लोगों की राय

कहानी संग्रह >> अन्तिम शब्द

अन्तिम शब्द

गंगाधर गाडगिल

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5271
आईएसबीएन :978-81-263-1399

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

188 पाठक हैं

नारी जीवन का चित्रण...

Antim shabd

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक सशक्त तथा संवेदनशील कथा लेखक के रूप में मराठी साहित्यकार गंगाधर गाडगिल की योग्यता की परिचायक उनकी कुछ विशेष कहानियों का संग्रह है-‘अन्तिम शब्द’। इनमें प्रमुख रूप से नारी जीवन की विविधता का चित्रण है। नारी स्वभाव के जो विविध रूप इन कहानियों में दिखाई देते हैं वे निश्चय ही लेखक की सूक्ष्म दृष्टि की देन हैं। इन कहानियों की नारी चाहे बालिका हो, तरुणी हो या वृद्धा, वह चाहे उच्च वर्ग की हो अथवा मध्यम या निम्न वर्ग की, जिस बारीकी से वे नारी मन की विविध छटाओं को परिस्थिति के ताने-बाने में गूँथकर उनका चित्रण करते हैं वह निश्चय ही सराहनीय है।

वास्तविक जीवन में नारी की महत्ता को गाडगिल खूब पहचानते हैं। उसका सामर्थ्य, उसकी पवित्रता, उसका समर्पण भाव; साथ ही उसकी स्वार्थपरायणता, उसकी धूर्तता तथा उसकी असहायता एवं मूर्खता, कुछ भी उनकी लेखनी से अछूता नहीं रहा। वे अपनी कथा नायिका के व्यवहार पर कोई भाष्य, कोई टिप्पणी नहीं करते, न ही कोई उपदेश देते हैं; उनका उद्देश्य केवल जीवन दर्शन है। और यही गुण उनकी कथाओं को विशेष ऊँचाई प्रदान करता है। आशा है, हिन्दी पाठकों को उनकी ये कहानियाँ बहुत रुचिकर लगेंगी।

भूमिका

मराठी साहित्य के विख्यात लेखक श्री गंगाधर गाडगिल जी की अनेक कथाओं से कुछ चुनी हुई स्त्री प्रधान कथाओं का संकलन मराठी में ‘एकेकीची कथा’ प्रकाशित हुई थी। उसी संकलन से दस प्रतिनिधि कथाओं का हिन्दी अनुवाद ‘अन्तिम शब्द’ में प्रकाशित किया गया है। वास्तव में श्री गाडगिल जी जैसे प्रतिभाशाली तथा जाने-माने लेखक का परिचय मात्र दस कथाओं के माध्यम से हिन्दी जगत को देना कठिन है, किन्तु मुझे विश्वास है कि लेखक की बहुआयामी प्रतिभा, सुस्पष्ट विचारधारा तथा सशक्त लेखनी स्वयं ही अपना परिचय देने में समर्थ है। कथाओं के चयन में मैंने इतना अवश्य किया है कि इन कथाओं के जरिए कथा नायिकाओं के विविध रूप उजागर हों तथा मराठी साहित्य के साथ-साथ मराठी संस्कृति भी अनूदित होकर हिन्दी साहित्य जगत तक पहुँचे।

मैंने कोशिश की है कि अनुवाद सहज हो। वह मूल कृति से वफादारी निभाए तथा लक्ष्य-भाषा से भी एक सहज रिश्ता बना सके। मैं इस कोशिश में कितना सफल हो पायी हूँ। यह पाठक ही तय करेंगे।
‘अन्तिम शब्द’ के अनुवाद की दीर्घ प्रक्रिया में एस.एन.डी.टी. विश्वविद्यालय में कार्यरत हिन्दी विभागाध्यक्ष श्रीमती माधुरी छेड़ा का अमूल्य मार्गदर्शन मुझे प्राप्त हुआ जिसके लिए मैं उनकी सदैव ऋणी रहूँगी।
अन्त में, इस पुस्तक की निर्माण-प्रक्रिया में शामिल उन सभी प्रियजनों की मैं अत्यन्त आभारी हूँ, जिन्होंने समय-समय पर मेरा हौसला बढ़ाया तथा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मेरी सहायता की। सभी प्रियजनों की शुभकामनाओं से अभिभूत होकर मैं अपनी यह कृति ‘अन्तिम शब्द’ हिन्दी साहित्य जगत को समर्पित करती हूँ।
माधवी प्रसाद देशपाण्डे

