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राम कथा - अभियान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 529
आईएसबीएन :81-216-0763-9

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान

हनुमान ने उस अग्निपुंज के साथ बार-बार भीड़ पर झपटने का अभिनय किया और जब उन्हें लगा कि लोगों की घबराहट इतनी बढ़ गई है कि वे उन्हें बन्दी करने के स्थान पर अपनी सुरक्षा के लिए अधिक चिंतित हो उठे हैं, तो हनुमान ने पूंछ का एक बड़ा-सा जलता हुआ टुकड़ा तेल के कनस्तरों पर फेंका और शेष पूंछ को लेकर वे उचककर बाड़े की दीवार पर जा चढ़े। साथ ही रुई का भण्डारगृह था। हनुमान ने अनेक छोटे-बड़े जलते हुए वस्त्र रुई के बोरों पर फेंक दिए और उस बाड़े में से भी निकल भागे-उन्होंने पलटकर देखा तो तेल और रुई के भण्डारगृह धू-धू जल रहे थे-उनके मन में स्थिति अत्यन्त स्पष्ट थी।-थोड़ी ही देर में राक्षस सेना उनको पकड़ने के लिए झपटती हुई आएगी। अशोक वाटिका में उनकी व्यवस्था-कौशल वे देख ही चुके थे। इसलिए आवश्यक था कि वे इतने अधिक स्थानों पर, इतनी मात्रा में आग लगा दें कि लंका राज्य का सारा

व्यवस्था-कौशल आग बुझाने पर ही केन्द्रित होता जाए और हनुमान की उनको याद भी न रहे। अधिकांश भीड़ इधर-उधर छिटक गई थी। भण्डारगृहों में लगी अग्नि इतनी प्रचंड हो चुकी थी कि लोग आग लगाने वाले को भूलकर अग्नि से ही त्रस्त हो उठे थे। स्थान-स्थान पर स्त्रियों और बच्चों के रोने तथा पुरुषों के चीत्कारों की ध्वनियां, आग के साथ-साथ बढ़ती जा रही थीं। लगता था कि अग्नि भण्डारगृहों से आगे बढ़कर, लोगों के आवासों तक जा पहुंची थी। अपना घर न जल रहा होता तो चीत्कार इतने यातना तथा याचनापूर्ण न होते।

भागते हुए हनुमान उचककर एक बाड़े की दीवार पर जा चढ़े। उनके सामने पशुओं के खाने के सूखे भूसे के ढेर लगे थे...कुछ लोग हनुमान की ओर बड़े; किन्तु हनुमान अपनी अग्नि के साथ उन्हीं पर जा कूदे। हनुमान ने यह ढंग अनेक स्थानों पर अपनाया था। कुछ उनकी शारीरिक शक्ति तथा कुछ अग्नि का त्रास तो था ही-किन्तु उन्हें लग रहा था कि अशोक वाटिका की घटनाओं तथा इस अग्निकांड के समाचार के साथ-साथ उनके नाम का आतंक भी फैल रहा होगा। रावण के आदेश में बंधी हुई सेना आए तो आए, सामान्यजन उनको पकड़ने का साहस नहीं करेंगे। सूखे भूसे के ढेर को आग लगाकर, हनुमान ईंधन की सूखी लकड़ी के भण्डार में जा घुसे। स्थान-स्थान पर आग की लपटें फेंकते हुए उनका मस्तिष्क अत्यन्त सजग हो उठा था।...काफी विलम्ब हो चुका था। अब राक्षसों की सेना आ ही रही होगी। उन्हें अधिक देर रुकना नहीं चाहिए था।...ऐसा लगता था वे एक भण्डारगृह से दूसरे भण्डारगृह और एक भवन से दूसरे भवन तक उड़े चले जा रहे हैं। उनकी वह वस्त्र-निर्मित कृत्रिम पूंछ, स्थान-स्थान पर खण्ड-प्रखण्ड फेंकने के कारण क्रमशः छोटी होती गई थी; और अब वे अधिक देर तक आग को फैला भी नहीं सकते थे; किन्तु जब भी पलटकर उन्होंने पीछे देखा था, उन्हें अग्नि का भयंकर ताण्डव दिखाई दिया था।

एक विचित्र प्रकार से आतंकित भीड़ उनके पीछे लगी हुई थी। न तो वह उन्हे पकड़ना चाहती थी, न छोड़ना। वस्तुतः वह भीड़ उन्हें खदेड़ती जा रही थी। खदेड़ने की इस प्रक्रिया में हनुमान को भीड़ का कुछ-न-कुछ निर्देश मानना ही पड़ता था। लगता था, उनके भागने का दिशा-निर्देश भीड़ के ही हाथ में था; और जाने-अनजाने वह भीड़ उन्हें एक विशेष दिशा में खदेड़ रही थी। सहसा हनुमान ने स्वयं को समुद्र-तट के एक विशाल भवन की दीवार पर पाया। भवन का प्रांगण विचित्र प्रकार की गन्ध से भरा हुआ था। यह भवन तथा उसका अहाता समुद्र से इस प्रकार सटा हुआ था, जैसे यह जलपत्तन् का ही अंग हो और जलपत्तन् पर उतारा गया सामान, आगे जाने से पहले यहां रखा जाता हो। परन्तु वह सारा भवन भीतर से निर्जन पड़ा हुआ था। सम्भवतः आज अवकाश का दिन हो। हो सकता है कि बाहर फाटक पर रक्षा चौकी या रक्षक लोग हों, वे भी इस समय उनके पीछे आई भीड़ में गुम हो गए होंगे।...अब हनुमान भी भीड़ का कुछ-कुछ मनोविज्ञान समझ रहे थे। अग्निकाण्ड से घबराकर भीड़ ने उन्हें समुद्र तट की ओर खदेड़ा था...उनकी आग बुझाने के लिए...या उन्हें सागर में डुबोकर मार देने के लिए... शासन के समान भीड़ ने उन्हें पकड़ने का तनिक भी प्रयत्न नहीं किया था।

दीवार के ऊपर बैठे हनुमान के पास बहुत थोड़ी-सी अग्नि बची थी और नीचे विभिन्न प्रकार के पदार्थ, विभिन्न आकार-प्रकार के डिब्बों, कनस्तरों तथा पेटियों में पड़े थे। निर्णय करने का समय नहीं था। हनुमान ने बिना किसी लक्ष्य के जलते हुए वस्त्र का अन्तिम टुकड़ा उछालकर मन ही मन कहा, ''विदा मेरी पूंछ!'' किन्तु उस अग्नि का प्रभाव हनुमान द्वारा सोचे गए भयंकर से भयंकर परिणाम से भी अधिक विकट था। वहां न जाने इन राक्षसों ने कैसे-कैसे प्रज्वलनशील तथा विस्फोटक पदार्थ रखे थे कि आग की लपट पड़ते ही वहां जैसे अग्नि का सागर लहरा उठा और लपटों की उत्ताल तरंगें लपलपाने लगीं...उन अग्निकाण्ड को देख, हनुमान को अपनी सुरक्षा की भी चिन्ता होने लगी थी।...उनका मस्तिष्क सोने-सोने को हो रहा था...वे मस्तिष्क की स्तब्धावस्था में ही दीवार पर भागे और समुद्र के जल में कूद पड़े।

समुद्र में तैरते हुए बहुत दूर तक लंकावासियों के चीत्कारों ने उनका पीछा किया। हनुमान ने थोड़ी-थोड़ी देर के पश्चात् मुड़कर पीछे देखा भी कि कहीं उनको बन्दी बनाने के लिए उनका पीछा तो नहीं किया जा रहा; किन्तु लगता था कि राक्षसों को अपनी लंका को बचाने से ही अवकाश नहीं था। हनुमान को कदाचित् वे लोग भूल चुके थे। हनुमान को इतना ही समय चाहिए था, जितने में सागर के उस बीहड़ भाग में पहुंच जाएं; जहां राक्षसों के जलपोत उनका पीछा न कर सकें।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस

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