंसिपल के पद से अवकाश ग्रहण कर स्वेच्छा से 'आश्रय' में रहने आई थी, दूसरी केवल पाँचवीं कक्षा तक पढ़ी थी, किन्तु गृहिणीय पद का अनुभव था विशद। उस महिमामय पद से समय से पूर्व अवकाश ग्रहण कर अनिच्छा से ही वहाँ आई थी। आनंदी जब 'आश्रय' में रहने आयी तो शरीर और मन दोनों से बुरी तरह टूट चुकी थी। उसकी दोनों बेटियाँ ही उसे पहुँचाने आयी थीं। सखुबाई बरामदे में बैठी चाय पी रही थी। वह मेस से अपनी चाय लाकर नित्य वहीं बैठकर पीती थी। बूढ़े-बूढ़ियों के उस कलरव में चाय पीना उसे कभी अच्छा नहीं लगा। उसने ही पहले कार से बेटियों का सहारा लेकर उतर रही आनन्दी को देखा था। 'आश्रय' के कर्मचारियों ने उसका सूटकेस उतारा, स्काई बैग और टोकरी उसकी बेटियाँ थामे थीं। दीर्धांगी गौरवर्णी युवती उसकी बेटी रुक्मिणी थी, जिसकी चाल-ढाल, चेहरे-मोहरे से अहंकार पसीने-सा टपक रहा था। छोटी बेटी राधा बड़ी बहन से अपेक्षाकृत छोटे कद की थी। उसका रंग कुछ दबा था। किंतु व्यक्तित्व बड़ी बहन से भी अधिक दबंग था। बड़ी-बड़ी चपल आँखों से वह इधर-उधर देखकर बोली, “वाह, जगह तो बड़ी सुंदर है, है न अम्माँ?"

अम्माँ मेले में खो गई किसी सहमी बालिका-सी इधर-उधर देखती, बीचबीच में खड़ी होकर साँस लेते सुस्ता रही थी। तब ही सखुबाई ने उसके देवशिशु के-से निर्दोष चेहरे को ठीक से देखा और उसे लगा ऐसी पीड़ित करुणदृष्टि उसने पहले कभी नहीं देखी। उसका सामान, दबंग ठसकेदार पुत्रियाँ, उनकी मर्सिडीज गाड़ी को देखकर ही वह समझ गई थी कि नवीन आगंतुका किसी समृद्ध परिवार से आयी है। वैसे भी ‘आश्रय' मध्यम वर्ग या निम्नमध्यम वर्ग के बुजुर्गों का आश्रय नहीं था। गृह से निर्वासित या स्वेच्छा से इस वानप्रस्थी आश्रम में आने पर 600 रुपया प्रतिमाह देना होता था। उसी में खाना-पीना, लांड्री, दवा-दारू सबका खर्चा सम्मिलित था। 'आश्रय' का अपना डॉक्टर था, अपना गायनोकालोजिस्ट, अपना डेंटिस्ट और अपना औपथेमॉलोजिस्ट। डेंटिस्ट तो एक प्रकार से मुफ्त की तनख्वाह डकारता था। क्योंकि आश्रमवासियों में अधिकांश के मुँह पोपले थे या फिर वे डेंचर सहित ही आश्रम में आए थे। हाँ, आँखों के डॉक्टर बनर्जी बेहद व्यस्त रहते थे, क्योंकि हर पाँच में से चार बुजुर्गों की आँखों में या तो मोतियाबिंद उतर आया था या उतर रहा था। हिंदी, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती, उर्दू पत्र-पत्रिकाएँ नियमित रूप से आती थीं। एक छोटी-सी लाइब्रेरी भी थी। प्रार्थना भवन था, जहाँ राम-लक्ष्मण-सीता के पंचायतन दरबार, शिव, हनुमान, बालाजी से लेकर गुरु गोविंद सिंह, साईंबाबा के बड़े-बड़े चित्र लगे थे। जिसकी जहाँ श्रद्धा हो वहाँ माथा टेके। एक आश्रमवासिनी वृद्धा अपनी मृत्यु से पूर्व रंगीन टी.वी. सेट भी खरीदकर अपनी बिरादरी को भेंट कर गई थी। प्रार्थना सभा से भी अधिक भीड़ अब वहाँ जुटती थी। दिन-भर की ऊबी-थकी बुजुर्ग बिरादरी कृषि कार्य के लिए नीरसतम कार्यक्रमों को उदरस्थ कर डकार लेकर ही सोने जाती थी।

