उपासना एवं आरती >> गायत्री उपासना गायत्री उपासनाराधाकृष्ण श्रीमाली
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इसमें गायत्री उपासना की पद्धति तथा उनके मंत्रों का शुद्ध उच्चारण और क्रमबद्ध प्रयोग करने की विधि का उल्लेख किया गया है...
GAYATRI Upasana
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
वैदिक साहित्य में उपासना का महत्वपूर्ण स्थान है। यह अनुभूत सत्य है कि मंत्रों में शक्ति होती है। मंत्रों की क्रमबद्धता, उच्चारण, और उनके प्रयोग का सही ज्ञान होना भी परम आवश्यक है। शुद्ध उच्चारण से ही मंत्र प्रभावशाली होते हैं, तथा देवों को जाग्रत करते हैं। गायत्री मां वेदों की जननी है। वह वेद-वेदांग, आध्यात्मिक व भौतिक उन्नति, ज्ञान-विज्ञान का अक्षुण्ण भंडार अपने में समेटे हैं। गायत्री उपासना, भक्ति कल्याण का साधन है। इसी से हम उन्नति, सुखमय जीवन, भक्ति पथ के सद्गामी बन सकते हैं। उपासना पद्धति में व्यक्तिक्रम कठिनाई उत्पन्न कर सकता है।
अतः मंत्रों के शुद्ध उच्चारण तथा क्रमबद्ध प्रयोग करने का लक्ष्य ही प्रस्तुत पुस्तक का ध्येय है।
इसी श्रृंखला की प्रस्तुति है ‘गायत्री उपासना’।
वैदिक साहित्य में उपासना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हिन्दू धर्म के सभी मतावलम्बी—वैष्णव, शैव, शाक्त तथा सनातन धर्मावलम्बी—उपासना का ही आश्रय ग्रहण करते हैं। यह अनुभूत सत्य है कि मंत्रों में शक्ति होती है। परन्तु मंत्रों की क्रमबद्धता, शुद्ध उच्चारण और प्रयोग का ज्ञान भी परम आवश्यक है। जिस प्रकार कई सुप्त व्यक्तियों में से जिस व्यक्ति के नाम का उच्चारण होता है, उसकी निद्रा भंग हो जाती है और अन्य सोते रहते हैं उसी प्रकार शुद्ध उच्चारण से ही मन्त्र प्रभावशाली होते हैं और देवों को जाग्रत करते हैं।
क्रमबद्धता भी उपासना का महत्त्वपूर्ण भाग है। दैनिक जीवन में हमारी दिनचर्या में यदि कहीं व्यतिक्रम हो जाता है तो कितनी कठिनाई होती है ? उसी प्रकार उपासना में भी व्यतिक्रम कठिनाई उत्पन्न कर सकता है।
अतः उपासना पद्धति में मंत्रों का शुद्द उच्चारण तथा क्रमबद्ध प्रयोग करने से ही अर्थ चतुष्टय की प्राप्ति कर परम लक्ष्य—मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। इस श्रृंखला में प्रस्तुत है—गायत्री उपासना।
अतः मंत्रों के शुद्ध उच्चारण तथा क्रमबद्ध प्रयोग करने का लक्ष्य ही प्रस्तुत पुस्तक का ध्येय है।
इसी श्रृंखला की प्रस्तुति है ‘गायत्री उपासना’।
वैदिक साहित्य में उपासना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हिन्दू धर्म के सभी मतावलम्बी—वैष्णव, शैव, शाक्त तथा सनातन धर्मावलम्बी—उपासना का ही आश्रय ग्रहण करते हैं। यह अनुभूत सत्य है कि मंत्रों में शक्ति होती है। परन्तु मंत्रों की क्रमबद्धता, शुद्ध उच्चारण और प्रयोग का ज्ञान भी परम आवश्यक है। जिस प्रकार कई सुप्त व्यक्तियों में से जिस व्यक्ति के नाम का उच्चारण होता है, उसकी निद्रा भंग हो जाती है और अन्य सोते रहते हैं उसी प्रकार शुद्ध उच्चारण से ही मन्त्र प्रभावशाली होते हैं और देवों को जाग्रत करते हैं।
