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कटे अँगूठे का पर्व

कुमार रवीन्द्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5268
आईएसबीएन :81-263-1311-0

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काव्य-नाटिका...

Kate Anguthe Ka Parva

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

काव्य-नाटक एक मिश्रित साहित्यिक विधा है, जिसमें कविता और नाटक के तत्त्वों का एक साथ समायोजन होता है। यह एक ऐसा नाट्य रूप है, जिसमें काव्य-तत्त्व प्रमुख होता है। वस्तुतः आज की कविता में कहन की जो नाटकीय मुद्रा उपस्थित दिखाई देती है, काव्य-नाटक उसी का विधा-विस्तार है, यानी कविता में नाटक के पदार्पण का यह एक विशद रूप है। हिन्दी में ‘अंधायुग’ से लेकर अब तक जो काव्य-नाटक लिखे गये हैं, उनमें प्रमुखतः मिथकीय पुराख्यानों का आज के सन्दर्भ में पुनःकथन हुआ है। कुमार रवीन्द्र के काव्य-नाटकों की मुद्रा भी यही रही है।

प्रस्तुत पुस्तक में उनके लिखे दो काव्य-नाटक एक साथ उपस्थित हैं। और इन दोनों के कथानक, भारतीय मनीषा के जो दो महाकाव्यात्मक आर्ष ग्रन्थ हैं यानी रामायण एवं महाभारत, उन्हीं के उप-प्रसंगों पर आधृत हैं। रामकथा में उत्तररामचरित अधिकांशतः उपेक्षित रहा है। कुमार रवीन्द्र ने उसे ही अपने काव्य-नाटक ‘कहियत भिन्न न भिन्न’ का वर्ण्य-विषय बनाया है और उसके माध्यम से फ़िलवक़्त के यक्ष-प्रश्नों को पारिभाषित किया है। काव्य-नाटक ‘कटे अँगूठे का पर्व’ में महाभारत के एकलव्य प्रसंग को लेखक ने समसामायिक सन्दर्भों की आख्या के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसमें वर्ग-भेद, दलित विमर्श एवं वर्तमान राजनीति के तमाम प्रश्नों की ओर सार्थक इंगित किया गया है।
भारतीय ज्ञानपीठ को इन काव्य-नाटकों को प्रस्तुत करते हुए पूरी आशा है कि ये नाटक अपने विशिष्ट कथ्य एवं अलग किसिम की अपनी कहन की दृष्टि से हिन्दी नाट्य लेखन में विशेष पहचान बना पाएँगे।

परछाइयों का स्वीकार


परछाइयों का आख्यान लिखना कितना कठिन होता है, यह वही जानता है, जिसने सूर्यास्त के समय नीले आकाश को भस्मिपात्र बनते देखा है। पीड़ा का इतिहास लिखकर हवाएँ मौन हो जातीं हैं। वह मौन एक गहरे स्वीकार का होता है, जिसमें एक नये सूर्यादय का स्वप्न छिपा होता है।
मेरी आस्था सूर्योदय के साथ भी है और सूर्यास्त के साथ भी। सूर्योदय यदि अहंकारी है, तो सूर्यास्त का भी एक अहंकार होता है। परछाइयों में पतली जिजीविषा कम हठी नहीं होती। अँधियारों का भी अपना एक स्वत्त्व होता है। इसी जिजीविषा, इसी स्वत्त्व का आख्यान है प्रस्तुत काव्य-नाटकों में।

ये दोनों काव्य-नाटक उस अभिशप्त भावभूमि से उपजे हैं, जो मनुष्य को पूरी तरह एकाकी कर जाती है। उसी एकान्त में गुपचुप पलती है एक सर्वात्म जिज्ञासा, जो मनुष्य की दैवी अस्मिता को परिभाषित करती है। प्रसंग चाहे उत्तररामचरित के महाप्रभु का हो अथवा महाभारत के एकलव्य का, अपने एकान्त से जूझने की मनुष्य की पीड़ा तो वही है।
स्वप्न की स्थितियाँ सभी में हैं, चाहे वे खुले मैदानों को छूते आकाश हों या जंगल में घने अँधियारों को पीते पत्ते हों या गहरे जल में डुबकियाँ लेती जलकुम्भी हो या वहीं गन्ध बिखेरते सरसिज हों। शायद घने अँधेरों और गहरे जलों में और-अधिक ही हैं। ‘कटे अँगूठे का पर्व’ ऐसी ही स्वप्निल स्थितियों की गाथा कहता है। एकलव्य का स्वप्न और द्रोण का स्वप्न : एकलव्य का स्वप्न गहन एकान्त वनों का है, अस्तु अधिक सघन, अधिक गहन है। द्रोण का स्वप्न आकाश का स्वप्न है, खुले में गन्ध बिखेरती हवा का स्वप्न है, अतएव विरल और अस्थायी है। एकलव्य का स्वप्न सूक्ष्म है, अधिक गहराई में पैठा हुआ, आत्मा का संस्कार है। वह गहरे में सक्रिय मानव आस्था अथवा आध्यात्मिकता से जुड़ा है; उसकी जड़ें अन्तश्चेतना में हैं, इसी से उसकी पैठ भी वहीं तक है। यही उसके सर्वव्यापी और चिरस्थायी होने का रहस्य है। द्रोण का स्वप्न ऐन्द्रिक, देह की इच्छाओं से बँधा हुआ है। इसी से उसे टूटते देर नहीं लगती।

