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रस-भस्मों की सेवन विधि

वेणी प्रसाद वैद्य

प्रकाशक : वैद्यनाथ प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :110
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 526
आईएसबीएन :0

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आयुर्वेदीय रस-भस्मों के गुण, उपयोग और सेवन विधि

Ras-bhasmon ki sevan vidhi - A hindi Book by - veni prasad vaid रस-भस्मों की सेवन विधि - वेणी प्रसाद वैद्य

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विभिन्न आयुर्वेदीय ग्रन्थों में भस्म निर्माण के लिए भिन्न-भिन्न विधियों का निर्देश है और रसों के नुस्खे भी इतनी अधिक संख्या में अंकित हैं कि हर एक के लिए यह निश्चय कर पाना एकदम कठिन है कि वस्तुतः उत्तम भस्म-निर्माण की सर्वोत्तम विधि क्या है और बड़ी संख्या में वर्णित रसों में कौन-कौन से रस बहु उपयोगी हैं। अमुक भस्म या रस का यथार्थ गुण क्या है। इसका ज्ञान कर लेना महासमुद्र में मोती के प्राप्ति स्थान का पता लगाने के समान कठिन है। प्रकाण्ड विद्वानों और पीयूषपणि चिकित्सकों द्वारा पचासों वर्ष के अनुभव के आधार पर निर्धारित रस भस्मों के यथार्थ गुणों का वर्णन इस पुस्तक में किया गया है। प्रायः सदा ही काम में आनेवाले और सर्वथा अव्यर्थ रस-भस्मों को इस पुस्तक में लिया गया है जिससे हर चिकित्सक को वह ज्ञान एक ही स्थान पर सुलभ हो जावे जो वयोवृद्ध वैद्यों ने पचासों वर्ष के अनुभव से निश्चित किया है। यही इस पुस्तक की विशेष उपयोगिता है।

आर्युर्वेदीय चिकित्सा में रस भस्मों की प्रमुखता अकाट्य है। विशेषकर आज के युग में जबकि तुरन्त पीड़ा-हरण करनेवाली चमत्कारिक औषधों का प्रचार बढ़ रहा है आयुर्वेद में रस भस्म औषधें ही ऐसी हैं जो आधुनिक दवाओं के प्रचार का मुँह मोड़ने में सर्वथा समर्थ हैं।
ऐसी स्थिति में रस-भस्मों के सेवन करने की विधि और अनुपान आदि का पूरा ज्ञान होना अनिवार्य है। एक ही रस या भस्म अनुपान भेद से कई रोगों को नष्ट करती हैं। किस अनुपान से कौन-कौन रस-भस्म किस-किस रोग पर सर्वोपरि हैं, इसका ज्ञान दीर्घ अनुभव से ही हो सकता है। इस पुस्तक में अनुभव में आये अव्यर्थ प्रयोगों को ही संकलित किया गया है। इस प्रकार यह पुस्तक नए वैद्यों के लिए अत्यन्त उपयोगी है।

इस पुस्तक की भाषा इतनी सरल और वर्णनशैली इतनी सुबोध रखी गई है कि साधारण व्यक्ति भी इसके विषय को भली-भाँति समझ सके। रस भस्मों के प्रति सामान्य जनता में बड़ी गलत धारणाएँ फैलाई गई हैं-लोगों को भ्रम है कि नाड़ी छूटने की अन्तिम अवस्था में ही मकरध्वज की मात्रा दी जाती है अथवा कम उम्र में रस भस्म नहीं खानी चाहिये। इस पुस्तक से वे भ्रान्त धारणाएँ दूर होगीं। वस्तुतः रस- भस्में तुरन्त पीड़ा हरण करने में तो समर्थ हैं ही, वे शरीर में निरोगता बढ़ाने और शक्ति में स्थैर्य उत्पन्न करने का अनुपम साधन हैं-लोगों को इस यथार्थ का ज्ञान होगा-ऐसी हमें आशा है।
आयुर्वेदीय औषध विक्रेताओं के लिए यह पुस्तक बड़े काम की है। इससे उन्हें यह ज्ञान होगा कि कौन रस- भस्म अधिक उपयोगी है, सदा चलने वाले हैं और किनको पर्याप्त मात्रा में अपने पास रखना चाहिए। इस पुस्तक में उन ही रस भस्मों को स्थान दिया गया है।

जो अधिकाधिक उपयोगी हैं। इस पुस्तक के सहारे वे अपने ग्राहकों को यह बताने में सर्वथा समर्थ होंगे कि किस रस-भस्म को किस अनुपान के साथ किस प्रकार प्रयोग करने से विशेष लाभ होगा। ग्राहकों को औषध सेवन के विषय में ठीक निर्देश न मिले तो असली दवा भी पूरा लाभ नहीं करती और व्यर्थ ही देशी दवा के प्रति लोगों में अविश्वास फैलाता है। इस दिशा में यह पुस्तक महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगी।

