बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - अभियान राम कथा - अभियाननरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान
सहसा राजमार्ग के दोनों ओर लगे हुए राजकीय दीपक जलने आरंभ हो गए। अनेक सेवक उल्काओं तथा सीढ़ियों के साथ प्रकट हो गए थे और वे स्तम्भों के साथ सीढ़ियां लगा, उल्काओं की सहायता से उन दीपकों को प्रकाशित करते जा रहे थे। गोधूलि वेला के समय जो झुटपुटा-सा अन्धकार छा गया था; दीपकों के प्रकाशित होने से अब वह अन्धकार भी नहीं रह गया था। हनुमान की अपेक्षा के अनुसार मार्गो पर यातायात तनिक भी कम हुआ नहीं लग रहा था। अन्तर मात्र इतना ही था कि, पहले मार्गों पर कामकाजी लोगों की भीड़ थी और अब मनोरंजनार्थ घूमने-फिरने वाले सैलानियों का बाहुल्य हो गया था। पहले भार ढोने वाले पशु तथा यात्रा करने वाले रथ मार्गों पर दौड़ते फिर रहे थे और अब जैसे-जैसे रात अधिक घिरती जाती थी, बहुमूल्य घोड़ों वाले, सुन्दर काम किये हुए ऐश्वर्यपूर्ण रथों की संख्या बढ़ती जा रही थी। कुछ रथ चारों ओर से पूर्णतः बन्द थे, कुछ आधे खुले और कुछ पूरी तरह खुले थे। उनमें बैठे राक्षस स्त्री-पुरुषों को भली प्रकार देखा जा सकता था। उनके शरीर पर विभिन्न प्रकार के अंगरागों, चंदन तथा कस्तुरी का लेप था। सारी देह पुष्पों तथा स्वर्णाभूषणों से ढकी हुई थी। स्त्रियों के शरीर से सुगंधों की लपटें उठ रही थीं। एक रथ निकल जाता तो घड़ी-भर तक के लिए वायु सुगंधित हो उठती थी। हनुमान अनुमान लगा रहे थे जितना धन एक स्त्री ने अपने शरीर को सुंगधित करने में व्यय किया था, उतने में निश्चित रूप से एक निर्धन परिवार के एक समय का भोजन खरीदा जा सकता था।
निरीक्षण करते हुए हनुमान मार्ग पर चलते गए। मार्ग पर आते-जाते लोगों की भीड़ के साथ-ही-साथ सशस्त्र प्रहरियों की संख्या भी बढ़ गई थी। दिन के समान ही, रात को भी लोग निर्द्वन्द्व होकर घूम रहे थे...वरन् आश्चर्यजनक बात यह थी कि दिन के समय फिर भी मार्गों पर कर्मकर, श्रमिक तथा विभिन्न लोग दिखाई पड़ जाते थे। रात के समय तो उन्हीं मार्गों पर जैसे लंका का वैभव ही बिखर आया था। लगता था नगर के समस्त सम्पन्न लोग, अपने सर्वश्रेष्ठ परिधान धारण किए हुए, अपनी सम्पूर्ण प्रसाधन क्षमता का उपयोग कर प्रदर्शन के लिए बाहर निकल आए थे। आवश्यकता की छोटी-मोटी वस्तुओं की दुकानें तो बन्द हो गई थीं; किन्तु बहुमूल्य आभूषणों और प्रसाधनों के बड़े-बड़े हाट खुले हुए थे, जहां राक्षस स्त्री-पुरुषों की भीड़ लगी हुई थी।...साथ ही हनुमान ने आश्चर्य से देखा, दिन के प्रकाश में या तो उनका ध्यान उस ओर नहीं गया था या दिन के समय वे बंद थे। रात्रि के आगमन के साथ ही सब ओर अनेक भोजनालय दिखाई पड़ने लगे थे। भोजनालय भली प्रकार सुसज्जित और प्रकाशित थे। उनमें विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाये जा रहे थे, जिनकी गंध का आभास, मार्ग चलते व्यक्ति को भी हो जाता था। मांस के भूने और तले जाने की तीव्र गन्ध सब ओर व्याप्त थी। मदिरा के भांड़ प्रमुखता से प्रदर्शित किये गये थे और अनेक भोजनालयों से नृत्य और गायन का भी स्वर आ रहा था।
बहुत सारा नगर घूम लेने पर सहसा हनुमान ठिठककर खड़े हो गए। ऐसे व्यर्थ घूमते रहने का लाभ? इस नगर के लोग, तो लगता है कि रात-भर खाते-पीते और घूमते रहेंगे। उनके लिए प्रकाश तथा सुरक्षा की व्यवस्था इतनी अधिक थी कि कदाचित् वे देर रात गए तक आमोद-प्रमोद और विलास में मग्न रहेंगे। कदाचित् इसलिए उन्हें निशाचर कहा जाता है। किन्तु, हनुमान क्यों व्यर्थ ही स्वयं को थका रहे हैं। इन पथों में घूमने तथा भोजनालयों में झांकने से तो जानकी का संधान नहीं होगा। वे इन राक्षसों के समान भोजन करने के लिए यहां नहीं आएंगी, और न कभी रावण ही अपनी अपहृताओं को लेकर यहां आता होगा...उन्हें अपनी खोज को सार्थक दिशा में मोड़ना चाहिए।
भूख का विचार भी मन में जाग रहा था। प्रातः अपने साथियों के साथ स्वयंप्रभा के ग्राम में जो भोजन किया था, उसके पश्चात् से न उन्हें उसका विचार ही आया था और न उन्हें अवसर ही मिला था। चलते समय शरगुल्म ने अवश्य याद दिलाई थी, किन्तु वह उपयुक्त अवसर न था।...पर इस समय भोजन कहां करेंगे? सर्वसाधारण का जो वेश उन्होंने बनाया था, वह एक ही संध्या में दूसरी बार आड़े आ रहा था। इन भोजनालयों में केवल धनाढ्य वर्ग के ही लोग आ-जा रहे थे। वे इन राक्षसों से सर्वथा भिन्न दिखाई पड़ेंगे। किसी को संदेह हो गया तो इतना उद्यम कर, इतनी दूर से लंका में आकर भी सीता का संधान नहीं हो पाएगा। भोजन की ऐसी क्या बात है। हनुमान के शरीर में इतनी क्षमता तो है ही कि एक-आध समय बिना भोजन के भी रह सकें...और फिर कहीं सुरक्षित ढंग से भोजन मिल भी गया तो उसके पश्चात् निद्रा की समस्या सताएगी...नहीं, आज की रात न भोजन, न निद्रा...आज तो केवल जानकी संधान...।
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