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कस्तूरी मृग

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :139
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5223
आईएसबीएन :9788183611084

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शिवानी का श्रेष्ठ कहानी संग्रह.

Kasturi Mrag

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

गौरा पंत ‘शिवानी’ का जन्म 17 अक्टूबर, 1923 को विजयादशमी के दिन राजकोट (गुजरात) में हुआ। आधुनिक अग्रगामी विचारों के समर्थक पिता श्री अश्विनीकुमार पाण्डे राजकोट स्थित राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल थे, जो कालांतर में माणबदर और रामपुर की रियासतों में दीवान भी रहे। माता और पिता दोनों ही विद्वान संगीतप्रेमी और कई भाषाओं के ज्ञाता थे। साहित्य और संगीत के प्रति एक गहरा रुझान ‘शिवानी’ को उनसे ही मिला। शिवानी जी के पितामह संस्कृत के प्रकांड विद्वान पं. हरिराम पाण्डे, जो बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में धर्मोपदेशक थे, परम्परानिष्ठ और कट्टर सनातनी थे। महामना मदनमोहन मालवीय से उनकी गहन मैत्री थी। वे प्रायः अल्मोड़ा तथा बनारस में रहते थे, अतः अपनी बड़ी बहन तथा भाई के साथ शिवानी जी का बचपन भी दादाजी की छत्रछाया में उक्त स्थानों पर बीता, किशोरावस्था शान्ति निकेतन में और युवावस्था अपने शिक्षाविद् पति के साथ उत्तर प्रदेश के विभिन्न भागों में। पति के असामयिक निधन के बाद वे लम्बे समय तक लखनऊ में रहीं और अन्तिम समय में दिल्ली में अपनी बेटियों तथा अमेरिका में बसे पुत्र के परिवार के बीच अधिक समय बिताया। उनके लेखन तथा व्यक्तित्व में उदारवादिता और परम्परानिष्ठता का जो अद्भुत मेल है, उसकी जड़ें, इसी विविधतापूर्ण जीवन में थीं।

शिवानी की पहली रचना अल्मोड़ा से निकलनेवाली ‘नटखट’ नामक एक बाल पत्रिका में छपी थी। तब वे मात्र बारह वर्ष की थीं। इसके बाद वे मालवीय जी की सलाह पर पढ़ने के लिए अपनी बड़ी बहन जयंती तथा भाई त्रिभुवन के साथ शान्तिनिकेतन भेजी गईं, जहाँ स्कूल तथा कॉलेज की पत्रिकाओं में बांग्ला में उनकी रचनाएँ नियमित रूप से छपती रहीं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर उन्हें ‘गोरा’ पुकारते थे। उनकी इस सलाह को, कि हर लेखक को मातृभाषा में ही लेखन करना चाहिए, को शिरोधार्य कर शिवानी ने हिन्दी में लिखना प्रारम्भ किया। ‘शिवानी’ की एक लघु रचना ‘मैं मुर्गा हूँ’ 1951 में ‘धर्मयुग’ में छपी थी। इसके बाद आई उनकी कहानी ‘लाल हवेली’ और तब से जो लेखन-क्रम शुरू हुआ, उनके जीवन के अन्तिम दिनों तक अनवरत चलता रहा। उनकी अन्तिम दो रचनाएँ ‘सुनहुँ तात यह अकथ कहानी’ तथा ‘सोने दे’ उनके विलक्षण जीवन पर आधारित आत्मवृत्तात्मक आख्यान हैं।

1982 में शिवानी जी को पद्मश्री से अलंकृत किया गया। उपन्यास, कहानी, व्यक्तिचित्र, बाल उपन्यास और संस्मरणों के अतिरिक्त, लखनऊ से निकलनेवाले पत्र ‘स्वतन्त्र भारत’ के लिए ‘शिवानी’ ने वर्षों तक एक चर्चित स्तम्भ ‘वातायन’ भी लिखा। उनके लखनऊ स्थित आवास-66, गुलिस्ताँ कालोनी के द्वार, लेखकों, कलाकारों, साहित्य-प्रेमियों के साथ समाज के हर वर्ग से जुड़े उनके पाठकों के लिए सदैव खुले रहे। 21 मार्च, 2003 को दिल्ली में 79 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ।

 

कस्तूरी मृग

 

