कविता संग्रह >> आज भी वही बनारस है आज भी वही बनारस हैविश्वंभरनाथ त्रिपाठी
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एक श्रेष्ठ काव्य-संग्रह
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बनारस हास-परिहास का गढ़ रहा है। यहाँ भारतेन्दु से आरम्भ करके
अन्नपूर्णानन्द, बेढब, बेधड़क, भैयाजी, चोंच, कौतुक प्रभृत अनेक दिग्गज
मैदान में बनारसीपन की छटा बिखेरते रहे हैं और इस दौर में बड़े गुरु मौन,
स्वान्त-सुखाय साधना करते रहे। अखबारों में उनकी रचनाएँ एक आभूषण की तरह
चिपकी रही हैं पर उनका मूल्यांकन हुआ ही नहीं। आज उनकी रचनाओं पर
दृष्टिपात करें तो समझ में आयेगा कि बड़ेगुरु वास्तव में बनारसीपन के
सर्वश्रेष्ठ प्रथम श्रेणी के रचनाकार हैं। यही नहीं विरल संयोग है कि वे
कवि होने के साथ-साथ चित्रकार भी हैं।
इस वर्तमान काव्य-संग्रह ‘आज भी वही बनारस है’ की 40 रचनाएँ बड़ेगुरु के बनाए कार्टूनों से सुसज्जित हैं अर्थात् सोने में सुहागा भी मिला है। इनमें व्यंग्यकार की दृष्टि से राजनीतिक परिप्रेक्ष्य पर दृष्टि डाली गई है, समाज और सामाजिक रीति-रिवाजों और कुरीतियों की भी खबर ली गई है। इसमें नेता हैं, लक्ष्मीवाहन हैं, तटस्थ हैं, अमेरिकी गेहूँ हैं, राजलीला है, लाढ़ेराम हैं, उग्रवाद, आतंकवाद और अणुबम हैं, खतरे का भोंपा है, पूर्ण शान्ति है, और है कि नाक में दम कि मृत्यु का कौन ठिकाना। समझदार की मौत है और आशा है कल की दिन होगा सुनहला। समाज की दुःखती रग पर हास्य-व्यंग्य की नश्तर लगाती ये रचनाएँ बेजोड़ हैं।
इनके साथ इस संग्रह में एक कला खण्ड भी है जो अक्षर तो नहीं बोलता है, बनारस का दर्शन कराता है। जो बनारस के हैं, बनारसी हैं वे इन चित्रों को देखकर लोट-पोट हो जायेंगे। ढूँढ़ियेगा इसमें आपकी, आपके नेता की, आपके शहर की कितनी छबियाँ हैं और जब ये चित्र खोपड़ी में तागड़ धिन्ना करेंगे तो बरबस आप कह उठेंगे—‘बाह गुरू बाह’।
इस वर्तमान काव्य-संग्रह ‘आज भी वही बनारस है’ की 40 रचनाएँ बड़ेगुरु के बनाए कार्टूनों से सुसज्जित हैं अर्थात् सोने में सुहागा भी मिला है। इनमें व्यंग्यकार की दृष्टि से राजनीतिक परिप्रेक्ष्य पर दृष्टि डाली गई है, समाज और सामाजिक रीति-रिवाजों और कुरीतियों की भी खबर ली गई है। इसमें नेता हैं, लक्ष्मीवाहन हैं, तटस्थ हैं, अमेरिकी गेहूँ हैं, राजलीला है, लाढ़ेराम हैं, उग्रवाद, आतंकवाद और अणुबम हैं, खतरे का भोंपा है, पूर्ण शान्ति है, और है कि नाक में दम कि मृत्यु का कौन ठिकाना। समझदार की मौत है और आशा है कल की दिन होगा सुनहला। समाज की दुःखती रग पर हास्य-व्यंग्य की नश्तर लगाती ये रचनाएँ बेजोड़ हैं।
इनके साथ इस संग्रह में एक कला खण्ड भी है जो अक्षर तो नहीं बोलता है, बनारस का दर्शन कराता है। जो बनारस के हैं, बनारसी हैं वे इन चित्रों को देखकर लोट-पोट हो जायेंगे। ढूँढ़ियेगा इसमें आपकी, आपके नेता की, आपके शहर की कितनी छबियाँ हैं और जब ये चित्र खोपड़ी में तागड़ धिन्ना करेंगे तो बरबस आप कह उठेंगे—‘बाह गुरू बाह’।
प्राक्कथन
विलक्षण प्रतिभा के धनी, कवि, कार्टूनिस्ट विश्वंभरनाथ त्रिपाठी
‘बड़ेगुरू’(1932-1988) का जन्म कालामहल के प्रतिष्ठित
ब्राह्मण परिवार में हुआ था। शिक्षा के नाम पर जे.जे.आर्ट स्कूल, बम्बई से
आर्ट में डिप्लोमा, विशारद तथा आगरा से बी.ए. किया। विनोदी स्वभाव के
बड़ेगुरू बचपन से ही कविता एवं कार्टून बनाने में प्रवीण थे। दस वर्ष की
अवस्था में लिखी गई उनकी पहली कविता ‘जय हिन्द कहो
हिन्दुस्तानी’ साप्ताहिक ‘सूर्य’ में
‘भर्रा कविराज’ के नाम से छपी। कई उपनामों से उनकी
रचनाएँ अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छपती रहीं। 1945 में उनका प्रथम कार्टून
आगरा से प्रकाशित ‘नोकझोंक’ में छपा। गांधीजी की
हत्या के उपरांत ‘महाप्राण’ शीर्षक से सन्मार्ग में
छपे उनके कार्टून को देखकर रमाकांत कण्ठालेजी उनके घर पर आये। कार्टून की
प्रशंसा की और निरंतर कार्टून बनाने के लिए प्रेरित किया। इसी समय वाराणसी
के यशस्वी चित्रकार पं. केदार शर्मा के यहाँ आपका आना-जाना प्रारम्भ हुआ।
उनसे चित्रकला की शिक्षा लेने गये। कला-गुरु के रूप में केदार शर्मा का वे
बड़ा आदर करते थे। इस बीच साप्ताहिक ‘आज’ और
‘सन्मार्ग’ में उनके कार्टून तथा कविताएँ निरन्तर
छपती रहीं। बड़े गुरू के कार्टूनों में केदार शर्मा के बनारसी शैली की छाप
स्पष्ट दिखलाई पड़ती है।
काशी की संस्कृति, बनारसीपन तथा यहाँ के जनजीवन से जुड़ी बड़ेगुरू की 540 कविताएँ ‘वाह ! बनारस’ के नाम से दैनिक सन्मार्ग में धारावाहिक रुप में छपीं। 1964 में इसी शीर्षक से 32 रचनाओं की एक छोटी पुस्तक भारतीय भाषा प्रकाशन ने प्रकाशित किया था। बड़ेगुरू की इन 540 रचनाओं में बनारसी जीवन का कोई अंग या रंग छूटा नहीं है।