महाभारत के इस आख्यान को कहते हुए समर्थन या खंडन का कोई प्रयोजन मेरे मन में नहीं था। मनुष्य की विवशता और उसकी नियति के प्रश्न अवश्य थे। एक सार्वभौमिक सहानुभूति का भाव भी था। एकलव्य के मन में द्रोण को अपना गुरु मानने के आग्रह को उसके बाल्यकाल से सम्बन्धित करना मुझे अभीष्ट लगा। एकलव्य को वनपुत्र मानना एक दूसरी सार्थकता की तलाश से उपजा। एकलव्य का पिता वनों को सीमा के रूप में लेता है, जिसे तोड़ना उसके अनुसार न तो सम्भव है, न ही उचित। एकलव्य वनों के स्थायित्व से जुड़कर, उनके गन्धीय विस्तार से संयुक्त होकर असीम हो जाता है। एकलव्य का धैर्य, उसकी वृक्ष वल्कल की-सी सहिष्णुता उसके वनपुत्र होने के आग्रह से ही जुड़े हैं। ‘कटे अँगूठे का पर्व’ इन्हीं मानुषी स्थितियों से रू-ब-रू होता है।

‘कहियत भिन्न न भिन्न’ की भावभूमि इससे बहुत अलग नहीं है। रामकथा का अन्तिम परिदृश्य सूर्यकुल की अकुलाहट का है। जो प्रश्न इस अध्याय में उभरे हैं, वे प्रभु के मानव होने की व्यथा की ही आख्या कहते हैं। सूर्यास्त का यह आख्यान एक ओर सृष्टि की उस आस्तिक अस्मिता को परिभाषित करता है, जो प्राणों की निरन्तरता में व्याप्त है। जहाँ सब कुछ समाप्त है, वहीं जीवन का एक नया प्रारम्भ भी तो है। दूसरी ओर यह कथा मनुष्य द्वारा निर्मित अधूरी समाज-व्यवस्था और उससे उपजे गहरे मानवीय सन्तापों का भी आख्यान कहती है। इन सन्तापों से प्रभु भी परे नहीं हैं। इनके बीच से गुजरकर ही तो प्रभु होने की भूमिका सम्पन्न होती है। ‘कहियत भिन्न न भिन्न’ के राम एक मानव के रूप में इन सन्तापों की ऊहापोह से जूझते हैं। किन्तु अन्त में सीतामय होकर वे इसे स्वीकारते हैं और प्रभु हो जाते हैं। सिया-राम की अभिन्नता का यही रहस्य इस काव्य-नाटक की भावभूमि बना।

बचपन से ही तुलसी के राम से अन्तरंग परिचय के बीच उनके मानवी सन्दर्भों के प्रति एक कौतूहल का भाव भी लगातार मन में रहा। रामकथा की अन्तिम त्रासदी भी बीज रूप में उपस्थिति रही। बाल्मीकि के ‘उत्तरकाण्ड’ के राम, भवभूति के ‘उत्तररामचरित’ के राम, अन्य भाषाओं के राजा राम तुलसी के राम से घुलमिल गये। उनके माध्यम से मनुष्य के अधूरेपन, उसकी विवशता, राज्यसत्ता के अन्तरंग में छिपी अनास्था की कहानी कहना मुझे रोचक लगा। यहीं मैं उस आस्था के भी दर्शन कर सका, जो जीवन को सार्थक और समग्र बनाती है। मुझे लगा कि रामकथा के अन्तिम अध्याय में यही आस्था पूरे पैनेपन से उपस्थिति है।

