लोगों की राय

नारी विमर्श >> एक कतरा धूप

एक कतरा धूप

सरला अग्रवाल

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :154
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5281
आईएसबीएन :0000

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

326 पाठक हैं

एक श्रेष्ठतम उपन्यास...

Ek Katra Dhoop

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘तुमने ही मुझे संबल प्रदान किया, मेरे अंधेरे जीवन में आशा का दीप जलाकर। अब तुम अकेले ही सारा विष क्यों पियो ? मैं समाज के सम्मुख तुम्हें विधिवत् अपनी पत्नी बनाऊँगा।’’
‘‘अपने बच्चों का भविष्य संवारने के लिए केवल मां ही तप करती है। मां के तप की अग्नि में तप कर ही बच्चे कुंदन बनते हैं। मां ही तो अपने आंचल की ओट में लेकर उन्हें वर्षा और घाम से बचाए रखती है।’’

‘‘नहीं गौतम, यही मुट्ठी भर सुख ही तो मेरे जीवन की धरोहर है। इसी के सहारे मैं अपने जीवन के शेष दिन भी काट लूंगी। मुझमें यह समार्थ्य नहीं कि यह पावन सिंदूर अपनी मांग में सजा सकूं, ‘मुझे क्षमा करना’ कहते-कहते महिमा के नेत्रों से अश्रु टप-टप टपकने लगे थे।
‘तुम समाज से इतनी त्रस्त और भयभीत क्यों हो ?’
‘भयभीत नहीं हूं, अनुशासित और मर्यादित हूं।’ महिमा ने कहा था, ‘हर समाज के कुछ नियम-कायदे होते हैं गौतम।

इसी उपन्यास से

1

कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी, सुबह मुँह अंधेरे घड़ी का अलार्म घनघना उठा...बिस्तर पर लेटे-लेटे ही पवन बाबू ने बच्चों को उठने के लिए आवाज लगा दी।

सबसे पहले महिमा उठ बैठी। वह टॉयलेट से निपट कर पापा के लिए एक कप चाय बना लाई। सब भाई-बहिनों को स्कूल जाना था, साथ ही उसे स्वयं भी। रसोई घर में जाकर वह सबके लिए नाश्ता और स्कूल ले जाने के लिए टिफिन तैयार करने में जुट गयी।

माँ के देहावसान के पश्चात् से घर-परिवार एवं छोटे-भाई बहिनों की देख-रेख का सारा जिम्मा उसी पर आ पड़ा था। वही भाई-बहिनों में सबसे बड़ी थी, हालाँकि उस समय वह केवल बारह-तेरह वर्ष की ही रही होगी।
‘महिमा दी, मेरे जूते नहीं मिल रहे, जल्दी ढूंढ़ कर दो, मेरा रिक्शा आने वाला है।’ घबराये हुए नन्हे संजू ने रो-रोकर घर भर दिया।
‘अरे दुष्ट ! रो क्यों रहा है फिर ? अभी देती हूँ, रात को ढूंढ़ कर रखने थे न ?’ रसोईघर में नाश्ते के लिए परांठे बनाती महिमा ने उठते हुए जोर से कहा।

पूजा नहा धोकर बाल बनाती हुई आई और एक तश्तरी अल्मारी से निकाल कर अपने लिए दो परांठे और भुने आलू की मसालेदार सब्जी रखते हुए उसने पूछा, ‘महिमा दी मेरा टिफिन लगा दिया तुमने ?’ ‘हाँ लगा दिया ले, पर कभी-कभी खुद भी लगा लिया करो, मुझे भी तो स्कूल के लिए तैयार होना है, यह सोचा है ?’ छोटा सा कटोरदान उसके हाथ में थमाते हुए महिमा ने उत्तर दिया और चार टिफिन मेज पर रखकर वह शीघ्रता से स्नानागृह में घुस गई। तभी मीता तैयार होकर आई, उसने झटपट पांच गिलासों में एक-एक चम्मच चीनी डाली और दूध भर कर मेज पर रख दिये फिर गुहार लगाई-‘चलो, चलो सब जने, दूध आ गया है।’ ‘पापा, आप भी नाश्ता कर लो,’ महिमा ने आकर पवन बाबू के हाथ में नाश्ते की प्लेट थमा दी।