मैं दृढ़ निश्चय कर चुका था कि जिसने मेरे बचपन से लेकर यौवन तक, मुझे तिल-तिल का मारा है, उससे सूद सहित ऋण उघाकर ही दम लूँगा। मेरे जिस अभिन्न मित्र ने मुझे उसका पता दिया था, उसी ने फर्रुखाबाद के एक ऐसे कुख्यात गिरोह का भी सूत्र थमा दिया, जो केवल दस हजार लेकर शत्रु कंटक को सदा के लिए जड़ से उखाड़ अदृश्य करने में सिद्धहस्थ था।
‘‘तुम्हें पूरी रकम भी एकसाथ नहीं चुकानी होगी, पाँच हजार एडवांस और बकाया पाँच हजार काम पूरा होने पर।’’ एकमात्र वही मित्र मेरी पूरी व्यथा-कथा जानता था, बचपन से हम साथ-साथ बड़े हुए, एक ही स्कूल में सहपाठी रहे। फिर मैं यूनिवर्सिटी चला गया और वह गाँव से चुनाव जीत एक दिन एम.एल.ए. बन गया। कोकीन और अफीम के व्यापार ने उसे वैभव के जिस तुंग शिखर पर पहुँचा दिया, वहाँ मैं अपनी इस ऊँची नौकरी के बावजूद आज तक नहीं पहुँच पाया।
‘‘तुम्हें एक राय दूँगा नन्हे,’’ उसने चलते-चलते मुझे एक सीख दी थी, ‘‘जो हो गया सो हो गया। ऐसी बीसियों कनकें एक दिन तुम्हारे कदम चूमेंगी। क्यों परेशान होते हो ? ईश्वर ने तो तुम्हें सबकुछ दिया है। मारो लात इस नौकरी को और विदेश चले जाओ। वहाँ तुम्हारा अतीत तुम्हें डसने नहीं पहुँच पाएगा।’’

कितना भला था दिनेश। मनुष्य का अतीत क्या कभी उसे छोड़ सकता है ? मान लूँ मेरा अतीत मुझे छोड़ भी दे, मैं क्या उसे छोड़ पाऊँगा ?

‘‘नहीं,’’ मैंने कहा था-‘‘मैं कहीं चला जाऊँ, बाप की नाक मेरा पीछा करती रहेगी।’’
जीवन की पहली स्मृति मुझे माँ के पीले चेहरे और सूजी-निमग्न आँखों की ही है। कभी, वह मुझे छाती से चिपटाए सिसक रही है, और कभी रात-आधी रात को खिड़की खोल अपने उस अलमस्त सहचर की व्यर्थ प्रतीक्षा में खड़ी, न जाने क्या बुदबुदा रही हैं। मैं डरकर चादर मुँह तक खींच लेता था, कहीं अम्माँ पागल तो नहीं हो रही हैं ? पहले तो मेरे पिता घर पर रहते ही बहुत कम थे, कभी अपनी जमींदारी सँभालने गाँव चले जाते और कभी बनारस। अम्माँ, मुझे पढ़ाने तक हमारी गाजीपुरवाली कोठी में रहती थीं।

संगीत-प्रेम ने ही हमारे खानदान को हमेशा डुबोया है। मेरे संगीत-प्रेमी बाबा ने यह गाजीपुरवाली कोठी अपनी प्रसिद्ध संगीत महफ़िलों के लिए ही बनाई थी। दूर-दूर से ख्याति प्राप्त संगीतज्ञों का नवरात्र पर इसी कोठी में दशहरा-दरबार लगता। जिस वर्ष मेरा जन्म हुआ उसी वर्ष मेरे बाबा नहीं रहे। अम्माँ बताती थीं कि मृत्यु से पूर्व आखिरी बार बाबा ने यह दशहरा-दरबार मनाया था, उसी बार पटना की प्रख्यात गायिका चन्द्रावली अपनी किशोरी पौत्री राजेश्वरी को अम्माँ की छाती पर मूँग दलने छोड़ गई। सेनिटोरियम से अस्वाभाविक सुर्खी, आँखों में जीने की ललक लेकर ही बेचारी अम्माँ लौटी थीं। उन्हें सेनिटोरियम पहुँचाने भी घोष बाबू ही गए थे और लेने भी वे ही गए, मेरे पिता को पत्नी के लिए अवकाश ही कब होता था। स्टेशन पर लेने मैं अकेला ही आया हूँ देख, एक पल को अम्माँ का चेहरा मुरझा गया था। फिर लपककर उन्होंने मुझे छाती से लगा लिया। माँ की वह विस्मृत परिचित सुगन्ध मेरे मन-प्राण पुलकित कर गई। अम्माँ, अब मुझे छोड़कर कहीं नहीं जाएँगी, मुझे लगा दुःसाहसी मृत्यु को हम दोनों माँ-बेटों ने मिलकर दूर धकेल दिया है।

घर पहुँचते ही अम्माँ ने फिर अपनी अस्तव्यस्त गृहस्थी के ओर-छोर सँभाल लिए थे। स्कूल से लौटता तो देखता भारी-भारी बक्से खोल, अम्माँ एक-से-एक कीमती रेशमी परिधान, जामेवार शॉल-दुशाले, बाबा के हैदराबादी अँगरखे, पिता के रेशमी कुरते धूप में सुखा रही हैं। मुझे नेप्थलीन की गोलियों की वह महक बड़ी अच्छी लगती थी; मैं कभी उठा-उठाकर, अम्माँ की साड़ियाँ सूँघता, कभी लपक कर बाबा का रेशमी अँगरखा पहन, उसकी ढीली निर्जीव बाँहों में, अपने लगभग खो गए हाथों को हिला-हिलाकर, उस हवेली संगीत को दुहराने लगता जिसे अपने सुरीले कंठ से परिवेशित कर मेरे पिता हमारे इसी आँगन की दीवारें कँपा देते थे। मालव राग की वह बंदिश आज, मैं भी कभी-कभी अपनी इस जनशून्य कोठी में, ठीक वैसे ही दोहरा उठता हूँ, अन्तर यही है तब इस कोठी की दीवारें मेरे पिता के रौबीले कंठस्वर में काँपती थीं, आज स्वयं मैं काँपने लगता हूँ। कभी इसी हवेली में संगीत की प्रस्तुति मेरे पिता के संगीत के जलसे की विशेषता थी, एक-से-एक परम्परासमृद्ध गायक, हमारे गृह के राधागोविन्द मन्दिर के प्रांगण में, इसी गीत के निवेदन से देखते-ही-देखते, रहस्यमय गाम्भीर्य का चँदोवा टाँककर रख देते थे, ‘‘जय जय लाल गोवर्धनधारी !’ आज वैसी प्राणवंत अकृत्रिम गायकी के परम्परासमृद्ध गायक कहाँ खो गए ! कहाँ विलीन हो गए वे परिच्छिन्न कंठ। जनाब गुलाम मुहम्मद, मेरे संगीत गुणग्राही पिता के परम मित्रों में थे, कश्मीर के अतीन्द्रियवादियों की संगीत शैली के प्रमुख गायक जनाब गुलाम मुहम्मद साहब स्वयं संतूर बजाकर अपना सूफियाना कलाम पेश करते तो मजलिस में आई एक-से-एक ख्यातिप्राप्त पेशेवर गायिकाओं की गर्वोन्नत अहंकारी ग्रीवाएँ जैसे कट-कटकर जमीन पर बिछ जातीं। केवल हारमोनियम और करताली के माध्यम से प्रदर्शित छन्दबद्ध गायकी में उस दिव्य कंठ के ईर्षणीय ऐश्वर्य की दपदपाहट का झाड़फानूस, महफिल के टिमटिमाते दीयों को श्रीहीनकर, एक ही फूँक में बुझा देता। जैसा ही दृप्त कंठस्वर, वैसा ही स्वतः सज्ञान गायकी। बाबा फरीद, बुल्लेशाह की रचनाओं को गाते-गाते वे कभी स्वयं रोने लगते। इधर मेरे पिता की रूपसी गोपिकाएँ रोते-रोते बेदम हो जातीं और उधर चिक के पीछे बैठी मेरी अम्माँ।

