लोगों की राय

पुराण एवं उपनिषद् >> श्री लिंग पुराण

श्री लिंग पुराण

योगेश्वर त्रिपाठी

प्रकाशक : देववाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 523
आईएसबीएन :0000-0000

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

107 पाठक हैं

अठारह पुराणों में भगवान महेश्वर की महान महिमा का बखान करने वाला लिंग पुराण विशिष्ट पुराण कहा गया है। इस पुराण का संक्षिप्त रूप प्रस्तुत है।

Shri Ling Puran - A hindi Book by - Yogeshwar Tripathi श्री लिंग पुराण - योगेश्वर त्रिपाठी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

स्वोक्ति


अट्ठारह पुराणों में भगवान महेश्वर की महान महिमा का बखान करनेवाला लिंग पुराण विशिष्ट पुराण कहा गया है। भगवान शिव के ज्योर्ति लिंगों की कथा, ईशान कल्प के वृत्तान्त सर्वविसर्ग आदि दशा लक्षणों सहित वर्णित है भगवान शिव की महिमा का बखान लिंग पुराण में 11000 श्लोकों में किया गया है। यह समस्त पुराणों में श्रेष्ठ है। वेदव्यास कृत इस पुराण में पहले योग फिर कल्प के विषय में बताया गया है।

लिंग शब्द के प्रति आधुनिक समाज में ब़ड़ी भ्रान्ति पाई जाती है। लिंग शब्द चिन्ह का प्रतीक है। भगवान् महेश्वर आदि पुरुष हैं। यह शिवलिंग उन्हीं भगवान शंकर की ज्योतिरूपा चिन्मय शक्ति का चिन्ह है। इसके उद्भव के विषय में सृष्टि के कल्याण के लिए ज्योर्ति लिंग द्वारा प्रकट होकर ब्रह्मा तथा विष्णु जैसों अनादि शक्तियों को भी आश्चर्य में डाल देने वाला घटना का वर्णन, इस पुराण के वर्ण्य विषय का एक प्रधान अंग है। फिर मुक्ति प्रदान करने वाले व्रत-योग शिवार्चन यज्ञ हवनादि का विस्तृत विवेचन प्राप्त है। यह शिव पुराण का पूरक ग्रन्थ है।

आज के आपाधापी भरे युग में वृहद कलेवर के ग्रन्थ पढ़ने का भी समय लोगों में पास नहीं है। लोगों की रुचि (Site at s glance) की ओर हो चुकी है। अतः ‘‘भुवन वाणी ट्रष्ट’’ के मुख्य न्यासी सभापति श्री विनय कुमार अवस्थी के आग्रह पर ‘श्री लिंग पुराण’ की संक्षिप्त गाथा लिखी गई। अल्प समय में ही पाठक पुराण के सम्यक ज्ञान को आत्मसात् करने से लाभान्वित हो सके तो मैं अपने श्रम को सार्थक समझूँगा। इसी मंगल कामना के साथ यह संक्षिप्त ‘श्री लिंग पुराण’ जनता जनार्धन के कर कमलों में समर्पित करते हुए हर्ष का अनुभव कर रहा हूँ। गुरुदेव की परम कृपा से यह कार्य मेरे द्वारा हो पाया एतदर्थ उनके पावन चरणों में शतशत नमन्।


मंगलाचरण



बन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकर रूपिणणम्।
यमाश्रितोपि वक्रोऽपि चंन्द्रः सर्वत्र वंद्यते।

भवानी शंकरं वन्दे नित्यानन्दं जगतगुरुम्।
कामदं ब्रह्मरूपं च भक्तानाम अभयप्रदम्।।

सावित्री त्वं महामाया वरदे कामरूपिणी।
राधाशक्ति संयुक्ता प्रसीद परमेशवरी।।

सावित्री वल्लभं वन्दे जयदयाल कृपानिधे।
देहि में निर्भर भक्तिं योगी त्वच्चरणाश्रितः।।


श्री संक्षिप्त लिंग पुराण



नैमिष में सूत जी की वार्ता



एक समय शिव के विविध क्षेत्रों का भ्रमण करते हुए देवर्षि नारद नैमिषारण्य में जा पहुँचे वहाँ पर ऋषियों ने उनका स्वागत अभिनन्दन करने के उपरान्त लिंगपुराण के विषय में जाननेहित जिज्ञासा व्यक्त की। नारद जी ने उन्हें अनेक अद्भुत कथायें सुनायी। उसी समय वहाँ पर सूत जी आ गये। उन्होंने नारद सहित समस्त ऋषियों को प्रणाम किया। ऋषियों ने भी उनकी पूजा करके उनसे लिंग पुराण के विषय में चर्चा करने की जिज्ञासा की।

उनके विशेष आग्रह पर सूत जी बोले कि शब्द ही ब्रह्म का शरीर है और उसका प्रकाशन भी वही है। एकाध रूप में ओम् ही ब्रह्म का स्थूल, सूक्ष्म व परात्पर स्वरूप है। ऋग साम तथा यर्जुवेद तथा अर्थववेद उनमें क्रमशः मुख जीभ ग्रीवा तथा हृदय हैं। वही सत रज तम के आश्रय में आकर विष्णु, ब्रह्म तथा महेश के रूप में व्यक्त हैं, महेश्वर उसका निर्गुण रूप है। ब्रह्मा जी ने ईशान कल्प में लिंग पुराण की रचना की। मूलतः सौ करोड़ श्लोकों के ग्रन्थ को व्यास जी ने संक्षिप्त कर के चार लाख श्लोकों में कहा। आगे चलकर उसे अट्ठारह पुराणों में बाँटा गया जिसमें लिंग पुराण का ग्यारहवाँ स्थान है। अब मैं आप लोगों के समक्ष वही वर्णन कर रहा हूँ जिसे आप लोग ध्यानपूर्वक श्रवण करें।