ध्वस्त

कितनी बुलन्द हवेली थी वह। कभी शायद वह सुन्दर भी रही होगी लेकिन जैसे-जैसे जागीरदार साहब का परिवार बढ़ता गया, हवेली में नये-नये कमरे जुड़ते गये और उसकी आकृति बदलकर विशालकाय बन गयी। फिर भी वह हवेली टुकड़ों में बँटी हुई-सी नहीं बल्कि एक भव्य महल-सी लगती। उस हवेली में लड़की के भारी-भरकम शहतीरोंवाले बड़े-बड़े दालान थे, जिनकी पेशवाई खिड़कियों में लकड़ी के ही चौकोर गज लगे हुए थे। उन दालानों में देवी-देवताओं की बड़ी-बड़ी भौंड़ी और अनगढ़ तस्वीरें थीं, घड़ियाँ थीं। दालान में चारों तरफ दरवाजे थे। एक दालान को पार किये बिना दूसरे दालान में जाना सम्भव नहीं था। ये दालान उस समय बने थे जब एकान्त की और बन्द कमरों की अँग्रेजी संकल्पना का परिचय नहीं था। उस जमाने में व्यक्ति का निजी जीवन नहीं हुआ करता था। उसका वैवाहिक जीवन भी काफी हद तक सामाजिक ही हुआ करता था तथा सभी की यही धारणा थी कि एकान्त में, आड़ में जो घटता है, वह पाप है। शायद इसीलिए ऐसे भव्य और चारों तरफ से खुले हुए घर बनाये जाते थे। उन बड़े-बड़े दालानों के पीछे चौका, खाने का कमरा, भण्डार आदि घर के आवश्यक किन्तु अप्रतिष्ठित भाग बने हुए थे। और इन सब को घेरते हुए, दोनों तरफ छोटे-छोटे सुविधायुक्त, अँग्रेजी कमरे बने थे। इन कमरों में ग्रामोंफोन थे, उपन्यास थे, जरीदार कढ़ाईवाले फ्रेम थे, कुर्सियाँ थीं और कुल मिलाकर सारी विलायती संस्कृति की नुमाइश थी।

हवेली के सामने ही बड़ा-सा लैण्ड घर था। जिसमें अंग्रेजी ढंग के कुर्सी-टेबल, पेशवाई बिछावन, छतों पर काँच की हंडियाँ, झूमर, बिजली की बत्तियाँ आदि देशी-विदेशी शान की चीजें थीं।
हवेली में सामने ही, बायीं तरफ कचहरी थी। हिसाब की बहियाँ, बस्ते, लकड़ी की दावातें लिये बूढ़े कारकून यहाँ बैठा करते थे। उस बुलन्द हवेली में कहीं-कहीं छोटे-छोटे अँधेरे कमरे भी थे। वे क्यों और कैसे बने थे, यह कहना कठिन था पर इतना सच है कि उन कमरों के अभाव में हवेली के कई काम अटक जाते।

उस विशाल हवेली का परिवारिक जीवन भी उसी तरह विशालकाय और स्तरमय था। सबसे निचला स्तर नौकर, रसोइये तथा पनिहारों आदि का था। मालिकों की जी-हुजूरी करना, आश्रित वर्ग से हेकड़ी जताना, काम टालना, छोटी-मोटी चोरियाँ करना, पान-तमाखू खाना, मटरगश्ती करना आदि क्रिया-कलापों में ही इनका जीवन बीतता था। ये लोग रुपये, आठ आने जैसी टुच्ची रकम के कर्जे का लेन-देन करते और ऊपरी मंजिल के गूढ़, सुनहरे जीवन का दरवाजे की दरारों से, चोरी-छिपे जायजा लेते थे। विवाह कर गृहस्थी चलाने का सपना सभी देखते थे पर बिरले ही इस सपने का पूरा कर पाते थे। उस विशालकाय घर के कोनों-अन्तरों में पड़े हुए वे सब नीरस, निरर्थक आलसी और पराधीन जीवन बिताते थे।
इनके ऊपर के स्तर में कारकून, उनके परिवार, दूर के रिश्तेदार, पुरोहित, कीर्तनकार, साधू तथा अनेक विधवाएँ थीं। इनका जीवन-कर्तव्य अपनी योग्यता को बढ़ा-चढ़ाकर साबित करना ही था। अपनी औकात के बारे में दूसरों को भ्रम में रखना और स्वयं भी भ्रमित रहना। इस वर्ग का हर व्यक्ति चुगलखोर था और दूसरों पर अपना अधिकार जताने की कोशिश करता। कारकून समझते कि मालिकों के आर्थिक मामले उन्हीं के हाथ में हैं। पुरोहित, पण्डे मालिकों का मन बहलाना और उनकी चापलूसी करना अपना विशेष अधिकार समझते थे। बड़ी-बूढ़ियाँ समझतीं कि घर की सबसे महत्त्वपूर्ण, निरपेक्ष तथा रीति-रिवाजों का पालन करनेवाली बस वे ही हैं। वे अपने आपको जानकार मानतीं।

