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करिए छिमा

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5222
आईएसबीएन :978-81-8361-115

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श्रेष्ठ कहानी संग्रह...

Kariye Chhima

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

गौरा पंत ‘शिवानी’ का जन्म 17 अक्टूबर, 1923 को विजयादशमी के दिन राजकोट (गुजरात) में हुआ। आधुनिक अग्रगामी विचारों के समर्थक पिता श्री अश्विनीकुमार पाण्डे राजकोट स्थित राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल थे, जो कालांतर में माणबदर और रामपुर की रियासतों में दीवान भी रहे। माता और पिता दोनों ही विद्वान संगीतप्रेमी और कई भाषाओं के ज्ञाता थे। साहित्य और संगीत के प्रति एक गहरा रुझान ‘शिवानी’ को उनसे ही मिला। शिवानी जी के पितामह संस्कृत के प्रकांड विद्वान पं. हरिराम पाण्डे, जो बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में धर्मोपदेशक थे, परम्परानिष्ठ और कट्टर सनातनी थे। महामना मदनमोहन मालवीय से उनकी गहन मैत्री थी। वे प्रायः अल्मोड़ा तथा बनारस में रहते थे, अतः अपनी बड़ी बहन तथा भाई के साथ शिवानी जी का बचपन भी दादाजी की छत्रछाया में उक्त स्थानों पर बीता, किशोरावस्था शान्तिनिकेतन में और युवावस्था अपने शिक्षाविद् पति के साथ उत्तर प्रदेश के विभिन्न भागों में। पति के असामयिक निधन के बाद वे लम्बे समय तक लखनऊ में रहीं और अन्तिम समय में दिल्ली में अपनी बेटियों तथा अमेरिका में बसे पुत्र के परिवार के बीच अधिक समय बिताया। उनके लेखन तथा व्यक्तित्व में उदारवादिता और परम्परानिष्ठता का जो अद्भुत मेल है, उनकी जड़ें, इसी विविधमयतापूर्ण जीवन में थीं।

शिवानी की पहली रचना अल्मोड़ा से निकलनेवाली ‘नटखट’ नामक एक बाल पत्रिका में छपी थी। तब वे मात्र बारह वर्ष की थीं। इसके बाद वे मालवीय जी की सलाह पर पढ़ने के लिए अपनी बड़ी बहन जयंती तथा भाई त्रिभुवन के साथ शान्तिनिकेतन भेजी गईं, जहाँ स्कूल तथा कॉलेज की पत्रिकाओं में बांग्ला में उनकी रचनाएँ नियमित रूप से छपती रहीं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर उन्हें ‘गोरा’ पुकारते थे। उनकी सलाह, कि हर लेखक को मातृभाषा में ही लेखन करना चाहिए, को शिरोधार्य कर उन्होंने हिन्दी में लिखना प्रारम्भ किया। ‘शिवानी’ की एक लघु रचना ‘मैं मुर्गा हूँ’ 1951 में ‘धर्मयुग’ में छपी थी। इसके बाद आई उनकी कहानी ‘लाल हवेली’ और तब से जो लेखन-क्रम शुरू हुआ, उनके जीवन के अन्तिम दिनों तक अनवरत चलता रहा। उनकी अन्तिम दो रचनाएँ ‘सुनहुँ तात यह अकथ कहानी’ तथा ‘सोने दे’ उनके विलक्षण जीवन पर आधारित आत्मवृत्तात्मक आख्यान हैं।

1979 में शिवानी जी को पद्मश्री से अलंकृत किया गया। उपन्यास, कहानी, व्यक्तिचित्र, बाल उपन्यास और संस्मरणों के अतिरिक्त, लखनऊ से निकलनेवाले पत्र ‘स्वतन्त्र भारत’ के लिए ‘शिवानी’ ने वर्षों तक एक चर्चित स्तम्भ ‘वातायन’ भी लिखा। उनके लखनऊ स्थित आवास-66, गुलिस्तां कालोनी के द्वार लेखकों, कलाकारों, साहित्य प्रेमियों के साथ समाज के हर वर्ग से जुड़े उनके पाठकों के लिए सदैव खुले रहे। 21 मार्च 2003 को दिल्ली में 79 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ।