अश्वमेध-यज्ञोपरांत राम की मनस्थिति के बारे में एक जिज्ञासा मेरे मन में थी। सीता की स्वर्ण-प्रतिमा के साथ क्या उनका रागात्मक जुड़ाव भी रहा होगा और क्या उस प्राण-प्रतिष्ठित प्रतिमा में सीता की भी भाव-रूप में उपस्थिति रही होगी ? स्वर्ण और सत्ता के सम्बन्धों और उनके षड्यन्त्र से उपजी मानव-मूल्यों के प्रति तिरस्कार की भावस्थिति के प्रति भी एक जिज्ञासा का भाव था। ये सभी जिज्ञासाएँ इस नाट्यकाव्य में स्वयमेव आ जुटीं।

सीता के धरतीपुत्री होने, जनकनन्दिनी होने और कृषिभूमि से उत्पन्न होने और अन्त में अश्वमेध-यज्ञभूमि में समा जाने के प्रसंग में एक कृषि-व्यवस्था का रूपक इस नाटक को लिखते समय मेरे मन में उपस्थित रहा। प्राचीन सभ्यताओं के, विशेष रूप में मिस्र के, वानस्पतिक एवं उर्वरता अनुष्ठानों के संकेतार्थ भी कहीं पृष्ठभूमि में उपस्थिति थे। राम उसी व्यवस्था के जन नायक बनकर मेरे मन में उभरे। उनकी धरती से, उसकी वानस्पतिक सम्पदा की प्रतीक सीता से, सामान्य जनों, यथा केवट-कोल भील किरात वानर आदि से अन्तरंग जुड़ाव और वनवास की उनकी सशक्त भूमिका उस प्राणवत्ता और क्रान्तिदृष्टि का प्रतीक बन गये, जिनकी आज की गगनचारी और विशुद्ध पदार्थवादी सभ्यता के तहत बेहद ज़रूरत है। रावण और उसकी स्वर्णलंका, उसकी आकाशगामी अति-मायावी शुद्ध पदार्थिक स्वरूप कहीं आज की दैहिक-भौतिक समृद्धिपरक जीवन-दृष्टि का परिचायक बनकर उपस्थित हो गया। दैवी और आसुरी सम्पदा के इन दोनों प्रतीकों की एक साथ प्रस्तुति पारस्परिक विलोमों और सम्पूरकों के रूप में इस काव्य-नाटक में अपने-आप हो गयी। सीता के स्वर्ण-प्रतिमा हो जाने की त्रासदी सत्ता के अन्तर्गत मनुष्य के सहज भूमिपुत्र रूप के विघटन की कहानी कहती मुझे लगी।
आसान नहीं था इस अभिशप्त भूमि पर चलना।

इन दोनों काव्य-नाटकों को लिखते समय एक सम्मोहन की स्थिति रही, जिससे मुक्ति पाना मुझे अभीष्ट भी नहीं लगा। अन्ततः जो रचा गया, वह मेरा नहीं था। हाँ, इनको जीना, इनके संग पड़ाव-दर-पड़ाव गुजरना मेरे लिए एक सात्त्विक संस्कार रहा। इनके माध्यम से मेरी सारी आशंकाएँ, सारी अनास्थाएँ, सारी अपराध-भावनाएँ निःशेष हो गयीं। शेष रह गया केवल एक मौन स्वीकार। वही मेरी उपलब्धि रहा।
काव्य नाटक का यह रूप कहाँ तक इनके लिए उपयुक्त रहा या इन प्रस्तुतियों की क्या-क्या सीमाएँ हैं, इसकी पड़ताल और परख तो सुधी पाठकों एवं रंगकर्मियों के हाथ में। लेखन के बाद ये मेरी रहीं भी तो नहीं।

कुमार रवीन्द्र

दृश्य : एक


[वन से स्वर की गूँज उठती है। फिर वह गूँज शब्द बनती है, समूहगान हो जाती है।]

समूहगान : सूर्योदय से पहले का
गहरा अंधकार
सूना वन-प्रान्तर महाकार,
जैसे रहस्य की
आकृति हो
या घना हो गया हो विचार।

हर ओर
हवाएँ चलती हैं
या रुकती हैं;
उनमें है स्थिर
कुछ सपनों का स्वीकार
और वन बजता है
वीणा के तारों-सा रह-रहः
सरगम
अतीत की यादों-सा
या फिर
भविष्य की किसी कल्पना-सा मंथर;
वन में वह चुपके-चुपके पलता है,
साँवली हवाओं के मन में
उजली-उजली माँसलता है।
जा रहे दूर अब हैं विलाप-
कुत्तों की ध्वनि
या बीच-बीच में ‘हुआ-हुआ’ करते
अतुकान्त श्रृगालों की पुकार।

