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झूमरा बीबी का मेला

रमापद चौधुरी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :111
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5277
आईएसबीएन :978-81-263-1362

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बंगाल और बिहार के सीमावर्ती क्षेत्रों के लोकजीवन का वर्णन...

jhumra bibi ka mela

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

झूमरा बीबी का मेला बांग्ला साहित्य में रवीन्द्रनाथ के बाद की पीढ़ी के कथाकारों में रमापद चौधुरी अन्यतम हैं। विषय-वस्तु की विविधत, तदनुरूप वाक्य-विन्यास, प्रवाहमान भाषा, जीवन-मूल्यों के प्रति श्रृद्धा और विश्वास का भाव—उनकी कहानियों में ऐसी मार्मिकता उतपन्न करते हैं और ऐसे वस्तुनिष्ठ यथार्थ की ओर ले जाते हैं, जहाँ पाठक अपने आन्तरिक और बाह्य जगत के घमासान, राग-विराग, जय-पराजय और संघर्षों की प्रतिध्वनियाँ सुन पाता है। ये कहानियाँ जीवनानुभवों के ऐसे बीहड़ में चलती है; जहाँ समाज के निर्मम यथार्थ परत-दर-परत मनुष्य जीवन की नियति का न केवल साक्ष्य बन जाते हैं, बल्कि विडम्बनाओं का आख्यान बन कर कई प्रश्नों को जन्म देते हैं और कैफ़ियत माँगते हैं। रमापद जी का ज्यादातर जीवन बंगाल और बिहार के सीमावर्ती क्षेत्रों में बीता, इसलिए आश्चर्य नहीं कि वहाँ का लोक जीवन अपना जीवन्तता तथा विविध रंगों और स्पन्दनों के साथ उनकी कहानियों में अभिव्यक्त हुआ है।

उनके अनुभव-संसार का वैचित्र्य अक्सर हमें विस्मित कर देता है। पिछले लगभग 50 वर्षों के रचनाकर्म में संलग्न रमापद चौधुरी बांग्ला साहित्य के किंवदन्ती पुरुष बन गये हैं। उनकी रचनात्मक बेचैनी ने आज भी उन्हें साहित्य और समाज में सक्रिय बना रखा है। इस संग्रह में रमापद जी की दस प्रतिनिधि कहानियाँ हैं। इन्हें पढ़ कर हिन्दी के पाठक भी उस वैचारिक उत्तेजना तथा जीवन के बहुरंगे यथार्थ को उसी मार्मिकता के साथ अनुभव कर सकेंगे, जिसे बंग्ला के पाठक पिछले पाँच दशकों से करते आ रहे हैं।

चन्द्रभस्म

निस्तब्ध जाड़े की काली जमीन पर लेशमात्र भी कोलाहल नहीं था। वॉर्निश की हुई सड़क ने सीधे अँधेरे के सीने में अपना चेहरा छुपा लिया था। चेहरा छुपाये वह झिलमिलाते शहर की ओर दौड़ गयी थी। ठण्डी हवा के कम्पन के कारण होठों से टूटी-फूटी सीटी भी नहीं बज पा रही थी। घास की फुनगी पर रात के कीड़े भी खामोश थे। न तो झींगुरों की आवाजें आ रही थीं और न ही तूफान की तेजी की।

लेकिन थोड़ी देर पहले ही उस गाँव की इस छोटी-सी दुनिया को एक के बाद एक कई आवाजों ने चौंका दिया था। दोनों आँखों की दीप्ति बुझा, हॉर्न बजाती दो बसें दीवार से सटकर आ खड़ी हुईं। थोड़ी-सी चिल्लाहटें, थोड़ी-सी हँसी और फिर फाटक बन्द होने की आवाज।...रोज ही इस समय थोड़ा-बहुत शोरगुल हुआ करता और फिर सब लोग सो जाते ।
नींद से त्रस्त पातालपुरी की तरह ही दीवार से घिरी वह बस्ती भी नींद के आगोश में समा जाती।