सृष्टि की प्राधानिक एवं वैकृतिक रचना



अदृश्य शिव दृष्य प्रपंच (लिंग) का मूल कारण है जिस अव्यक्त पुराण को शिव तथा अव्यक्त प्रकृति को लिंग कहा जाता है वहाँ इस गन्धवर्ण तथा शब्द स्पर्श रूप आदि से रहित रहते हुए भी निर्गुण ध्रुव तथा अक्षय कहा गया है। उसी अलिंग शिव से पंच ज्ञानेद्रियाँ, पंचकर्मेन्द्रियाँ, पंच महाभूत, मन, स्थूल सूक्ष्म जगत उत्पन्न होता है और उसी की माया से व्याप्त रहता है। वह शिव ही त्रिदेव के रूप में सृष्टि का उद्भव पालन तथा संहार करता है वही अलिंग शिव योनी तथा वीज में आत्मा रूप में अवस्थित रहता है। उस शिव की शैवी प्रकृति रचना प्रारम्भ में सतोगुण से संयुक्त रहती है। अव्यक्त से लेकर व्यक्त तक में उसी का स्वरूप कहा गया है। विश्व को धारण करने वाली प्रकृति ही शिव की माया है जो सत रज तम तीनों गुणों के योग से सृष्टि का कार्य करती है।

वही परमात्मा सर्जन की इच्छा से अव्यक्त में प्रविष्ट होकर महत् तत्व की रचना करता है। उससे त्रिगुण अहं रजोगुण प्रधान उत्पन्न होता है। अहंकार से शब्द स्पर्श रूप रस गन्ध यह पाँच तन्मात्रयें उत्पन्न हुईं। सर्व प्रथम शब्द से आकाश, आकाश से स्पर्श, स्पर्श से वायु, वायु से रूप, रूप से अग्नि, अग्नि से रस, रस से गन्ध, गन्ध से पृथ्वी उत्पन्न हुई। आकाश में एक गुण, वायु में दो गुण, अग्नि में तीन गुण, जल में चार गुण, और पृथ्वी में शब्द स्पर्शादि पाँचों गुण मिलते हैं। अतः तन्मात्रा पंच भूतों की जननी हुई। सतोगुणी अहं से ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ तथा उभयात्मक मन इन ग्यारह की उत्पत्ति हुई। महत से पृथ्वी तक सारे तत्वों का अण्ड बना जो दस गुने जल से घिरा है। इस प्रकार जल को दस गुणा वायु ने, वायु को दस गुणा आकाश ने घेर रक्खा है। इसकी आत्मा ब्रह्मा है। कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों में कोटि त्रिदेव पृथक-पृथक होते हैं। वहीं शिव विष्णु रूप हैं।


सृष्टि का प्रारम्भ



ब्रह्म का एक दिन और एक रात प्राथमिक रचना का समय है दिन में सृष्टि करता है और रात में प्रलय। दिन में विश्वेदेवा, समस्त प्रजापति, ऋषिगण, स्थिर रहने और रात्रि में सभी प्रलय में समा जाते हैं। प्रातः पुनः उत्पन्न होते हैं। ब्रह्म का एक दिन कल्प है और उसी प्रकार रात्रि भी। हजार वार चर्तुयुग बीतने पर चौदह मनु होते हैं। उत्तरायण सूर्य के रहने पर देवताओं का दिन और दक्षिणायन सूर्य रहने तक उसकी रात होती है।

तीस वर्ष का एक दिव्य वर्ष कहा गया है। देवों के तीन माह मनुष्यों के सौ माह के बराबर होते हैं। इस प्रकार तीन सौ साठ मानव वर्षों का देवताओं का एक वर्ष होता है तीन हजार सौ मानव वर्षों का सप्तर्षियों का एक वर्ष होता है। सतयुग चालीस हजार दिव्य वर्षों का, त्रेता अस्सी हजार दिव्य वर्षों का, द्वापर बीस हजार दिव्य वर्षों का और कलियुग साठ हजार दिव्य वर्षों का कहा गया है। इस प्रकार हजार चतुर्युगों का एककल्प कहा जाता है। कलपान्त में प्रलय के समय मर्हलोक के जन लोक में चले जाते हैं। ब्रह्मा के आठ हजार वर्ष का ब्रह्म युग होता है। सहस्त्र दिन का युग होता है जिसमें देवताओं की उत्पत्ति होती है। अन्त में समस्त विकार कारण में लीन हो जाते हैं। फिर शिव की आज्ञा से समस्त विकारों का संहार होता है। गुणों की समानता में प्रलय तथा विषमता में सृष्टि होती है। शिव एक ही रहता है। ब्रह्मा और विष्णु अनेक उत्पन्न हो जाते हैं। ब्रह्मा के द्वितीय परार्द्ध में दिन में सृष्टि रहती है और रात्रि में प्रलय होती है। भूः भुवः तथा महः ऊपर के लोक हैं। जड़ चेतन के लय होने पर ब्रह्मा नार (जल) में शयन करने के कारण नारायण कहते हैं। प्रातः उठने पर जल ही जल देखकर उस शून्य में सृष्टि की इच्छा करते हैं। वाराह रूप से पृथ्वी का उद्धार करके नदी नद सागर पूर्ववत स्थिर करते हैं। पृथ्वी को सम बनाकर पर्वतों को अवस्थित करते हैं। पुनः भूः आदि लोकों की सृष्टि की इच्छा उनमें जाग्रत होती है।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai