बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - अभियान राम कथा - अभियाननरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान
''सीता की मुक्ति तो ठीक है; किन्तु हम हनुमान की सहायता क्यों करना चाहते हैं? इसलिए, कि लंका के अनेक सैनिकों का वध कर, वह बिना कोई दण्ड पाए यहां से सुरक्षित निकल जाने में सफल हो जाए?'' वे बोले, ''और यदि ऐसा हो गया तो वह लौटकर अपने साथियों के पास जाएगा। वे लोग सीता की मुक्ति का पुनः प्रयत्न करेंगे। आज तो हनुमान अकेला आया है। भविष्य में जाने वह कितने लोगों को लेकर अपने अभियान पर आए। वे लोग चाहे छिपकर घात लगाएं अथवा सम्मुख-युद्ध करें। वे पुनः हमारे सैनिकों का वध करेंगे और हम पुनः उनकी सहायता करना चाहेंगे।'' उन्होंने रुककर विभीषण को देखा, ''क्या आपको ऐसा नहीं लगता राजकुमार, कि सीता की मुक्ति का समर्थन तो हम एक शुभकर्म के रूप में कर रहे हैं; किन्तु अपने राज्य, शासन और राजा के शत्रुओं की सहायता कर अपने पक्ष के जन-बल की हानि अपराध भी है और पाप भी?''
विभीषण ने व्यथित हो अविंध्य की ओर देखा-कैसे असमय में उसके मन में द्वन्द्व जगा है। बौद्धिक ऊहापोह भी कैसी दुष्ट प्रक्रिया है? कर्म के समय, व्यक्ति को अपंग कर, यह कौन-सा हित साधेगी किसीका। इतना विश्वसनीय तथा पूर्व परीक्षित सहायक अविंध्य अपनी इस ऊहापोह में, अपने शत्रु-पक्ष के साथ खड़ा होता हुआ दिखाई पड़ रहा है-यह सीता की मुक्ति भी चाहता है और रावण का अहित भी नहीं करना चाहता। ऐसा भी हुआ है कि कोई सत्कर्म का सहायक भी हो और दुष्कर्म का विरोधी भी न हो?
''मेरी बात समझने का प्रयत्न करो अविंध्य।'' विभीषण ने मन में उभर आए अपने आवेश को दबाते हुए कहा, ''सदा आदर्शों और सिद्धांतों की चर्चा करने वाले उस व्यक्ति को क्या कहोगे जो उन सिद्धांतों की सफलता के लिए कर्म का अवसर आने पर स्वयं को किसी अन्य बौद्धिक विवाद में फंसाकर अपने सिद्धांतों के साथ विश्वासघात करता है?''
विभीषण की बात समझकर अविंध्य कुछ संकुचित-से हुए, ''नहीं, मुझे उन लोगों में मत गिनिए। मेरा तात्पर्य यह था कि रावण से चाहे हमारा कितना भी सैद्धांतिक मतभेद क्यों न हो; किन्तु वे हमारे राजाधिराज हैं। लंका की भूमि हमारी भूमि है; इस भूमि तथा इसके राजाधिराज का पक्ष लेकर लड़ने वाले सैनिक, हमारे सैनिक हैं। अब यह स्थिति ही कुछ ऐसी आ गई है कि चाहे वह हमारे राजाधिराज के दोष के कारण हो-हनुमान ने हमारे सैनिकों का वध किया है।...तो क्या हनुमान का पक्ष हमारे शत्रु का पक्ष नहीं हो जाता? उनका समर्थन, राजाधिराज के विरुद्ध अपने शत्रु का समर्थन नहीं है?''
विभीषण को लगा, वे अपना आवेश संभाल नहीं पाएंगे...किन्तु तत्काल ही उन्हें सीता के अपहरण को लेकर रावण से अपनी प्रथम मुठभेड़ याद हो आई...जब पहली बार उन्होंने पहचाना था कि अपने सिद्धांतों की रक्षा के लिए वे अपने भाई का अहित भी कर सकते हैं, तो वे स्वयं कैसे चौंके थे...आज कदाचित् अविंध्य की भी वहीं मनःस्थिति है...
"सुनो अविंध्य, "विभीषण बोले, "जब हम रावण के सिद्धांतों से सहमत नहीं, तो निश्चित रूप से उनसे अपना तादात्म्य करने की आवश्यकता नहीं। रावण का प्रत्येक शत्रु हमारा शत्रु नहीं है और रावण का प्रत्येक मित्र हमारा मित्र नहीं है।" विभीषण ने रुककर अविंध्य के चेहरे पर अपनी बात का प्रभाव देखा, "लंका हमारी भूमि है। यहां के निवासी हमारे बंधु हैं। तनिक तटस्थ होकर सोचें, तो हमें रावण की नहीं, लंका तथा लंका निवासियों की रक्षा तथा प्रसन्नता को अपना लक्ष्य मानकर चलना चाहिए। यदि रावण की रक्षा लंका की रक्षा की विरोधिनी हो जाए और रावण का हित लंकावासियों के हित के विपरीत पड़े, तो हमें रावण का पक्ष लेना है अथवा लंकावासियों का?''
अविंध्य ने शीघ्रता में दो-चार बार अपनी पलकें झपकाईं और विभीषण को देखा, "किन्तु रावण और लंका में विरोध कैसे हो गया?''
"यही तो इस स्थिति का विरोधाभास है, या कह लो कि स्थिति अत्यन्त भ्रामक है।" सारी बातचीत में विभीषण पहली बार मुस्कराए, "यह विरोध तो प्रत्येक पग पर है, पर इस समय उस विस्तार में मत जाओ।" वे तनिक रुककर बोले, "यदि रावण, सीता को बंदिनी बनाए रखता है और उनकी मुक्ति के छोटे-मोटे प्रयत्न विफल कर देता है, तो क्रमशः वह अपने विरोध को स्फीत करेगा। मान लो कि कोई मार्ग न पाकर अंततः राम तथा लक्ष्मण, वानरों की सहायता से लंका पर आक्रमण करते हैं और राक्षस सेना उनसे युद्ध करती है तो विजय चाहे राम की हो अथवा रावण की-उस युद्ध में असंख्य लंकावासी काल के गाल में समा जाएंगे। शूर्पणखा के चौदह सहस्र सैनिकों का वध इसी राम ने किया था। वह यहां आएगा तो क्या यहां के सैनिक सहस्रों की संख्या में नहीं मारे जाएंगे?..." विभीषण ने रुककर अविंध्य की ओर देखा।
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