क्रमबद्धता भी उपासना का महत्त्वपूर्ण भाग है। दैनिक जीवन में हमारी दिनचर्या में यदि कहीं व्यतिक्रम हो जाता है तो कितनी कठिनाई होती है ? उसी प्रकार उपासना में भी व्यतिक्रम कठिनाई उत्पन्न कर सकता है।
अतः उपासना पद्धति में मंत्रों का शुद्द उच्चारण तथा क्रमबद्ध प्रयोग करने से ही अर्थ चतुष्टय की प्राप्ति कर परम लक्ष्य—मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। इस श्रृंखला में प्रस्तुत है—गायत्री उपासना।
लेखकीय
‘ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।’
भारत की पावन-पुण्य-पवित्र धरती पर ऋषियों, महर्षियों, वेदज्ञों, देवज्ञों, ब्राह्मणों, याज्ञिकों ने अनेक धार्मिक ग्रन्थ वेद-वेदांग, पुराण, स्मृतियां, शास्त्र आदि रचे जो मानव मात्र कल्याण, उपकार, सुख, सुविधा, शान्ति, आध्यात्मिकता की ओर बढ़ने, ईश भक्ति, संस्कृत की पहचान, आनन्द, भौतिक उन्नति आदि के हेतु हैं। उनकी शक्ति अद्वितीय है, चिर नवीन है, असंदिग्ध है। आज इस मशीनी युग में कलिकाल में, विज्ञान की होड़ में पापाचार, युद्ध का उन्माद, नैतिकता का पतन, मानवीय मूल्यों का ह्रास, ईर्ष्या, होड़, अस्त्र-शस्त्र की होड़, अर्थ का व्यहमोह, नाते-रिश्तों का अवमूल्य, पतन का वातावरण यत्र-तत्र सर्वत्र दिखाई दे रहा है तब देवताओं, ऋषि-मुनियों, तपस्वियों की यह पावन स्थली भारत-भूमि भी अछूती नहीं रही। जहां घर-घर वेद ध्वनि गूँजती थी, ध्वन्याग्नि से उत्पन्न धुआं जहां वातावरण को पावन करता था, शस्य-श्यामला भूमि पर जहां गंगा-यमुना नर्मदा जैसी पावन नदियां बहती हैं, हिन्द महासागर जिसके चरण पखारता है, हिमालय जिसका किरीट है, देवता भी जहाँ अवतरित होने में गौरव अनुभव करते थे, जो भूलोक का स्वर्ग था, इस धरती पर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का नारा गूंजता था।
जहां अधर्म, झूठ, दम्भ, पाखण्ड, अनाचार, अत्याचार, चोरी, डकैती, हत्या, लूटपाट, हिंसा का नाम भी नहीं था, जहां लोग घरों में ताले नहीं लगाते थे। पिता के जीते जी पुत्र की मृत्यु नहीं होती थी, वही, उसी पुण्य धरती पर बहनेवाली गंगा मैली हो गई है। स्त्रियों के साथ बलात्कार, बाल-हत्या, चोरी, डकैती, लूट-पाट, छल-प्रपंच, नीचतापूर्ण व्यवहार, भाई-भाई का गला काटने को तैयार है, अधोगति की ओर मानवता तीव्रता से बढ़ती जा रही है, नाते-रिश्ते झूठे पड़ गए हैं। बाप-बेटी से, भाई-बहन से कुकर्म करते विचार नहीं करता। विवेक साथ छोड़ चुका है। इन सबके लिए शायद प्रभाव आवश्यक नहीं है। ईश्वर का भय रहा नहीं। भौतिकता के अंधे मोह में अध्यात्मवाद से किनारा कर लिया है। वेद-पुराण, स्मृतियां मात्र पुस्तकालयों की शोभा बढ़ा रही हैं। वेदमंत्र सुनने को नहीं मिलते, हवन का धुआं लुप्त हो गया है।