स्वप्न और सत्य


बहुत पहले, एक पुस्तक पढ़ी थी, ‘द प्राफ़ेटिक ड्रीम’। उसे पढ़कर, तब अविश्वास हुआ था। कहीं ऐसा भी सम्भव है कि नींद में देखी गई घटना, जीवन की वास्तविकता बनकर घट जाए ? किन्तु फिर एक दिन स्वयं ही ऐसा स्वप्न देख लिया, जो मेरे जीवन में अविस्मरणीय बन गया।
मैं तब बेंगलूर में थी। एक रात, आँख लगते ही मैंने वह विचित्र स्वप्न देखा था। मैं कहीं तेजी से जा रही हूँ-चारों ओर रेल की पटरियाँ ही पटरियाँ बिछी हुई हैं। उन्हें लाँघती हुई मैं एक जंगल में पहुँचती ही हूँ कि गरज-गरज के साथ वृष्टि आरम्भ हो जाती है। अचानक एक कृशकाया लम्बी-सी साँवली युवती मेरा मार्ग अवरुद्ध कर खड़ी हो जाती है। वह मुँह से कुछ नहीं कहती, किन्तु गोद में नवजात शिशु को लेकर मेरी और अग्रसर होती है। आश्चर्य से मैं नीली बेंगलूरी साड़ी में लिपटे उस गौरवपूर्ण शिशु को देखती रहती हूँ। चमकती बिजली में मुझे उस युवती का चेहरा एकदम स्पष्ट दिखने लगता है। उसका घोर कृष्णवर्ण, रात्रि के गहन अन्धकार में घुल-मिल गया है। दोनों ओर छिदी नाक में तीन-तीन नगों की हीरे की दो लौंगें झलझला रही हैं।

लाँग-लगी दक्षिणी रेशमी साड़ी की चौड़ी ज़री, कमर पर कसी सोने की भारी करधनी और स्वयं उसके व्यक्तित्व की गरिमा उसके सम्भ्रान्त कुल का परिचय दे रही है। उसके दोनों होंठ काँप उठते हैं, किन्तु सहसा वाणी की विवशता, उसके काले कपोलों पर अश्रुधारा बनकर बिखर जाती है। फिर बिना कुछ कहे, वह रोते शिशु को मेरे पैरों के पास रखकर, तेजी से उसी अरण्य में विलीन हो जाती है।
मैं चौंककर जगी ही नहीं, स्वप्न की सम्भावना में ही पायताने पड़े उस शिशु को भी टटोलने लगी थी। और फिर, ठीक एक महीने बाद, वही स्वप्न मेरी आँखों पर उतर आया। किन्तु इस बार मेरी पलकें बन्द नहीं थीं, न मुझमें इतना साहस ही था कि पैरों के पास पड़े उस परित्यक्त शिशु को फिर टटोल लूँ...।
जीवन के कितने वसन्त आए और चले गए, किन्तु उस वसन्त को मैं आज तक न भूल पाई हूँ, और शायद कभी भूल भी नहीं पाऊँगी। प्रौढ़ मेघाच्छन्न आकाश को देखकर भी मैं घर से निकल पड़ी थी। नित्य की संगिनी, चचेरी बहन मुन्ना को भी उस दिन साथ में नहीं लिया। एक तो उस भुवनमोहिनी को साथ लेकर चलने में बीसियों बन्दिशों का अंकुश सहना पड़ता था।
मेरी वह बहन अपूर्व सुन्दरी थी। साथ रहती, तो माँ प्रायः ऐसे जनशून्य मार्ग से जाने का आदेश दे देतीं कि गंतव्य स्थान पर पहुँचने में ही घंटों लग जाते। पुस्तकालय ठीक सात बजे बन्द हो जाता था, और उन दिनों बेंगलूर छावनी में उतरी मर्कटमुखी आस्ट्रेलियन सेना की टुकड़ी के आतंक की भयावह कहानियाँ आए-दिन सुनने को मिलती थीं, किन्तु बेंगलूर के उस शान्त भव्य पुस्तकालय में बैठकर अलभ्य विदेशी पत्रिकाएँ पढ़ने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पाई, और अकेली ही घर से चल पड़ी थी।