बड़े लोगों की दया के सहारे अपनी शिक्षा पूरी करनेवाले लड़के भी वहीं रहते थे। अपनी किताबों को किसी कोने में रखकर, घर के लोगों के छोटे-बड़े हुक्म बजाते हुए, फुरसत मिलने पर वे पढ़ाई भी कर लिया करते थे। उस वातावरण में आत्मविश्वास और स्वाभिमान के लिए कोई जगह नहीं थी। केवल चोर, बेहया तथा कुटिल व्यक्ति ही वहाँ बन सकते थे, टिक सकते थे।
इस व्यवस्था में सबसे ऊपर का स्तर मालिकों का था। भाऊ साहेब, नाना साहेब, बड़ी भाभी, छोटी भाभी, दीदी साहेब अवन्दा साहेब जागीरदार साहब के बेटे और बहुएँ। कोई आलस्य में, कोई ऐशो-आराम में तो कोई अपना शौक पूरा करते हुए जीवन बिता रहे थे। वे उन छोटे-छोटे आधुनिक बन्द कमरों में रहते, आश्रित वर्ग को दुत्कारते और आपस में बेहिसाब हास्य-विनोद किया करते थे। स्वयं बाबासाहेब अपने भाट-प्रशंसकों से घिरे, शान-शौकत तथा ऐशो-आराम की जिन्दगी जीते।

ऐसा था उस हवेली का संकुचित तथा सुरक्षित जीवन जिसमें बाप-दादों की कमाई खानेवाले परजीवियों के इर्द-गिर्द सम्पत्ति की मजबूत दीवारें थीं और उन दीवारों से जीवन-कलह को दूर रखने के लिए सैकड़ों लोग खेतों में खट रहे थे, हल चला रहे थे तथा पसीना बहाकर मोती उगा रहे थे।
सम्बन्धों तथा रिश्तों नातों के इस श्रेणीयुक्त जाल से, हवेली में रहनेवाला हर व्यक्ति बेखबर था। अपवाद थी केवल बाई साहेब-जागीरदार साहब की पत्नी। वे खूब अच्छी तरह इस जाल को पहचानती थीं तथा इसकी अहमियत को समझती थीं। बाई साहेब का विवाह हुए पच्चीस वर्ष बीत गये थे। वे स्वयं अब चालीस साल की थीं। शुरू के दस साल सास के अनुशासन में बिताने के बाद स्वयं ही उन्होंने इस विशालकाय तथा अस्त-व्यस्त परिवार की गाड़ी हाँकी थी। सम्पत्ति की दीवारों को मजबूत रखा, नीति की लगाम को आवश्यकतानुसार कसा या ढीला किया, हवेली की मान और प्रतिष्ठा को कायम रखा और यह सब करते हुए परिवार के प्रति स्नेह और अपनेपन में कमी नहीं होने दी।

बाई साहेब चालीस की उम्र के बावजूद काले केश तथा सम्पन्न व्यक्तित्व की मालकिन थीं। उनके गोलाई लिये शरीर से मोटापा नहीं, बल्कि प्रौढ़ता और अधिकार झलकता। उनमें कठोरता अवश्य थी, किन्तु मर्दाना कठोरता नहीं। वे दिन भर काम करतीं, किन्तु चेहरे पर थकावट नहीं आने देतीं। उनका व्यक्तित्व सभी को प्रभावित करता किन्तु वे स्वयं इन सब से अछूती ही रहतीं। वे भवसागर की ऊँच-नीच, असंगति तथा अन्तर्विरोध से भली-भाँति परिचित थीं और इस अन्तर्विरोध की ताल पर नाचना उन्हें खूब आता था।