सच कहूं तो मानवता के मूल्यों का निरन्तर ह्रास होता जा रहा है। इतना होने पर भी हम निराश नहीं हैं। प्रयत्नों का मार्ग अवरुद्ध नहीं हुआ है। हमारे रक्त कणों में जो भी पूर्वजों की सात्विकता, धार्मिकता, धर्मपरायणता, सत्यता, आचार-विचार, सात्विकता व ईश्वर निष्ठा है, उसका लोप नहीं हुआ है। उत्तिष्ठः, जाग्रतः की आवश्यकता है। तन्द्रा के टूटने की बाट जोह रहे हैं। हम निराश भी नहीं हैं। जरूरत मार्ग-दर्शन की है। निराशा में भी आशा की किरण दिखाई दे रही है। अस्ताचलगामी होते सूर्य ने इठला कर कहा—‘‘मैं अंधकार ला रहा हूं। है किसी में शक्ति जो अन्धकार को रोक सके।’ एक बार, दो बार, तीन बार सूर्य ने यही दोहराया। अन्ततः एक नन्हें-से दीपक ने उठकर कहा, ‘‘मैं शक्ति भर प्रयास करूंगा।’ आज इसी नन्हें से दीपक की आवश्यकता है। आज नैतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक शिक्षा लेने और देने की आवश्यकता है। भूली-बिसरी बातें याद दिलाने की आवश्यकता है। सोए को जगाना होगा। पूर्वजों की थाती से परिचित कराना होगा और तब वह दिन दूर नहीं जब पुनः भारत वही भारत होगा।
मैं गत लम्बें समय से निरन्तर प्रयास लिख रहा हूं, लिखता ही जा रहा हूं। मेरा प्रयास तो गिलहरी का प्रयास है जो सागर खाली करने को प्रयत्नशील थी। साथ ही मासिक पत्रिका ‘विश्वतन्त्र ज्योतिष’ द्वारा हर बार नयी विषय वस्तु देने के लिए प्रयत्नशील हूं। उत्थान, विकास, जन-कल्याण, मानव-मूल्यों की पहिचान के लिए मेरा प्रयत्न है, उसमे श्री हनुमान उपासना, भैरव उपासना, विष्णु उपासना, सरस्वती उपासना, गणेश उपासना में यह गायत्री-उपासना भी एक लड़ी में कड़ी है। हां, इससे पाठक को कुछ भी लाभ हुआ तो मैं अपना प्रयास सफल समझूंगा। आलोचना व विरोध के लिए आप सब प्रकार से स्वतन्त्र हैं पर पहले साधक बनें फिर आलोचक बनें तो प्रसन्नता होगी।
हमारे वेद, हमारे पुराण, हमारे धार्मिक और आध्यात्मिक ग्रंथ ज्ञान के सांगोपांग भण्डार हैं। इनका उपयोग, उपभोग अकिंचन भी ज्ञानी-ध्यानी बन सकता है। रोगी, रोग-मुक्त हो जाता है। निर्धन, धनी बन सकता है।
कुकर्मी, सुकर्मी बन सकता है। जीवन के सन्तापों से मुक्ति पा सकता है। अभावों का नाश कर खुशहाल जीवन जी सकता है। सुख-शान्ति-आनन्द, धन पा सकता है। आज का धनी देश, जो भौतिकता में कहीं आगे है। भौतिकता से थक गया है। पतित व घृणित जीवन से मुक्ति हेतु भारतीय आध्यात्म को पाने को लालायित है और हम उसी अंधी होड़ में दौड़ने का प्रयास करते जा रहे हैं। भौतिक सुख को ही सर्वोपरि मान, पूर्वजों के दिखाए सन्मार्ग से विमुख होते जा रहे हैं। पर इस धरती की यह विशेषता है कि यह भूमि कभी भी संतों, महापुरुषों, देवज्ञों, विद्वानों से खाली नहीं हुई, रिक्त नहीं हुई। स्वामी