शेषाद्रिपुरम् से पुस्तकालय का एक शार्टकट मुझे विशेष रूप से प्रिय था। एक बड़ा-सा बंजर मैदान पार कर, आसपास बिछी रेल की पटरियों का रहस्यमय योग-वियोग उचक-उचककर लाँघते हुए, रेस-कोर्स तक की लम्बी दूरी पल-भर में कट जाती थी। मार्ग एकदम ही बीहड़ और सुनसान होने पर भी, रेसिडेंस के प्रासादोपम उत्तंग सौध की अबीरी छत दिखती रहती। उस विराट् अहाते को घेर  संगीनधारी गारद को देख मैं नित्य, निर्भय बड़ी चली जाती थी।

पुस्तकालय पहुँच, पढ़ते-पढ़ते कब सन्ध्या घनीभूत हो गई, मैं जान भी नहीं पाई। हलकी बूँदाबाँदी भी होने लगी थी। मेरी प्रिय पगडंडी का आह्वान उस हलकी बूँदाबाँदी में और भी स-आग्रह हो उठा और बगल में पुस्तक दबाए मैं तेज कदमों से चलने लगी। कुछ दूर गई थी कि बूँदाबाँदी तेज झड़ी में बदल गई। अब तक इधर-उधर तिर रहे मेघखंडों ने बड़ी कुटिलता से पैंतरा बदल, एकाकार हो, पूरा आकाश घेर लिया था। घटाटोप अन्धकार, किसी दुर्मुख दैत्य की भाँति मुँह बाए, बड़ी तेजी से मेरी ओर बढ़ा चला आ रहा था। बार-बार चमक रही बिजली के औदार्य से ही मैं उस बीहड़ मार्ग से जूझती चली जा रही थी एकाएक एक सम्मिलित पगध्वनि सुनकर ठिठक गई।

ऊँचे स्वर की हँसी, और भारी बूटों की पगध्वनि सुनने में मैंने भूल नहीं की थी। निश्चय ही, वह शहर में लौट रही फौजी टुकड़ी होगी। खून जम जाना किसे कहते हैं, इसका अनुभव मुझे जीवन में पहली बार हुआ। सम्मुख फैला बियाबान अरण्य, बड़ी दूर टिमटिमा रही सिगनल की दम तोड़ती लाल-हरी बत्तियाँ और क्रमशः निकट आ रहीं निर्मम विदेशी बूटों की पदध्वनि से घुली-मिली मदमत्त हँसी। बिजली अभी भी उसी औदार्य से चमकती चली जा रही थी, और साथ ही मलालस कंठों से निकली उस गीत की गूँज-‘ही इज़ ए जॉली गुड फ़ैलो, ही इज़ एक जॉली गुड फ़ैलो, ही इज़ ए जॉली गुड फ़ैलो, एंड सो से ऑल ऑफ़ अस।’

गीत मेरे और भी निकट आ गया। बगल की पुस्तक छाती से चिपकाए, मैं एक नारंगी फूलों की छितरी झाड़ी के पीछे दुबक गई। यदि वह टुकड़ी उस झाड़ी के सामने से निकली और उसी क्षण कहीं बिजली चमकी, तो निश्चय ही वे मुझे देख लेंगे। पटापट, एकसाथ फौजी कदम रखते, वे झूमते-गाते चले आ रहे थे। झाड़ी के पीछे छिपी मैं थर-थर काँप रही थी। मुद्गर-सी, एक-सी टाँगों की कवायद करते वे कदम पलक झपकते ही कब आगे बढ़ गए, मैं जान भी नहीं पाई। इसी बीच, बिजली भी चमकी, कड़ाक-से कहीं दूर गिरी भी, पर उस झाड़ी ने अपने क्षीम कलेवर में मुझे किसी दुर्बल स्नेहवत्सला जननी के जीर्ण आँचल की ही भाँति ढाँपकर बचा लिया।