चिकित्सा में रस-भस्मों के प्रयोग के साथ किस रोग में सहायक औषध के रूप में अन्य कौन आयुर्वेदीक औषध लेना चाहिए, इसका भी निर्देश इस पुस्तक में किया गया है। यह इस पुस्तक की अपनी विशेषता है।

 

प्रकाशक

 

अल्पमात्रोपयोगित्वादरुचेरप्रसंगतः।
क्षिप्रमारोग्यदायित्वादौषधेभ्योऽ:धिको रसः।।

 

रस अपनी तीन मौलिक विशेषताओं के कारण चिकित्सा सर्वोत्तम हैं।

 

(1) अल्पमात्रा प्रयोग,
(2) स्वाद में रुचिपूर्णता और
(3) शीघ्राति शीघ्र रोगनाशक।

 

स्पष्ट है कि किसी औषध का काढ़ा एक सो दो छटांक तक की मात्रा में दिया जाय जब कहीं लाभ होता है, परन्तु रस औषधि एक दोरत्ती की खुराक से ही पूरा लाभ हो जाता है। चूर्ण, चटनी अवहेल आदि अन्य सभी औषधें लाभ पाने के लिए अधिक मात्रा में खानी पड़ती हैं। केवल रस में ही यह अद्वितीय विशेषता है कि वह अल्पमात्रा में पूरा प्रभाव करता है।
गुण तो सभी औषधों में होते, हैं, परन्तु अन्य औषधों में कई ऐसी होती हैं जिनका स्वाद अच्छा नहीं होता जिससे अरुविवश रोगी उन्हें आसानी से नहीं लेता, चेष्ठा करके सेवन करा दे तो रोगी को उल्टी तक हो जाती है। रस औषधों में यह दोष कदापि नहीं होता। सुरुचिकर अनुपान के साथ रस लेने में तो रोगी को आनन्द होता ही है। कोई तीक्ष्ण स्वाद वाला अनुमान हुआ तो भी मात्रा कम होने से रोगी सहज ले लेता है।

रोग को शीघ्र नष्ट करना रस-औषधों की अपनी ही विशेषता है। अपने प्रभाव का चमत्कार 1-2 घण्टे में ही दिखा देता है। डॉक्टरी की चमत्कारिक दवाओं के प्रचार से प्रभावित इस जमाने में यदि रस-चिकित्सा न होती तो वैद्यक चिकित्सा समाप्त ही हो गई होती। यह रस-औषधों का ही प्रभाव है कि डॉक्टरों द्वारा नाइलाज कहकर छोड़े हुए असाध्य रोगियों को भी योग्य वैद्य अच्छा करके यशस्वी होते हैं। मन्दाग्नि के रोगी को भी पर्पची के प्रभाव से रोजाना 10-12 सेर दूध वैद्य आसानी से पिला देते हैं। पर्पटी खाने वाला एक रोगी तो रोजाना 20 सेर तक दूध पीते हमारे अनुभव में आया है। इस प्रकार सर्व औषधों में रस औषधें शीघ्र लाभ करने में सर्वोपरि होती हैं।

आयुर्वेद शास्त्र में भी-‘‘उत्तमो रसवैद्यस्तु मध्यमो मूलकादिभिः’’-कहकर रस औषधों से चिकित्सा करनेवाला वैद्य उत्तम तथा काष्ठादिक औषधों से चिकिस्ता करने वाले वैद्य को मध्यम बताया गया है। इससे भी रस भस्मों की विशेषता सिद्ध है। पूर्ण शास्त्रोक्त विधि से निर्मित रस और कूपीपक्व रसायन जो वैद्य अपने पास पर्याप्त मात्रा में सदैव रखते हैं, वे निःसन्देह ही रोगों पर विजय पाते हैं और यशस्वी होते हैं। उनका आत्म विश्वास स्वयमेव बढ़ा-चढ़ा रहता है और उन्हें कभी चिकित्सा में असफलता का मुंह नहीं देखना पड़ता।

 

भस्मों की उत्तमता

 

 