आप दीवार के उस पार देखेंगे ? अपनी आँखों से उन लोगों के दैनन्दिन जीवन की फिल्म देखना चाहते हैं ? भाषा को संयम दो। ठीक उन लोगों की तरह ही रसहीन, घायल चोट खाये मरीज का चित्र उकेरो अपनी भाषा में। चाँद वे लोग भी देखते हैं-मुझे मालूम है। आसमान के कोने में शुक्लपक्ष का जो चाँद उभर आता है, उजाले का प्रलेप लगा बर्फ के चकत्ते-सा सफेद चाँद—वे लोग भी देखते हैं, लेकिन बूढ़ा रूखन अपलक अपने पैरों की ओर देख रहा है। देख रहा है कि उसके पैरों के पंजोंवाले सफेद कोढ़ के चकत्ते और भी सफेद, और भी चमकीले दिखाई दे रहे हैं। इसलिए कह रहा है कि संगमरमर-सी सफेद मोमबत्ती के उजाले में अगर युवती माँग्ना का चेहरा देखना चाहो, तो मुझे कोई एतराज नहीं होगा। लेकिन इतनी-सी गुजारिश है कि उसकी आँखों की दोनों पुतलियों को कहीं तुम अपनी आँखों के नीले काँच के भीतर से देखने की कोशिश मत करना।

लोहे के फाटक को पार कर दोनों बसें थम गयीं। थोडा-सा शोरगुल उभर आया। एक-एक कर सवारियाँ उतर गयीं। दिन की इन सवारियों के हुजूम में नये लोग बहुत कम आते हैं। पुराने लोगों में से कोई- कोई किसी दिन अनुपस्थित भी हो जाते और तिवारी के पास अगले दिन के लिए दो-चार घूँसे-तमाचे, पाँच मिनट की अविराम न सुनी जा सकनेवाली कड़वी बातें और धारदार धमकियाँ जमा रह जातीं। लेकिन उसके बावजूद वे लोग लौट आते।

बस को गैरेज में रखकर दोनों ड्राइवर फटे कोटों से कानों को ढाँपते हुए बीड़ी के कश खींचते-खींचते विदा ले लेते। तिवारी जोर से फाटक को बन्द कर ताला लटका आता और खुले आसमान के नीचे वे लोग शोरगुल करते रहते। बहुत सारी औरतें, मर्द, छोटे बच्चे और काने बूढ़ों के झुण्ड इकट्ठा होकर गपशप करते। औरतों की हँसी रूकने का नाम नहीं लेती। बुड्ढ़ों के मुँह से अश्लील बातें सुन उससे भी क्योंकि वहाँ पर सुरुचिपूर्ण हास्य के लिए कोई जगह नहीं थी। अश्लील जवाब देकर वे औरतें गर्व से मुस्करा उठतीं। उनके बदन पर पटसन से बने फटे कपड़े और मैली चिन्दियाँ रहतीं। काले रंग से रँगे जूट के नकली बालों की तरह उनके बाल अस्त-व्यस्त रहते। मीठी आवाज नहीं, उनकी आवाज में सुरों के सप्तम की छुअन रहती। फिर भी वे लोग हँसते-मुस्कराते। बँसी-मजाक, व्यंग्य-ठट्ठा करते। सिर्फ बच्चे नहीं मुस्कुराते थे। आँखों को बोझिल करती नींद को हटाकर वे लोग भूख के मारे चीखते-चिल्लाते और आदमी लोग गुस्से से चिल्ला उठते और उन्हें धमका देते। वे आदमी ही थे, भले ही जवान न हों लेकिन वे मर्द तो जरूर थे। ज्वार के बीज और पनीली दाल खाकर तो जवान नहीं हुआ जा सकता न !