संध्या का झुटपुटा हो चला था। पवन बाबू के ड्राइंग रूम में नित्य की भाँति ताश पार्टी जमी थी। पत्नी के देहावसान के बाद से पवन बाबू का ताश-खेल पहले से कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था। उनका दिन का समय कामकाज में व्यतीत हो जाता, पर शाम काटनी उन्हें बड़ी भारी पड़ती। किससे बोलें-बतियायें, औरों के घर जाने की उनकी आदत नहीं थी। अकेले बैठते तो मन घूम-फिर कर विगत की स्मृतियों में खोने लगता। इससे उन्हें ड्रिप्रेशन सा महसूस होता। पत्नी के सामने भी ताश खेलते थे, पर उसके अंकुश में नियन्त्रण बना रहता था। अब कौन रोकने-टोकने वाला था ?
नित्य संध्या होते ही ताश के साथी उन्हें आ घेरते, पत्ते बंटने लगते और रुपयों की गड्डियां खुलने लगतीं।
कुछ देर ताश खेलने के पश्चात् पवन बाबू ने आवाज लगाई, ‘पूजा, बिटिया पांच कप चाय तो ला, साथ में कुछ नमकीन वगैरहा भी लाना।’

बड़ी देर तक कोई स्वर वापस उभर कर न आने पर पवन बाबू की गोदी में बैठी टिन्नी उठकर अन्दर गई। ‘पूजा दी ! ओ पूजा दी ! सुनो तो, पापा चाय मंगवा रहे हैं।’ ‘होमवर्क नहीं करूं क्या ? कल फिर स्कूल में पनिश्मेंट लूं ?’ पूजा बुरी तरह खीज उठी।

‘एक तुझे ही तो देश का प्रधानमंत्री बनना है, हैं न ?’ महिमा खिलखिला कर हँस पड़ी, फिर जोर से बोली-‘‘चल जाकर चाय बना। हम सबके लिए भी बनाना, समझीं।’’
पूजा कॉपी बस्ते में रखने लगी, पर रखते-रखते भी संजू ने खींच कर फाड़ डाली। एक झन्नाटेदार तमाचा पूजा ने संजू के मुंह पर दे मारा, ‘प्यार से समझता ही नहीं है यह लड़का, देखा होमवर्क की कॉपी फाड़ डाली। चल भाग यहां से, वरना और मारूंगी।’

संजू रोता गया और गया पापा से जा चिपका। वह उस समय जीत रहे थे तो उसे प्यार से अपने पास बिठा लिया। नहीं तो डाँट कर भगा देते। वैसे पवन बाबू कभी बच्चों को अकारण मारते-पीटते या डाँटते नहीं।
अपने से छोटे भाई-बहिनों के समस्त कार्य के साथ-साथ घर की पूरी जिम्मेदारी महिमा पर ही थी। काम करते-करते बेचारी तंग आ जाती। गुस्सा आता तो खूब गालियां निकालती, स्वयं को कोसती, रोती, झींकतीं। पवन बाबू हर समय काम में उसका हाथ बंटाते, फिर भी हर समय उसके हाथ किसी न किसी काम में उलझे रहते। कभी-कभी उसे लगता कि घर के कामों का यह अन्तहीन सिलसिला कभी खत्म होने वाला नहीं है। घर में नौकर-महरी का भी ऐसा ही हाल था, कभी होते कभी न भी होते। हर समय की हर बात की जिम्मेदारी तो उसी की बनी रहती। पत्नी के निधन के पश्चात् बच्चों और घर की देखभाल में अधिकतर समय देते रहने के कारण पवन बाबू अपने ठेकेदारी के कामों में अधिक ध्यान नहीं दे पाये। कार्य नौकरों और मुंशी पर छोड़ देने के कारण इस बार उन्हें ठेकेदारी में काफी घाटा हुआ, कर्ज लेने की नौबत आ गई।

