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हिरनी

चन्द्रकिरण सौनरेक्सा

प्रकाशक : सहयोग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5309
आईएसबीएन :81-8070-052-6

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इक्कीसवीं सदी के अनगिनत छोटे-बड़े शहरों व कस्बों की कहानियाँ...

Hirani - A Hindi Book by Hindi Author Chandrakiran Saunrexa

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शरत्चन्द्र और प्रेमचन्द की मानवोदात्त परम्परा की सुयोग्य उत्तराधिकारी चन्द्रकिरण सौनरेक्सा का कथा-संसार मध्यमवर्गीय भारतीय नारी के जीवन में निहित त्रासद-सुखद, जटिल-सरल, प्रछन्न प्रकट धूपछाँहीं यथार्थ का ईमानदार स्वच्छ दर्पण है। शरत ने भारतीय नारी को वाणी दी थी। वही वाणी चन्द्रकिरण की लेखनी पर पग रखती हमारे मनः चक्षुओं के सम्मुख जीती जागती स्पंगित काया में विविध रूप और नाम ले अवतरित हो जाती है।

सुप्रसिद्ध अंग्रेजी उपन्यास लेखिका जेन ऑस्टन के कृतित्व को ‘एक इंच हाथी दाँत’ पर की गयी नक्काशी कह सराहा गया। चन्द्रकिरण सौनरेक्सा का कथा-संसार भी घर की खिड़की के सीमित चौखट से देखे गए आकाश की अपरिसीमितता को अपने में समेटे है। उनकी जीवन्त लेखनी ने एक पूरी पीढ़ी के चेतना पटल पर मानवीय संवेदनाओं, व्यक्तिगत व पारिवारिक मूल्यों और सामाजिक सरोकारों की इबारत उकेरी है।

सहजसरल आडम्बर रहित भाषा, अनायास उगे-खिले बनफूलों सा स्वाभाविक चरित्र चित्रण देखा-सुना, भोगा और पहचाना सा परिवेश चन्द्रकिरण की कहानियों की अस्मिता है।
बीसवीं सदी के तीसरे, चौथे, पाँचवें दशक की परिस्थितियों सन्दर्भों सरोकारों को झेलते, जीते, जूझते उनके पात्र आज भी पाठक के मन पर उतनी ही, गहरी छाप छोड़ते हैं,। ‘हिरनी’ की खुदेजा, ‘अकीला’ की अकाली, ‘सैदा’ की सितारा या ‘गेंदा बन जाऊँगी’ की सुनीता लेखनी से चित्रित पात्र नहीं रहतीं। हमारी नितान्त आत्मीय बन जातीं हैं।

चन्द्रकिरण की कहानियाँ इक्कीसवीं सदी में भी हिन्दुस्तान के अनगिनत छोटे-बड़े शहरों और कस्बों के मुहल्लों, कॉलोनियों, बस्तियों और घरों में जीवित हैं। वैसे ही जैसे प्रेमचन्द के ‘गोदान’ का होरी आज के महाराष्ट्र और आन्ध्र प्रदेश में आत्महत्या करने को बाध्य है।

वहम के पुतले

तीनों पड़ोसिनें थीं। श्यामा, मोहनी और दुलारी। गरमी की दोपहरी में दुसूती की चादरें आगे रखे फूल काढ़ रही थीं।
उलझे हुए डोरे को दाँत से सुलझाते हुए श्यामा ने कहा—‘‘मोहनी ! तो तू नहीं चलेगी ?’’
‘‘न भैया ! क्या फायदा जाने से ! हमारे ‘वह’ कहते थे कि मेले ठेलों में नहीं जाना चाहिए। गुण्डे बदमाश बहुत आते हैं। किसी ने बोली ठोली मारी या धक्का दे दिया तो हमारी क्या गत रह जाएगी। उस ससुरे की तो हँसी ठहरी।’’
‘‘अरी ! क्या तू ही एक रूप की परी है, सैकड़ों औरतें मेले में होंगी।’’
‘‘सो तो होंगी, पर भई, मुझे तो इन मर्दुओं से डर ही लगता है। ऐसे ताकते हैं जैसे निगल ही जाएँगे। नहीं तो, जाने को क्या मेरा मन नहीं करता।’’

‘‘यह बात तो मोहिनी की सोलह आने सही हैं’’, समर्थन में दुलारी ने नाक पर उँगली रखते हुए कहा—‘‘चाहे जवान हो चाहे पचास वर्ष का बूढ़ा, एक औरत बाजार में से निकल जाए, तो सबके सब आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगते हैं। ज़रा बनी सँवरी हो तब तो कुछ पूछो ही मत, आवाज़ों तवाजी और आह सिसकियों का बाजार गर्म हो जाता है। जी चाहता है कि मर्दों की आँखें फोड़ दें। इनके मारे कहीं जाना तक दूभर हो जाता है, पहनना-ओढ़ना तो पूरी आफत समझो।’’
श्यामा ने हाथ नचाकर उत्तर दिया—‘‘क्यों न पहने ओढ़ें। मैं तो देखना, आज भी जाऊँगी। पर इतनी हिम्मत रखकर जाती हूँ कि जहाँ किसी की आँख ऊँची देखी और बस, तकुआ घुसेड़ दिया। खूब चौक चौकन्नी होकर जाती हूँ। मजाल क्या जो कोई चूँ भी कर जाँए। ले, तीन बजने वाले हैं। चलो तो तैयार हो जाओ।’’ उसने अपनी चादर समेट ली और तहाकर रखने लगी।