उग रहा
महत्वाकाँक्षा-सा
सूर्योदय का मोहक कलरव,
पर अभी
पड़ा है अन्धकार;
आवरण अँधेरे का ओढ़े़ जग रही धरा।

विस्मय का क्षण-
आकृतियाँ जब अस्पष्ट पड़ीं।
यह किसके पाँवों का सुर बजता नीरव में
जैसे हो कोई ठेका देता तबले पर
या मन में पलते असन्तोष-चिन्ताओं-सा।
जंगल का अपना प्रान्त छोड़
ये कहाँ जा रहे पाँव;
कौन-सी राह,
कहाँ मंजिल इनकी;
धरती के किन अवकाशों को
धूने का इनका है आग्रह ?


[एक आकृति वन के घने भाग से निकलकर एक ग्राम के निकट आ पहुँची है। आकृति का चेहरा-मोहरा अभी स्पष्ट नहीं है, किन्तु देह और चाल-ढाल से शक्ति का आभाश होता है। दूर कुछ खेत दिखाई देते हैं। उनके पार गाँव आकार ले रहा है। पगडंडी पर चलती हुई आकृति इधर-उधर देखती है, ठिठकती है जैसे कुछ विचार कर रही हो।]

विचार-स्वर : सूर्योदय का आभास
हवा में फिर से है।
कितने जंगल
कितनी सीमाएँ लाँघी हैं इतने दिन में
है याद नहीं;
यात्रा है लम्बी होती गयी
विचारों-सी।

ये पाँव नहीं हैं
घावों की संज्ञाएँ हैं;
सन्तोष मुझे
मैं दूर छोड़ आया अपनी सीमाओं को
दुष्कर अलंघ्य यह दूरी
मेरी मित्र बने,
कर पार जिसे
आ नहीं पाएँगे पिता-बन्धु;
मन को मसोसकर रह जाएँगे,
सोचेंगे कि
एकलव्य हो गया शेष;
कुछ शोक मना
अन्त्येष्टि करेंगे वे मेरी;
उनकी पीड़ा इस नये जन्म की पोशक हो।

सीमित अतीत को छोड़
खोजता मैं भविष्य;
आकाश-धरा के पार नये आलोकों को।
यह सूर्योदय
मेरी जीवन की ज्योति बने।
यह रात अनोखी
जिसने मुझे पुकारा था-
मेरे सपनों की संधि स्थल-
हो रही शेष।
आकार ग्रहण करता मैदानों का प्रदेश।
मेरी इच्छा-सा लम्बा चौड़ा
यह हरी धरा का सुखी पाट
मेरे पाँवों के नीचे है।
मेरे मन-सी
कलकल करती
यह नदी जहाँ तक जाती है,
मेरी यात्रा की बने वही सीमा-रेखा।

कुछ लोग इधर ही आते हैं,
उनसे पूछूँ
मेरे गंतव्य अभी है कितनी दूर और।


[सूर्योदय की पहली आभा सभी ओर बिखरती है। आकार एक सुनहरे रूपाभ से भर जाते हैं। एक किरण एकलव्य के चेहरे पर पड़ती है। श्याम वर्ण का नवयुवा है वह। कान्धे पर धनुष-तरकश लटकाये है। माथे पर बालों को बाँधती हुई एक नीले रंग की पट्टी, जिसमें कुछ पंख खुँसे हैं ! कमर में एक छुरा पटके से बँधा है। नंगे पाँव ! सारा शरीर जैसे लोहे के तारों से बना हुआ सुडौल-सबल, पके-ताबें में ढला हुआ। गाँव के व्यक्तियों के निकट पहुँचने पर वह उनसे पूछता है-]


एकलव्य: भद्रजनों !
यह ग्राम कौन-सा
और कौन सा यह प्रदेश;
यह नदी कौन-सी
और कहाँ तक जाती है;
है कितनी दूर हस्तिनापुर ?
मेरा गंतव्य वही नगरी।

[लोग ग़ौर से उसे देखते हैं। उनमें से एक व्यक्ति, जो एकलव्य का समायु लगता है, उसे सम्बोधित करता है।]

युवक : यह कुरुप्रदेश का गुरुग्राम,
है गंगा का यह तट-प्रदेश;
थोड़ी ही दूर यहाँ से है हस्तिनापुरी।
कौरव-गुरुओं का यही क्षेत्र-
है कृपाचार्य की जन्मभूमि।
और पार नदी के वह आश्रम उनका ही है।
वह श्वेत पताका
उस आश्रम की शोभा है।
उस आश्रम से कुछ आगे
नगरी से पहले
हैं रहते गुरुवर द्रोण;
हैं वही सिखाते राजकुमारों को
अस्त्रों-शस्त्रों का संचालन।
उनके आश्रम पर
ध्वजा गेरुआ फहराती;
उसके आगे ही....
राजमहल के कंगूरे...