पवन बाबू को बच्चों से बेहद स्नेह था। मातृ-विहीन मातृ-स्नेह से वंचित बच्चों को वे माता-पिता दोनों का स्नेह वात्सल्य देकर पाल रहे थे। इस कारण बच्चों की हर फरमाइश को वह पूर्ण करते। इस दौरे में आर्थिक तंगी उन्हें तोड़ डालती।
महिमा घर के कामों से जैसे-तैसे समय निकाल कर पढ़ाई करती। समय से स्कूल पहुंचने का प्रयास करती। फिर भी अक्सर देर हो जाती। उस दिन महिमा का टैस्ट था। सुबह से जल्दी-जल्दी भाग दौड़ करके काम निबटाते निबटाते भी स्कूल का समय हो गया। सैंडिल पहिन कर भागती-दौड़ती हाँफती हुई स्कूल जा रही थी। गौतम सामने से स्कूटर पर आ रहा था उसने महिमा को देखा तो उसे आवाज लगाकर बोला, ‘अरे आज इतनी देर हो गई महिमा ? चल पीछे बैठ, जल्दी कर। मैं झट से स्कूटर पर छोड़ कर आता हूँ स्कूल तुझे।

महिमा झट से स्कूटर पर चढ़ कर गौतम के पीछे बैठ गई। दो मिनट में ही वह स्कूल पहुंच गई। उसके तनावग्रस्त भयभीत चेहरे पर फूलों जैसी मासूम सलज्ज मुस्कान तैर आई। उस दिन वह बड़ी कृतज्ञ हो आई थी गौतम की। उन दिनों वह लगभग नित्य ही घर पर पापा के साथ ताश खेलने आया करते थे। पर इस प्रकार उसका उनसे आमना-सामना पहली बार ही हुआ था।

फिर तो अक्सर ही गौतम उसे स्कूल पहुँचाने लगे थे। रास्ते में वह कभी उससे दो बात भी हँस कर, कर लेते तो महिमा को पूरे दिन उनका हँसता मुस्कराता सुन्दर चेहरा आंखों के सामने घूमकर आनन्दित करता रहता। उसका वह दिन अच्छा व्यतीत होता। उस दिन उसे अपने चारों ओर शीतल सुगन्धित पवन से सुवासित झोंके आते महसूस होते।
एक दिन दोपहर को महिमा जब स्कूल से घर पहुंची तो देखा रसोई में परांठों का कटोरदान खाली पड़ा है। महिमा हैरान ! सारे परांठे गये कहाँ सुबह सबको टिफिन देकर भेजा था। दोपहर के खाने के लिए भी पूजा और उसने मिलकर परांठे सेंक कर रख दिये थे, ताकि स्कूल से घर वापस आते ही उन्हें चौके में न घुसना पड़े। उस दिन आधे दिन का स्कूल था। घर आते ही सब बहिनों ने शोर मचाना आरंभ कर दिया-‘‘दीदी भूख लगी है, खाना दो।’’
महिमा और पूजा को कटोरदान खाली देखकर बड़ी जोर का गुस्सा आ गया। ‘बोलते क्यों नहीं संजू, टिन्नी-मिन्नी ! क्या भूत आकर परांठे खा गये या कटोरदान ही निगल गया ?’ उस दिन शनिवार था। शनिवार को तीनों छोटे बच्चों की छुट्टी रहती थी। तीनों बच्चे चुप, मानो उन्हें सांप सूंघ गया हो।

