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हस्तिनापुर का शूद्र महामात्य

युगेश्वर

प्रकाशक : विश्वविद्यालय प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :151
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5232
आईएसबीएन :81-7124-266-9

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भारत की अहिंसक सामाजिक व्यवस्था का दर्पण

Hastinapur Ka Shoodra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तावना

सम्पूर्ण महाभारत में महात्मा विदुर का व्यक्तित्व विरल है। वे कौरव कुल के हैं। कौरवों, पांडवों के चाचा हैं। किन्तु क्षत्रिय नहीं हैं। महामात्य हैं। फिर भी राजा की ठकुरसुहाती नहीं करते हैं। सत्य बोलते हैं। सत्य का पक्ष लेते हैं। इसी से विदुर नीति भी प्रसिद्ध है। हस्तिनापुर राज्य के महामात्य हैं। किन्तु महाभारत युद्ध से अलग हैं। उनका तन मन एक है।
 
विदुर धर्म के अवतार हैं। धर्म हैं। धर्म को देखना है तो विदुर को देखो। धर्म पथ पर चलना है तो विदुर नीति पथ पर चलो। विदुर दासी पुत्र हैं। शूद्र हैं। फिर भी हस्तिनापुर के शासक हैं। अपरिहार्य शासक। प्रधानमंत्री। उनमें शूद्र होने की कोई हीनता नहीं है। महामात्य का गर्व नहीं है। शाक खाने, खिलाने की लज्जा भी नहीं है। वे सेवा को धर्म मानते हैं। राज्यसेवा वृद्ध सेवा। पीड़ित, अनाथ सेवा।

भीष्म हस्तिनापुर के सर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं। महान त्यागी। पिता-सुख के लिये अपने सुख काम एवं अर्थसुख को त्यागने वाले। फिर भी वे अपने को ‘अर्थ’ दास कहते हैं। विदुर केवल धर्म हैं। अर्थ और काम कोगौण बनाता धर्म। उन्हें धर्मार्थ कहना चाहिए। धर्म ही इनका ‘अर्थ’ भी है।

पूरे महाभारत में विदुर का कोई निजी जीवन नहीं है। वे कथा के केन्द्र में हैं। घर गृहस्थ हैं। किन्तु उनकी कोई कथा नहीं है। भगवान् ने दुर्योधन का मेवा त्याग कर विदुर के घर शाक खाया था। बस इतना ही गृहस्थ विदुर हैं।
अतिरिक्त के लिये उपन्यास देखें।

युगेश्वर


कोई भी गृहस्थ कितना भी धार्मिक हो। सदाचारी हो। उससे कभी न कभी अपराध हो ही जाता है। फलतः उसे पाप-पुण्य के दंड या लाभ की प्राप्ति होती है। किन्तु संन्यासी, तपस्वी को केवल पुण्य करता है। उसका जीवन तपस्या के लिये समर्पित होता है। तपस्या समर्पित व्यक्ति से पाप संभव नहीं है।

धर्म फिर कुछ बोलना चाहते थे। किन्तु श्रुति ने कहा-धर्मराज मैं आपसे तर्क नहीं करूँगा। तर्क से सत्य की पहचान संभव नहीं है। तर्क से तर्क कट सकता है। सत्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है। आचार्यों ने तर्क को अप्रतिष्ठ बताया है। तर्कोऽप्रतिष्ठः।
शासक को आवश्यकतानुसार तरह-तरह की भंगिमा दिखानी पड़ती है। कोई श्रेष्ठम अभिनेता भी शासकी अभिनय की समानता करने में समर्थ नहीं है। अभिनेता का समाज प्रायः ही छोटा होता है। अल्पकालिक होता है। मनोरंजनवाला होता है। किन्तु राजा बड़े समाज, स्थायी समाज का दीर्घकालिक अभिनेता है।

विदेशी नागर सदा ही संदेह से देखे जाते हैं। उन्हें प्रधान अमात्य बनाने की कल्पना भी नहीं है। हमारी स्वतंत्रता का वह काला दिवस होगा। पतन और परतंत्रता की चरमावस्था होगी। जब विदेशी नागर शकुनि हस्तिनापुर का प्रधान होगा।

हस्तिनापुर का शूद्र महामात्य

राजा धृतराष्ट्र की अंधी आँखों ने कुछ नहीं देखा। न भाई को। न पत्नी को। न संतान को। राजा धृतराष्ट्र केवल अपने को देख रहे हैं। अपनी देह नहीं। अपना ठाट नहीं। पत्नी, पुत्रों, भाइयों, भतीजों आदि का प्रकाश नहीं। मात्र अंधकार प्रत्येक जन्मांध का। जन्म के पूर्व से ही अंधकार पीछा करता है। आगे पीछे। बगल-बगल अंधकार रहता है। राजा धृतराष्ट्र के साथ ही भी यही हुआ।
अंधत्व के कारण वे राजा नहीं हो सकते थे। राजा हुए उनके छोटे भाई पांडु। पांडु को राजा बनने की प्रसन्नता नहीं थी। इसके कई कारणों की संभावना है।
 
पांडु का स्वास्थ्य संभवतः राजधानी के योग्य नहीं था। इसी से राजा होकर भी उन्होंने अपनी दो पत्ननियों के साथ वन निवास ग्रहण किया। वे बड़े भाई को ही राजा देखना चाहते थे। राज्य पर अधिकार का स्वाभाविक क्रम धृतराष्ट्र का था। किन्तु अंधत्व की बाधा ने उन्हें राजा नहीं होने दिया था। पांडु को यह अच्छा नहीं लगा। वे अपने को राज्य का स्वाभाविक अधिकारी नहीं मानते थे। यह तो बड़े भाई की अपंगता का लाभ उठाने जैसा था। इससे भी उन्हें शासन में रुचि नहीं थी। वन का प्रकृत जीवन उन्हें नगर जीवन के कोलाहल से सुंदर, सुखद लगता था। आखेट में भी गहरी रुचि थी।
धृतराष्ट्र के तीसरे भाई विदुर थे विदुर दासी पुत्र थे। एक भाई अंधा। एक भाई पांडु। एक भाई दासी पुत्र। शूद्र।
एक अलिखित समझौता हुआ। राजा हुए पांडु। अमात्य हुए विदुर। सर्वोपरि अनुशासन हुआ धृतराष्ट्र का। किन्तु यह समझौता। प्रभावी न हो सका पांडु के वन निवास ने अंधे धृतराष्ट्र को व्यवहारिक राजा, कार्यकारी राजा बना दिया। व्यवहार में हस्तिनापुर का राज्य एक अंधे द्वारा संचालित होने लगा।

विदुर राजा धृतराष्ट्र के भाई होकर भी राजा नहीं थे। राजा न होने के कारण वे मात्र सलाहकार थे। उनसे भी बड़ा अनुशासन भीष्म का था। भीष्म धृतराष्ट्र के पिता के बड़े भाई थे। उनकी प्रसिद्धि उनके त्याग के कारण थी। भीष्म ने अपने पिता के लिये राज्य का त्याग किया था।

भाइयों में बड़े होने के कारण भीष्म हस्तिनापुर राज्य के स्वाभाविक अधिकारी थे। किन्तु उनके पिता शांतनु एक कैवर्त कन्या पर आसक्त हो गये। कैवर्त कन्या का पूर्व नाम गंधकाली था। वह काली तो थी ही। उसके शरीर से मत्स्य की गंध भी आती थी। किन्तु ऋषि पराशर के सम्पर्क ने उसके शरीर की मत्स्य गंध दूर कर दी। वह योजनगंधा कहलाने लगी। अब उसके शरीर से योजनभर की दूरी से ही सुगंध निकलती थी। राजा शांतनु इसी गंध से प्रभावित थे। बाद में यह सत्यवती भी कही जाने लगी। सत्यवती के पिता निषादराज ने देखा। महाराज शांतनु सत्यवती को पाने के लिये अति आतुर हैं। निषादराज ने महाराज की इस आतुरता का लाभ लेना चाहा। उसने शांतनु के सामने प्रस्ताव रखा। सत्यवती का विवाह शांतनु से हो। यह अच्छी बात है। किन्तु...

उसके इस ‘किन्तु’ को सुनकर महाराज शांतनु चिंतित हो गये थे। उन्होंने कल्पना नहीं की थी। एक नाविक अपनी कन्या को सम्राट् से ब्याहने में किन्तु परन्तु की शर्त लगाएगा।
वृद्ध निषादराज जानता था। स्त्री संग्रह और त्याग राजाओं का स्वभाव है। राजन्य कभी तो स्त्री का प्रेमपूर्वक संग्रह करता है। विवाह के समय अनेक- अनेक आश्वासन देता है। मीठी-मीठी बातें करता है। कन्या और कन्या पिता परिवार में कन्या को रानी बनाने का लोभ उत्पन्न करता है। किन्तु कन्या प्राप्ति के कुछ ही दिनों बाद वह कन्या उपेक्षित हो जाती है। राजमहल में राजा की अनेक स्त्रियों के बीच वह उपेक्षित रहती है। एक दिन की रानी। अब बंदिनी जैसा जीवन जीने को विवश हो जाती है।

राजा दुष्यन्त ने शकुंलता को न जाने कितने आश्वासन दिये थे। इन आश्वासनों के प्रदर्शन द्वारा उन्होंने शकुंतला के साथ गांधर्व विवाद किया। किन्तु राजा दुष्यंत शीघ्र ही शकुंतला को भूल गये। शकुंतला के गर्भ से उत्पन्न अपने बालक को भी न पहचाना। रानी बनने की कामना करने वाली शकुंतला भिखारिणी बन गयी। वह न ससुराल की रही, न पिता के घर की। पति द्वारा स्वीकार न किये जाने के कारण उसकी स्थिति उस श्वान की हो गयी जो न घर का है, न घाट का है। राजा दुष्यंत की अस्वीकृति के कारण गांधर्व विवाह तो उपेक्षित हुआ ही, उसका बालक भी उपेक्षित हो गया। अपने वैध बालक की उपेक्षा से माता शकुंतला का दुःख दूना हो गया।

सत्यवती के पिता निषाद दाशराज ने इन बातों का विचार कर राजा शांतनु के सामने प्रस्ताव रखा। महाराज शांतनु, सत्यवती मेरी पालिता कन्या है। जैसे शकुंतला महर्षि कण्व की पालिता कन्या थी। कन्या का विवाह किसी योग्य वर से हो यह प्रत्येक पिता की चिंता रहती है। मैं भी इस कन्या के विवाह की चिंता में हूँ। जानता हूँ। आपसे योग्य वर का मिलना संभव नहीं। आप मेरी कन्या के लिये सर्वोत्तम वर हैं। किन्तु मेरी एक शर्त है।
उस शर्त को बिना किसी संकोच के मैं आपके समक्ष रख रहा हूँ। ऐसा न करूँ तो मैं आजीवन पश्चात्ताप की पीड़ा में जलता रहूँगा।

और तब दाशराज ने कहा था-मैं दृढ़तापूर्वक चाहता हूँ। बिना किसी विकल्प के चाहता हूँ। सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न बालक निषाद नाती ही हस्तिनापुर का भावी राजा हो। यह करने का विशेष प्रयोजन है।

महाराज, मैं जानता हूँ। आपको एक बालक है। यह आपका प्रथम पुत्र है। प्रकृत नियम से इसी बालक को हस्तिनापुर का राजा होना है। ऐसे में, सत्यवती की संतान राज्य शासन से वंचित हो जायेगी। मैं यह नहीं चाहता हूँ। मेरी प्रबल इच्छा है। मेरा दौहित्र ही हस्तिनापुर के राज्य सिंहासन पर बैठे। आप इसे स्वीकार करें। तभी सत्यवती से आपका विवाह संभव है।
हाँ, एक बात और। मैं चाहता हूँ भविष्य में भी सत्यवती की संतान ही राजा बने।
राजा शांतनु को दाशराज ने बडी दुविधा में डाल दिया था। वे दाशराज की बातें कैसे मान लें ? बड़े लड़के के रहते छोटे का राजा होना संभव नहीं है। यह राज नियम के विरुद्ध है। प्रजा इसे भी स्वीकार नहीं करेगी
छोटे का राजा बनना एक ही स्थिति में सम्भव है। जब बड़े लड़के में शारीरिक या मानस अयोग्यता हो। किसी प्रकार की अपूर्णता हो।

भीष्म में किसी प्रकार की अयोग्यता या अपूर्णता नहीं है। उन्हें अयोग्य प्रमाणित भी नहीं किया जा सकता है।
पिता की इस दुविधा का समाधान स्वयं भीष्म ने कर दिया। उन्होंने दाशराज के समक्ष प्रतिज्ञा की। वे हस्तिनापुर की राजगद्दी का त्याग करते हैं। कभी भी उसकी इच्छा नहीं करेंगे। वे आजीवन कुमार व्रत धारण करेंगे, जिससे संतान का अभाव होगा। मेरी संतान के अभाव में गद्दी का अधिकार सदा-सदा के लिये माता सत्यवती की संतानों को मिलता रहेगा।

 

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