बाद में जब एक दिन अपने बचकाने प्रयास में बुल्लेशाह की वही बंदिश अविकल दोहरा, अम्माँ को चकित करने की चेष्टा की तो उसने घबराकर मेरा हाथ थाम लिया, ‘‘नन्हे, तू तो एकदम अपने बाप पर जा रहा है रे। ऐसा मत होने देना बेटा।’’ वह रोने लगी थीं। मैं तो सोच रहा था अम्माँ मुझे प्रशंसा से विह्वल हो छाती से लगा लेंगी कि शाबास बेटे, तेरे पिता ने उस्ताद से गंडा बँधवाया था पर तू तो बिना गंडा बँधवाए ही उनसे आगे निकल गया ! बहुत बाद में समझ में आया कि अम्माँ उस दिन क्यों रोयी थीं। इसी संगीत-प्रेम ने तो हमारे खानदान की लुटिया डुबोयी थी। पहले बाबा को अँगुली पकड़कर संगीत के अमृतधाम में पहुँचाया, जहाँ से लौटे तो रक्षिता साथ लग आयी; यही मेरे पिता ने किया। अन्तर इतना ही था कि वे मेरे बाबा से कुछ समझदार निकले। अपनी प्रिय रक्षिता को, वे कभी साथ नहीं लाए। काशी में ही गंगापार उसके लिए एक आलीशान कोठी बनवा दी। वही था उनका स्थायी निवास, हमारे लिए तो वे जीवन-भर दुर्लभ पाहुने ही बने रहे। हमारे गृह का सम्पूर्ण संचालन घोष बाबू करते थे। उनकी आकस्मिक नियुक्ति भी उनकी संगीत-प्रतिभा के बूते ही हुई थी। उनकी शिक्षा तो केवल हाईस्कूल तक ही हुई थी किन्तु उनका संगीतज्ञान था विशद्। उनके पिता राखाल घोष वर्षों तक बड़ौदा महाराज के पेशेदार रहे थे, उनके पुत्र, हमारे मैनेजर पंचानन घोष ने दिन-रात दरबारी गायकों को सुनते-सुनते समझने की योग्यता प्राप्त कर ली थी। आगरा घराने की गायकी, बोल-विस्तार-तान-प्रकार का व्याकरण कंठस्थ कर वे स्वयं अपनी सुरीली दानेदार तानमाला से श्रोताओं को स्तंभित करने लगे थे। मेरे पिता ने किसी कान्फ्रेंस में उनका गाना सुना और साथ ले आए, मेरी नींद बड़े भोर घोष बाबू के मंद्रसप्तकी रियाज से ही टूटती थी। जैसा ही गरम गला था, वैसा ही नरम मिजाज। घोर कृष्णवर्णी अमावसी रंग, गोल-मटोल चेहरे पर सब समय लगी अलमस्त दूधिया हँसी और बहुत बड़ी-बड़ी लाल डोरीदार आँखें। बातें करने का ढंग भी परिहासपूर्ण।

‘‘घोष बाबू, आपके घर में और कोई नहीं है ?’’ मैंने एक दिन पूछ दिया।
‘‘अरे, घर ही नहीं हे बाबा, तो कोई के केहाँ से होगा, गिन्नी (पत्नी) होता तो हमको फजीर में रियाज करने देता ?’’
वे कहाँ को केहाँ और भोर को फजीर कहते थे, उन्हें बहकाने में मुझे बड़ा आनन्द आता था। सच पूछिए तो अम्माँ के जाने के बाद, उस श्रीहीन स्नेहशून्य कोठी में घोष बाबू ही थे मेरे एकमात्र आत्मीय, सखा-सहचर पथप्रदर्शक-सबकुछ। अम्माँ की मृत्यु के तीसरे ही महीने मैं बहुत बीमार पड़ गया। भयानक मलेरिया के विवश कंप में पीपल के पत्ते-सा थरथर काँपता मैं एक दिन ‘जाड़ा-जाड़ा’ चिल्ला रहा था, उधर घोष बाबू मेरे ऊपर घर-भर की रजाइयाँ-कम्बल डालते-डालते हाँफने लगे थे, पर मेरा जाड़ा नहीं जा रहा था। सहसा अपनी मेरुपर्वत-सी देह मुझ पर पड़ी रजाइयों के स्तूप पर डाल, वे न जाने कब तक मुझे दबाए ‘दुग्गा-दुग्गा’ जपते रहे। जब तीव्र ज्वर के ताप से व्याकुल हो, मैंने रजाइयों के स्तूप को लात मारकर गिराया तो भदाम से घोष बाबू धराशायी हो गये। ‘‘मेरे फेलली रे खोका’’ (मार दिया रे खोका) कह वे शायद मुझे हँसाने की चेष्टा में ही दोनों हाथों से अपनी अनंत कटि की परिधि थाम, बंकिम मुद्रा में खड़े होकर कराहने लगे। मुझे हँसी आ गयी और उनका चेहरा खिल गया-‘‘तुई हेशेछिस तो ए बार किस्सू हौबे ना।’’ (तूने हँस दिया अब कुछ अनिष्ट नहीं होगा।)
फिर वे मेरे तप्त ललाट को सहलाते स्वयं बड़बड़ाने लगे-‘‘आहा रे छेले अमन असुखे भुगछे, आर उनी नौकाविहारे छाबूडूबूखाच्छेन’’ (आहा लड़का ऐसे बुखार में पड़ा है और वे नौकाविहार में डूबे हैं।)

