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राम कथा - अभियान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 529
आईएसबीएन :81-216-0763-9

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान

''क्यों भाई!'' हनुमान ने नम्रतापूर्वक पुकारा, ''यह क्या सम्राट का निवास स्थान है?''

''नहीं।'' वह व्यक्ति हंसा, ''यह तो एक श्रेष्ठि उद्यान है भाई। इतने छोटे-से प्रासाद में कहीं सम्राट रहते हैं!''

''ये लोग इस समय यहां एकत्रित होकर क्या कर रहे हैं?''

''खान-पान। हास-विलास।'' वह मुस्कराया।

''ये लोग भोजनालयों में नहीं जाते?'' हनुमान ने निरर्थक ही पूछा।

''भोजनालयों में साधारण लोग जाते हैं भाई!'' वह व्यक्ति रस लेकर बोला, ''ये बड़े लोग हैं।  भोजनालय इनके घर आते हैं।''

ओह-हनुमान ने सोचा-वे तो भोजनालय में जाने वालों को ही धनाढ्य वर्ग मान बैठे थे...

''तो सम्राट का प्रासाद कहां है?''

''महामहालय प्रासाद?'' वह व्यक्ति बोला, ''थोड़ा पीछे लौट जाओ और बाईं ओर मुड़कर सीधे चलते जाना। अपने-आप उसके सामने पहुंच जाओगे।'' हनुमान ने उस व्यक्ति को सर्वथा आपत्तिशून्य पाया। उसने न तो उनकी जिज्ञासा को संदेह की दृष्टि से देखा था, न उनके विषय में जानना चाहा था; और न यह पूछा था कि वे सम्राट के प्रासाद के विषय में क्यों पूछ रहे हैं।

प्रश्न में हानि न देख, उन्होंने पुनः पूछा, ''उस प्रासाद को मैं पहचानूंगा कैसे?''

''अरे अपने-आप पहचान जाओगे।'' वह बोला, ''बहुत बड़ा प्रासाद है। बहुत सारी सीढ़ियां चढ़कर प्रवेश-द्वार तक पहुंचा जाता है। बहुत ऊंचा तोरण है। प्रासाद के चारों ओर गहरी परिखा है और फिर बहुत ऊंची प्राचीर है। असंख्य रक्षक खड़े हैं। बहुत पूछ-पड़ताल है। कौन हो? क्या कर रहे हो? खड़े क्यों हो? चल क्यों रहे हो? यहां क्यों आए हो? इस दिशा में क्यों चल रहे? इसी समय क्यों आए हो? किसी और समय क्यों नहीं आये?...वह रुककर मुस्कराया, ''अब भी  पहचान पाओगे या नहीं?''

''पहचान लूंगा भाई।'' हनुमान ने बहुत नम्रता से उसे नमस्कार किया और चल पड़े। दो-तीन बार मुड़कर उन्होंने उस व्यक्ति को देखकर पुष्टि कर ली कि उसे उन पर संदेह तो नहीं हुआ; वह उनके पीछे-पीछे तो नहीं आ रहा, रुककर उनका निरीक्षण तो नहीं कर रहा...पर वह अपने मार्ग पर आगे बढ़ गया था। हनुमान उस व्यक्ति के निर्देश के अनुसार बाईं ओर मुड़ गए तो उसका दिखाई पड़ना भी बंद हो गया।

उस व्यक्ति की सूचना एकदम ठीक थी। महामहालय प्रासाद को पहचानने में हुनमान को तनिक भी कठिनाई नहीं हुई। उसका ऊंचा तोरण, ऊंची प्राचीर, असाधारण प्रकाश तथा रक्षा के लिए सन्नद्ध खड़े धनुर्धारी तथा परिभ्रमण करती सशस्त्र सैनिक टुकड़ियां...दूर से ही सारे लक्षण एक साथ ही दिखाई पड़ने लग गये थे। हनुमान सतर्क हो गये।...प्रायः आधी रात बीत गई थी, किन्तु वहां सुरक्षा का इतना अधिक प्रबन्ध था कि पक्षी भी पास न फटक सके।...रक्षा-व्यवस्था, रावण जैसे सम्राट के महामहालय के ही अनुकूल थी-हनुमान सोच रहे  थे-पर यह भी तो संभव था कि रावण ने सीता को लाकर यहां बंदी कर रखा हो...इसीलिये  सुरक्षा व्यवस्था पर इतना अधिक बल हो। अन्यथा, सुरक्षा के लिए तो यह परिखा और प्राचीर ही पर्याप्त थी।

अब तो, चाहे कितना ही कठिन क्यों न हो, इस प्राचीर के भीतर जाकर देखना ही होगा कि जानकी विषयक कोई सूचना मिल सकती है या नहीं। हनुमान महामहालय के निकट नहीं गए। निकट जाना जोखिम का काम था। प्रहरियों की दृष्टि अवश्य ही उन पर पड़ जाती।...जब हाट में एक निर्धन व्यक्ति का वर्तमान होना राक्षसों के लिए संदेहास्पद तथा आपत्तिजनक था, तो यह तो सम्राट का प्रासाद था। यहां तो उनकी दृष्टि में आते ही हनुमान अवश्य धर लिए जाएंगे।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस

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