जीवनी/आत्मकथा >> विश्व प्रसिद्ध कवि साहित्यकार विश्व प्रसिद्ध कवि साहित्यकारगंगा प्रसाद शर्मा
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कलम के अनूठे खिलाड़ियों की जीवन गाथा...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रकाशकीय
साहित्य यदि समाज का दर्पण है तो साहित्यकार बिखरे बालू के कणों को संजोकर
उसे दर्पण का रूप देने वाला एक कुशल दर्पणकार। कवि-साहित्यकारों को
सामाजिक संदर्भों में अक्सर नकारा माना जाता रहा है, जबकि वे कोने-कोने
में छिप कर बैठे सूक्ष्म रोगाणुओं को पकड़कर लोगों के सामने उजागर करते
तथा उनसे मुक्त होने के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष उपाय भी सुझाते हैं। इसी
मायने में कलम की ताकत तलवार पर भारी पड़ती है। इतिहास में सामाजिक
क्रांतियों पर जब दृष्टि डालें, तो यह बात और भी ज्यादा स्पष्ट हो जाती
है।
इसीलिए इस संकलन को तैयार करते समय हम जानते हैं मानव की दृष्टि से जब समूचे जगत की समस्याओं का निराकरण किया जाता है, तब वहां भी सभी भौगोलिक-सामाजिक सीमाएं टूट जाती हैं। इसीलिए इस संकलन को तैयार करते समय प्रयास किया गया है कि बिना सीमा में उलझे उन कवि-साहित्यकारों के बारे में संक्षिप्त लेकिन सटीक जानकारी दी जाए जिन्होंने अपनी विशिष्ट विधा से कलम-साधना को सींचा है।
ऐसा करते समय हम जानते हैं कि हमसे कई स्थानों पर चूक हुई होगी—कवि-साहित्यकारों के चुनाव में, उनसे संबंधित दी गई जानकारी के बाबत तथा चित्रों के बारे में, साथ ही इस विषय में प्रबुद्ध पाठकों का सहयोग हमें प्राप्त होगा, हमें ऐसा भी विश्वास है। इसलिए आप अपने सुझाव लिखित रूप से भेजें, उन्हें यथोचित स्थान दिया जाएगा। प्रत्येक दृष्टि से पुस्तक उपयोगी बने, इसके प्रति हम कृतसंकल्प हैं।
इसीलिए इस संकलन को तैयार करते समय हम जानते हैं मानव की दृष्टि से जब समूचे जगत की समस्याओं का निराकरण किया जाता है, तब वहां भी सभी भौगोलिक-सामाजिक सीमाएं टूट जाती हैं। इसीलिए इस संकलन को तैयार करते समय प्रयास किया गया है कि बिना सीमा में उलझे उन कवि-साहित्यकारों के बारे में संक्षिप्त लेकिन सटीक जानकारी दी जाए जिन्होंने अपनी विशिष्ट विधा से कलम-साधना को सींचा है।
ऐसा करते समय हम जानते हैं कि हमसे कई स्थानों पर चूक हुई होगी—कवि-साहित्यकारों के चुनाव में, उनसे संबंधित दी गई जानकारी के बाबत तथा चित्रों के बारे में, साथ ही इस विषय में प्रबुद्ध पाठकों का सहयोग हमें प्राप्त होगा, हमें ऐसा भी विश्वास है। इसलिए आप अपने सुझाव लिखित रूप से भेजें, उन्हें यथोचित स्थान दिया जाएगा। प्रत्येक दृष्टि से पुस्तक उपयोगी बने, इसके प्रति हम कृतसंकल्प हैं।
अकबर इलाहाबादी
1846-1921
मयखाना-ए-रिफार्म की चिकनी जमीन पर
वाइज का खानदान भी आखिर फिसल गया
कैसी नमाज, बार में नाचो जनाब शेख
तुमको खबर नहीं जमाना बदल गया
वाइज का खानदान भी आखिर फिसल गया