तिवारी की हाँक सुनकर वे लोग लाइन लगाकर खड़े हो जाते। इतने-से नियम का पालन करना उनके दिमाग में घुस चुका था। थोड़ी ही देर बाद बंगाली बाबू जवाहर वहाँ आ पहुँचता।
‘‘भीखूराम !’’
‘‘हाजिर, दस आना।’’
डायरी देखकर जवाहर नाम पुकारने की शुरुआत करता
‘‘ताहेर अली !’’
‘‘हाजिर, एक रूपिया छह पैसा।’’
‘‘पंचा !’’

‘‘हाजिर, साढ़े बारह आना।’’
जवाहर एक के बाद एक नाम पुकारता जाता। वे लोग एक-एक कर आगे आते और हाजिरी देते। पैसों का हिसाब समझाकर वह तिवारी के हाथों में पैसे गिन-गिनकरक दे देता। जवाहर हरेक के नाम के साथ रूपये-पैसों का परिमाण लिख लेता। तिवारी भिश्ती की चमड़ेवाली थैली-जैसी छोटी थैली में उन पैसों को रख लेता। इसके बाद औरतों का नाम पुकारा जाता।
‘‘सनका !’’
‘‘हाजिर जी।’’
‘कितना ?’’ जवाहर थोड़े रूखेपन से पूछता।
हो औरतजात, जन्मपत्री के हिसाब से उम्र की बदौलत भले ही नौजवान हो, लेकिन इस वजह से भद्र वंश में जन्मा पढ़ा-लिखा जवाहर उन लोगों के सरस मजाक को भला किस अभिरूचि की वजह से अस्वीकार करेगा, और इसीलिए जवाहर नाराज हो जाता। उन लोगों के हलके-फुलके मजाक और बातचीत को बढ़ाने की कोशिशों में जवाहर को एक बहुत ही कुत्सित अपमान की लोलुपता दिखाई देती। और इसी वजह से वह कठोर स्वर में पूछता, ‘‘कितना ?’’
‘‘गिन के तो नहीं देखा जी मैंने, रूको, देखती हूँ।’’ अपने मजाकिया उत्साह में खुद ही मुस्करा उठती सनका और फिर धीरे-धीरे हाथ के पैसों को गिनने लगती।
कहती, ‘‘छह आना डेढ़ पैसा।’’

गुस्से से चीख उठता जवाहर, ‘‘इतने कम ?’’
‘‘कम हैं तो मैं क्या करूँ ?’’
जवाहर नाक में से सिर्फ एक आवाज निकालता।
तिवारी कहता, ‘‘कल अगर फिर से कम हुए तो खाना बन्द।’’
सनका जवाब नहीं देती, होंठ दबा, मुँह बिचकाकर वहाँ से खिसक लेती। रूखन ने केवल तीन आने दिए थे, लेकिन जवाहर ने उस पर फिर भी अविश्वास नहीं किया था। दो-एक पैसे की शायद चोरी भी करता हो। ऐसा तो सभी करते हैं। वह खुद तिवारी भी तो रोजाना कुछ-न-कुछ घपला करके हिस्सा-भाग करते हैं। जितना जमा होता, सारा मूलचन्द मारवाड़ी के हाथों में थोड़े ही सौंप देता। लेकिन औरतों पर भरोसा नहीं। वे लोग बड़ी-बड़ी चोरियाँ करती हैं। माँग्ना कमसिन लड़की है, दिखने में बुरी नहीं। मैली-कुचैली जरूर है लेकिन हाथ पैरों में कहीं पर भी जरा-सा भी घाव नहीं, फोड़े-फुंसी नहीं। लोग कम-अज-कम दो बार उसकी ओर मुड़कर देखते हैं। इसके बावजूद उसने कभी पाँच आने से ज्यादा जमा नहीं किये थे। सनका, रावती, मन्ना-उनमें से किसी पर भी जवाहर भरोशा नहीं करता। फिर भी कर कुछ नहीं सकता।