बनारस हास-परिहास का गढ़ रहा है। यहाँ भारतेन्दु से आरम्भ करके अन्नपूर्णानंद, बेढब, बेधड़क, भैयाजी, चोंच, कौतुक प्रभृत अनेक दिग्गज मैदान में बनारसीपन की छटा बिखेरते रहे हैं। और इस समूचे दौर में बड़ेगुरू मौन, स्वान्त:सुखाय साधना करते रहे हैं। अखबारों में उनकी रचनाएँ एक आभूषण की तरह चिपकी रही हैं पर उनका मूल्यांकन हुआ ही नहीं। आज उनकी रचनाओं पर दृष्टिपात करें तो समझ में आयेगा कि बड़ेगुरू वास्तव में बनारसीपन के सर्वश्रेष्ठ प्रथम श्रेणी के रचनाकार हैं। यही नहीं विरल संयोग है कि वे कवि होने के साथ-साथ चित्रकार भी हैं। काशी में व्यंग्य चित्रकारों, कार्टूनिस्टों की लम्बी परंपरा रही है-केदार कंठाले, कांजिलाल आदि चर्चित रहे हैं, छाये रहे हैं पर बड़ेगुरू को कम ख्याति मिली। इनके चित्रों को देखें तो स्पष्ट होगा कि ये प्रथम श्रेणी के चित्रकार हैं।
हर्ष का विषय हैं कि चार दशकों के लम्बे अंतराल के बाद बड़ेगुरू के काव्य और चित्र का अनूठा बेजोड़ संग्रह ‘आज भी वही बनारस है’ प्रकाश में आ रहा है। इस संग्रह में 40 रचनाएँ सचित्र हैं अर्थात् सोने में सुहागा भी मिला है। इनमें व्यंग्यकार की दृष्टि से राजनीतिक परिप्रेक्ष्य पर दृष्टि डाली गयी है, समाज और सामाजिक रीति रिवाजों और कुरीतियों की भी खबर ली गयी है। इसमें नेता हैं, लक्ष्मीवाहन है, तटस्थ हैं, अमेरिकी गेहूँ है, राजलीला है, लाढ़ेराम हैं, उग्रवाद, आतंकवाद और अणुबम है, खतरे का भोपा है, पूर्ण शांति है और है नाक में दम कि मृत्यु का कौन ठिकाना। समझदार की मौत है और आशा है कल का दिन होगा सुनहला। समाज की दु:खती रग पर हास्य-व्यंग्य का नश्तर लगाती ये रचनाएँ बेजोड़ हैं।
इन रचनाओं के साथ इस संग्रह में एक कला खण्ड भी है जो अक्षर तो नहीं हैं पर बोलता है, बनारस का दर्शन कराता है। जो बनारस के हैं, बनारसी हैं वे इन चित्रों को देखकर लोट-पोट हो जायेंगे। ढूँढ़ियेगा इसमें आपकी, आपके नेता की, आपके शहर की कितनी छबियाँ हैं और जब ये चित्र खोपड़ी में तागड़ धिन्ना करेंगे तो बरबस आप कह उठेंगे-‘बाह गुरू बाह’।
बड़ेगुरू के इस काव्य संग्रह से बनारसी साहित्य की श्रीवृद्धि होगी। और बनारसी रंग की हास्य रस धारा बहाने वालों की सेना में एक नायक की वृद्धि हो जायेगी। निश्चय ही गंगाजल और मीठा हो जायेगा।
काशी की संस्कृति, बनारसीपन तथा यहाँ के जनजीवन से जुड़ी बड़ेगुरू की 540 कविताएँ ‘वाह ! बनारस’ के नाम से दैनिक सन्मार्ग में धारावाहिक रुप में छपीं। 1964 में इसी शीर्षक से 32 रचनाओं की एक छोटी पुस्तक भारतीय भाषा प्रकाशन ने प्रकाशित किया था। बड़ेगुरू की इन 540 रचनाओं में बनारसी जीवन का कोई अंग या रंग छूटा नहीं है।
बनारस हास-परिहास का गढ़ रहा है। यहाँ भारतेन्दु से आरम्भ करके अन्नपूर्णानंद, बेढब, बेधड़क, भैयाजी, चोंच, कौतुक प्रभृत अनेक दिग्गज मैदान में बनारसीपन की छटा बिखेरते रहे हैं। और इस समूचे दौर में बड़ेगुरू मौन, स्वान्त:सुखाय साधना करते रहे हैं। अखबारों में उनकी रचनाएँ एक आभूषण की तरह चिपकी रही हैं पर उनका मूल्यांकन हुआ ही नहीं। आज उनकी रचनाओं पर दृष्टिपात करें तो समझ में आयेगा कि बड़ेगुरू वास्तव में बनारसीपन के सर्वश्रेष्ठ प्रथम श्रेणी के रचनाकार हैं। यही नहीं विरल संयोग है कि वे कवि होने के साथ-साथ चित्रकार भी हैं। काशी में व्यंग्य चित्रकारों, कार्टूनिस्टों की लम्बी परंपरा रही है-केदार कंठाले, कांजिलाल आदि चर्चित रहे हैं, छाये रहे हैं पर बड़ेगुरू को कम ख्याति मिली। इनके चित्रों को देखें तो स्पष्ट होगा कि ये प्रथम श्रेणी के चित्रकार हैं।
हर्ष का विषय हैं कि चार दशकों के लम्बे अंतराल के बाद बड़ेगुरू के काव्य और चित्र का अनूठा बेजोड़ संग्रह ‘आज भी वही बनारस है’ प्रकाश में आ रहा है। इस संग्रह में 40 रचनाएँ सचित्र हैं अर्थात् सोने में सुहागा भी मिला है। इनमें व्यंग्यकार की दृष्टि से राजनीतिक परिप्रेक्ष्य पर दृष्टि डाली गयी है, समाज और सामाजिक रीति रिवाजों और कुरीतियों की भी खबर ली गयी है। इसमें नेता हैं, लक्ष्मीवाहन है, तटस्थ हैं, अमेरिकी गेहूँ है, राजलीला है, लाढ़ेराम हैं, उग्रवाद, आतंकवाद और अणुबम है, खतरे का भोपा है, पूर्ण शांति है और है नाक में दम कि मृत्यु का कौन ठिकाना। समझदार की मौत है और आशा है कल का दिन होगा सुनहला। समाज की दु:खती रग पर हास्य-व्यंग्य का नश्तर लगाती ये रचनाएँ बेजोड़ हैं।
इन रचनाओं के साथ इस संग्रह में एक कला खण्ड भी है जो अक्षर तो नहीं हैं पर बोलता है, बनारस का दर्शन कराता है। जो बनारस के हैं, बनारसी हैं वे इन चित्रों को देखकर लोट-पोट हो जायेंगे। ढूँढ़ियेगा इसमें आपकी, आपके नेता की, आपके शहर की कितनी छबियाँ हैं और जब ये चित्र खोपड़ी में तागड़ धिन्ना करेंगे तो बरबस आप कह उठेंगे-‘बाह गुरू बाह’।
बड़ेगुरू के इस काव्य संग्रह से बनारसी साहित्य की श्रीवृद्धि होगी। और बनारसी रंग की हास्य रस धारा बहाने वालों की सेना में एक नायक की वृद्धि हो जायेगी। निश्चय ही गंगाजल और मीठा हो जायेगा।
डॉ. भानुशंकर मेहता
आभार
दिसम्बर 87 में जब ‘बड़ेगुरू’ अपनी महापंचक्रोशी
यात्रा पर निकल रहे थे, मैंने उन्हें वचन दिया था कि उनकी समस्त कृतियों
को प्रकाशित करने की चेष्ठा करूँगा। इतने लम्बे अन्तराल के बाद उनके इस
काव्य-संग्रह के प्रकाशित होने के साथ उन्हें दिये गये वचन की आंशिक