कैसी नमाज, बार में नाचो जनाब शेख
तुमको खबर नहीं जमाना बदल गया
अकबर इलाहाबादी विद्रोही स्वभाव के थे। वे रूढ़िवादिता एवं धार्मिक ढोंग
के सख्त खिलाफ थे और अपने शेरों में ऐसी प्रवृत्तियों पर तीखा व्यंग्य
(तंज) करते थे। उन्होंने 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम देखा था और फिर
गांधीजी के नेतृत्व में छिड़े स्वाधीनता आंदोलन के भी गवाह रहे। उनका असली
नाम सैयद हुसैन था। उनका जन्म 16 नवंबर, 1846 में इलाहाबाद में हुआ था। वह
अदालत में एक छोटे मुजरिम थे, लेकिन बाद में कानून का अच्छा ज्ञान प्राप्त
किया और सेशन जज के रूप में रिटायर हुए। इलाहाबाद में ही 9 सितंबर, 1921
को उनकी मृत्यु हो गई।
अमीर खुसरो
1259-1324
अमीर खुसरो उपनाम वाले अब्दुल हसन का जन्म 1259 में एटा जिले के पटियाली
ग्राम में हुआ था। अमीर खुसरो के पिता सैफुद्दीन सुलतान इल्तुतमिस के
दरबार में सरदार थे। इनके पिता 1264 में युद्ध करते-करते वीरगति को
प्राप्त हो गए थे। पिता निधन के बाद आपका पालन-पोषण और आरंभिक शिक्षा आपके
विद्वान नानाश्री स्वादुलमुल्क के यहां संभव हो सकी। आप 12 वर्ष की आयु से
ही काव्य रचना करने लगे थे। तत्कालीन विद्वान खुसरो की आयु को देखते हुए
इनकी प्रतिभा और सारपूर्ण रचनाओं की सराहना करते नहीं थकते थे। खुसरो ने
सर्वप्रथम प्रसिद्ध सुलतान गयासुद्दीन बलबन के बेटे मुहम्मद सुलतान के
राजदरबार में नौकरी की थी। मुहम्मद सुल्तान भी काव्य प्रेमी थे।
खुसरो का अंतिम दरबार गयासुद्दीन तुगलक का था। इसी दरबार में रहकर खुसरो ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘तुगलकनामा’ लिखी थी। 1324 में अमीर खुसरो अपने धार्मिक गुरु निजाम्मुद्दीन औलिया के निधन का समाचार सुनकर अत्यंत आहत हुए। कहा जाता है कि खुसरो ने ‘सब कुछ लुटाकर’ गुरु की कब्र के पास जाकर ‘गोरी सोवे सेज पै’ मुख पर डारे केस। चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुं देस।।’ दोहा लिखकर अंतिम सांस ली। अमीर खुसरो का निधन होने पर उनको भी ‘धर्मगुरु’ की कब्र के पास ही दफनाया गया।
अमीर खुसरो ने हिंदी साहित्य, संगीत भाषा विज्ञान के क्षेत्र में अनेक नए प्रयोग करके अपनी विद्वता का परिचय दिया। अमीर खुसरो के गीतों और पहेलियों से संबंधित 99 ग्रंथों का उल्लेख मिलता है, किंतु अब उनके द्वारा लिखित केवल 22 ग्रंथ ही उपलब्ध हैं। आप संगीतकार और गायक भी थे। उनकी पहेलियां बहुचर्चित हैं। आपकी सारगर्भित पहेलियां आपकी लोकप्रियता को शिखर पर पहुंचाने में पूर्ण समर्थ रही हैं।
खुसरो का अंतिम दरबार गयासुद्दीन तुगलक का था। इसी दरबार में रहकर खुसरो ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘तुगलकनामा’ लिखी थी। 1324 में अमीर खुसरो अपने धार्मिक गुरु निजाम्मुद्दीन औलिया के निधन का समाचार सुनकर अत्यंत आहत हुए। कहा जाता है कि खुसरो ने ‘सब कुछ लुटाकर’ गुरु की कब्र के पास जाकर ‘गोरी सोवे सेज पै’ मुख पर डारे केस। चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुं देस।।’ दोहा लिखकर अंतिम सांस ली। अमीर खुसरो का निधन होने पर उनको भी ‘धर्मगुरु’ की कब्र के पास ही दफनाया गया।