आयुर्वेद शास्त्र में भस्मों का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। महाराष्ट्र गुजरात आदि प्रदेश में काढ़ा आदि काष्ठौषधियों की भांति भस्मों का प्रयोग मामूली रोगों तक में किया जाता है। जुकाम या सर्दी लगने पर बनप्सा की तरह अभ्रक भस्म दी जाती है।, जिससे रोगी जल्दी अच्छा हो जाता है। काष्ठादि दवा के साथ रस या भस्म का प्रयोग बहुत ही चमत्कारिक फल दिखाता है। पाण्डु संगहणी सोथ खून की कमी आदि में लौह या मण्डूर भस्म के मुकाबले लाभ करने वाली अन्य दवा नहीं है। स्वर्ण भस्म के सिवा दूसरी किस दवा में इतना ताकत है कि राजयक्ष्मा से रोगी की रक्षा कर सके। हीरा, मोती या प्रवाल भस्म के समान दिल को मजबूत करने वाली कौन सी दवा है। प्रमेह और धातुपुष्टि के लिए बंगभस्म के समान दूसरी औषधि है ही नहीं। इसी प्रकार सभी भस्में रामबाण की भांति अचूक लाभ करने वाली होती हैं। जैसे ऐलोपैथी में इन्जेक्शन तत्काल असर करने वाले होते हैं, वैसे ही रस भस्में वस्तुतः आयुर्वेद के इन्जेकशन हैं। सर्वागपूर्ण उत्तम रस और विधिपूर्वक बनाई गई भस्म रोग की ठीक-ठीक निदान करके उचित अनुमान के साथ यदि दी जावे तो निश्चय ही इन्जेक्शन देते हैं, वह अच्छा नहीं करते। आयुर्वेद लोक कल्याण की विद्या है। रुपया ऐठने के लिये नहीं पर रोगी को निरोग करने में उत्तम रस भस्में इन्जेक्शनों से भी बढ़िया काम करती है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं। विशेषता यह है कि इन्जेक्शन तो कभी-भी भयंकर हानि कर देते हैं, पर रस भस्म निरापद होते हैं, लोगों में यह झूठा भ्रम फैल गया है कि कम उम्र में भस्म खाने पर रोगी अच्छा तो हो जाता है, परन्तु पुनः बीमार होने पर फिर भस्म ही खानी पड़ती है और अन्ततः भस्म शरीर से फूट निकलती है। यह भ्रम सोलहों आने झूठ। भस्में खनिज धातुओं से बनती। धातुएँ नुकसान नहीं करती हैं, यह बात आधुनिक विज्ञान से भी सिद्ध है। आखिर केला, सेव आदि फलों और अन्य खाद्य पदार्थों में अनेक धातुएँ मिली रहती हैं जिन्हें हम खाते हैं। डॉक्टरी में भी सोना, चाँदी, लोहा, ताँबा आदि धातुओं का उपयोग दवा के रूप में प्रचुर मात्रा में होता है। प्राचीन शास्त्रों में बालक को जनमते ही सोना खिलाने का निर्देश है। प्राचीन शास्त्र प्रमाण से यह सिद्ध है कि धातु भस्में हर उम्र में लाभदायक होती हैं और कदापि हानिकर नहीं होती।

हाँ, एक बात अवश्य है कि अशुद्ध और कच्ची भस्में प्रत्येक मनुष्य को हर उम्र में हानि करती हैं। भारत में प्रायः सभी प्रदेशों में भस्म बनाने के काम को बपौती बनाने वाले ऐसे अनपढ़ और धूर्त लोग हैं जो जनता को, पंसारियों को और वैद्यों तक को ठगते रहते हैं। ये लोग लोहा और अभ्रक भस्म 8 रु. 10 रु. सेर तक बेचते फिरते हैं। ऐसी भस्में खरीदना और बेचना दोनों ही काम अनैतिक है। सस्तेपन के लोभ में इन्हें खरीदना किसी भी वैद्य के लिए उचित नहीं, क्योंकि ऐसी भस्में सिवा गेरु आदि के कुछ नहीं होती। इनकी चिकित्सा में प्रयोग करना रोगियों के जीवन के साथ खिलवाड़ करना है। दवा विक्रेताओं को भी इस तरह की नकली भस्में सस्ते भाव के लोभ में नहीं खरीदना चाहिए। इन्हें बेचने और स्टॉक में रखने से कभी भी बड़े संकट में पड़ सकते हैं।

कुछ नवीनतावादी भी वैज्ञानिकता का नाम लेकर घटिया भस्में बनाकर बेचते हैं। डॉक्टरी दवा बनाने वाले तेजाब में भस्में बनाकर बेचते हैं। शास्त्रीय आधार पर उत्तम भस्में बीना जंगली कण्डों के नहीं बन सकती। कलकत्ते जैसे बहुत बड़े नगर में जंगली कण्डे तो क्या हाथ के बने उपले भी नहीं मिलते, क्योंकि बंगाल में बारहों मास ओस पड़ती है। कलकत्ते के निर्माता पत्थर के कोयले से भस्में बनाते हैं। पत्थर के कोयले और तेजाब से बनी भस्में कैसी होंगी, यह हर वैद्य जान सकता है। जो भोजन पत्थर के कोयले से बनता है वह भी गुणों में हीन होता है और निःस्वाद होता है। फिर धातु भस्में तो पत्थर के कोयले की तीक्ष्ण आँच से निश्चय ही विकृत होंगी, क्योंकि उनके कार्यकारी तत्त्व एकदम जल जावेंगे। ऐसा भस्म बनाने वाले आयुर्वेद पर विश्वास नहीं रखते, केवल अपनी दवायें बेचने के लिए आयुर्वेद का नाम लेते हैं, जिससे जनता भ्रम में पड़कर उनकी भस्में खरीदे। चिकित्सा में पूरा लाभ पाने की इच्छा रखने वाले को ऐसी भस्में कदापि नहीं लेना चाहिए। चाहे कोई लकीर का फकीर भले ही कहे, परन्तु औषधि के मामले में विशेषकर भस्मों के लिए आयुर्वेद के प्राचीन ग्रन्थों में लिखी पुरानी प्रणाली से बनी भस्में ही लेना चाहिए।

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