बाई साहेब के बाल काढ़ने का काम सावित्री के जिम्मे था क्योंकि उसका हाथ एकदम हल्का था। सावित्री अपने इस सौभाग्य पर इतराती फिरती थी और जिस-तिस के सामने ऐसी अकड़ के बात करती जैसे बाई साहेब की अन्तरंग सहेली हो। आज भी बाई साहेब का जूड़ा समय बड़े चापलूस अन्दाज में बोली, ‘‘बाई साहेब, अब आगे से आपके बाल मैं ही धो दिया करूँगी। बहुत झड़ने लगे हैं।’’
बाई साहेब ने हमेशा की तरह कोई ध्यान नहीं दिया। उनकी जगह कोई और होती तो शायद कहती कि ‘सावित्री, यदि दस साल से मेरे बाल झड़ ही रहे हैं तो आश्चर्य है कि अब तक कंघी करने लायक बच गये हैं।’’...लेकिन बाई साहेब ने कभी ऐसी ओछी बातों का सहारा नहीं लिया। इससे सावित्री को भी एक टुच्ची खुशी मिल जाती और बाई साहेब की गरिमा भी कायम रहती।

सावित्री ने फिर दबे स्वर में कहा, ‘‘कल गंगा कह रही थी कि माई साहेब की शादी लगभग तय हो गयी है। बम्बई के किसी सरदार घराने से रिश्ता आया है।’’
बाई साहेब की भृकुटियाँ तन गयीं। उन्होंने कड़ाई के साथ कहा, ‘‘इस तरह नाम लेकर काम करने की क्या जरूरत है, गंगा को। और लोग भी न जाने किस-किस से सुनते फिरते हैं।’’
सावित्री ने झट पाँसा पलटकर सफाई दी—‘‘मैंने तो साफ कह दिया कि माई साहेब जैसी तेज लड़की के लिए कोई बैरिस्टर ही चुनेंगे बड़े साहेब। अगर शादी तय होगी तो बाई साहेब मुझे बताये बिना नहीं रहेंगी। और मैं भी दुनियाभर में ढोल पीटने नहीं जाऊँगी।’’


बाल काढ़ने के बाद बाई साहेब ने, रिवाज के अनुसार, झुककर सावित्री के पाँव छुए। झेंपकर सावित्री ने प्रणाम स्वीकार किया पर आशीर्वाद देते समय मन के किसी कोने में छिपी खुशी बाहर छलक उठी। बाई साहेब ने रोज की तरह नौकर-चाकरों से पूछताछ की—‘‘गंगाबाई की खाँसी अब ठीक है ? सुन्दराबाई का विसू कहीं भाग गया था, वो मिला या नहीं ? कल शायद माई साहेब की अँगूठी कहीं खो गयी। तुम सब घर के लोगों को ध्यान रखना चाहिए कि कहीं कोई बाहरी आदमी तो घर में नहीं घुसता ? कोई नौकर तो इन चीजों को नहीं छूता ?’’

अँगूठी के खोने की बात पर सावित्री के कान खड़े हो गये। उसने अँगूठी खोजने की जिम्मेदारी खुद पर ले ली। उसे कुछ लोगों पर शक भी था। अब जब बाई साहेब की अनुमति मिल गयी है तो वह लोगों के बक्से भी खुलवाकर तलाशी लेगी। हालाँकि बाई साहेब भी यही चाहती थीं कि बक्से खुलवाकर देखे जाएँ पर यह काम वे स्वयं थोड़े ही करतीं। बाद में काम होने के उपरान्त वह सावित्री को अपनी इस करतूत के लिए डाँटतीं भी जरूर।