अमीर खुसरो ने हिंदी साहित्य, संगीत भाषा विज्ञान के क्षेत्र में अनेक नए प्रयोग करके अपनी विद्वता का परिचय दिया। अमीर खुसरो के गीतों और पहेलियों से संबंधित 99 ग्रंथों का उल्लेख मिलता है, किंतु अब उनके द्वारा लिखित केवल 22 ग्रंथ ही उपलब्ध हैं। आप संगीतकार और गायक भी थे। उनकी पहेलियां बहुचर्चित हैं। आपकी सारगर्भित पहेलियां आपकी लोकप्रियता को शिखर पर पहुंचाने में पूर्ण समर्थ रही हैं।
अयोध्या सिंह उपाध्याय (हरिऔध)
1865-1947
कहें क्या बात आंखों की, चाल चलती हैं मनमानी
सदा पानी में डूबी रह, नहीं रह सकती हैं पानी
लगन है रोग या जलन, किसी को कब यह बतलाया
जल भरा रहता है उनमें, पर उन्हें प्यासी ही पाया
सदा पानी में डूबी रह, नहीं रह सकती हैं पानी
लगन है रोग या जलन, किसी को कब यह बतलाया
जल भरा रहता है उनमें, पर उन्हें प्यासी ही पाया
अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की
बहुचर्चित—कृति
‘प्रिय प्रवास’ खड़ी बोली का पहला महाकाव्य है।
साहित्य के
तीन महत्त्वपूर्ण—भारतेंदु, द्विवेदी व छायावादी-युगों में फैले
विस्तृत रचनाकाल के कारण वे हिंदी-कविता के विकास में नींव के पत्थर माने
जाते हैं।
हरिऔध जी ने नाटक व उपन्यास लिखे, आलोचनात्मक लेखन किया और बाल-साहित्य भी रचा किंतु ख्यात कवि के रूप में हुए। उन्होंने संस्कृति-छंदों का हिंदी में सफलतम प्रयोग किया।
आम बोल-चाल में रची हरिऔध जी की रचनाएं—‘चोखे चौपदे’ व ‘चुभते चौपदे’ उर्दू जुबान की मुहावरे की शक्ति को कुशलता से उकेरती है।
उनका जन्म आजमगढ़ उ.प्र. के निजामाबाद में 15 अप्रैल, 1865 को हुआ। 16 मार्च, 1947 को अयोध्यासिंह उपाध्याय ने इस दुनिया से विदा ली।
हरिऔध जी ने नाटक व उपन्यास लिखे, आलोचनात्मक लेखन किया और बाल-साहित्य भी रचा किंतु ख्यात कवि के रूप में हुए। उन्होंने संस्कृति-छंदों का हिंदी में सफलतम प्रयोग किया।
आम बोल-चाल में रची हरिऔध जी की रचनाएं—‘चोखे चौपदे’ व ‘चुभते चौपदे’ उर्दू जुबान की मुहावरे की शक्ति को कुशलता से उकेरती है।
उनका जन्म आजमगढ़ उ.प्र. के निजामाबाद में 15 अप्रैल, 1865 को हुआ। 16 मार्च, 1947 को अयोध्यासिंह उपाध्याय ने इस दुनिया से विदा ली।
अल्लामा इकबाल
1875-1938
उर्दू और फारसी के बेमिशाल शायर इकबाल स्यालकोट में पैदा हुए थे।
पुरखे कश्मीरी ब्राह्मण थे। स्यालकोट से एफ.ए. के दौरान मौलवी सैयद मीर हसन से साहित्य के प्रति अनुराग जागा तो लाहौर में प्रो. आर्नाल्ड जैसे दार्शनिक से अमूल्य ज्ञान मिला। स्कूली जीवन में ही इकबाल अपनी रचनाएं संशोधन-परिमार्जन के लिए डाक से देहलवी को भेजने लगे थे, जल्द ही गुरु ने पाया कि शिष्य हुनरमंद है और रचनाएं संशोधन की मोहताज नहीं।