तिवारी के माध्यम से थोड़ी-बहुत डाँट-डपट के बाद रूक जाना पड़ता। ज्यादा शक होने पर तिवारी खुद ही लड़कियों की कमर की डोरी पर हाथ फेरकर देख लेता। एक दिन उसने लड़कियों और आदमियों के सामने ही मन्ना के फटे कपड़े को खींचकर खोल दिया था। तिवारी जब कपड़े का कोना-कोना झाककर देख रहा था, तब शर्म के मारे लाल हो उठा जवाहर, जबकि मन्ना ने सिर्फ मुस्कुराते हुए तिवारी के हाथों से कपड़े को छीन लिया था। जवाहर ने एक तिरछी निगाहों से देखा-भर था, और फिर खुद पर हुई घृणा से उसका मन कड़वा हो गया था। इच्छा हुई थी कि उसी दिन नौकरी छोड़ दे। लेकिन माह के अन्त में मूलचन्द मारवाड़ी से प्राप्त होने वाली तनख्वाह, पास में ही बिना किराये का मकान और पर्याप्त ऊपरी आमदनी की माया भी कम तो न थी !

पिघले मोम से तुम्हारी तश्तरी भर गयी है । लम्बी सफेद मोमबत्ती काफी छोटी हो चुकी है। तुमने बिलावजह उसे तिल-तिलकर झुलसाकर खत्म कर लिया है। बुझाओ, बुझा दो बत्ती को। लालटेन के धुँधले उजाले में तुम देख सकोगे कि डेढ़ सौ परछाइयाँ धुँधलके में बढ़ी जी रही हैं। मिट्टी और गोबर से लिपे मुड़े–तुड़े-से चिकवाले लम्बे-से आँगन में पत्तलों की कतारें बिछ गयी थीं। हल्दी की गन्ध आ रही थी। तमाम सब्जियों को मिलाकर घोंटकर बनायी हुई कोई तरकारी करछुल से परोस दी जाती। मूलचन्द मारवाड़ी की ओर से वे लोग ईश्वर की प्रार्थना करते। उस आदमी में दया-माया है, भरपेट खाना देता है। वे लोग जितना चाहें, खा सकते हैं।

पेट भरकर खा रही थी रावती। माँग्ना के द्वारा रोके जाने को अनसुना करती हुई वह खाये जा रही थी। अचानक उसको मितली-सी आ गयी। सीने से लेकर गले की नली तक मानों भाप की एक गोला ऊपर-नीचे बार-बार आने-जाने लगा। पेट से एक बुरी गन्ध मरोड़ खा उठी। सिर्फ रावती ने अपनी नाक में से महसूस किया। उसे अपनी जीभ और मसूड़ों के पास कसैली खटास का अनुभव हुआ। उसने जो कुछ खाया था, अपने पत्तल के पास ही उलट दिया। माँग्ना उसके बाजू में ही बैठी थी। उसके बदन में भी कुछ छींटे उड़कर लगे। लेकिन इस पर भी वह गुस्सा नहीं हुई, क्योंकि ऐसा तो होता ही रहता है।

थोड़ी सहनुभूति के स्वर में उसने कहा, ‘‘खा, डायन, पाँच महीने का पेट लेकर तू निगलना तो छोड़ेगी नहीं।’’
रावती ने कोई जवाब नहीं दिया। वह तब अपने आपको सँभालने की कोशिश कर रही थी।

‘‘आ कलमुँही, मैंने कह दिया तो रो रही है पतुरिया।’’

माँग्ना की बात सुनकर रावती ने मुड़कर देखते हुए मुस्करा दिया। असल में उलटी करते हुए आँसू की एक-आध ऐसी बूँद आँखों में आ ही जाती है। माँग्ना ने उसे देखकर सोचा था कि शायद रावती रो रही है।