दुलारी और मोहनी का मन भी फिसल पड़ा। थोड़ी देर में खुसर-फुसर करने के बाद उन्होंने भी चादरें तहा लीं।
‘‘अच्छा, तो तू तैयार होकर हमें बुला लीजो,’’ दोनों ने कहा और पूरे ढाई घण्टे में बन सँवर कर तीनों बसन्ती देवी का मेला देखने चलीं।
मेले में बड़ी भीड़ थी। खिलौने मिठाईयाँ, चूड़ियाँ, बुन्दे, फल, न जाने क्या-क्या बिक रहा था। जगह-जगह प्याऊ लगे थे। मेला छोटा होने पर भी रौनक काफी थी। मोहनी-श्यामा, और दुलारी भीड़ से बचती, कपड़े समेटतीं, अंगों को सिकोड़तीं और इधर-उधरताकती चली जा रही थीं।
एक तरफ कोट पेन्टवाला आदमी हाथ में छोटी-सी पुड़िया लिए लेक्चिर फटकार रहा था—‘मेहरबानो भाइयों और बहनों ! यह साइन्स की वह नई ईजाद ही जिसने यौरप और अमेरिका में हलचल मचा दी, जिसने बूढ़ें को जवान और जवानों को नौजवान बना दिया।’

‘‘देखती है मुए को ?’’ श्यामा ने मोहिनी के कान में कहा—‘‘यो तो लुगाइयों की तरफ हाथ नचा-नचा कर बातें कर रहा है, जैसे मुर्दों को सुनने की जरूरत ही नहीं। मेरी तरफ देखे तो मुएँ की आँखें फोड़ दूँ।’’
पर उस मुए ने उधर दृष्टि ही नहीं की। वह बड़ा-सा मुँह फैलाए कतह रहा था—‘यह ईजाद ! जिसने यौरप के साइन्सदानों के दाँत खट्टे कर दिए, सिर्फ प्रचार के वास्ते रुपया सवा रुपये में दी जाएगी—सवा सिर्फ सवा रुपया है इसकी कीमत !’
वे लोग आगे बढ़ी कानों में आवाज आई—‘नागपुर वाले सन्तरे, केले मलाई वाले।’
फलवाले ने रुककर उनसे पूछा—‘सन्तरे लीजिएगा, केले बढ़िया।’
मोहनी और दुलारी खिसककर श्यामा के पीछे हो रहीं। श्यामा ने तिनककर कहा—‘‘खड़ा होकर क्यों पूछता है। हम क्या अन्धे हैं। जरूरत होगी तो आप को बुलाकर लेंगे।’’ फिर विजय गर्व से भरी दृष्टि अपनी साथिनों पर डालकर मुस्करा पड़ी, मानों कहती हो कि मर्दों को डाँटना वह खूब जानती है !

आगे भीड़ अधिक थी। कन्धे से कन्धा छिलता था। मोहनी ने कहा—‘‘बस लौट चलो। देखती नहीं, जिधर देखो उधर ही लोग आँखें फाड़कर ताकते नजर आते हैं। लुच्चे कहीं के।’’
मेले के पुरुष उन्हें ताक रहे हैं, यह सन्देह दुलारी और श्यामा को भी था। परन्तु मेला देखने का चाव उन्हें आगे घसीटे लिए जा रहा था।

‘‘थोड़ी दूर और चलेंगे, फिर लौट आएँगे’’, दुलारी ने उत्तर दिया—‘‘बस, उस झूले तक चलेंगे।’’
श्यामा को प्यास लगी थी। वह प्याऊ के पास तख्त से सटकर खड़ी हो गई। प्याऊ पर बड़ी भीड़ थी। आदमियों का तार बंध रहा था।
दुलारी ने धीरे से बुदबुदाकर कहा—‘‘ देखो तो इन पाजियों को, औरतों को खड़ी देखकर बिना प्यास भी पानी पीने चले आ रहे हैं। क्या और प्याऊ नहीं हैं और जो इसी में मुँह अड़ाए देते हैं।’’
‘‘उस ढीले पायजामे वाले को देख’’—मोहनी ने श्यामा को चुटकी काटते हुए फुसफुसा कर कहा—‘‘कैसी लाल आँखों से घूर रहा है। मालूम होता है, शराब पिए है।
दोनों ने देखा-बड़े बड़े रूखे बालों को बिखराए, मैला-सा पायजामा-कुरता पहने, एक आदमी उन्हें देख रहा था।
‘‘राम करे इस की आँखें फूट जाएँ।’’ श्यामा ने धीरे से बोली—‘‘है तो हिन्दू, पर मुए को देखो तो, कैसा ताक रहा है।’’ उसे प्यास ज़ोर से लगी थी सो पानी वाले सो बोली—‘‘जरा हमें पानी पिला दो।’’