बिजली गिरते ही वर्षा का वेग तीव्रतर होता चला गया। मेरी साड़ी भीगकर शरीर से चिपक गई और भागना एक प्रकार से असम्भव हो उठा। भीगी साड़ी को घुटनों तक समेटे, मैं एक प्रकार से भागी चली जा रही थी कि किसी नन्हें कंठ की रुदन ने मुझे रोक दिया। इस वेगवती वर्षा में भला नवजात शिशु को लेकर कौन मूर्खा इस अरण्य में आ गई थी ! ‘‘कौन ?’’ मैंने पूछा। अँधेरे में हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था; पर फिर मुझे लगा, ठीक मेरे पैरों के ही पास कोई उस रोते शिशु को लिटा गया है।
‘‘कौन?’’ मैंने फिर पूछा। इस बार उत्तर दिया, आकाश की विद्युतवह्नि ने। दोनों नन्हीं मुट्ठियाँ कानों से सटाए, नीली रेशमी गठरी में लिपटा वह नग्न शिशु, फेफड़े फाड़कर चीख रहा था। बिजली फिर चमकी, और उस नन्हें अतिथि के विदेशी गौरवर्ण और नीलोत्पल-विलोचन द्वय की झलक दिखाकर मुझे तृप्त कर गई। ओह, ऐसा ही तो शिशु उस सपने में भी मैंने देखा था ! अविकल यही कांचन-सन्निभ वर्ण और नीली आँखें। तब क्या, वह फौजी टुकड़ी ही उसे यहाँ छोड़ने आई थी ? या मेरे स्वप्न की वह उदास युवती जननी ?

मैं वहीं बैठकर उसे गोद में उठाने लगी, तो छिपकली-सी फिसलती बाँह का स्पर्श मुझे सहमा गया। तब उस फिसलते मक्खनी स्पर्श को पहचानने की मेरी वय नहीं थी। कुछ वर्षों पश्चात, जब स्वयं माँ बनी, तब ही उस स्पर्श का रहस्य समझी। वह फिसलन पृथ्वी पर सद्यः अवतरित शिशु की फिसलन थी, किन्तु ऐसे गुलगोथने शिशु को कौन पाषाणी ऐसे छोड़ गई होगी ?
जी में आया, उसे गोद में उठा लूँ और भागकर घर चली जाऊँ, किन्तु उसी क्षण एक और आशंका त्रस्त्र कर उठी। नारी जन्म की विवशता भुजंगिनी ने पहली बार मुझे डँसा। मैं इसे घर ले गई, तो घरवाले क्या मेरी संवेदनशीलता को प्रश्रय देंगे ? बहुत पहले एक बार, मैं ऐसे ही एक सड़क पर पड़े देशी कुत्ते के पिल्ले को घर ले आई, तो कितनी फटकार पड़ी थी ! ‘‘आँखें भी नहीं खुली हैं, कौन पालेगा उसे ?’’ माँ ने कहा था। पर फिर भी मैंने रुई के फाहे से दूध पिला-पिलाकर उसे पाल लिया था।
किन्तु कुत्ते के पिल्ले को पालना कितना सहज है, मनुष्य के दुधमुँहे को पालना कितना कठिन ! श्वानशिशु का कुल-गौत्र समाज नहीं माँगता, उसके जनक का परिचय उसके जीवन के लिए अनिवार्य नहीं होता; किन्तु मानव-शिशु के जनक का अभिमान उसके प्रत्येक श्वास के लिए अनिवार्य हो उठता है। और फिर कहीं किसी ने इस जंगल में नीली साड़ी में लिपटे इस चीखते शिशु के साथ मुझे पकड़ लिया, तब ?
मेरे स्वार्थ ने, मेरे उन मुट्ठी-भर सत्रह वर्षों के बावजूद मुझे सहसा चिन्तनशील प्रौढ़ा बना दिया। मैं उठी और उसे वहीं छोड़ तेजी से आगे बढ़ गई। वर्षा में भीगते, बिजली की कड़क को चीरते, उस असहाय नग्न शिशु का हृदयद्रावी क्रन्दन, मेरी पीठ’ में सहस्त्र भाले भोंकता, मेरा पीछा करने लगा। गिरती-पड़ती, हाँफती घर पहुँची तो पूरे परिवार ने मेरी धज्जियाँ उड़ा दीं।