स्वयं घोष बाबू ने ही मुझे बँगला सिखायी थी, काश न सिखायी होती और बीमारी में सिरहाने बैठे घोष बाबू की स्वगतोक्ति मैं न समझ पाता ! मेरे पिता को, मेरी बीमारी की खबर दे दी गई थी किन्तु उन्होंने कहलवाया था कि वे किसी जरूरी काम में फँसे हैं। आना असम्भव है, रुपया भेज रहे हैं, चिकित्सा में कोई त्रुटि न हो...‘‘कैसा जरूरी काम है, आमी सब जानी।’’ मेरे ललाट पर ठण्डी पट्टी रखते घोष बाबू फिर अपनी स्वगतोक्ति में चालू हो जाते। ‘‘जत सब वाजेकथा, ओई मेनका के निये काजे व्यस्त विश्वामित्र।’’ (सब झूठी बातें हैं। मेनका के साथ विश्वामित्र व्यस्त हैं) पूरे बीस दिन बाद मेरा ज्वर टूटा। घोष बाबू दिन रात मुझे छाया से घेरे रहते। अम्माँ की मृत्यु एक प्रकार से आत्महत्या ही तो थी। स्वस्थ होकर लौटी बेचारी अम्माँ का सुखद प्रत्यावर्तन क्षणस्थायी ही रहा था। थोड़े दिनों तक वे परम उत्साह से अपनी अस्तव्यस्त गृहस्थी सँभालने में जुटी रहीं, फिर जब उनके घर लौटने के दो महीने बाद भी पिताजी उन्हें देखने नहीं आए तो उनका उत्फुल्ल चेहरा फिर मुरझाने लगा। अण्डा, फल-दूध सब छोड़ दिया, दवाएँ उठाकर फेंक दीं। उन्हें लग गया था कि पिताजी अपनी नवीन सहचरी को लेकर कश्मीर घूमने गए हैं। अम्माँ ने सब रहे-सहे हथियार भी डाल दिए। मुझे कभी-कभी उन पर बेहद गुस्सा आता। क्यों अपने अधिकारों के लिए नहीं लड़तीं ? क्यों उस कुलटा का झोंटा पकड़कर बाहर निकाल, पिताजी का हाथ पकड़ यहाँ नहीं खींच लातीं ? आखिर ऐसा क्या था उसमें जो मेरी सुन्दरी अम्माँ में नहीं था ?

था तो बहुत कुछ। मैंने पहली बार अपनी उस विमाता को, अपनी ही चौदहवीं वर्षगाँठ के संगीतानुष्ठान में देखा था। रानी-महारानियों की-सी गरिमा, जैसा रूप वैसा ही पहनावा, वैसा ही सुकण्ठ। मुझे आज जितनी ही बार संध्या स्मरण हो आती है उतनी ही बार आठ दिन पूर्व देखे गए उसी भव्य सौन्दर्य के वीभत्स खण्डहर की क्षणिक झलक सहमा उठती है। कभी-कभी जी में आता है, चीख-चीखकर कहूँ, अम्माँ देख रही हो ना तुम ? देख रही हो ? मन करता है ताली बजा-बजाकर धरा पर लोटूँ, ठहाका लगा दूँ, पर नहीं। मेरे प्रतिशोध की ज्वाला, अचानक क्यों इतनी तीव्रता से विलीन हो गई है ? एक भारी बालूचरी साड़ी पहनकर वह दपदप करती सफेद चाँदनी के बीचोंबीच बैठी थी, गोलाकार घेरे में बैठे साजिन्दे। बेले-जुही का गजरा हाथ में लपेटे अपने-सामने विराजमान थे मेरे पिता रायबहादुर इकबाल नारायण बली, जिनके वैभव का सूर्य कभी अस्त नहीं होता था।