फिलासफी में एम.ए. के बाद इकबाल ने कुछ अर्सा प्रोफेसरी की, मगर अप्रैल, 1901 में ‘मखजन’ में उनकी नज्म ‘हिमालय’ क्या छपी, उर्दू अदब ने बलैयां ले उन्हें गोद में उठा लिया। उन्हीं दिनों उन्होंने ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ‘और ‘वतन की फिक्र कर नादां’ जैसे देशप्रेम व प्राकृतिक सौंदर्य की तथा नानक, चिश्ती, राम और रामतीर्थ के प्रति प्रशंसात्मक उद्गारों की कविताएं लिखीं।
सन् 1905 में उच्च शिक्षा के लिए यूरोप से नया क्षितिज खुला और नया नजरिया विकसित हुआ। अब उनके लिए समूचा ब्रह्मांड फलक था और मकसद सच्चाई की निर्भीक तलाश। अपनी शायरी में उन्होंने दुनिया, दुनिया से आगे सितारों और जहान को समेट लिया। वहां इनकलाबी खयालात थे और उस खेत के खोशयेगंदुम को जलाने की बात थी, जिससे दहंका को रोटी मयस्सर नहीं हो।
इकबाल की शायरी हिम्मत और हौसले की शायरी है। वे इंसान को शाहीन बनने, खुदी को बुलंद करने और ममोले को शाहबाज से लड़ने को ललकारते हैं। उनका शे’र : हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है, उन पर सर्वाधिक सटीक है। बांगे दरा, बाले जिगरी, जर्बे कलीम, अरमुगाने हिजाज—इनकी कुछ प्रमुख कृतियां हैं।
पुरखे कश्मीरी ब्राह्मण थे। स्यालकोट से एफ.ए. के दौरान मौलवी सैयद मीर हसन से साहित्य के प्रति अनुराग जागा तो लाहौर में प्रो. आर्नाल्ड जैसे दार्शनिक से अमूल्य ज्ञान मिला। स्कूली जीवन में ही इकबाल अपनी रचनाएं संशोधन-परिमार्जन के लिए डाक से देहलवी को भेजने लगे थे, जल्द ही गुरु ने पाया कि शिष्य हुनरमंद है और रचनाएं संशोधन की मोहताज नहीं।
फिलासफी में एम.ए. के बाद इकबाल ने कुछ अर्सा प्रोफेसरी की, मगर अप्रैल, 1901 में ‘मखजन’ में उनकी नज्म ‘हिमालय’ क्या छपी, उर्दू अदब ने बलैयां ले उन्हें गोद में उठा लिया। उन्हीं दिनों उन्होंने ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ‘और ‘वतन की फिक्र कर नादां’ जैसे देशप्रेम व प्राकृतिक सौंदर्य की तथा नानक, चिश्ती, राम और रामतीर्थ के प्रति प्रशंसात्मक उद्गारों की कविताएं लिखीं।
सन् 1905 में उच्च शिक्षा के लिए यूरोप से नया क्षितिज खुला और नया नजरिया विकसित हुआ। अब उनके लिए समूचा ब्रह्मांड फलक था और मकसद सच्चाई की निर्भीक तलाश। अपनी शायरी में उन्होंने दुनिया, दुनिया से आगे सितारों और जहान को समेट लिया। वहां इनकलाबी खयालात थे और उस खेत के खोशयेगंदुम को जलाने की बात थी, जिससे दहंका को रोटी मयस्सर नहीं हो।
इकबाल की शायरी हिम्मत और हौसले की शायरी है। वे इंसान को शाहीन बनने, खुदी को बुलंद करने और ममोले को शाहबाज से लड़ने को ललकारते हैं। उनका शे’र : हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है, उन पर सर्वाधिक सटीक है। बांगे दरा, बाले जिगरी, जर्बे कलीम, अरमुगाने हिजाज—इनकी कुछ प्रमुख कृतियां हैं।
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