‘‘मूर्ख लड़की ! थोड़ी देर और होती, तो थाने में खबर देनी पड़ती। शहर में गोरों का कितना आतंक है नहीं जानती क्या ? ऐसी वर्षा में भला कोई घर से निकलता है ?’’
मैं कैसे कहती कि ऐसी वर्षा में मैं ही नहीं, एक और भी घर से निकला है। मैं तो दिन की भूली साँझ को घर लौट भी आई, पर वह शायद कभी नहीं लौट पाएगा। फिर कई दिनों तक मैंने स्थानीय समाचारपत्र की पंक्तियाँ चाटकर रख दी थीं; किन्तु मुझे बियाबान में पड़े, वर्षा में भीगते, किसी भी लावरिस शिशु का समाचार नहीं मिला।
मैंने कई बार अपने-आपको आश्वासन देने की व्यर्थ चेष्टा की है। क्या पता, अन्त तक स्वयं उस अभागी जननी का विवेक ज्रागत हो गया और वह उसे ले गई हो ! बिल्ली भी तो कभी-कभी, अपने परित्यक्त बच्चे को फिर मुँह में दबाकर उठा ले जाती है या उसी पथ से जा रहे किसी सन्तानहीन दयालु पथिक का ही पुत्र बन गया हो !
किन्तु अन्तरात्मा को छलना क्या इतना सहज है ? अभी भी जब स्वप्नद्रष्टा म्लानमुखी युवती की करुणा आँखों का स्मरण हो आता है, तो मैं तिलमिला उठती हूँ। उस असहाय, काली बाँहों में पड़े उस गौरववर्ण शिशु को क्या मैं स्वप्न-रूप में आज तक स्वीकार कर पाई हूँ ?

चार दिन की



बैंड-हाउस की रंगीन बहारें बीत चुकी थीं। दिसम्बर के अन्त में नैनीताल की वीरानी देखनेवाले को मुँह बाये काट खाने को दौड़ती है। दो दिन पहले ही अंग्रेजी स्कूलों में पढ़नेवाले बच्चों के कलरव से नैनी का प्राकृतिक क्रीड़ा-क्षेत्र ‘फ्लैप’ मधुमय हो रहा था, वही उस दिन भाँय-भाँय कर रहा था। मैं मन्दिर की ओर बढ़ रही थी कि सूने बैंड-हाउस की बेंच पर बैठे, उदास दृष्टि से छलछलाते ताल को निहारते जज साहब को देख ठिठक गई।
छः फुट लम्बी देह, कायदे से पहनी गई विदेशी वेशभूषा, चिरपरिचित काली बुनी वास्कट और दर्पण-से चमकते जूते। उन्हें दूर से देखकर भी कोई पहचान सकता था।

‘‘आइए, आइए !’’ मुझे देखते ही सौम्य गौर मुखमंडल पर स्नेहसिक्त हास्य की असंख्य झुर्रिया खेल रही थीं।
‘‘अरे, आप अभी यहीं हैं ? मैं तो सोच रही थी, शायद रामपुर चले गए होंगे।’’
‘‘वाह, क्या बात सोची है आपने !’’ और उन्होंने मेरे दोनों हाथ पकड़कर अपने पास बैठा लिया, ‘‘यानी बच्चियों से बिना मिले ही चला जाता ?’’ उन्होंने मुझे ऐसे फटकारा कि मैं खिसिया गई।
‘‘इस बार तो ठंड है ही नहीं, मैंने कहा, ‘‘फिर नैनीताल की ठंड तो चार दिन की ही है, इस बार आप रामपुर मत जाइए।’’
उन्होंने हँसकर कहा था :
‘ये माना जिन्दगी है चार दिन की,