विवेकानन्द, दयानन्द सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, टैगोर और गांधी सरीखे महापुरुष आदर्श हैं। उनके कर्म अनुकरणीय हैं। उन्होंने क्या हमारा मार्गदर्शन नहीं किया ? सत्य और अहिंसा का पाठ नहीं पढ़ाया ? गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी इसी पावन धरती की उपज थे। इन्होंने सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, एकता, विश्वबन्धुत्व, समानता, भेद-भाव रहित जीवन, सद्वृत्ति, सद्ज्ञान, अहिंसा व राष्ट्रीयता का नारा दिया।
गायत्री मां, गायत्री वेदों की माता है, जननी है। यह वेद-वेदांग आध्यात्मिक व भौतिक उन्नति, ज्ञान-विज्ञान का अक्षुण्ण भंडार अपने में समेटे है। अतः गायत्री उपासना भक्ति कल्याण का साधन है, इसी से हम उन्नति, सुखमय जीवन-भक्ति व सद्-पथगामी बन सकते हैं।
इस पुस्तक को लिखकर मुझे आनंदानुभूति हो रही है, सन्तोष धन मिल रहा है, कृतज्ञ हूं मैं मां का। और प्रेरणा देने वाली, सत्यनिष्ठ वेदपाठी संस्कारित, ईश भक्त जन्मदात्री को ही समर्पित है।
जहां अधर्म, झूठ, दम्भ, पाखण्ड, अनाचार, अत्याचार, चोरी, डकैती, हत्या, लूटपाट, हिंसा का नाम भी नहीं था, जहां लोग घरों में ताले नहीं लगाते थे। पिता के जीते जी पुत्र की मृत्यु नहीं होती थी, वही, उसी पुण्य धरती पर बहनेवाली गंगा मैली हो गई है। स्त्रियों के साथ बलात्कार, बाल-हत्या, चोरी, डकैती, लूट-पाट, छल-प्रपंच, नीचतापूर्ण व्यवहार, भाई-भाई का गला काटने को तैयार है, अधोगति की ओर मानवता तीव्रता से बढ़ती जा रही है, नाते-रिश्ते झूठे पड़ गए हैं। बाप-बेटी से, भाई-बहन से कुकर्म करते विचार नहीं करता। विवेक साथ छोड़ चुका है। इन सबके लिए शायद प्रभाव आवश्यक नहीं है। ईश्वर का भय रहा नहीं। भौतिकता के अंधे मोह में अध्यात्मवाद से किनारा कर लिया है। वेद-पुराण, स्मृतियां मात्र पुस्तकालयों की शोभा बढ़ा रही हैं। वेदमंत्र सुनने को नहीं मिलते, हवन का धुआं लुप्त हो गया है।
सच कहूं तो मानवता के मूल्यों का निरन्तर ह्रास होता जा रहा है। इतना होने पर भी हम निराश नहीं हैं। प्रयत्नों का मार्ग अवरुद्ध नहीं हुआ है। हमारे रक्त कणों में जो भी पूर्वजों की सात्विकता, धार्मिकता, धर्मपरायणता, सत्यता, आचार-विचार, सात्विकता व ईश्वर निष्ठा है, उसका लोप नहीं हुआ है। उत्तिष्ठः, जाग्रतः की आवश्यकता है। तन्द्रा के टूटने की बाट जोह रहे हैं। हम निराश भी नहीं हैं। जरूरत मार्ग-दर्शन की है। निराशा में भी आशा की किरण दिखाई दे रही है। अस्ताचलगामी होते सूर्य ने इठला कर कहा—‘‘मैं अंधकार ला रहा हूं। है किसी में शक्ति जो अन्धकार को रोक सके।’ एक बार, दो बार, तीन बार सूर्य ने यही दोहराया। अन्ततः एक नन्हें-से दीपक ने उठकर कहा, ‘‘मैं शक्ति भर प्रयास करूंगा।’ आज इसी नन्हें से दीपक की आवश्यकता है। आज नैतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक शिक्षा लेने और देने की आवश्यकता है। भूली-बिसरी बातें याद दिलाने की आवश्यकता है। सोए को जगाना होगा। पूर्वजों की थाती से परिचित कराना होगा और तब वह दिन दूर नहीं जब पुनः भारत वही भारत होगा।