अब जब कभी ऐसे ही फ़िल्मी मुजरे का दृश्य देखता हूँ तो उनकी फूहड़ बनावटी सज्जा देखकर हँसी आती है-क्या तब मुजरा ऐसा होता था ? इन फ़िल्मी नकली झाड़-फानूसों की ही भाँति, इन सिंथेटिक वार-वनिताओं के चेहरे भी मुझे निस्तेज लगते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि तब की खड़ी ठुमरी की पेशेवर गायिका के खड़े होने की, भाव बतलाने की भंगिमा में भी किसी गृहिणी की-सी ही विनम्र नमनीयता रहती थी। न पहनावे में कोई अश्लील संकेत, न हाव-भाव में। साड़ी का आँचल, राजेश्वरी बाई ने बड़े कौशल से अपनी सुराहीदार ग्रीवा में लपेट लिया था। सहसा पंखे की हवा से आँचल स्वयं ग्रीवामुक्त होकर उसकी विजयपताका-सा फहरा उठा और मैंने अम्माँ की पन्ना-मोती जड़ी कण्ठी पहचान ली। मैंने कनखियों से चिक के पीछे बैठी अम्माँ का विवर्ण चेहरा भी देख लिया था। पिछले साल ही तो अम्माँ की यह कंठी, बड़े रहस्यमय ढंग से, उनके सेफ से गायब हो गई थी। पूरी कोठी में तहलका मच गया था। मेरे पिता के क्रुद्ध गर्जन-तर्जन से घर के नौकर ही नहीं, घोष बाबू भी काँपने लगे थे :
‘‘मैं एक-एक को देख लूँगा, अभी पुलिस को फोन करता हूँ, तुम नमक-हरामों की चमड़ी उधेड़ी जाएगी, तभी कबूलोगे हरामजादो।’’

किन्तु गरजते बादल, बिन बरसे ही सिमट गए। न पुलिस ही को फोन किया गया, न चमड़ी ही उधेड़ी गई। सब समझ गए थे कि कंठी वहीं पहुँच गई है, जहाँ अम्माँ के आभूषण एक-एक कर पहुँच चुके हैं। मेरे जी में आ रहा था, उठकर बाहर चला जाऊँ किन्तु उस विलक्षण गायकी की लौह-बेड़ियों ने मुझे कसकर बाँध दिया था। वह दिव्य कंठ मुझे अम्माँ के मान-अपमान से बहुत दूर खींचे लिये जा रहा था। जोग राग उसके अपरूप सौन्दर्य में सहसा मूर्त हो उठा। मैं सबकुछ भूल गया। मेरी रग में मेरे खानदान का रक्त तेजी से दौड़ने लगा। मेरी आँखें स्वयं मुँद गईं। राग के विस्तार अंश में वह शान्त-संयमित स्वर किसी निर्दिष्ट घराने के बन्धन में नहीं बँधा था, लगता था सौन्दर्य-सृष्टि ही उसका एकमात्र लक्ष्य था। चौदह वर्ष की वयस में ही किसी गुणी जौहरी के बेटे की भाँति मैंने रत्नों को परखना सीख लिया था। जब रात्रिव्यापी वह अनुष्ठान समाप्त हुआ तो वह भजन गा रही थी :

 

‘‘तू दयालु दीन हौं तू दानि हौं भिखारी
हौं प्रसिद्ध पातकी तू पाप पुंज हारी।’’

 

दो

 

