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राम कथा - अभियान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 529
आईएसबीएन :81-216-0763-9

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान

''जानती हूं।'' मध्य में बैठी उस स्त्री ने सिर उठाया। उस मलिन वेश में भी उसके सौन्दर्य के  विषय में कोई भ्रम नहीं हो सकता था और उसका मुख तेज से जाज्वल्यमान था, "प्रत्येक दुप्ट राजा कठोर भाषी और क्रूर कर्मी होता है; और तुम्हारा राजाधिराज तो दुष्ट ही नहीं, नीच भी है...!"

"यह तो ऐसे ही वकवाद करती जाएगी।" एक चीखता-सा कर्कश स्वर आया, "सखी त्रिजटा! परी बात मानो। पकड़ो इसके हाथ-पांव। मैं अभी बलात् इसाका श्रृंगार कर देती हूं। हमें राजाधिराज की आज्ञा का पालन करना है, अथवा सिरफिरी कीं चिरौरी करनी है...!''

लगा, वे झपटकर उसे पकड़ लेंगी; किन्तु तभी पहली वाली स्त्री, जिसे अन्य द्वारा त्रिजटा संबोधित किया गया था, बोली, "नहीं, राजाधिराज की यह आज्ञा नहीं है कि देवी की इच्छा के प्रतिकूल कुछ भी किया जाए।" उसने रुककर पूछा, "बोली देवी, क्या इच्छा है?''

केन्द्र में बैठी स्त्री ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसने फिर पहले के समान, अपने घुटनों पर अपना सिर टेककर मुख छिपा लिया।

"चलो, पीछे हट जाओ।" त्रिजटा ने अपनी सखियों को आदेश के से स्वर में कहा, "इसे अधिक पीड़ित मत किया करो। जिस दिन यह महाराजाधिराज के अनुकूल हो गई, उस दिन तुम लोगों से सारा वैर निकाल लेगी...और वैसे भी अब महाराजाधिराज आने वाले ही होंगे।"

वे कुछ पीछे हट गई। उनका वृत्त बड़ा हो गया; किन्तु दूर खड़े पुरुष प्रहरियों के समान इन्होंने भी केन्द्र तक पहुंचने के लिए मार्ग छोड़ रखा था। तो यह स्त्री महाराजाधिराज के अनुकूल नहीं है। हनुमान सोच रहे थे अर्थात् यह अपहरण अथवा किसी अन्य उपाय से बलात् यहां लाई गई है। महाराजाधिराज अर्थात् रावण इसे श्रृंगार करने का आदेश दे रहा है और स्वयं आने वाला है। निश्चय ही ये देवी जानकी हैं। कैसी सुन्दर हैं, कैसा तेज है मुख पर। इतने प्रहरियों के सम्मुख इस असहायावस्था में भी रावण को दुष्ट और नीच कहा है।

तभी दासियों की एक टोली प्रविष्ट हुई। ये स्त्रियों प्रहरी अथवा सैनिक कर्म करने वाली नहीं लगती थीं। उनकी आकृति-प्रकृति, मृदुल-कोमल थी। देह-यष्टि भी बलिष्ठ नहीं थी। वेश भी वैसा नहीं था और उनका रूप भी सुन्दर था। वे लोग यंत्रवत् पुरुष प्रहरियों और पूर्व उपस्थित स्त्री प्रहरियों के बीच घेरा बनाकर चुपचाप खड़ी हो गईं...उनके पश्चात् कुछ उल्का वाहिकाएं आईं और विभिन्न कोणों में इस प्रकार खड़ी हो गईं, जिससे उस सारे क्षेत्र में पर्याप्त प्रकाश हो सके। हनुमान ने आकाश की ओर देखा : आकाश नीले से काला पड़ता जा रहा था। थोड़ी देर में पूर्णतः अंधकार छा जाने की संभावना थी। तभी, महाराजाधिराज रावण के जयजयकार के बीच रावण आया। केन्द्र में बैठी उस स्त्री को छोड़कर, शेष सभी उपस्थित जन, सम्मान प्रकट करने के लिए झुक गए।

हनुमान रावण को पहचान रहे थे : यह वही पुरुष था, जिसे उन्होंने पिछली रात, महामहालय प्रासाद के सबसे भव्य कक्ष में सोते हुए देखा था। उसके साथ वही स्त्री थी, जो पिछली रात रावण के साथ वाले पलंग पर सोई हुई थी, जिसे उन्होंने मंदोदरी माना था। आज भी उन दोनों के चेहरे कुछ तनावपूर्ण थे। उनके पीछे-पीछे अत्यन्त सुन्दर वेश में अनेक नारियां थीं-जो संभवतः अंतःपुर की स्त्रियां अथवा दासियां थीं।

रावण का वेश इस समय शौर्य और श्रृंगार दोनों के उपयुक्त लग रहा था। शरीर पर बहुमूल्य सुगंधित पदार्थों का लेप था और मणि-माणिक्यों से टांका हुआ उत्तरीय उसकी शोभा बढ़ा रहा था। शरीर पर अनेक रत्न-जड़ित आभूषण थे। हनुमान को तो उन आभूषणों के नाम तक मालूम नहीं थे। इस प्रकार के श्रृंगार प्रसाधन तथा साज-सज्जा से उनका दूर का भी संबंध नहीं था, किन्तु रावण ने कटि में एक विकराल खड्ग बांध रखा था; और आंखों में भी कुछ-कुछ आवेश का भाव था। वह चबूतरे के निकट आकर रुका। मंदोदरी उसके साथ खड़ी थी।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस

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