‘अरे कुछ फूटो भी ?’ पूजा चिल्लाई।
‘यही साला बदमाश है हमारे घर में, सबसे छोटा है पर है सबसे खोटा....’ महिमा ने संजू को पकड़ कर उसके दो तमाचे जड़ दिये। फिर उसे कस कर पकड़ कर, अपने पास उसका मुँह ले आई और उसकी आंखों में अपनी आंखें डाल कर जोर से पूछा-‘बता न ? बता क्या किया तुम लोगों ने परांठों का’ पकड़ कर दो तमाचे और जड़ दिये महिमा ने उसके गालों पर ‘बता...मैं आज पूछ कर ही तुझे छोड़ूंगी’
‘खा लिये।’ संजू ने बड़े भोलेपन से कहा।
‘अरे इतने सारे परांठे तूने अकेले ही खा लिये ?’ न न, मेरे साथ टिन्नी-मिन्नी ने भी तो खाये थे’ वह डरता-सहमता कह गया।

‘राक्षस है पूरा राक्षस !’ महिमा खीजते-खीजते रो पड़ी, ‘अब फिर चूल्हा फूंको ! हमारी किस्मत में तो बस यही लिखा है ! रात-दिन यही...।’
महिमा का वाक्य पूरा भी न हुआ था कि उसी समय गौतम न जाने कहाँ से देवदूत से अवतरित हो गये। आते ही बोले...‘क्यों रो रही है ? ठहर, अभी बाजार से तुम लोगों के लिए पूरियां और आलू की भाजी लेकर आता हूँ, तुम लोग कपड़े बदलो तब तक स्कूल के।’ चुटकी बजाते, हँसते वह आँधी की भाँति आये और तूफान की भाँति चले गये।
सचमुच ही आधे घण्टे के अन्दर गौतम चाचा खूब सारी गरमा-गरम पूरियां और सब्जी लेकर आ गये थे। तब तक पापा भी काम से निबट कर, लंच के लिए घर आ गये। पापा को महिमा ने उस दिन की सब बातें बतायीं तो वे चुप ही रहे, कहते भी क्या ? उन्होंने गौतम को भी साथ में खाने के लिए रोका। पूजा व महिमा ने खुशी-खुशी सबकी प्लेटें लगा लीं, साथ में थोड़ा नमकीन और निकाल लिया। पूजा चाय बना लाई। टिन्नी डरते-डरते आम का अचार निकाल कर लाई, तो सब हँस पड़े।

सत्रहवां साल पूरा करते ही पापा के महिमा के विवाह की चिन्ता सताने लगी। जो भी घर में आता उसी से उसके लिए अच्छा लड़का बताने का अनुरोध करते। कभी-कभी महिमा उनकी इस आदत से नाराज हो जाती-‘घर से धक्का दे दो न पापा, इतनी बुरी लगती हूं आपको मैं।’
पवन बाबू पुत्री को गले से लगा लेते, ‘बेटा ऐसा क्यों समझती है तू, यह तो मेरा कर्त्तव्य है।’
‘तो फिर ? हर ऐरे-गैरे के सामने मुझे अपनानित करोगे ?’
‘इसमें तेरा अपमान कैसे हुआ ?’
‘लो हुआ कैसे नहीं ? जैसे मेरी उम्र निकली जा रही हो..। जैसे मेरी शादी होती ही न हो..बस !’ वह लज्जा गई। उसके गालों पर गुलाब खिल उठे। ‘अच्छा बाबा ! अब किसी से भी नहीं कहूँगा, अब तो खुश।’ पवन बाबू का हृदय अत्यन्त संवेदनशील था, बेटी का जी दुखाकर वे स्वयं भी दुखी होते।