‘‘नहीं रोयी रे, नहीं रोयी।’’ रावती ने हँसते हुए, कहा। फिर पीठ पर की मैली-कुचैली कथरी से उसने मुँह, आँख और नाक पोंछ ली। उठकर हौज के पानी से मुँह धो आयी। फिर उस पत्तल को साफ कर बैठ गयी।
‘‘अब क्या फिर से खाएगी ?’’माँग्ना ने पूछा।
विस्मय के स्वर में रावती बोली, ‘‘नहीं खाऊँगी ? जो कुछ खाया था, वह सब तो उलटी में निकल गया।’’

‘‘पतुरिया मरेगी, तू जरूर मरेगी।’’ थोड़ा रूककर माँग्ना ने कहा, ‘‘बच्चे को भी मारेगी।’’
पहले-पहल इस बात पर मुस्कुरा उठी थी रावती, फिर अचानक वह ठिठक-सी गयी और माँग्ना को एकटक देखती हुई बोली, ‘‘तूने ऐसा कह दिया माँग्ना ?’’

मुँह के कौर को चबाना रोक माँग्ना बोली, ‘‘मैंने कहा तो ठीक ही कहा।’’ फिर न जाने क्या सोचकर वह सान्त्वना के स्वर में बोली, ‘‘वह कोई मरनेवाला नहीं है रे।’’
रावती गुस्से से मुँह बनाती हुई बोली, ‘‘वह कोई मरनेवाला नहीं है रे ! तू क्यों बोलेगी ऐसा ?’’
माँग्ना हँसते-हँसते बोली, ‘‘ठीक है, ठीक है, अब नहीं बोलूँगी।’’
रावती शायद इतना आसानी से उसे नहीं छोड़ती, लेकिन वहाँ ताहेर अली और रूखन के बीच भयंकर झगड़ा शुरू हो गया था। खिचड़ी-सने हाथों से ही दोनों ने मरपीट शुरू कर दी। उनके झगड़े को रोकने के लिए कोई भी पहल नहीं कर रहा था क्योंकि ऐसा अकसर ही हुआ करता था। सिर्फ सनका ने ताहेर से कहा, ‘‘अब छोड़ो भी मियाँ साब। उस आशिक के साथ लड़ नहीं पाओगे। वह हमारा सींकिया पहलवान है !’’
कुछ ही देर में वे लोग मारपीट करना छोड़कर वाकयुद्ध पर उतर आये और फिर बचे खाने की ओर देखकर धीरे-धीरे चुप हो गये।

एक-एक कर सभी ने खाना खा लिया। अपने-अपने पत्तल एक कोने में फेंककर उन्होंने हौज के पानी से अपने हाथ-मुँह धो लिये। थोड़ा-सा पानी भी पी लिया बिना दरवाजों वाले बड़े कमरों के फर्श पर फटी चटाई बिछाकर वे सब लेट गये। थोडी़-सी नींद और सुकून के लिए उनकी देहें लोट गयीं।
फटी कथरी या फिर कोई चीथड़ा लपेटकर वे सो जाते। जिबह की गयी मुर्गियों की मानिन्द डेढ़ सौ परछाइयों-सी देहें पड़ी रहतीं।

सिर्फ पंचा को नींद नहीं आ रही थी। उसे पता था कि उसे आज नींद नहीं आएगी, और एक व्यक्ति जो सो रहा था, अभी-अभी जाग उठा-ताहेर अली।
‘‘क्यों मियाँ, नींद नहीं आ रही ?’’
उसकी ओर देखे बिना ही एक लम्बी साँस छोड़ते हुए ताहेर बोला, ‘‘नहीं।’’
‘‘क्यों साब ?’’
‘‘साले घाव में से पानी निकल रहा है, भयंकर खुजली हो रही है।’’
घाव बचाकर ताहेर धीरे-धीरे खुजाने लगा। घुटनों से लेकर जाँघ के ऊपरी हिस्से तक भयंकर घाव था। सियार के पंजे का वार खाये खरगोश की तरह लाल-लाल मांस घाव से लटक रहा था। पहनने के मैले-कुचैले कपड़े को घाव पर हलके-से रखकर पानी और खून को सुखाने की कोशिश कर रहा था ताहेर। इधर पंचा मन-ही-मन ताहेर पर गुस्सा हो रहा था।