मैं गत लम्बें समय से निरन्तर प्रयास लिख रहा हूं, लिखता ही जा रहा हूं। मेरा प्रयास तो गिलहरी का प्रयास है जो सागर खाली करने को प्रयत्नशील थी। साथ ही मासिक पत्रिका ‘विश्वतन्त्र ज्योतिष’ द्वारा हर बार नयी विषय वस्तु देने के लिए प्रयत्नशील हूं। उत्थान, विकास, जन-कल्याण, मानव-मूल्यों की पहिचान के लिए मेरा प्रयत्न है, उसमे श्री हनुमान उपासना, भैरव उपासना, विष्णु उपासना, सरस्वती उपासना, गणेश उपासना में यह गायत्री-उपासना भी एक लड़ी में कड़ी है। हां, इससे पाठक को कुछ भी लाभ हुआ तो मैं अपना प्रयास सफल समझूंगा। आलोचना व विरोध के लिए आप सब प्रकार से स्वतन्त्र हैं पर पहले साधक बनें फिर आलोचक बनें तो प्रसन्नता होगी।
हमारे वेद, हमारे पुराण, हमारे धार्मिक और आध्यात्मिक ग्रंथ ज्ञान के सांगोपांग भण्डार हैं। इनका उपयोग, उपभोग अकिंचन भी ज्ञानी-ध्यानी बन सकता है। रोगी, रोग-मुक्त हो जाता है। निर्धन, धनी बन सकता है।
कुकर्मी, सुकर्मी बन सकता है। जीवन के सन्तापों से मुक्ति पा सकता है। अभावों का नाश कर खुशहाल जीवन जी सकता है। सुख-शान्ति-आनन्द, धन पा सकता है। आज का धनी देश, जो भौतिकता में कहीं आगे है। भौतिकता से थक गया है। पतित व घृणित जीवन से मुक्ति हेतु भारतीय आध्यात्म को पाने को लालायित है और हम उसी अंधी होड़ में दौड़ने का प्रयास करते जा रहे हैं। भौतिक सुख को ही सर्वोपरि मान, पूर्वजों के दिखाए सन्मार्ग से विमुख होते जा रहे हैं। पर इस धरती की यह विशेषता है कि यह भूमि कभी भी संतों, महापुरुषों, देवज्ञों, विद्वानों से खाली नहीं हुई, रिक्त नहीं हुई। स्वामी विवेकानन्द, दयानन्द सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, टैगोर और गांधी सरीखे महापुरुष आदर्श हैं। उनके कर्म अनुकरणीय हैं। उन्होंने क्या हमारा मार्गदर्शन नहीं किया ? सत्य और अहिंसा का पाठ नहीं पढ़ाया ? गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी इसी पावन धरती की उपज थे। इन्होंने सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, एकता, विश्वबन्धुत्व, समानता, भेद-भाव रहित जीवन, सद्वृत्ति, सद्ज्ञान, अहिंसा व राष्ट्रीयता का नारा दिया।
गायत्री मां, गायत्री वेदों की माता है, जननी है। यह वेद-वेदांग आध्यात्मिक व भौतिक उन्नति, ज्ञान-विज्ञान का अक्षुण्ण भंडार अपने में समेटे है। अतः गायत्री उपासना भक्ति कल्याण का साधन है, इसी से हम उन्नति, सुखमय जीवन-भक्ति व सद्-पथगामी बन सकते हैं।
इस पुस्तक को लिखकर मुझे आनंदानुभूति हो रही है, सन्तोष धन मिल रहा है, कृतज्ञ हूं मैं मां का। और प्रेरणा देने वाली, सत्यनिष्ठ वेदपाठी संस्कारित, ईश भक्त जन्मदात्री को ही समर्पित है।