महिमा देखने में अतीव सुन्दरी थी। लम्बी, छरहरी एकसार देहयष्टि ! खिली धूप सा सुनहरा रंग, तीखे नाक-नक्श, झील जैसी गहरी बड़ी-बड़ी आँखें, गुलाब की पंखुड़ियों जैसे रसीले गुलाबी होंठ ! मुस्कान इतनी मोहक कि देखने वाला देखता ही रह जाये...बोलती तो लगता मानो गुलमोहर और हर सिंगार के पुष्प झर रहे हों। पहन ओढ़कर तो वह फिल्मों की प्रियदर्शनी नायिका सी लगती।
उन्हीं दिनों नगर में एक संबंधी के यहाँ विवाह में पवन बाबू का परिवार आमंत्रित था। वहां उनके एक अन्य संबंधी बम्बई से आये हुए थे। दूर के रिश्ते में सुमित्रा उनकी मामी लगती थीं। महिमा को देखते ही वह उस पर रीझ गईं। अपने पुत्र मोहित के लिए उन्हें महिमा बेहद पसन्द आई। मोहित भी विवाह में वहां आये हुए थे। सुमित्रा ने स्वयं आगे बढ़कर प्रसन्नतापूर्वक अपने पुत्र मोहित का परिचय पवन बाबू और महिमा से कराया। पवन बाबू को मोहित बहुत अच्छा लगा था। सुदर्शन सुशिक्षित और सुशील भी। घराना ऊंचा, सुसंस्कृत और धनी। सुमित्रा तो महिमा पर ऐसी लट्टू हुई कि बात उसी समय पक्की कर दी।

अगले दिन उन्हें बम्बई वापस जाना था। जाने से पूर्व पवन बाबू ने उन्हें दोपहर के खाने पर आमंत्रित किया था। पवन बाबू ने पारम्परिक रीति से लड़का रोक लिया और उन्होंने लड़की की गोद भर दी। इस प्रकार संबंध पर मोहर लग गई।
लड़के वाले विवाह शीघ्र करना चाहते थे। उसी समय उन्होंने पण्डित को बुलाकर तिथि निकलवाई। ढाई महीने के पश्चात् की तारीख निकली।
पवन बाबू ने सुमति को पत्र लिखकर बुलवा भेजा। सुमति पवन बाबू की मुंह बोली बहिन थीं। वह उनकी पत्नी की घनिष्ठ मित्र थीं। उनका मायका पास ही था ? पर विवाह इन्दौर में हुआ था। सुमति के कोई भाई नहीं था अतः आरंभ से ही वह पवन बाबू को अपना भाई मानकर राखी बाँधती आई थीं। महिमा की माँ से उनका बड़ा स्नेह था, वह उनके घरेलू कार्यों में भी काफी हाथ बंटाया करती थीं। विवाह के पश्चात वह इन्दौर रहने लगीं थी। पत्र पहुंचते ही सुमति वहां आ गईं और विवाह की तैयारियों में पवन बाबू का हाथ बंटाने लगीं।

लड़के वालों की कोई मांग न थी। इस कारण महिमा के विवाह का आनन्द कई गुना बढ़ गया। पवन बाबू ने अति उत्साहपूर्वक अपनी हैसियत से कहीं आगे बढ़कर विवाह में व्यय किया। उनके घर में यह प्रथम मांगलिक शुभ अवसर था। इसके अतिरिक्त उन्हें घर बैठ ही मन पसन्द घर-वर मिल गया था। सभी लोग महिमा और उनके भाग्य की सराहना कर रहे थे। विवाह अत्यन्त धूमधाम से संपन्न हुआ। पवन बाबू ने ढूँढ़-ढूँढ़ कर अपने दूर दराज के सभी नाते-रिश्तेदारों को इस अवसर पर आमंत्रित किया।