सावित्री ने गहनों से भरा थाल बाई साहेब के सामने रख दिया। थाल में पड़ी लक्ष्मी को बाई साहेब ने प्रणाम किया और एक-दो गहने पहनने के लिए निकाल लिये। तभी रसोइया चाँदी की ट्रे में चाय लेकर आया। बाई साहब ने बारीकी से ट्रे की सफाई की जाँच की और फिर चाय लेकर आबा साहेब के कमरे में गयीं। उन्हें देखकर नौकर बाहर चला गया। आबा साहब ने अपने मोटे थुलथुल हाथों को फैलाकर बड़ी-सी जम्हाई ली और अधमुँदी आँखों से देखा। बाई साहेब को सामने पाकर वे हड़बड़ाकर जागे और अपनी तोंद सँभालते हुए, कोहनी के बल उठकर तकिये से टेक लगाकर बैठ गये। बचकाना तरीके से उन्होंने शिकायत की—‘‘कितनी जल्दी उठना पड़ता है साला इन दिनों...’’
गाली को अनसुना कर बाई साहेब ने चाय का कप आगे बढ़ा दिया। आबा साहेब ने चाय का कप मुँह से लगाया और आधा कप पीने के बाद सहसा उन्हें याद आया कि बाई साहेब ने तो चाय पी ही नहीं। वे अपराधी की तरह बोले, ‘‘आप...आप लीजिए न...’’

बाई साहेब ने चाय की घूँट गले से नीचे उतारी और अवनत मुख से ही बोलीं...‘‘भिकभर की बेटी को मैंने, उसके मामा के घर भिजवा दिया है।’’
आबा साहेब ने चोर नजरों से बाई साहेब की ओर देखा। पलभर के लिए उनके चेहरे पर कुटिलता झलकी और फिर वे पहले की तरह भोंदू दिखाई देने लगे। कुछ कहने को उन्होंने मुँह खोला पर जबान लड़खड़ा गयी। कुछ सफाई देने के अन्दाज में उन्होंने हताश-से स्वर में कहा, ‘‘कुछ लोग तो बस मूर्ख होते हैं। सीढ़ियों पर, अँधेरे में हमारा धक्का क्या लगा। इतनी चीख-पुकार और रोना-धोना मचाने जैसी क्या बात हो गयी !’’

बाई साहेब कुछ न बोलीं। उनके इस मौन पर आबा साहेब और भी बौखला गये। अपनी बौखलाहट को छिपाने तथा बाई साहेब को विश्वास दिलाने की खातिर उन्होंने बाई साहेब की ओर देखकर आँखें मिचका दीं जिससे मामला गम्भीर न जान पड़े। जब जवाब में बाई साहेब ने मुस्कुराहट बिखेरी तो वे और भी लाड़ जताने पर आ गये और बाई साहेब से चुम्बन की भी फरमाइश कर बैठे। बड़े धैर्य से इस प्रसंग को सहकर बाई साहेब ने वातावरण को सहज बनाते हुए पूछा, ‘‘आजकल आपका नाटक का शौक कहाँ हवा हो गया ? इतना काम करते हैं आप। जरा मन बहलाव भी तो चाहिए।’’ बाई साहेब के इस प्रस्ताव पर आबा साहेब का मुँह खुला का खुला रह गया। गोरे-चिट्टे दत्तू की स्त्रीवेशधारी प्रतिमा उनकी आँखों के आगे घूमने लगी। मन ही मन वे दत्तू को अपने हाथों से साड़ी पहनाने लगे और दत्तू भी इठला-इठला कर उन्हें रिझाने लगा। उनके होठों से जैसे लार टपकने लगी।
‘‘मुंशी जी के छह मोटरों के बारे में क्या बात हुई है ?’’ बाई साहेब ने उनका हाथ सहलाते हुए पूछा।
‘‘आप नहीं समझेंगी ये कारोबार की बातें,’’ आबा साहेब ने कहा, ‘‘हम मोटर-सर्विस शुरू करने जा रहे हैं। आजकल सब कारोबार में पैसा कमा रहे हैं। हम भी कारोबार की सोच रहे हैं।’’