पूर्ति हुई। आशा है उनका महाकाव्य ‘वाह ! बनारस ’ भी
शीघ्र ही प्रकाशित हो जायेगा।
अनेक विधाओं के तत्वज्ञ, बनारसी परम्परा एवं संस्कृति के अन्यतम ज्ञाता डॉ. भानुशंकर मेहता के हम आभारी हैं जिन्होंने ‘बड़ेगुरू’ की रचनाओं पर टिप्पणी के साथ इस संकलन का प्राक्कथन लिखने की कृपा की।
विश्वविद्यालय प्रकाशन के श्री पुरुषोत्तमदास मोदी के भी हम आभारी हैं जिन्होंने एक विस्मृत कलाकार की कृति को प्रकाशित कर बनारसी हास्य-व्यंग्य के साहित्य की श्रीवृद्धि में महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाही।
अनेक विधाओं के तत्वज्ञ, बनारसी परम्परा एवं संस्कृति के अन्यतम ज्ञाता डॉ. भानुशंकर मेहता के हम आभारी हैं जिन्होंने ‘बड़ेगुरू’ की रचनाओं पर टिप्पणी के साथ इस संकलन का प्राक्कथन लिखने की कृपा की।
विश्वविद्यालय प्रकाशन के श्री पुरुषोत्तमदास मोदी के भी हम आभारी हैं जिन्होंने एक विस्मृत कलाकार की कृति को प्रकाशित कर बनारसी हास्य-व्यंग्य के साहित्य की श्रीवृद्धि में महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाही।
सम्पादक
अक्खड़पन और मस्ती के जीवंत प्रतीक थे ‘बड़ेगुरू’
बच्चन सिंह
लम्बी, खिचड़ी दाढ़ी। लम्बे बाल, सिर के ऊपर जूड़े में गुथे हुए। जूड़ा
गमछे में लिपटा हुआ। एक हाथ में बाल्टी और उसमें अल्यूमीनियम का एक
जलपात्र। दूसरे हाथ में बेंत से मढ़ा हुआ लोहे का एक भारी चिमटा। बगल की
कांख में दबी आसनी। कंधे पर कम्बल और लटकता हुआ झोला, जिसमें दैनिक
इस्तेमाल की वस्तुएँ। सफेद धोती का आधा टुकड़ा कमर से लपेटे और आधा कंधे
पर ओढ़े। निर्भीक, अक्खड़, हठी और धुन के पक्के। यह चित्र स्मृतियां
सिनेमा के रील की तरह आँखों के सामने घूम जाती हैं। ढाई इंच ऊंची और सौ
ग्राम ठोस लोहे की खूँटी वाला खड़ाऊँ पहने बड़ेगुरू बनारस की गलियों में
घूमते कहीं भी देखे जा सकते थे-गंगा के किनारे दीवार और घाट पर कोयले से
कविता लिखते हुए भी। जी हां, एक बार बड़ेगुरू का रचनाकार गंगा के तट पर
बैठा हुआ मुखर हो उठा। कविता की ये पंक्तियाँ भूल न जाएँ, इसलिए बड़ेगुरू
ने एक कोयले का टुकड़ा लिया और दीवार पर लिखने लगे। दीवार पर जगह नहीं बची
तो फर्श पर लिखने लगे। धुन के इतने पक्के या तो निराला थे या फिर बड़ेगुरू।
बड़ेगुरू का वास्तविक नाम था विश्वंभरनाथ त्रिपाठी। कालीमहाल के प्रतिष्ठित परिवार में जन्मे लेकिन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम. ए. नहीं कर पाये। एक बार चुनाव में खड़े हुए। इस निमित्त जो कार्ड छपवाया उसमें लिखा-विश्वंभरनाथ त्रिपाठी बी.ए. (एम.ए.प्री.फेल) को वोट दीजिए। यह एक तरह से अपने जीवन-यथार्थ का उद्घाटन था। वह बनारस के अक्खड़पन आजादी और मस्ती के जीवंत प्रतीक थे। यथार्थोन्मुखी, मानवतावादी और संघर्षशील परंपरा का अद्भुत समन्वय था उनमें, बल्कि कहें कि बनारस-आदिकाल से लेकर वर्तमान तक बड़ेगुरू में पूरी तरह समाया हुआ था। कबीर की सधुक्कड़ी भी उनमें थी तो आज की सामाजिक चेतना भी। घर-बार छोड़कर जब परिव्राजक बने तो इसलिए नहीं कि उनके अंदर कोई आध्यात्मिक चेतना जाग गयी थी बल्कि इसलिए कि वह बनारस को पूरी तरह आत्मसात् कर लेना चाहते थे। खांटी बनारसीपन के जीते-जागते बिम्ब थे वह।
विलक्षण प्रतिभा के धनी-विश्वंभरनाथ त्रिपाठी जिन्हें लोग प्यार से बिस्सू कहते थे, जब दस वर्ष के थे तभी एक कविता लिखी ‘जय हिन्द कहो हिन्दुस्तानी’। यह कविता साप्ताहिक ‘सूर्य’ में भर्रा कविराज के नाम से छपी। फिर उन्होंने कई नामों से रचनाएँ कीं। जैसे-बेहया त्रिपाठी, विश्वंभर, घोंघा बसन्त, अफलातून बनारसी आदि। जब उन्होंने ‘बड़ेगुरू’ नाम अपनाया तो कुछ लोगों ने आपत्ति की-‘जब रुद्र जी गुरु बनारसी के नाम से लिख रहे हैं तो तुम अन्य कोई उपनाम रख लो। यह नाम जरा ठीक नहीं है। पूर्व नाम अफलातून बनारसी’ का प्रयोग करो लेकिन विश्वंभरनाथ त्रिपाठी ने एक बार जो निर्णय ले लिया सो ले लिया। वह बदला नहीं जा सकता। 1956 में जब विश्वनाथ मुखर्जी का संकलन ‘बना रहे बनारस’ के नाम से आया तो बड़ेगुरू ने ‘वाह ! बनारस’ के नाम से अपनी कविताएँ खुद छपवाईं और बेची।
घटना 1959 की है। बड़ेगुरू एंग्लोबंगाली कॉलेज से लौट रहे थे। जद्दू मण्डी के पास कुछ लोगों ने उनके ऊपर हमला कर दिया उन्हें पाँच टांके लगे। विकट स्वाभिमानी बड़ेगुरू को यह हमला रात-दिन सालता रहा। उन्होंने पांच टांकों के प्रतीक के रूप में ‘वाह! बनारस’ की पाँच मालाएँ जपीं। पाँच मालाएँ अर्थात् पाँच सौ चालीस रचनाएँ। ये सभी रचनाएँ ‘दैनिक समाचार’ और बाद में ‘सन्मार्ग’ में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुई। इन रचनाओं में बनारस का कोई पक्ष अछूता नहीं रह गया है। धर्म, दर्शन, अध्यात्म, जीवन-व्यापार, रहन-सहन, संस्कृति, प्रकृति, सभ्यता कुछ भी नहीं छूटा है। राड़, साँड़, सीढ़ी संन्यासी...में से हर किसी पर लिखा है। ‘सांड’ पर एक रचना देखें-