विफल मन लिये उसने आँख बन्द कर एक बार फिर सोने की कोशिश की। थोड़ी देर वह चुपचाप पड़ा रहा। उसे जाने कैसी खरखराहट सुनाई दी। पंचा ने आँखें खोलकर देखा। उसने देखा कि कोई जनानी परछाईं ताहेर की ओर बढ़ी चली आ रही थी। पंचा उसे विस्फारित आँखों से देखता रहा। वह जाग रहा है, क्या उस लड़की को इसका जरा भी अहसास नहीं ?
‘‘क्यों जी, जलन हो रही है ?’’
‘‘हूँ....।’’
‘‘सो जाओ प्यारे, मैं घाव सहला देती हूँ।’’
इस पर ताहेर को गुस्सा आ गया। जलन के मारे बेचारे की जान निकली जा रही थी, ऐसे में प्यार की बातें अच्छी नहीं लगतीं।
वह बोला, ‘‘जा भाग यहाँ से। दुलार करने की कोई जरूरत नहीं है।’’ लेकिन सनका ने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया। उसने आहिस्ते-अहिस्ते ताहेर का सिर अपनी गोद में रख लिया, फिर उसके घाव के आसपास हाथ फेरती हुई बोली, ‘‘सो जाओ मियाँ, सो जाओ, रात गुजरने वाली है।’’

इस मौके पर पंचा करवट लेकर लुढ़कता हुआ वहाँ से निकल आया। कुत्ते की मानिन्द सिमटकर एक बुढ़िया लेटी थी। उसके गाल पर से बहकर लार टपक रही थी। सिर के नीचे रखी पोटली का एक हिस्सा लार से भीग गया था। उसको लाँघकर पंचा सीधे माँग्ना के पास चला आया।

वह पेट कर घुटने सिकोड़कर सो रही थी। पहनने का कपड़ा तंग था, इस वजह से उसके शरीर का काफी हिस्सा उघड़ा था, और इसलिए माँग्ना ठण्ड के मारे काँप रही थी। वह नींद में काँप रही थी। अपने सीने पर बर्फ-जैसे ठण्डे हाथ के स्पर्श से अचानक उसकी नींद खुल गयी। चौंककर उसने आँखें खोलीं और दबी आवाज में पूछा, ‘‘कौन है ?’’
‘‘मैं हूँ, पंचा, ‘‘उसने फुसफुसाते हुए कहा।
‘‘क्या है ?’’
उसने जवाब नहीं दिया। माँग्ना के सीने पर से अपना हाथ हटाकर वह चुपचाप बैठा रहा।
इस बीच माँग्ना पूरी तरह जाग चुकी थी। पंचा की ओर एक बार नजर डालकर मीठी हँसी हँसते हुए उसने पूछा, ‘‘हाँ तू क्या कह रहा था ?’’
चौंककर पंचा ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘कुछ नहीं।’’
वह काफी देर तक खामोंश बैठा रहा। फिर अचानक उसने पूछा, ‘‘तेरा नाम माँग्ना क्यों पड़ा रे ?’’
माँग्ना चिढ़ गयी। आधी रात को नींद से जगाकर साले को करने के लिए और कोई बात नहीं सूझी। वह बोली, ‘‘तेरा नाम पंचा क्यों है रे ?’’
‘‘बाप ने रखा था इसलिए...’’शरमाते हुए पंचा ने कहा। माँग्ना बोली, ‘‘मेरा भी ऐसा ही है ।’’
निरूपाय हो पंचा उठ खड़ा हुआ।