एक सखुबाई ही उस भीड़ में कभी नहीं दिखती। उसे टी. वी. से एलर्जी थी। जब पूरी भीड़ 'रामायण' के राम-रावण युद्ध को देख लोटपोट हो रही होती, वह अपने कमरे में पलँग पर लेटी बट्रेंड रसेल की आत्मकथा पढ़तीजिसे पिछले चार वर्षों में वह चार बार पढ़ चुकी थी। उसे लगता था वार्धक्य को किसी ने मनसा-वाचा-कर्मणा पछाड़ा है तो रसेल ने। देखा जाए तो उसी की लिखी पंक्तियों ने उसे संतान का मोह त्याग यहाँ आने की प्रेरणा दी थी। उन्हें उसने अपनी डायरी में उतारकर रख लिया था। कभी रसेल ने मित्र लूसी को व्यथित होकर पत्र लिखा था :

प्रिय लूसी,

जीवन तब दुर्वह हो उठता है जब तुम जिन्हें बहुत प्यार करते हो, वे सहसा तुम्हारी पकड़ से बहुत दूर चले जाते हैं। तम समझ जाते हो कि अब उनके जीवन में तुम्हारा स्थान प्रथम नहीं रहा। तुम्हारा दर्जा सहसा दोयम हो गया है। साहस से इस समस्या का सामना करो। स्वयं अपने मोह से मुक्ति पाने की चेष्टा करो। मैं जानता हूँ यह बहुत कठिन साधना है। इस प्रयास में तुम्हारे स्वभाव में, व्यवहार में अस्वाभाविक कठोरता आ जाएगी। मन भी टूटेगा, शरीर भी। तुम्हारा जीवन केवल कल्पना और स्मृतियों का संसार रह जाएगा, जहाँ कर्तव्य से वास्तविकता कभी नहीं टकरा पायेगी। तुम स्वयं एक छाया मात्र रह जाओगी। स्वयं अपने ही लिए एक अजनबी। किंतु इसका एक लाभ भी है। तुम्हारा अतीत सदा जीवंत रहेगा। मेरा दृढ़ विश्वास है कि जब तुम अपनी संतान के जीवन में दोयम दर्जे पर आ जाते हो, तो चाहे कितना ही कठिन लगे, केवल ग्रहण करने का माध्यम बने रहो-प्योरली रिसेप्टिव एण्ड पैसिव। अपनी राय तब तक न दो जब तक मॉगी न जाये। जिनके आश्रित बन गए हो, उनके मूड को देखो, परखो, याद रखो कि अब तुम्हें अपने अधिकार माँगने का भी अधिकार नहीं रहा। यही दृष्टिकोण एक समझदार, सुलझी हुई जननी को अपने विवाहित पुत्र के प्रति सदा अपनाना चाहिए। यदि अपनी आत्मा को मृत्यु से हमें बचाना है तो इसी अग्नि-परीक्षा से बेदाग निकलना होगा....

यही सखुबाई ने किया था और कर रही थी। सात वर्षों की इस कठिन साधना में वह खरी उतरी थी। किंतु आनंदी अभी भी माया-मोह से विमुक्त नहीं हो पा रही थी। राजा सुरथ की भाँति उसके प्राण अभी उसकी प्रवंचक संतान में ही टँगे थे। किंतु ज्ञानपिपासु वैश्य की भाँति सखुबाई ने ही मुक्ति का मार्ग ढूँढ़ लिया था। टी.वी. पर 'रामायण' आने का समय होता तो आनंदी बार-बार बाहर-भीतर जाने लगती। उसका मन होता वह भी उस आतुर भीड़ के बीच बैठ जाये, पर दबंग सखी को अप्रसन्न करने का दुस्साहस उसे कभी नहीं हुआ। एक ही दिन बड़े साहस से उसने दबी-जुबान से डरते-डरते प्रस्ताव रखा था, "चलोगी सखु? आजकल राम-रावण युद्ध चल रहा है।"