[इसके पहले कि वह वाचाल युवक और आगे बोले, एकलव्य नदी-तट की ओर तेजी से भाग पड़ता है। तट पर पहुँचते ही नदी में कूद पड़ता है। सब चकित उसे देखते रह जाते हैं।]


दृश्य : दो



[द्रोण का आश्रम। उससे थोड़ी दूरी पर पथ के निकट एक वृक्ष की ओट में खड़ा मन्त्रमुग्ध एकलव्य। पृष्ठभूमि में हस्तिनापुर के गवाक्ष और कंगूरे सूर्य-किरणों में नहाए अपनी स्वर्णिम आभा बिखेर रहे हैं। पर एकलव्य तो टकटकी बाँधे उस गेरुए ध्वज को भक्तिभाव से निहार रहा है, जिस पर आचार्य द्रोण का मृगचर्म पर रखे कमंडल के साथ धनुष-बाण का चिह्न अंकित है। गहरी भाव-तरंगों में डूब-उतरा रहा है वह]


विचार-स्वर : अपने सपने के सम्मुख
मैं हूँ आज खड़ा।
यह द्वीप मनोरथ का,
मेरी इच्छाओं का
उजला-उजला;
लगता है जैसे मेरे पुण्यों का विहान।
असमंजस की वह काली रात समाप्त हुई,
जब बार-बार मैं भटका था
सन्देहों में;
यह पूर्णकाम होने की बेला है अनुपम।
याद मुझे
वर्षों पहले
आचार्यश्रेष्ठ जब आये थे...


[एक स्मृति-चित्र पारदर्शिका के रूप में उभरता है। पर्वत की एक उपत्यका। घने जंगल से ढँके ढाल। एक पतली-सी पहाड़ी नदी तेज गति से बह रही है। कुछ झोंपड़ों के अलावा आसपास कोई बस्ती नहीं है। एक पहाड़ी पर एक गढ़ीनुमा मकान बना है। पहाड़ी पर से उतरते हुए दो पुरुष और एक नवकिशोर। एक पुरुष गौर वर्ण का दीर्घकाय है। सिर पर जटाएँ और शरीर पर यज्ञोपवीत। तपस्या का तेज श्मश्रुपूर्ण चेहरे पर झलक रहा है। मृगचर्म सीने पर बँधा हुआ। नीचे धोती पहने हैं। कन्धे पर तरकश; हाथ में लम्बा धनुष है। दूसरा पुरुष श्याम वर्ण सुगठित शरीर का। मँझोले कद का। घुटने तक का एक अधोवस्त्र पहने हैं। कमर में एक बडा छुरा और हाथ में एक भाला। सिर पर एक पट्टी बँधी है, जिसमें कुछ पंख खुसे हैं। किशोर भी एक छोटी-सी कमान हाथ में पकड़े है। पीठ पर छोटा तरकश। सिर पर मोरपंख लगाये हैं। उसकी मुद्रा उत्साहभरी है। गौर पुरुष को वह श्रद्धा से देख रहा है। श्याम पुरुष गौर पुरुष की बात को पूरे सम्मान और कुछ झिझक के साथ सुन रहा है।]


गौर पुरुष : भीलराज !
मैं चाहूँगा कि एकलव्य
इस घाटी से बाहर निकले।
बाँधों मत इसको
अपनी इन सीमाओं में;
बनने दो इसको प्रश्न अभी।
कालान्तर में
जब दूर-दूर के देशों का अनुभव लेकर
यह उत्तर बन कर आएगा,
तब तुमको मेरी बात समझ में आएगी।

मैं देख रहा इसका भविष्यः
दक्षिणावर्त का
यह त्राता होगा समर्थ।

श्याम पुरुष : भगवान् !
समर्थ हैं आप
किन्तु....
हम तो हैं बर्बर भील;
हमारी दृष्टि नहीं जा पाती है।
अपनी इस पर्वत-गुहा पार।
हम हैं वन-पुत्र,
हमारी सीमा निश्चित है।
आदेश हमें है नहीं
कि हम पर्वत छोड़ें;
हम तो उद्गम हैं नदियों के;
मैदान हमारे लिए घोर वर्जित प्रदेश।


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