छूटा दगा दुमकटा साँड़/सींग रहित कनफटा सांड़/मंदिर, गली सड़क घाटों पर/दो चार गऊ संग डटा साँड़/भिड़ पड़े खोंमचा उधर गिरा/हुरपेटा कोई इधर गिरा/ढुर छें ढुर छें में पता नहीं/कब कौन आदमी किधर गिरा/कुछ ने मोटे को पुचकारा/ कुछ ने दुबले को लरकाराफिर क्या था साँड़ों के पीछे/हो गयी वहीं मारी मारा/एकदम बरबस/वाह ! बनारस
महामना मदनमोहन मालवीय ने चौरासी कोस की वृहद परिक्रमा को पुनर्जीवित करने का फैसला किया था लेकिन वो सफल नहीं हो सके। उनके इस अधूरे कार्य को पूरा करने का बीड़ा उठाया बड़ेगुरू ने। 1984 में उन्होंने सवा मास की पदयात्रा कर इस परिक्रमा-पथ का अन्वेषण किया और इस दौरान लगभग तीन सौ गाँवों के तीन हजार से अधिक लोगों से सम्पर्क किया और इस दौरान कोसी तथा पंचकोसी की ग्यारह बार पदयात्रा की। चौरासी कोस की ग्यारहवीं और अंतिम प्रदक्षिणा उन्होंने 1986 में पूरी की और उस परिक्रमा-पथ का एक नक्शा भी तैयार किया जो दुर्लभ है। इस नक्शे के बारे में प्रख्यात मानव वैज्ञानिक प्रोफेसर बैद्यनाथ सरस्वती कहते हैं-‘‘अब तक अनेक आधुनिक विद्वानों ने काशी का अध्ययन किया है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भूगोल विभाग ने भी वाराणसी नगर के अनेक मानचित्र प्रकाशित किये हैं किन्तु पौराणिक भूगोल के अनुसंधान का प्रामाणिक मानचित्र बनाने का जैसा प्रयास बड़ेगुरू ने किया है वैसा शायद अब तक किसी ने नहीं किया।’’ एक वीतरागी अध्येता थे बड़ेगुरू।
बड़ेगुरू एक समर्थ कार्टूनिस्ट, सफल चित्रकार और कुशल हस्तरेखा विशेषज्ञ भी थे। जब वे इण्टर के छात्र थे, तभी ‘किरण’ नामक पत्रिका का सम्पादन कर रहे थे। यह पत्रिका जिस संस्था किरण साहित्य मण्डल की तरफ से प्रकाशित होती थी उसके वे संयुक्त सचिव भी थे। पत्रिका हस्तलिखित थी, तब वे बड़ेगुरू नहीं थे लेकिन तत्कालीन विद्वतजनों को तब आश्चर्य हुआ जब विश्वंभरनाथ त्रिपाठी पत्रिका में प्रकाशित होने वाली सभी कविताओं का रेखांकन करने लगे और कवर पेज के लिए चित्र भी खुद ही बनाने लगे। यह जिम्मेदारी उन्होंने 1945 तक निबाही, यानी बी. ए. में प्रवेश करने तक। बी. ए. उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से किया। बड़ेगुरू का पहला कार्टून महाप्रयाण गाँधी जी की हत्या के उपरांत सन्मार्ग में छपा। इस कार्टून को देखकर स्व. रमाकांत कण्ठाले जी उनके घर पर आये। कार्टून की प्रशंसा की और निरंतर कार्टून बनाने के लिए प्रेरित किया। कण्ठालेजी के निधन के बाद आज में उनका चचा-भतीजा नामक कार्टून लगातार छपने लगा। ‘आज’ के अलावा ‘चेतना’, ‘तरंग’, ‘भ्रमण’, ‘नोंकझोंक’ आदि पत्र-पत्रिकाओं में बड़ेगुरू के कार्टून छपे। उनकी बहुत सारी कविताएँ उनके रेखांकन या कार्टून के साथ भी प्रकाशित हुईं।
बड़ेगुरू एक कुशल वास्तुशिल्पी भी थे। जब वे कालीमहल स्थित अपने पैतृक मकान में रह रहे थे तब भाला, बरछा, तलवार, धनुष-बाण आदि अपने हाथ से बनाकर रखते थे। वे अपनी खड़ाऊँ भी खुद ही बनाते थे, ढाई इंची ऊँची और सौ ग्राम ठोस लोहे की खुँटी वाली। हास्य-व्यंग्य के प्रसिद्ध कवि डा. श्याम तिवारी स्वर्गीय ने बडे़गुरू के बारे में लिखा है ‘छान-छान और किसी की न मान’ के लहजे में कभी-कभी तो एक बेकाबू साँड़ की तरह बम्मड़ हो जाते और कभी दार्शनिक मुद्रा में अपनी चौरासी कोस वाली परिक्रमा के मानचित्र समेत तीर्थों और मंदिरों के विवरण सुना जाते। कविता के लिए छेड़ने पर पहले टालते फिर बड़ी मस्ती से वाह बनारस के फिकरे उड़ाने लगते। वह किस बात पर नाराज हो जायेंगे और किस पंक्ति पर दाद पाने पर प्रसन्न होंगे, इसका किसी को पता नहीं चलता था।
एक दिलचस्प वाकया उस समय हुआ जब वे अस्सी के उस ठीहे पर थे, जहां बनारस के बुद्धिजीवी अक्सर बौद्धिक-अबौद्धिक विमर्श करते रहते हैं। यह बैठक जिस चाय की दुकान में जमती है उसका मालिक भी काव्य रसिक है। बकौल श्याम तिवारी उनके इशारे पर दुकानदार ने एक बड़ी भांग की गोली और एक गिलास चाय उनके सामने रखकर निवेदन करने लगा। बड़ेगुरू पहले मुस्कराये, फिर थोड़ा हँसते हुए स्वीकार कर लिया। फिर कविता सुनाने का आग्रह हुआ। उन्होंने तीन-चार पंक्तियाँ सुनायी। जब एक नेता जी ने उनसे उनका परिचय जानना चाहा तो बोले-‘‘मैं तो काली माई का पड़ोसी हूँ। मेरे भाई बन्धु कुछ तो दशाश्वमेध घाट पर और कुछ संकटमोचन में रहते हैं। मैं कुँआरा हूँ। मेरा नाम तो आप जान ही गये हैं।’’ फिर जोरदार ठहाका लगाया। कुछ देर बाद दुकानदार अपनी बेटी की शादी का निमंत्रण पत्र लेकर बड़ेगुरू के पास आये और निवेदन किया, ‘मेरी छोटी बिटिया की शादी है, आपका आशीर्वाद चाहिए। बड़ेगुरू ने निमंत्रण पत्र को सड़क पर फेंक दिया और बोले, ‘अगर मेरे आशीर्वाद से वह मर जाये या राड़ हो जाये तो तुम मुझे दोष दोगे। मैं नहीं जाता ऐसी वैसी जगह, किसी मंगलाचरण वाचने वाले को किराये पर क्यों नहीं बुला लेते ? यह सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोग सन्न रह गये। दुकानदार ने हल्का प्रतिवाद किया तो अंडबंड बकते, डंडा लेकर पैंतरा भांजते नजर आये और सभी से कुट्टी कर तत्काल वहाँ से चले गये।’
बड़ेगुरू सर्व धर्म समभाव के विचार वाले व्यक्ति थे। कुछ लोग उन्हें साधु समझ कर धर्म का प्रसंग छेड़ देते। एक दिन एक कवि उनसे धर्म पर बहस कर बैठे। बड़ेगुरू ने झोले से गीता, बाइबिल और हिन्दी में अनूदित कुरान निकाल कर उनके सामने रख दिये। पूछा-‘इसमें से किसी को पढ़ा है ? कवि जी निरुत्तर रहे। फिर बड़ेगुरू बोले-‘सभी धर्म बड़े हैं और तुम तुच्छ हो, नीच हो, मूर्ख हो जो किसी एक धर्म को बड़ा मानते हो।’ अब कवि जी के सामने सिर्फ बड़ेगुरू को विस्मय से देखते रहने के सिवाय कोई चारा नहीं था।
बडे़गुरू भांग नियमित छानते थे। भांग का गोला उतना बड़ा होता था जितना उनके मुंह में समा सकता था। उनके रहने का एक ठौर हबीबपुरा स्थित मेरे मित्र रामलखन मौर्य का घर था। रामलखन मौर्य एक विद्वान समाजशास्त्री हैं और प्रचार-प्रसार से दूर रह कर एकान्त साधना में लीन रहते हैं। बड़ेगुरू जब इनके यहाँ होते तो उनके भांग छानने का इंतजाम मौर्यजी ही करते। वह अपने घर से सिर्फ कुछ किताबें ही लेकर निकले थे। वे किताबें रामलखनजी की आलमारी में ज्यों की त्यों रखी हैं और खून से लथ-पथ रूमाल, पायजामा तथा कुर्ता भी जो हमले के समय उन्होंने पहन रखे थे। बड़ेगुरू से मेरी कुछ मुलाकातें रामलखनजी के यहाँ ही हुई। फिर मैं उनका स्नेहपात्र बन गया। रामलखनजी कहते हैं, ‘‘बड़ेगुरू काशी के सच्चे प्रतिनिधि थे। बनारस का पूरा जीवन-दर्शन उनके व्यक्तित्व में परिलक्षित होता था। बनारस की आजादी अखंडता और मस्ती के साथ-साथ उन्होंने यहां की गरीबी फटेहाली कोभी आत्मसात किया था। इस फटेहाली को उन्होंने जो बौद्धिक आयाम दिया था स्वाभिमान और गौरव का जो बाना पहनाया था वह अपने आप में किसी मिथक से कम नहीं है।’’
प्रख्यात कार्टूनिस्ट स्व. कांजिलाल बडे़गुरू को बहुत सम्मान देते थे। उन्होंने बड़ेगुरू का एक रेखाचित्र भी बनाया था। उन्होंने अपने एक लेख में हिन्दी के व्यंग्य चित्रकारों की पहली कतार में पं. केदारनाथ शर्मा, शिक्षार्थी और कंठाले जी के बाद बड़ेगुरू जी को ही स्थान दिया है। बड़ेगुरू जी का कवि कर्म उनके उस जीवन का प्रतिबिम्ब था जो वह जीते रहे। बनारस का कोना-कोना उनकी कविताओं में जीवंत है। बुढ़वा मंगल जैसे आयोजनों से लेकर काशी की महिलाओं तक पर कलम चलाया है। भांग छानने, लंगड़ा आम, पान, साफा पानी, माझा-मालिस, लिट्टी बाटी, गहरे बाजी जैसे विषयों पर कविताएँ लिखकर बनारस के जीवन को पंक्तिबद्ध किया है। एक कविता गहरेबाजी के कुछ अंश-
बैठे साव पुरोहित पंडा/ले ले छड़ी अंगोछा डंडा/‘बोल दे रजा राम’ चले पट्ठे/गहरेबाज पटनहा मुण्डा/इक्के राजघाट पुल आये/घोड़ों ने डैने फैलाये/मची करारी गहरेबाजी/भिड़ल रहे बस जाय न पाये/लऽरंगभंग पड़ गयल खलल/कुछ चित्त गिरे, कुछ मुँह के बल/फिर भी मुँह से था निकल रहा/बस खबरदार ! सब रहे हटल/अद्भुत साहस/ वाह ! बनारस।
कबीर की तरह बड़ेगुरू भी फक्कड़ थे। जो ‘मन में आया, बेलाग कहा। सुनने वाले को पसंद आये, न आये, परवाह नहीं। ‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ का जीवन दर्शन। सम्पत्ति और वैभव से कोई मोह नहीं। दोनों से मनुष्य की सत्ता को सर्वोपरि मानने वाले। जाति, सम्प्रदाय और धर्म से ऊपर। अपरिग्रही, रूढ़िभंजक और मायामोह से दूर। कबीर बनारस में पैदा हुए, बनारस उनकी कर्मभूमि रही लेकिन देह त्याग किया मगहर में। ‘जो कबीरा काशी मरै तो रामै कौन निहोरा।’ बड़ेगुरू ने बनारस से बाहर न जाने की कसम खायी थी, इसलिए अन्तिम समय में बनारस नहीं छोड़ा लेकिन काशी जरूर छोड़ दी। देहत्याग किया काशी से 15-20 किलोमीटर दूर दानगंज के एक गाँव में। गाँव वाले भला क्या जानते थे बड़ेगुरू को, ज्यादा से ज्यादा एक घुमंतू साधु। चुपचाप अन्त्येष्टि कर दी। बनारस के उनके हजारों प्रशंसक अन्तिम दर्शन से वंचित रह गये।
बड़ेगुरू का वास्तविक नाम था विश्वंभरनाथ त्रिपाठी। कालीमहाल के प्रतिष्ठित परिवार में जन्मे लेकिन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम. ए. नहीं कर पाये। एक बार चुनाव में खड़े हुए। इस निमित्त जो कार्ड छपवाया उसमें लिखा-विश्वंभरनाथ त्रिपाठी बी.ए. (एम.ए.प्री.फेल) को वोट दीजिए। यह एक तरह से अपने जीवन-यथार्थ का उद्घाटन था। वह बनारस के अक्खड़पन आजादी और मस्ती के जीवंत प्रतीक थे। यथार्थोन्मुखी, मानवतावादी और संघर्षशील परंपरा का अद्भुत समन्वय था उनमें, बल्कि कहें कि बनारस-आदिकाल से लेकर वर्तमान तक बड़ेगुरू में पूरी तरह समाया हुआ था। कबीर की सधुक्कड़ी भी उनमें थी तो आज की सामाजिक चेतना भी। घर-बार छोड़कर जब परिव्राजक बने तो इसलिए नहीं कि उनके अंदर कोई आध्यात्मिक चेतना जाग गयी थी बल्कि इसलिए कि वह बनारस को पूरी तरह आत्मसात् कर लेना चाहते थे। खांटी बनारसीपन के जीते-जागते बिम्ब थे वह।
विलक्षण प्रतिभा के धनी-विश्वंभरनाथ त्रिपाठी जिन्हें लोग प्यार से बिस्सू कहते थे, जब दस वर्ष के थे तभी एक कविता लिखी ‘जय हिन्द कहो हिन्दुस्तानी’। यह कविता साप्ताहिक ‘सूर्य’ में भर्रा कविराज के नाम से छपी। फिर उन्होंने कई नामों से रचनाएँ कीं। जैसे-बेहया त्रिपाठी, विश्वंभर, घोंघा बसन्त, अफलातून बनारसी आदि। जब उन्होंने ‘बड़ेगुरू’ नाम अपनाया तो कुछ लोगों ने आपत्ति की-‘जब रुद्र जी गुरु बनारसी के नाम से लिख रहे हैं तो तुम अन्य कोई उपनाम रख लो। यह नाम जरा ठीक नहीं है। पूर्व नाम अफलातून बनारसी’ का प्रयोग करो लेकिन विश्वंभरनाथ त्रिपाठी ने एक बार जो निर्णय ले लिया सो ले लिया। वह बदला नहीं जा सकता। 1956 में जब विश्वनाथ मुखर्जी का संकलन ‘बना रहे बनारस’ के नाम से आया तो बड़ेगुरू ने ‘वाह ! बनारस’ के नाम से अपनी कविताएँ खुद छपवाईं और बेची।
घटना 1959 की है। बड़ेगुरू एंग्लोबंगाली कॉलेज से लौट रहे थे। जद्दू मण्डी के पास कुछ लोगों ने उनके ऊपर हमला कर दिया उन्हें पाँच टांके लगे। विकट स्वाभिमानी बड़ेगुरू को यह हमला रात-दिन सालता रहा। उन्होंने पांच टांकों के प्रतीक के रूप में ‘वाह! बनारस’ की पाँच मालाएँ जपीं। पाँच मालाएँ अर्थात् पाँच सौ चालीस रचनाएँ। ये सभी रचनाएँ ‘दैनिक समाचार’ और बाद में ‘सन्मार्ग’ में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुई। इन रचनाओं में बनारस का कोई पक्ष अछूता नहीं रह गया है। धर्म, दर्शन, अध्यात्म, जीवन-व्यापार, रहन-सहन, संस्कृति, प्रकृति, सभ्यता कुछ भी नहीं छूटा है। राड़, साँड़, सीढ़ी संन्यासी...में से हर किसी पर लिखा है। ‘सांड’ पर एक रचना देखें-
छूटा दगा दुमकटा साँड़/सींग रहित कनफटा सांड़/मंदिर, गली सड़क घाटों पर/दो चार गऊ संग डटा साँड़/भिड़ पड़े खोंमचा उधर गिरा/हुरपेटा कोई इधर गिरा/ढुर छें ढुर छें में पता नहीं/कब कौन आदमी किधर गिरा/कुछ ने मोटे को पुचकारा/ कुछ ने दुबले को लरकाराफिर क्या था साँड़ों के पीछे/हो गयी वहीं मारी मारा/एकदम बरबस/वाह ! बनारस
महामना मदनमोहन मालवीय ने चौरासी कोस की वृहद परिक्रमा को पुनर्जीवित करने का फैसला किया था लेकिन वो सफल नहीं हो सके। उनके इस अधूरे कार्य को पूरा करने का बीड़ा उठाया बड़ेगुरू ने। 1984 में उन्होंने सवा मास की पदयात्रा कर इस परिक्रमा-पथ का अन्वेषण किया और इस दौरान लगभग तीन सौ गाँवों के तीन हजार से अधिक लोगों से सम्पर्क किया और इस दौरान कोसी तथा पंचकोसी की ग्यारह बार पदयात्रा की। चौरासी कोस की ग्यारहवीं और अंतिम प्रदक्षिणा उन्होंने 1986 में पूरी की और उस परिक्रमा-पथ का एक नक्शा भी तैयार किया जो दुर्लभ है। इस नक्शे के बारे में प्रख्यात मानव वैज्ञानिक प्रोफेसर बैद्यनाथ सरस्वती कहते हैं-‘‘अब तक अनेक आधुनिक विद्वानों ने काशी का अध्ययन किया है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भूगोल विभाग ने भी वाराणसी नगर के अनेक मानचित्र प्रकाशित किये हैं किन्तु पौराणिक भूगोल के अनुसंधान का प्रामाणिक मानचित्र बनाने का जैसा प्रयास बड़ेगुरू ने किया है वैसा शायद अब तक किसी ने नहीं किया।’’ एक वीतरागी अध्येता थे बड़ेगुरू।
बड़ेगुरू एक समर्थ कार्टूनिस्ट, सफल चित्रकार और कुशल हस्तरेखा विशेषज्ञ भी थे। जब वे इण्टर के छात्र थे, तभी ‘किरण’ नामक पत्रिका का सम्पादन कर रहे थे। यह पत्रिका जिस संस्था किरण साहित्य मण्डल की तरफ से प्रकाशित होती थी उसके वे संयुक्त सचिव भी थे। पत्रिका हस्तलिखित थी, तब वे बड़ेगुरू नहीं थे लेकिन तत्कालीन विद्वतजनों को तब आश्चर्य हुआ जब विश्वंभरनाथ त्रिपाठी पत्रिका में प्रकाशित होने वाली सभी कविताओं का रेखांकन करने लगे और कवर पेज के लिए चित्र भी खुद ही बनाने लगे। यह जिम्मेदारी उन्होंने 1945 तक निबाही, यानी बी. ए. में प्रवेश करने तक। बी. ए. उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से किया। बड़ेगुरू का पहला कार्टून महाप्रयाण गाँधी जी की हत्या के उपरांत सन्मार्ग में छपा। इस कार्टून को देखकर स्व. रमाकांत कण्ठाले जी उनके घर पर आये। कार्टून की प्रशंसा की और निरंतर कार्टून बनाने के लिए प्रेरित किया। कण्ठालेजी के निधन के बाद आज में उनका चचा-भतीजा नामक कार्टून लगातार छपने लगा। ‘आज’ के अलावा ‘चेतना’, ‘तरंग’, ‘भ्रमण’, ‘नोंकझोंक’ आदि पत्र-पत्रिकाओं में बड़ेगुरू के कार्टून छपे। उनकी बहुत सारी कविताएँ उनके रेखांकन या कार्टून के साथ भी प्रकाशित हुईं।
बड़ेगुरू एक कुशल वास्तुशिल्पी भी थे। जब वे कालीमहल स्थित अपने पैतृक मकान में रह रहे थे तब भाला, बरछा, तलवार, धनुष-बाण आदि अपने हाथ से बनाकर रखते थे। वे अपनी खड़ाऊँ भी खुद ही बनाते थे, ढाई इंची ऊँची और सौ ग्राम ठोस लोहे की खुँटी वाली। हास्य-व्यंग्य के प्रसिद्ध कवि डा. श्याम तिवारी स्वर्गीय ने बडे़गुरू के बारे में लिखा है ‘छान-छान और किसी की न मान’ के लहजे में कभी-कभी तो एक बेकाबू साँड़ की तरह बम्मड़ हो जाते और कभी दार्शनिक मुद्रा में अपनी चौरासी कोस वाली परिक्रमा के मानचित्र समेत तीर्थों और मंदिरों के विवरण सुना जाते। कविता के लिए छेड़ने पर पहले टालते फिर बड़ी मस्ती से वाह बनारस के फिकरे उड़ाने लगते। वह किस बात पर नाराज हो जायेंगे और किस पंक्ति पर दाद पाने पर प्रसन्न होंगे, इसका किसी को पता नहीं चलता था।
एक दिलचस्प वाकया उस समय हुआ जब वे अस्सी के उस ठीहे पर थे, जहां बनारस के बुद्धिजीवी अक्सर बौद्धिक-अबौद्धिक विमर्श करते रहते हैं। यह बैठक जिस चाय की दुकान में जमती है उसका मालिक भी काव्य रसिक है। बकौल श्याम तिवारी उनके इशारे पर दुकानदार ने एक बड़ी भांग की गोली और एक गिलास चाय उनके सामने रखकर निवेदन करने लगा। बड़ेगुरू पहले मुस्कराये, फिर थोड़ा हँसते हुए स्वीकार कर लिया। फिर कविता सुनाने का आग्रह हुआ। उन्होंने तीन-चार पंक्तियाँ सुनायी। जब एक नेता जी ने उनसे उनका परिचय जानना चाहा तो बोले-‘‘मैं तो काली माई का पड़ोसी हूँ। मेरे भाई बन्धु कुछ तो दशाश्वमेध घाट पर और कुछ संकटमोचन में रहते हैं। मैं कुँआरा हूँ। मेरा नाम तो आप जान ही गये हैं।’’ फिर जोरदार ठहाका लगाया। कुछ देर बाद दुकानदार अपनी बेटी की शादी का निमंत्रण पत्र लेकर बड़ेगुरू के पास आये और निवेदन किया, ‘मेरी छोटी बिटिया की शादी है, आपका आशीर्वाद चाहिए। बड़ेगुरू ने निमंत्रण पत्र को सड़क पर फेंक दिया और बोले, ‘अगर मेरे आशीर्वाद से वह मर जाये या राड़ हो जाये तो तुम मुझे दोष दोगे। मैं नहीं जाता ऐसी वैसी जगह, किसी मंगलाचरण वाचने वाले को किराये पर क्यों नहीं बुला लेते ? यह सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोग सन्न रह गये। दुकानदार ने हल्का प्रतिवाद किया तो अंडबंड बकते, डंडा लेकर पैंतरा भांजते नजर आये और सभी से कुट्टी कर तत्काल वहाँ से चले गये।’
बड़ेगुरू सर्व धर्म समभाव के विचार वाले व्यक्ति थे। कुछ लोग उन्हें साधु समझ कर धर्म का प्रसंग छेड़ देते। एक दिन एक कवि उनसे धर्म पर बहस कर बैठे। बड़ेगुरू ने झोले से गीता, बाइबिल और हिन्दी में अनूदित कुरान निकाल कर उनके सामने रख दिये। पूछा-‘इसमें से किसी को पढ़ा है ? कवि जी निरुत्तर रहे। फिर बड़ेगुरू बोले-‘सभी धर्म बड़े हैं और तुम तुच्छ हो, नीच हो, मूर्ख हो जो किसी एक धर्म को बड़ा मानते हो।’ अब कवि जी के सामने सिर्फ बड़ेगुरू को विस्मय से देखते रहने के सिवाय कोई चारा नहीं था।
बडे़गुरू भांग नियमित छानते थे। भांग का गोला उतना बड़ा होता था जितना उनके मुंह में समा सकता था। उनके रहने का एक ठौर हबीबपुरा स्थित मेरे मित्र रामलखन मौर्य का घर था। रामलखन मौर्य एक विद्वान समाजशास्त्री हैं और प्रचार-प्रसार से दूर रह कर एकान्त साधना में लीन रहते हैं। बड़ेगुरू जब इनके यहाँ होते तो उनके भांग छानने का इंतजाम मौर्यजी ही करते। वह अपने घर से सिर्फ कुछ किताबें ही लेकर निकले थे। वे किताबें रामलखनजी की आलमारी में ज्यों की त्यों रखी हैं और खून से लथ-पथ रूमाल, पायजामा तथा कुर्ता भी जो हमले के समय उन्होंने पहन रखे थे। बड़ेगुरू से मेरी कुछ मुलाकातें रामलखनजी के यहाँ ही हुई। फिर मैं उनका स्नेहपात्र बन गया। रामलखनजी कहते हैं, ‘‘बड़ेगुरू काशी के सच्चे प्रतिनिधि थे। बनारस का पूरा जीवन-दर्शन उनके व्यक्तित्व में परिलक्षित होता था। बनारस की आजादी अखंडता और मस्ती के साथ-साथ उन्होंने यहां की गरीबी फटेहाली कोभी आत्मसात किया था। इस फटेहाली को उन्होंने जो बौद्धिक आयाम दिया था स्वाभिमान और गौरव का जो बाना पहनाया था वह अपने आप में किसी मिथक से कम नहीं है।’’
प्रख्यात कार्टूनिस्ट स्व. कांजिलाल बडे़गुरू को बहुत सम्मान देते थे। उन्होंने बड़ेगुरू का एक रेखाचित्र भी बनाया था। उन्होंने अपने एक लेख में हिन्दी के व्यंग्य चित्रकारों की पहली कतार में पं. केदारनाथ शर्मा, शिक्षार्थी और कंठाले जी के बाद बड़ेगुरू जी को ही स्थान दिया है। बड़ेगुरू जी का कवि कर्म उनके उस जीवन का प्रतिबिम्ब था जो वह जीते रहे। बनारस का कोना-कोना उनकी कविताओं में जीवंत है। बुढ़वा मंगल जैसे आयोजनों से लेकर काशी की महिलाओं तक पर कलम चलाया है। भांग छानने, लंगड़ा आम, पान, साफा पानी, माझा-मालिस, लिट्टी बाटी, गहरे बाजी जैसे विषयों पर कविताएँ लिखकर बनारस के जीवन को पंक्तिबद्ध किया है। एक कविता गहरेबाजी के कुछ अंश-
बैठे साव पुरोहित पंडा/ले ले छड़ी अंगोछा डंडा/‘बोल दे रजा राम’ चले पट्ठे/गहरेबाज पटनहा मुण्डा/इक्के राजघाट पुल आये/घोड़ों ने डैने फैलाये/मची करारी गहरेबाजी/भिड़ल रहे बस जाय न पाये/लऽरंगभंग पड़ गयल खलल/कुछ चित्त गिरे, कुछ मुँह के बल/फिर भी मुँह से था निकल रहा/बस खबरदार ! सब रहे हटल/अद्भुत साहस/ वाह ! बनारस।
कबीर की तरह बड़ेगुरू भी फक्कड़ थे। जो ‘मन में आया, बेलाग कहा। सुनने वाले को पसंद आये, न आये, परवाह नहीं। ‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ का जीवन दर्शन। सम्पत्ति और वैभव से कोई मोह नहीं। दोनों से मनुष्य की सत्ता को सर्वोपरि मानने वाले। जाति, सम्प्रदाय और धर्म से ऊपर। अपरिग्रही, रूढ़िभंजक और मायामोह से दूर। कबीर बनारस में पैदा हुए, बनारस उनकी कर्मभूमि रही लेकिन देह त्याग किया मगहर में। ‘जो कबीरा काशी मरै तो रामै कौन निहोरा।’ बड़ेगुरू ने बनारस से बाहर न जाने की कसम खायी थी, इसलिए अन्तिम समय में बनारस नहीं छोड़ा लेकिन काशी जरूर छोड़ दी। देहत्याग किया काशी से 15-20 किलोमीटर दूर दानगंज के एक गाँव में। गाँव वाले भला क्या जानते थे बड़ेगुरू को, ज्यादा से ज्यादा एक घुमंतू साधु। चुपचाप अन्त्येष्टि कर दी। बनारस के उनके हजारों प्रशंसक अन्तिम दर्शन से वंचित रह गये।
अतिवादों के जलडमरूमध्य बड़ेगुरू
डॉ. श्याम तिवारी
बनारसी मौज-मस्ती, बेधड़क जबान, बेखटक और बेलौस जिंदगी वाले औलिया कवि
‘बड़ेगुरू’ फक्कड़ी स्वभाव के लिये सुख्यात हैं। वह
सच्चे अर्थों में एक सैलानी साहित्यकार होकर उभरे और अपनी अनवरत यात्राओं
के मोड़ों दर-मोडों भटकावों दर-भटकावों और पड़ावों दर-पड़ावों से गुजरते
हुए अन्तत: ‘वाह बनारस’ की उक्तियों के साथ बनारस की
वाहवाही करते अन्तत: अनन्त यात्रा की ओर चले गये जमात में धूनी रमाये बैठे
बेमुरौअत बैरागी की तरह आसन फटकारकर, बिना किसी को लावारिस और बेसहारा
बनाये। भले कोई उनकी यादगार में दो बोल निकाले या न निकाले, आँसू की दो
बूँदें गिराये या न गिराये, चाहे उनकी मिट्टी पर कहकहे लगाये या विलाप
करे, क्या फर्क पड़ता है जिंदादिली हरकतों के उस दरवेश बादशाह को ? वह तो
आसमान की तरह झुकना नहीं जानता था लेकिन प्यास से तड़पती आत्माओं पर
करुणार्द्र बादलों से भरकर गरजने, चमकने और जीभरकर बरसने से चूकता भी नहीं
था। आज उसकी अनगिनत स्मृतियाँ मेरे गिर्द मड़राती हैं, उनमें से किन्हें
छोडूँ और किन्हें शब्दों में उतारूँ-
अशआर हस्रत आगीं कहने की ताब किसको
अब हर नजर है नौहा, हर सांस मरसिया है
अपने इस अक्खड़ मित्र को तीस वर्षों से ज्यादा अरसे से जानता था, फिर एकाएक यह जानकारी काव्य सम्बन्धों में फलीभूत होकर एक नैकट्य में बदल गयी। वह अक्सर मिलते, मेरे घर आते और ‘वाह बनारस’ की उक्तियाँ मेरी मित्रमंडली में सुनाते। कृष्णवर्ण जर्जर शरीर, तीखा स्वभाव धोती या अंचला-लंगोटी में शोभित उनका व्यक्तित्व अनोखा था। मनबढ़ तथा ढीठ उक्तियों-वार्तालापों से दूसरों के स्वाभिमान को धक्का देकर नाराज कर देना उनका बायें हाथ का खेल था। एक झोले में अपनी गृहस्थी की तमाम चीजें भरे, कंधे पर एक कमरी धरे और कभी धुली चद्दर के साथ लटकाये, हाथ में डंडा लिये नंगे पाँव उन्हें सदा रमते-भटकते पाया। ‘छान-छान और किसी न मान’ के लहजे में कभी-कभी तो एक बेकाबू साँड़ की तरह बम्मड़ हो जाते और कभी दार्शनिक मुद्रा में अपनी चौरासी कोश वाले काशी परिक्रमा के मानचित्र समेत तीर्थों-कुंडों और मंदिरों का विवरण सुना जाते। कविता के लिये छेड़ने पर पहले टालते फिर बड़ी मस्ती से ‘वाह बनारस’ के फिकरे उड़ाने लगते। वह किस बात पर नाराज हो जायेंगे और किस पंक्ति पर दाद पाने पर प्रसन्न होंगे, इसका किसी को पता नहीं चलता था। एक बार आते ही पुड़िया की फरमाइश की। पुड़िया आ गयी। सिल-बट्टे का प्रबंध तत्काल न हो पाया तो काली मिर्च की बुकनी और हथेली से चूर्ण हुई पुड़िया के माल को मिलाकर पानी के साथ गटक गये। फिर बोले, ‘किस नादिहंद दरिद्र के यहाँ पहुँच गया कि ठीक से छना नहीं पाया।’ मेरे एक कवि मित्र उन्हें साधु समझते थे। बातचीत में धर्म पर बहस होने लगी। तब तक बड़ेगुरू ने झोले से गीता, बाइबिल और हिन्दी कुरआन निकालकर पूछा-इनमें से किसी को पढ़ा है ? कवि जी ने कुछ नहीं पढ़ा था। गुरू तत्काल बोले-सभी धर्म बड़े हैं और तुम तुच्छ हो, नीच हो, मूर्ख हो जो किसी एक धर्म को बड़ा मानते हो। कवि मुझे ताकते रह गये।
अशआर हस्रत आगीं कहने की ताब किसको
अब हर नजर है नौहा, हर सांस मरसिया है
अपने इस अक्खड़ मित्र को तीस वर्षों से ज्यादा अरसे से जानता था, फिर एकाएक यह जानकारी काव्य सम्बन्धों में फलीभूत होकर एक नैकट्य में बदल गयी। वह अक्सर मिलते, मेरे घर आते और ‘वाह बनारस’ की उक्तियाँ मेरी मित्रमंडली में सुनाते। कृष्णवर्ण जर्जर शरीर, तीखा स्वभाव धोती या अंचला-लंगोटी में शोभित उनका व्यक्तित्व अनोखा था। मनबढ़ तथा ढीठ उक्तियों-वार्तालापों से दूसरों के स्वाभिमान को धक्का देकर नाराज कर देना उनका बायें हाथ का खेल था। एक झोले में अपनी गृहस्थी की तमाम चीजें भरे, कंधे पर एक कमरी धरे और कभी धुली चद्दर के साथ लटकाये, हाथ में डंडा लिये नंगे पाँव उन्हें सदा रमते-भटकते पाया। ‘छान-छान और किसी न मान’ के लहजे में कभी-कभी तो एक बेकाबू साँड़ की तरह बम्मड़ हो जाते और कभी दार्शनिक मुद्रा में अपनी चौरासी कोश वाले काशी परिक्रमा के मानचित्र समेत तीर्थों-कुंडों और मंदिरों का विवरण सुना जाते। कविता के लिये छेड़ने पर पहले टालते फिर बड़ी मस्ती से ‘वाह बनारस’ के फिकरे उड़ाने लगते। वह किस बात पर नाराज हो जायेंगे और किस पंक्ति पर दाद पाने पर प्रसन्न होंगे, इसका किसी को पता नहीं चलता था। एक बार आते ही पुड़िया की फरमाइश की। पुड़िया आ गयी। सिल-बट्टे का प्रबंध तत्काल न हो पाया तो काली मिर्च की बुकनी और हथेली से चूर्ण हुई पुड़िया के माल को मिलाकर पानी के साथ गटक गये। फिर बोले, ‘किस नादिहंद दरिद्र के यहाँ पहुँच गया कि ठीक से छना नहीं पाया।’ मेरे एक कवि मित्र उन्हें साधु समझते थे। बातचीत में धर्म पर बहस होने लगी। तब तक बड़ेगुरू ने झोले से गीता, बाइबिल और हिन्दी कुरआन निकालकर पूछा-इनमें से किसी को पढ़ा है ? कवि जी ने कुछ नहीं पढ़ा था। गुरू तत्काल बोले-सभी धर्म बड़े हैं और तुम तुच्छ हो, नीच हो, मूर्ख हो जो किसी एक धर्म को बड़ा मानते हो। कवि मुझे ताकते रह गये।
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