"तुझे जाना है तो जा मर, मेरा सिर मत खा। कभी राम के तीर की फुलझड़ी बुझी और कभी रावण की...अरी, क्या घर में ऐसे तीरों की नित्य की टकराहट से मन नहीं भरा तेरा?" आनंदी बेचारी मन मारकर बैठ जाती। बार-बार वह ललचायी दृष्टि से परदे की ओट से टी.वी. को देखती, पर कभी रावण की आधी मूंछ और कभी हनुमान की दिगंतव्यापी पूँछ ही उसके पल्ले पड़ती। 'आश्रय' में आने के पहले दिन ही सखुबाई आनंदी को अपने कमरे में ले आयी थी। जब से गुरुविंदर कौर गई, उसकी पलँग खाली थी। एक कमरे में दो ही पलँगें लगायी जाती थीं, पर इधर सहसा भीड़ बढ़ने से एक-दो कमरों में तीन-तीन पलँगें डाल दी गई थीं। किंतु सखुबाई के कठोर साहचर्य की सम्भावना से ही सब सहम गईं। क्रुद्ध नागिन के फन को भला कौन हाथ में लेती? एक तो वह प्रत्येक वस्तु के लिए एक स्थान और प्रत्येक स्थान के लिए एक वस्तु की उपादेयता में विश्वास रखती थी। फर्श दर्पण-सा चमकता, बिस्तर में एक भी शिकन नहीं। जहाँ अधिकांश कमरों में अव्यवस्था गुदड रूप में साकार होकर पसरी रहती-सखबाई अपने हाथों से गसलखाना घिस-घिसकर चमकाए रखती, करीने से लगी पुस्तकें, एक सीध में रखा चश्मा, रुमाल, चप्पलें। आनंदी के भोले निरीह चेहरे को देख वह उसे अपने कमरे में ले तो आयी, पर उसे भय था कि कहीं वह उसके कमरे की शुचिता को म्लान न कर दे। किंतु आनंदी ने उसे निराश नहीं किया। वह उन्नीस थी तो आनंदी बीस। सखुबाई पैर की एड़ियों से ही किसी भी नारी का पूर्ण व्यक्तित्व भाँप लेती थी। उसका दृढ़ विश्वास था कि जो नारी अपने पैरों को स्वच्छ-सुघड़ रखती है उसके व्यक्तित्व के किसी ओने-कोने में मकड़ी का जाला नहीं लग सकता। आनंदी तड़के ही उठकर नहा-धो लेती, फिर अपने सन-से सफेद बालों का नन्हा-सा जूड़ा बना वह पहले अपने साथ तुलसी के गमले में पानी चढ़ाती, फिर सूर्य को पानी चढ़ाती और अपने लड्डू गोपाल की साजसज्जा में जुट जाती। उन्हें नहलाती, रोली, चंदन लगाती। गोटा लगा रेशमी झबला पहनाती। माथे से लगाती और फिर आँखें मूंद, आत्मविभोर हो मधुर कंठ से नित्य एक ही वंदना दोहराती :

भज गोविंदं भज गोविंद
गोविंदं भज मूढ़ मते
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं
पुनरपि जननी जठरे शयनं
इह संसारे खलु दुस्तारे
कृपयायारे पाहि मुरारे
भज गोविंदं भज गोविंद

जपार्चन से कोसों दूर नास्तिक सखुबाई कभी झुंझला पड़ती, “अब बस गोविन्दं, बस गोविंदं! कब तक भजोगी अपने गोविंद को? क्या दिया है तुझे इस गोविंद ने? बेटे-बेटियों से दूर इस काँजी हाउस में ही तो पटका है-मैं तेरी जगह होती तो दूर पटक आती इन्हें। लानत है ऐसे गोविंद पर..."