अपने दाँतों से होठों को दबा माँग्ना मुस्कुरा दी। फिर अचानक वह उठ बैठी और पंचा का हाथ पकड़कर उसे खींचकर अपने पास बिठा लिया। बोली, ‘‘मैं माँ को माँगना (मुफ्त) में मिली थी न, इसीलिए उसने मेरा नाम रखा था माँग्ना।’’

पंचा की हिम्मत थोड़ी बढ़ गयी। वह बोला, ‘‘यहाँ पर तो खासी गर्मी है।’’
क्या हुआ, तुम्हारी अभिरूचि को खटक रहा है ? यहाँ की यह छोटी-सी पृथ्वी क्या घृणित मालूम हो रही है ? अपने मन को थोड़ा सजीव बनाओ, फिर तुम देखोगे-यह छोटी सी दुनिया इन लोगों के लिए तुम्हारी पृथ्वी से कम आकर्षक नहीं है। जाड़ों की रातों की गर्मी में उन्हें भी आराम और आनन्द प्राप्त हो जाता है। इनके आसमान में भी उगता है चाँद, जो चाँद तुम्हारे सिरहाने इन्द्रनीलि1 का उजाला ढाल देता है। असंख्य तारों से भरे आसमान की ओर देख ये लोग भी रोमांच का अनुभव करते हैं। लेकिन तुम्हारी तरह आलस के वशीभूत हो हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रह पाते। पूरब के क्षितिज पर रूपहली किरण के उजाले की चमक से पहले ही ये लोग उठ जाते हैं।

बस का हॉर्न बज रहा था।
जल्दी से सब लोग उठ गये। हथेली से आँखें मलने लगे। अँधेरा तब भी मिटा नहीं था। वे लोग चीखते हल्ला मचाते बाहर निकल आये। दोनों ड्राइवर मोटे कम्बल के कोट से बदन ढँके अपनी-अपनी गाड़ियों में बैठे हुए थे। मफलर से उन्होंने कान और सिर को ढँक रखा था। कोट की लम्बी आस्तीन में से दो उँगलियाँ निकालकर वे बीड़ी के कश खींच रहे थे। इधर तिवारी और बंगाली बाबू जवाहर भी आ पहुँचे थे।
रजिस्टर से नाम मिलान कर एक के बाद एक डेढ़ सौ कंकाल-सी परछाइयों को उन्होंने बस में चढ़ा दिया। अपने शरीर झटकार कर दोनों बसों ने सफर शुरू किया। डामर की लम्बी सड़क पर शहर की ओर दोनों बसें बढ़ चलीं।
भोर के धुँधलके में दूरवाले सहर में गैस-बत्तियों की कृतिम चाँदनी फैली हुई थी और बिजली के लट्टुओं की अजस्त्र रोशनी के बीच-बीच में दो टुकड़े नीलिमा के संकेत दिखाई दे जाते और रास्तों के मोड़ों पर सावधान करती लाल बत्तियाँ।

सड़क के किनारे निर्दिष्ट जगहों पर निशिचत संख्या में लोग उतर जाते। इस विराट शहर की तेज भीड़ के बीच, पार्कों, दुकानों के सामने, सिनेमाघरों और कॉलेजों के गेटों पर, मन्दिरों, दरगाहों पर मूलचन्द मारवाड़ी के डेढ सौ जीते-जागते मुद्रा-चुम्बक उतर जाते।
पिलुवा सोलह साल का हो चुका है। हालाँकि उसे देखकर लगता है कि ऐसे दस जाड़े भी उस पर से नहीं गुजरे हैं। सिर पर उसके लाल टोपी थी जो कूड़े-करकट की गन्दगी लगकर एक ओर से काली पड़ गयी थी। उसका ऊपरी होंठ कटा हुआ था, जिसे वह जीभ से लगातार चाटता रहता। पिलुआ सबसे पहले उतरता। उसके साथ चार पहियोंवाली लकड़ी की एक ट्रॉली रहती, उस पर मांस का एक सजीव लोंदा बैठा या खड़ा रहता-बड़ा-सा सिर, चौड़े कन्धे और सीना भी किसी कसरत करनवाले-जैसा। लेकिन बस, वहीं तक। कमर के नीचे से लेकर पैरों तक का हिस्सा पतला और कमजोर था। पाँच माह के बच्चे से भी पलते पैर थे उसके। लकवा या फिर किसी और वजह से उसका निचला धड़ पूरी तरह सुन्न हो चुका
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1. नीलकान्त मणि