बहुत होते हैं यारो चार दिन भी !’’
और आज उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्र हामिद, मुझे उनकी हस्तलिखित आत्मकथा थमा गए हैं। एक-एक पृष्ठ उलटती हूँ और उस दिन की उदास पंक्ति का रहस्य स्पष्ट हो उठता है।
रियासती कुचक्र, विलासिता के वातावरण में गुजरे राजसी बचपन की स्मृतियाँ प्रेम, विच्छेद, होनहार पुत्र का उन्माद-ग्रस्त होना, नैनीताल के सुसज्जित ग्रैंड होटल के कक्ष का आर्थिक विवशतावश त्याग, भट्टजी के बंगले की सीलन-भरी कोठरियों में बिताए गए अन्तिम दिवस ! ठीक ही कहा था उन्होंने-‘बहुत होते हैं यारों चार दिन भी।’
मोरक्को जिल्द में बँधी उनकी जीवनी की इस पन्ना की-सी रत्मगर्भा भूमि में अगणित कथानकों के असंख्य हीरे ऐसे जगमगा उठते हैं कि मेरी आँखें चौंधिया जाती हैं। आश्चर्य होता है कि जिस क्रूर लेखनी ने न जाने कितनों को मृत्युदंड दिया होगा, वही ऐसे रससिक्त प्रकरणों की सृष्टि कैसे कर सकी होगी ! अवध के रईस ताल्लुकेदारों के जीवन की झाँकियाँ, ऐंग्लो-इंडियन समाज का सजीव विवरण, उच्चतर तबके के ब्रिटिश अधिकारियों के मार्मिक संस्मरण, दिल्ली दरबार, रामपुर के अनूठे नवाबी वातावरण का बेजोड़ वर्णन-सचमुच ही एक समूची रत्न-मंजूषा मेरे हाथ में है। अशर्फियों के लबालब अतीत के गर्भ में दबा मिट्टी और गर्द से धूमिल एक घड़ा जैसे मेरे हाथ लग गया है।

क्षण-भर को मैं आनन्दमग्ना हो हवा में उड़ने लगती हूँ। कितनी रंगीन कहानियाँ गढ़ी जा सकती हैं इस मूलधन से ! पर दूसरे ही क्षण, एक विस्मृत रौबदार बुजुर्ग चेहरा मेरी स्मृतियों के अन्तराल से झाँकने लगता है। मैं सहम उठती हूँ-मुझे लगता है, मैं एक गुरुजन के अन्तरंग शयनकक्ष में, धृष्टतापूर्वक अनावश्यक ताक-झाँक करने की चेष्टा करने लगी हूँ।
साहबजादे अब्दुल वाहिद खान मेरे पिता के घनिष्ट मित्र थे। उनके परिवार ने मेरे पिता की मृत्यु के समय जिस स्नेहपूर्ण औदार्य का परिचय दिया था, वह कोई निकट आत्मीय भी शायद ही दे पाता। आज जब इंच-इंच की सीमा निर्धारित करने के लिए असंख्य लाशें बिछ जाती हैं, जब क्षणिक समझौते की राख में दबी, धार्मिक विद्वेष की चिनगारियाँ कभी भी लपलपाती लपटों की सृष्टि कर सकती हैं, हिन्दू-मुस्लिम एकता के ऐसे दृष्टान्त सम्भवतः मनगढ़ंत-से ही लग सकते हैं; पर एक समय ऐसा भी था, तब ताशकन्द के निरर्थक समझौते नहीं हुआ करते थे। अपूर्व मैत्री के उन समझौतों में रहते थे अदृश्य हस्ताक्षर, जिनके खोखले प्रदर्शन की किसी भी पक्ष को उत्सुकता नहीं रहती थी।