इतने अप्रत्याशित ढंग से शीघ्रता के साथ उसका विवाह हो जायेगा इसकी तो महिमा ने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। वह इस विवाह के लिए स्वयं को मानसिक रूप से तैयार भी न कर पाई थी। हर समय उसके मन में विचारों की भीड़ उथल-पुथल मचाती रहती। कभी अपने पापा का ध्यान आता। उसके जाने के बाद उनका जीवन कितना अकेला हो जायेगा...अभी तो वह अपने दुःख-सुख की सारी बातें उसे बता कर मन हल्का कर लेते हैं, फिर..। कभी छोटे-भाई बहिनों का ध्यान आता...। फिर गौतम का ? पिछले कई वर्षों से निरंतर वह महिमा की हर कठिनाई को चुटकी बजाते दूर करते आये हैं। कई बार वह हँसकर महिमा से अपने लिए कहते ‘थिंक आफ द डैविल एण्ड द डैविल इज हियर’, सोचते हुए उस समय भी महिमा मुस्करा दी। न जाने कौन सा जादू है गौतम में कि उनका क्षण भर के लिए सामने आना भी उसे ऐसा सुवासित कर जाता है कि वह अपना समस्त दुख-दर्द भूल कर तरोताजा हो जाती है। उसके आकर्षण की कशिश का अहसास अब उनसे दूर जाने की बात सोचकर उसके हृदय को तीव्रता से मथने लगा।

पापा से उसने कहा था कि अभी वे उसका विवाह न करें वह आगे पढ़ना चाहती है, ताकि अपने पैरों पर खड़ी हो सके। इससे अधिक और भी बहुत कुछ उसने उन्हें कहा था...पर पापा ने उसकी किसी भी बात को ध्यान से सुना ही कब ? मोहित के रूप-रंग परिवार और सम्पन्नता को पाना उन्हें स्वीकार न था।
विदाई के समय मोहित के साथ कार में बैठने से पूर्व गौतम ने विदा देते समय अत्यन्त प्रेरक शब्दों में उसे आगामी जीवन के लिए अपनी शुभकामनाएं और सीख दी। वह उसने सदा के लिए अपने पल्लू की गांठ में बांध ली थीं।

2


पवन बाबू के पिता कृष्ण कुमार उस नगर के प्रतिष्ठित बैरिस्टर थे, वे लन्दन से बैरिस्ट्री पास करके आये थे। अपने स्वयं के परिश्रम से उन्होंने अपनी कई कोठियां, मकान बाग और जमीनें वहाँ खरीद लीं थीं। अपने तीनों पुत्रों को उन्होंने उच्च शिक्षा दिलाई थी। पुत्र भी उन्हीं की भाँति मेधावी थे। उनका सबसे बड़ा पुत्र सुमन कुमार डाक्टर था।, पवन कुमार ने इन्जीनियरिंग पास की थी और छोटे पुत्र ने पिता का विषय अपना कर कानून की पढ़ाई की थी। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व जब उस समय के नवयुवक स्वतंत्रता की बलिवेदी में सर्वस्व न्यौछावर करते अपने प्राण हथेली पर धरे घूम रहे थे, पवन बाबू के पिता ने स्वयं को एवं अपने पुत्रों को इस आंधी से अलग-थलग ही रखा था। यूं वह कांग्रेस और गांधी जी के पूर्ण भक्त थे और पं. मदन मोहन मालवीय जी के सहयोगी रहे थे। अपने छोटे पुत्र रमण कुमार को उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ही शिक्षा दिलवाई थी। उनके परम मित्र और साथी उस समय पाश्चात्य रहन-सहन और सभ्यता अपनाकर ‘राय साहब’ और ‘राय बहादुर’ की उपाधियां प्राप्त कर ब्रिटिश प्रशासन के दाहिने हाथ बने हुए थे पर कृष्ण कुमार ने स्वयं को इस चाटुकारी से भी अलग रखा था। उन्हें भारतीय वैदिक रीति-नीति ही प्रिय थी। प्रति रविवार वह आर्य समाज के स्वामी जी को बुलाकर हवन अवश्य कराते थे।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book