नहीं, यह तो मेरी अम्माँ की सौत नहीं थी। यह वह नहीं थी जिसने मेरे पिता को मुझसे असमय ही छीन लिया था। निष्पाप-निष्कलंक चेहरा, गोदी में गिर गया आँचल, बन्द आँखें, उस विलासपूर्ण कक्ष से उड़ती वह जैसे किसी पवित्र देवालय के प्रांगण में बैठी, आँचल फैलाए क्षमा की भीख माँग रही थी। अपने समस्त कलुष-कल्मष का कैसा निष्कपट निवेदन था वह ! समग्र पृथ्वी की समग्र दीनता उन सुरमेभरी आँखों में सिमट गई थी। कौन कह सकता था कि वह एक घृण्य, पेशेवर कुलटा वेश्या है। मैं एक बार उसे और एक बार अम्माँ को देख रहा था। मेरा मन प्रबल आवेग से भर गया। अम्माँ की आँखों में बहती विवश अश्रुधार को चिक की चिलमन से भी स्पष्ट देख पा रहा था। करुणा एवं ममता से विगलित अम्माँ किसी देवालय में प्रतिष्ठित साक्षात् अष्टभुजी की मूर्ति लग रही थीं। और वह पतिता लग रही थी भक्ति-रस में आपादमस्तक डूबती जा रही भक्तिन, मुग्धा, आविष्ट, एकाग्र ! आज जब मैं उस स्मृति की तुरपन न चाहने पर भी उधेड़ता चला जा रहा हूँ, तो मुझे लगता है अतीत को भूलना असम्भव है।

मेरे इस कमरे से लेकर धूमिल आकाश तक एक घना जमा हुआ घुप्प अँधेरा है। मैंने जान-बूझकर ही बत्ती नहीं जलाई। पिछवाड़े पीपल के घने पेड़ की छतरी के कोटर में बैठा उल्लू चीख रहा है। अम्माँ प्रायः ही बड़बड़ाती रहती थीं, ‘‘ए घोप बाबू, बेकसूर तीतर-बटेरों को तो तुम्हारे मालिक बन्दूक का निशाना बनाते रहते हैं-इस मनहूस उल्लू को क्यों नहीं खत्म करते ? दिन-रात मौत को न्योतता रहता है अभागा।’’

बेचारी अम्माँ, वे शायद नहीं जानती थीं कि वह उल्लू मर भी गया तो दूसरा उल्लू पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे अभिशप्त खानदान की मौत को न्योतता रहेगा। सड़क से गुजर रहे ट्रक की तेज रोशनी मेरे पिता के चित्र पर पड़, दूसरी स्मृति-अर्गला को खटकाकर खोल देती है-वह चित्र एक ऐसे चितेरे ने बनाया था जो केवल राजा-महाराजाओं के ही पोर्ट्रेट बनाया करता था, कभी उसने बड़ौदा महाराजा का पोर्ट्रेट बनाया था। और तब ही से घोष बाबू उसे जानते थे। जब पिताजी का चित्र बनवाने उसे बुलाया गया तो उसने लिखा, ‘‘वह केवल राजा-महाराजाओं के रियासती बयाने ही स्वीकारता है। तुम्हारे मालिक क्या बयाना दे पाएँगे ?’’ घोष बाबू ने तत्काल तार दिया था-‘‘मेरे मालिक हैं चक्रवर्ती सम्राट्, फौरन चले आओ, मुँहमाँगा बयाना मिलेगा।’’

काशी में ही मेरे पिता ने वह सिटिंग दी थी, गंगा का चौड़ा पाट, घाट पर बँधे दूल्हे-से सजे बजरे के मयूर कंठी साये में खड़े मेरे पिताश्री मुस्करा रहे थे। हवा के वेग से तरंगित पाल को अद्भुत सूक्ष्मता से चित्रित किया है चितेरे ने। चेहरे पर हैं उद्वेग और प्रत्याशा की रेखाएँ, बजरे पर शामियाना लगा है। जो गलीचा बिछा है, उसकी सूक्ष्मातिसूक्ष्म रेखाओं को ही चित्रकार ने जीवन्त बनाकर रख दिया है। रेशमी अँगरखे के दो सुनहले फीते शायद जान-बूझकर ही खोल दिए गए हैं जिससे गौर लोमश वक्षस्थल पर पड़ी यज्ञोपवीत की डोर भी स्पष्ट उभर आए-पिताजी की रहस्यमयी मुस्कान उनके पान दोख्ते से रक्तिम विलासी अधरों पर खेल रही है, दीर्घायित ग्रीवा, अनुन्नत चिबुक, गर्वोद्धत मस्तक और वह खड्ग के धार-सी नासिका, जिस पर उन्हें सर्वाधिक गर्व था और जो चिता में भस्मीभूत होने पर भी, मेरा निरन्तर पीछा करती मेरे जीवन में विष घोल रही है।

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