आज ऐसे ही एक हस्ताक्षर, मेरी स्मृतियों की नियोन बत्तियों के-से प्रकाश में कभी बुझने और कभी जगमगाने लगते हैं। एक ऐसे स्नेही व्यक्ति के हस्ताक्षर, जिन्होंने पिता की मैत्री को नब्बे वर्ष की अवस्था तक भी नहीं भुलाया, जो नैनीलात के सनकी मौसम की अवहेलना कर, प्रत्येक रविवार को मेरे बंगले की खड़ी चढ़ाई पार कर, हँसते हुए मेरे द्वार पर खड़े हो जाते प्रत्येक ईद को बटुआ खोल एक नये पाँच के नोट की ‘ईदी’ थमाते और मेरे कन्धे का सहारा लेकर, धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतर जाते।

मैं जितनी बार उस वयभार से नमित एकाकी आकृति को धीरे-धीरे उतार उतरते देखती, मुझे लगता, स्वयं मेरे पिता भी एक अदृश्य साये के रूप में अपने मित्र के साथ जा रहे हैं। ‘‘मैं आपका एक स्केच लिखना चाहता हूँ,’’ मैंने उनसे एक बार कहा, तो वे जैसे आकाश से गिर पड़े, ‘‘तौबा-तौबा, मेरा स्केच भी भला कोई लिखने की चीज़ है ! वैसे भी एक बात गाँठ बाँध लो, किसी का स्केच हमेशा उसके मरने के बाद लिखना चाहिए।’’
‘‘भला क्यों ?’’
‘‘क्योंकि मरने के बाद किसी भी इन्सान के लिए बहुत-सी मनगढ़न्त बातें लिखी जा सकती हैं।’’ और यह कहकर वे ठाठकर हँस पड़े थे।

आज वे नहीं रहे, मनगढ़न्त बातों का प्रश्न ही नहीं उठता, उनके हाथों से लिखी गई उनकी आत्मकथा मेरे सामने खुली पड़ी है, उन्हीं की अनूठी भाषा की कुंजी से पहले खोलती हूँ, उनके बचपन के कक्ष पर लटका एक जंग-लगा ताला :
‘‘जलालुद्दीन ख़ान और सादुल्ला ख़ान को 1857 के गदर में, स्वतन्त्र होने के प्रयत्न में अपराधी घोषित कर, गोली से उड़ा दिया गया था, ये ही सादुल्ला ख़ान मेरे दादा थे। जलालुद्दीन ख़ान का विवाह, रामपुर के नवाब परिवार में हुआ था। दादा को मृत्यु-दंड मिलने पर, कुदसिया बेगम हमारे अनाथ परिवार को लेकर मुरादाबाद आ गईं। रामपुर के नवाब के यहाँ उनका मायका था : पर तब हमारा परिवार राजनीतिक ग्रहण की छाया से ग्रस्त था। रामपुर के तत्कालीन नवाब यूसुफ ख़ान को ‘फ़रज़दे दिल पज़ीर दौलते इंगलीशिया’ की पदवी मिली थी। ब्रिटिश सरकार की उन पर विशेष कृपा थी। फिर भला वे हमारे बागी खूँख्वार रोहिला पठान परिवार को शरण कैसे देते ? हमारी दादी बी मैया बड़ी ही नीति-कुशल महिला थीं। रामपुर से उनके पास गई कई बार मायके का स्नेहपूर्ण दिखावटी बुलावा भी आया; पर वे मन ही मन समझ गई थीं कि उनकी अटूट सम्पत्ति कभी भी मनमुटाव का कारण बन सकती थी। इसलिए मुरादाबाद के हवेलीनुमा ‘काठ दरवाज़े’ में ही हमारा लालन-पालन होने लगा।’’



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