“अरे मास्टरनी, भगवान से तो डर। राम-राम! परलोक का क्या कोई डर नहीं है तुझे? देख, तू सत्तर की हो गई है। अभी तक तेरे कान-दाँत-आँख, हाथ-पैर संब सही-सलामत हैं, हाथ में पैसा है, यह सब क्या उसी ने नहीं दिया है तुझे?"

बहुत लाड़ उमड़ने पर वह सखु को मास्टरनी ही कहकर पुकारती थी और सखु उसे कहती थी डोकरी।

“डोकरी," सखुबाई हाथ की मोटी पुस्तक नीचे पटक, चश्मा उतार उसे एक बार फिर अपनी दलील से पराजित कर देती, "क्या दिया है जी उसने? हमने अपनी तंदुरुस्ती की खुद देखभाल की है, कभी शरीर पर अत्याचार नहीं किया, कुपथ्य नहीं खाया, समय को संयम से बाँधकर रखा है। इसी से सब अंग सही-सलामत हैं और पैसा? पूरे पैंतीस वर्ष नौकरी की है, वह भी ईमानदारी से। वही सेंता धन भोग रही हूँ। इसमें देनेवाला कहाँ से आ टपका?"

आनंदी एक दीर्घश्वास लेकर उठ जाती। आज तक कभी भी उसने, किसी भी वाद-विवाद में, अपनी उग्रतेजी सखी को पराजित करने का प्रयास नहीं किया था और कभी-कभी विनम्र विपक्षी का यही समर्पित पराभव सखु को बौखला देता। कैसी औरत है यह! लड़ना जानती ही नहीं!

रात के निभृत एकांत में आश्रमवासी अनिद्रा से त्रस्त हो बड़ी रात तक बेचैन करवटें बदलते रहते। किसी की बेसुरी गुनगुनाहट हवा में तैरती चली आती, कभी सिगरेट का धुआँ। किसी को विलंबित खाँसी का दौरा पड़ता। कोई खटखट कर बरामदे में टहलता। सब ही तो वार्धक्य की देहरी पर खड़े थे और इसी देहरी के भीतर तो प्रायः ही निद्रा का प्रवेश वर्जित रहता है। वे दोनों सखियाँ भी बड़ी रात तक बतियाती रहतीं। उसी निद्राविहीन अवधि में सखुबाई पार्श्व में लेटी आनंदी को नित्य अपनी क्रूर प्रश्न-शलाका से कोंचती रहती :

“डोकरी, सो गई क्या? अरी, अभी तो बारह भी नहीं बजे-रो रही है न? किसकी याद आ रही है, रुक्मन की, राधा की या अपने लाड़ले बेटे की?"

“कौन हरामजादी रो रही है!" कभी-कभार ही कोंचे जाने पर ऐसे अपशब्द उस सात्विकी जिहा पर फिसलते थे, "मैं क्यों रोने लगी?"

किंतु चतुरा सखुबाई अँधेरे में भी उसके मौन रुदन को हथेली पर धरी-धरी अँ-सा ही पकड़ लेती थी, “अरी जा, तब से फन्न-फन्न नाक सड़क रही है। अच्छा बता डोकरी, घर से तुझे किसने निकाला, बहू ने या बेटे ने?"

“निकलें मेरे दुश्मन, कौन निकालेगा मुझे? मैं खुद चली आयी!"

"क्यों नहीं, क्यों नहीं, हम सब तो यहाँ खुद ही आए हैं पिकनिक मनाने, क्यों, है न?"

“देख मास्टरनी, मैं जप कर रही हूँ और तू बार-बार मेरा जप तोड़ रही है, देख नहीं रही है, हरदयाल बाबू भी बरामदे में टहलकर सोने चले गए हैं!"