‘‘मुम्बई में दो इमारतें बनाने से काम नहीं चलेगा ?’’ बाई साहेब ने पूछा।
‘‘चलेगा। पर उसमें चुनौती नहीं है, मजा नहीं है। और औरतों को इन सब बातों में नहीं पड़ना चाहिए। वह सब हम देख लेंगे।’’ आबा साहेब ने अकड़ दिखायी।
बाई साहेब ने नम्रता से ही, फिर जोर दिया कि इतने बड़े जागीरदार कारोबार में उतरें तो अच्छा नहीं लगेगा। और फिर जागीरदार साहब स्वभाव से भी इतने दिलदार हैं कि...’’
कुछ देर और जोर देने पर अन्ततः आबा साहेब को घराने की प्रतिष्ठा का महत्त्व समझ में आ गया और उन्होंने उसी आदेश को रद्द कर दिया जो बाई साहेब पहले ही रद्द कर चुकी थीं।

यह काम निपटाकर बाई साहेब सीढ़ियाँ उतरकर नीचे गयीं। उनकी पदचाप सुनते ही सबके ऊँचे स्वर नीचे हो गये और हर कोई किसी-न-किसी काम में जुट गया। बाई साहेब की चापलूसी करने में माहिर दो-चार बुजुर्ग औरतें सावधान हो गयीं और बाई साहेब की खुशामद करने के मौके की ताक में खड़ी हो गयीं। कोने में बैठकर पढ़ रहा एक लड़का उसी तरह पढ़ता रहा। बाई साहेब ने जाते-जाते उसकी पीठ पर हाथ फेरा, मगर उसका ध्यान पढ़ाई में ही लगा रहा। बाई साहेब ने पलभर के लिए उस लड़के को एकटक देखा, फिर आगे बढ़ गयीं। उनके जाते ही सारे आश्रितजन उस लड़के पर टूट पड़े। बाई साहेब के आने पर खड़े न होने के लिए उन्होंने उसे खूब लताड़ा। और तरह-तरह से उसे विश्वास दिलाया कि महत्त्व मन लगाकर पढ़ने या काम करने का नहीं है बल्कि तलवे चाटने का है और वह लड़का मनुष्य जाति की उस कोटि का है जिसे स्वाभिमान से कोई लेना-देना नहीं होता, जो जीवनभर महत्त्वहीन ही होते हैं। उस लड़के के साथ जो भी घट रहा था उसका ज्ञान बाई साहेब को नहीं था। किन्तु अगर हो भी जाता तो भी वे शायद ध्यान नहीं देतीं। वे शायद यही कहतीं कि चलता है। संसार की इस चक्की में कितने ही पिस जाते हैं। कोई कितनों के लिए रोए ?

तभी बाई साहेब की छोटी बहू नीचे उतरी। निर्बल और कमजोर-सी। नयी-नयी शादी होने के बाद दोनों पति-पत्नी आपस में इतने खो गये थे कि उन्हें होश ही नहीं रहा था। उन्हें होश में लाना जरूरी था। असल में यह बात नाना साहेब को सूझनी चाहिए थी पर उन्हें इतनी समझ नहीं थी। सो यह काम भी बाई साहेब को ही निपटाना था। अब वे छोटी बहू को मायके जाने की अनुमतिनुमा आदेश देनेवाली थीं। बहू के मायके जाने पर नाना साहेब की दिनचर्या अखबारों की पहेलियाँ सुलझाने, भविष्य देखने या जासूसी कहानियाँ पढ़ने में सिमट जाती। पत्नी की आवश्यकता महसूस कर के बीच-बीच में झुँझलाते जरूर, किन्तु बाई साहेब से झगड़ा मोल लेने की हिम्मत उनमें नहीं थी। वे सभी से चिढ़ते थे पर किसी से लड़ने की हिम्मत उनमें नहीं थी। बेटे और बहू के भले के लिए बाई साहेब को यह निर्णय लेना ही था। भले ही वे बेटे की नजर में बुरी बन जातीं। यह तो कुछ भी नहीं था। एक बार किसी सरदार घराने की एक माँ ने अपने बेटे को दूसरी औरत की लत लगायी थी क्योंकि वह अपनी मूर्ख पत्नी के इशारों पर चलने लगा था। धन-दौलत और परम्परा की रक्षा के लिए कभी-कभी मनुष्य को इतना कठोर भी होना पड़ता है। दूसरों की बलि भी देनी पड़ती है। उनके आश्रय में रहनेवाले दत्तू का भी यही होना था। आबा साहेब के नाटक के शौक में दत्तू की बलि चढ़नेवाली थी। बुरा तो उन्हें जरूर लग रहा था पर कोई चारा भी नहीं था।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book