पं.राधाकृष्ण श्रीमाली
शान्ति-पाठः
ॐ स्वस्ति न ऽ इन्द्रो वृद्धश्श्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो ऽ अरिष्ट्टिनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।।
ॐ पथः पृथिव्यां पय ऽ ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः।।
पयस्वतीः प्रविशः सन्तु मह्यम्।।
विष्षणोर राटमसि विष्षणोः शनप्प्त्रेस्त्थो विष्षणोः स्यूरसि विष्ष्णोर्ध्रुवोसि।।
वैष्ष्णवमसि विष्ष्णवे त्तवा।।
अग्निर्द्देवता वातोदेवता सूर्य्यो देवता चन्द्रमा देवता वसवो देवता रुद्द्रा देवतादित्या देवता मरुतो देवता विश्श्वेदेवा देवता बृहस्प्पतिर्देवतान्द्रा देवता वरुणो देवता।
चत्त्वारि श्रृङ्गा त्त्रयो ऽ अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो ऽ अस्य।।
त्रिधा वद्धो वृषभो रोरवीति महादेवो मर्त्या ऽ आविवेश।।
नमः शम्भवाय च मयो भवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च।।
अदितिर्द्द्योरदितिरन्तरिक्षमदितिर्म्माता स पिता स पुत्रः विश्श्वेदेवा ऽ अदितिः पञ्चजना ऽ अदितिर्ज्जातमदितिर्ज्जानित्त्वम्।।
दीर्ग्घायुत्वाय बलाय वर्च्चसे सुप्रजास्त्त्वाय सहसा ऽ अथोजीव शरदः शतम्।।
द्यौः शान्तिरंतरिक्ष ॐ शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः वनस्पतयः।।
शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ॐ शान्तिः शान्ति रेव शान्तिः सामा शान्तिरेधि।।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो ऽ अरिष्ट्टिनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।।
ॐ पथः पृथिव्यां पय ऽ ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः।।
पयस्वतीः प्रविशः सन्तु मह्यम्।।
विष्षणोर राटमसि विष्षणोः शनप्प्त्रेस्त्थो विष्षणोः स्यूरसि विष्ष्णोर्ध्रुवोसि।।
वैष्ष्णवमसि विष्ष्णवे त्तवा।।
अग्निर्द्देवता वातोदेवता सूर्य्यो देवता चन्द्रमा देवता वसवो देवता रुद्द्रा देवतादित्या देवता मरुतो देवता विश्श्वेदेवा देवता बृहस्प्पतिर्देवतान्द्रा देवता वरुणो देवता।
चत्त्वारि श्रृङ्गा त्त्रयो ऽ अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो ऽ अस्य।।
त्रिधा वद्धो वृषभो रोरवीति महादेवो मर्त्या ऽ आविवेश।।
नमः शम्भवाय च मयो भवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च।।
अदितिर्द्द्योरदितिरन्तरिक्षमदितिर्म्माता स पिता स पुत्रः विश्श्वेदेवा ऽ अदितिः पञ्चजना ऽ अदितिर्ज्जातमदितिर्ज्जानित्त्वम्।।
दीर्ग्घायुत्वाय बलाय वर्च्चसे सुप्रजास्त्त्वाय सहसा ऽ अथोजीव शरदः शतम्।।
द्यौः शान्तिरंतरिक्ष ॐ शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः वनस्पतयः।।
शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ॐ शान्तिः शान्ति रेव शान्तिः सामा शान्तिरेधि।।
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