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राम कथा - अभियान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 529
आईएसबीएन :81-216-0763-9

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान

उन लोगों ने हनुमान की उस कृत्रिम पूंछ को बढ़ाने का कार्य आरम्भ कर दिया था। हनुमान ने कुछ अतिरिक्त रुचि से देखा कि नायक तथा अन्य सैनिक पृष्ठभूमि में बैठे सुस्ता रहे थे; और भीड़ ने सक्रिय होकर रावण के आदेश के पालन का कर्तव्य अपने हाथ में ले लिया था। अब यह सारा प्रसंग पूर्णतः असैनिक हो उठा था। सैनिक अनुशासन के स्थान पर अब भीड़ की मनोवृत्ति काम कर रही थी-पूंछ लम्बी से लम्बी होती जा रही थी। उसके आकार के साथ-साथ उसका रूप भी सुदर्शन होता जा रहा था। उसमें इतने प्रकार के विभिन्न रंगों के वस्त्र लगे थे कि हनुमान द्वारा अब तक देखी गई समस्त वस्तुओं में वह सबसे अधिक रंगीली वस्तु हो गई थी।-किन्तु साथ ही साथ बड़ी होती जाने के कारण उसका सिरा उनके शरीर से बहुत दूर चला गया था और हनुमान सोच रहे थे कि यदि इस पूंछ को उनके शरीर के चारों ओर लपेटकर आग लगाई गई तो उनके प्राण अधिक देर तक नहीं बचेंगे; किन्तु यदि रस्सी के समान दूर तक फैली इस पूंछ के एक सिरे पर आग लगा दी गई तो उनकी विशेष हानि होने की सम्भावना नहीं है। पूंछ बनाने की इस प्रक्रिया में सैनिकों ने वे रस्सियां भी छोड़ दी थीं, जिनके फंदों में हनुमान बंधे थे-यह उनकी मुक्ति का बहुत अच्छा संयोग हो सकता था...

मनचले ने दृष्टि भरकर इस नवनिर्मित पूंछ को देखा, और सन्तुष्ट

होकर भीड़ से पूछा, ''क्यों मित्रों! अब ठीक है?''

''अब तो पूंछ, वानर से भी बड़ी हो गई है!'' किसी ने कहा।

''तो लाओ अब तेल!''

''इतनी लम्बी पूंछ को स्नेहयुक्त करने के लिए काफी तेल चाहिए होगा।'' मनचला बोला, ''मैं पांच कनस्तर तेल दूंगा-'' वह पलटा, ''जा बे! पांच कनस्तर तेल ले आ।'' उसने भीड़ में से किसी को आदेश दिया।

तभी एक अत्यन्त स्थूलकाय और घनी मूंछों वाला व्यक्ति भीड़ में से आगे आ गया, ''पांच-पांच कनस्तरों का काम नहीं है मित्रवर! इस वानर को इसकी पूंछ के साथ धकिया कर मेरे भंडारगृह तक ले चलो। इस विकट क्रीड़ा के लिए सौ-दो सौ कनस्तर तेल मैं दे दूंगा-।''

हनुमान स्तम्भित-से खड़े उनकी बातें सुन रहे थे। एक व्यक्ति को जीवित जलाना उनके लिए क्रीड़ा थी; और वह इतनी मनोरंजक थी कि उसके लिए यह व्यक्ति सौ-दो सौ कनस्तर तेल निःशुल्क दे सकता था-दो सौ कनस्तर तो सारी किष्किंधा की आवश्यकताओं के लिए सप्ताह- भर के लिए पर्याप्त थे-

''हां! यह ठीक है।'' मनचला व्यक्ति बोला, ''सेठ तिक्तजिह्व ने बहुत मीठी बात कही है, किन्तु मेरे पांच कनस्तर तो आएंगे ही। अन्य लोग भी जो योगदान करेंगे, उसे अस्वीकार नहीं किया जाएगा।''

मुझे कोई आपत्ति नहीं। स्थूलकाय सेठ तिक्तजिह्व ने सेना के नायक को संकेत किया। लम्बी पूंछ में बंधे-से हनुमान की यात्रा पुनः आरम्भ हुई। किन्तु यह यात्रा लम्बी नहीं थी। हनुमान के लिए सुखद आश्चर्य यह था कि राक्षसों ने उन्हें यह विराट्काय, भारी-भरकम कृत्रिम पूंछ  घसीटने के लिए बाध्य नहीं किया। जाने क्यों पूंछ को भीड़ ने स्वयं ही घसीटकर ले जाना उचित समझा।

इस बार जिस वीथि में वे लोग मुड़े थे, वह इसी प्रकार भंडारगृहों की गली प्रतीत होती थी। खुले फाटकों के माध्यम से हनुमान ने विस्तृत अहातों में विभिन्न प्रज्वलनशील पदार्थों के भण्डार देखे थे। कहीं सहस्रों की संख्या में तेल के कनस्तर थे और कही ईंधन की सूखी लकड़ी के पर्वताकार ढेर लगे हुए थे। कहीं विस्फोटक पदार्थों की गंध आ रही थी। एक स्थान पर हनुमान को कपास के बोरों के भी ढेर दिखाई दिए-कदाचित् इसी प्रकार की वस्तुओं के व्यापार की मण्डी रही होगी-

सहसा हनुमान की चेतना ऊर्ध्वमुखी होकर जाग खड़ी हुई-इस क्षेत्र में लाकर ये मूर्ख हनुमान की इस पूंछ को आग लगाना चाहते हैं। इन्हें क्या अग्निकाण्ड का तनिक भी भय नहीं है? या इस समय अपने राक्षसी सुख के विध्वंसक उन्माद में यह भूल गए हैं कि वे जो क्रीड़ा करने जा रहे हैं, वह उनके अपने लिए भी कितनी घातक हो सकती है?

हनुमान को लगा, यह उनकी मुक्ति का अद्भुत अवसर था-इससे चूक जाना भयंकर भूल होगी और फिर हनुमान के लिए सिवाय चुपचाप यातनापूर्ण मृत्यु का आलिंगन करने के और कोई मार्ग शेष नहीं रहेगा-किन्तु साथ ही हनुमान अनिद्रा और भूख से अर्ध-विक्षिप्त अपनी चेतना और थके हुए शरीर की ओर से भी सशंक थे-

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस

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