'आश्रय' के सबसे पुराने सदस्य हरदयाल लोढ़ा की जीवनगाथा भी गुरुविंदर कौर की कहानी से कुछ कम करुण नहीं थी। जूट का यह लक्षाधिपति व्यापारी देखते-ही-देखते कंगाल हो गया था-कभी कलकत्ते में उसकी चार-चार कोठियाँ थीं। दर्शनीय व्यवसाय, कुशल जवान बेटा था, बेटी थी। पहले एयरक्रैश में बेटा गया, फिर पत्नी को पुत्र-शोक ने पागल बना दिया। छत से कूदकर उसने आत्महत्या कर ली। पुत्री को लाखों का दहेज देने पर भी जामाता आए दिन रकम उघाने उनकी छाती पर सवार रहता। लोभी समधी चाहते थे अपने जीवनकाल में ही वे अपनी चल-अचल संपत्ति अपने दामाद के नाम कर दें। देर-अबेर मिलेगी तो उसे ही। वे हार्ट के मरीज थे। कभी दौरा पड़ गया तो बीसियों अड़चनें आएँगी। आपकी देखभाल को बेटी-दामाद तो हैं ही। पर हरदयाल ने भी दुनिया देखी थी। वे समधी की चाल समझ गए। एक दिन पुत्री का पत्र आया, “पिताजी, आपने यदि संपत्ति-कोठी इनके नाम नहीं की तो ये कसाई मुझे मार डालेंगे। अब आप और देर मत कीजिए, जो ये चाहते हैं वही कर दीजिए।"

किंतु हरदयाल ने हड्डीतोड़ मेहनत से संपत्ति जोड़ी थी। वे उन उद्योगपतियों में से थे जो केवल लोटा-डोर लेकर घर से निकलते हैं और अपनी चतुर व्यवसाय बुद्धि से देखते-ही-देखते करोड़ों का वारा-न्यारा करने में सक्षम हो जाते हैं। उनकी एक ही इच्छा थी-इस अटट संपत्ति को किसी सत्कार्य में लगा दें। उनके पुत्र के नाम का एक अस्पताल बने और एक देवालय। बेटी-दामाद को तो यथासाध्य दे ही चुके थे, पर वह जो भरी जवानी में बिना सेहरा बाँधे ही बाप से बिना कुछ माँगे चला गया था, उसका भी तो कुछ हक था उन पर! पुत्री का पत्र उन्होंने फाड़कर फेंक दिया। किसी के प्राण लेना क्या इतना आसान है? कैसे मार डालेंगे उनकी सुधा को, आखिर कानून तो है न। पर कहाँ था कानून? दूसरे ही दिन समधी का फोन आया, “आपकी बेटी चाय बना रही थी, बुरी तरह जल गई है। मुँह देखना चाहते हैं तो अभी चले आइए।" अस्पताल पहुंचे तो कोयला बन गई बेटी की निष्प्राण देह देख मूर्छित होकर गिर पड़े। अभागिन चार-पाँच महीनों में ही माँ बननेवाली थी। जब होश आया तो चटपट पोस्टमार्टम कर अर्थी उठायी जा रही थी।

वे जानते थे, उनकी समधी की पहुँच बहुत दूर तक है। उस पर उनका बड़ा दामाद पुलिस विभाग का सर्वोच्च अफसर था। न विशेष पूछताछ की गई, न कोई गवाह ही आगे बढ़े। प्रतिवेशी चुप थे। घर के नौकरों की जबानें पहले ही काट ली गई थीं। चाहते तो हरदयाल भी टंटा खड़ा कर सकते थे। उनके पास पुत्री का अंतिम पत्र था जिसमें उसने बार-बार लोभी ससुर का प्रस्ताव और न माने जाने पर उसके घातक परिणाम की दृढ़ संभावना का स्पष्ट संकेत किया था। किंतु उनके प्रतिशोध लेने के अपने तौर-तरीके थे। उन्होंने दो ही दिनों में अपनी संपत्ति का दानखाना बना ट्रस्टियों को सौंप दिया। अपनी आलीशान कोठी उस कन्या विद्यालय के नाम कर दी जहाँ कभी उनकी पुत्री पढ़ती थी। और फिर वर्षों पूर्व जिस लुटिया-डोर को लेकर इस महानगरी में आए थे, उसी को लेकर बिना किसी को अपना अता-पता दिए 'आश्रय' में चले आए। आते ही बैंक में वह धनराशि जमा कर दी, जो अपने साथ ले आए थे।

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