था इसलिए उस जीव को लकडी की ट्रॉली पर बैठाकर पिलुवा गली-गली घूमता। एक करूण स्वर में चीखते हुए पिलुआ भीख माँगता।

शहर के कलेजे के बीचोबीच सबसे पॉश इलाके में माँग्ना अपनी देह के आकर्षण को पसारकर खड़ी रहती। रूखन, भीखूराम, ताहेर, पंचा-इन सबकी एक-एक तयशुदा जगह थी। सनका, रावती, सविया-उसकी भी तयशुदा जगहें थीं। सभी भीख माँगते। कोई कानी आँखें और टूटे पैर दिखाता तो कोई चमक भरी आँखें और दमकता चेहरा दिखाता।

सीधू दफ्तरी की गली में मूलचन्द मारवाड़ी की एक सराय थी। जब दिन का सूरज आसमान के बीचोबीच पहुँच जाता या फिर पश्चिम के क्षितिज में लुढ़क पड़ता, तब उनके खाने का वक्त होता। और एक-एक कर वे लोग सराय में एकत्र होने लगते। गले में लटकता नम्बर का बिल्ला दिखाने पर उन्हें दाल-भात नसीब होता।

सराय में खाना खाकर वे लोग फिर अपनी तयशुदा जगहों पर लौट जाते। रात दस बजे तक वे लोग भीख माँगते। फिर उनकी वही बस तयशुदा जगहों पर खड़ी हो हार्न बजाती। वे लोग पहले से तैयार रहते। बस तीन बार हार्न बजाती। जिन लोगों को खबर नहीं होती, वे उस दिन पीछे छूट जाते, बस उस दिन उनका और इन्तजार नहीं करती।

यही वजह थी कि उस दिन पिलुवा पीछे रह गया। उस दिन वह बस नहीं पकड़ सका। फुटपाथ के पास एक हलवाई की दुकान की बड़ी भट्ठी तब तक लगभग बुझ-सी गयी थी। पिलुवा ने हाथ से बिखरी राख को टटोलकर देखा।...नहीं, हाथ-पैर झुलसने का डर नहीं था। उसने सोचा, भट्ठी के मुँह के पास आराम से कुत्ते के माफिक कुण्डली मारकर सोया जा सकता है। उसने उस मांस के सजीव लोंदे और उसकी ट्रॉली को खींचकर बरामदे पर चढ़ा दिया, फिर लेटकर अगले दिन तिवारी से प्राप्त होनेवाले थप्पड़ों के आतंक का अनुभव करने लगा। किस बुरे मुहूर्त में उसे बायस्कोप का नशा चढ़ा था-पासवाले बायस्कोप का नशा...! एक पार्क के कोने में चोरी के पैसे उसने इतने दिनों से जमा कर रखे थे। आज कुछ आने जमा देख, फिल्म देखने गया था पिलुवा और इसी वजह से उसकी बस छूट गयी।

पर्दे की कहानी अब भी उसके दिमाग में घूम रही थी। उससे एक-आध साल बड़े लड़के ने क्या गजब की बहादुरी दिखायी थी ! उसने बम से एक पुल को उड़ा दिया, एक ट्रेन लूटी, तिमंजले से छलाँग लगायी और बूढ़े का खून कर उसकी बेटी को ले भागा। शाबाश, शबाश....। सब लोगों के साथ पिलुवा ने भी ताली बजाई थी।
उनमे से पंचा को भी बयस्कोप का नशा चढ़ा था।

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