‘‘अच्छा जी !’’ कहार ने लोटे की टोंटी का मुँह उधर कर दिया। पानी पीकर श्यामा रूमाल से मुँह पोंछने लगी। मोहनी ने उसकी उँगली दाब कर कहा—‘‘देख, देख, वह हमारे पीछे आ गया।’’
श्यामा ने मुढ़ कर देखा वह ढीले पायजामे वाला उनसे दस कदम पीछे, ठीक उनकी सीध में, आकर खड़ा हो गया था।
‘‘हरामी कहीं का।’’ श्यामा बड़बड़ाई—‘‘पास आने दो तो बताऊँ।’’ पर वह पास नहीं आया। वहीं खड़ा खड़ा हँसता रहा, ताकता रहा।

श्यामा से अब जब्त नहीं हुआ। इनी जोर से कि वह सुन सके, उसने कहा—‘‘हरामजादे, जाने इनके माँ बहिन हैं या नहीं—कुत्ते कहीं के ! जी चाहता है कि दोनों आँखें फोड़ दूँ।’’
इस वक्तव्य के फलस्वरूप जब बहुत सी आँखें उन्हें देखने लगीं तो श्यामा दुलारी का हाथ पकड़ आगे चल दी। कुछ दूर चल कर मोहिनी ने मुड़कर देखा। अब वह पायजामे वाला, कुछ दूर आगे बढ़कर एक लहँगे-ओढ़नी वाली मोटी ताजी जा़टनी को देख रहा था।
‘‘देखो बदमाश कोस अब उस गूजरी पर नजर गड़ाए है। नासपीटा नरक में पड़ेगा।’’ श्यामा ने कहा।
मोहिनी बहुत डर गई थी। फिर उसे अपने ‘उनका’ भी ख्याल था कि दौरे से लौट आए तो घर बन्द पाकर नाराज होंगे। धीमे स्वर में उसने कहा—
‘‘चलो, अब लौट चलें।’’
दुलारी भी ताकने वालों के कारण सकुचाती-सकुचाती तंग आ गई थी। बोली—‘‘हाँ साँझ होने आई। अब लौटना चाहिए।’’
‘‘गज !’’ मोहिनी ने श्यामा का पल्ला खींचते हुए धीमे स्वर में कहा—‘‘वह पायजामे वाला अब भी वहीं खड़ा इधर ही ताक रहा है।’’

‘‘ताकने दे। कुछ कहेगा तो चप्पल मारूँगी।’’ श्यामा ने उत्तर दिया।
प्याऊ पर बड़ी भीड़ थी। रास्ता न मिलने के कारण तीनों प्याऊ के बाँस के द्वार से सटकर खड़ी हो गई। पायजामें वाला भी घूमता हुआ उधर ही आ निकला, तीनों कुछ पीछे सरक गईं।
‘‘पानी पियोगी ?’’ अकस्मात वह बोल उठा—‘‘लाओ मैं पिला दूँ।’’
श्यामा तड़फ उठी। मानो जलते तवे पर पानी पड़ गया हो। जोर से बोली—‘‘पिला अपनी माँ बहिनों को। मुआ, चालीस बरस का होने पर भी लाज नहीं आती। पराई बहू बेटियों को छेड़ता है।’’
शह पाकर मोहिनी और दुलारी भी बिगड़ी—‘‘तू समझताक्या है चाँद गँजी कर देंगे—कमीना, कुत्ता, नासपीटा....।’’
श्यामा ने पाँव से चप्पल उतार कर कहा—‘‘अब बता।’’
‘‘अरे, अरे—यह क्या करती हो—क्या करती हो।’’ उनके आस-पास भीड़ इकट्ठी हो गई।
‘‘यह मुआ दो घण्टे से हमारे पीछे लगा है।’’ श्यामा ने कहा—‘‘और अब इसकी हिम्मत देखो, भरे मेले में हमें छेड़ता है। कहता है—‘लाओ, पानी पिला दूँ।’’ ठहर तो जा....।’’

वह उसकी ओर लपकी। भीड़ में एक भद्र पुरुष ने, जो चुन्नटदार धोती कुरते और बड़ी सी तोंद से लाला जी मालूम पड़ता था, उसका चप्पल वाला हाथ रोककर कहा—‘‘ आप गलती पर हैं, बहन जी ! पीछा करने वाला कोई और होगा। यह क्या छेड़ेगा आपको—यह तो पागल है। किसी को मारता पीटता नहीं, मगर दिमाग इसका जरा सनक-सा गया है।
‘‘ऊँह पागल है !’’ श्यामा ने चप्पल को पाँव में डालते हुए कहा और तीनों घर की ओर चल पड़ीं।
पायजामें वाला व्यक्ति अभी तक उनकी ओर देख रहा था और ऐसा प्रतीत होता था मानों उसकी दृष्टि, जन्म जन्मान्तर तकर, उनका पीछा नहीं छोड़ेगी। 

तूफान


जीवन के बाइसवें बसन्त में, पहली बार, शैल को एकादशी का व्रत रखना कठिन लगा। अब तक अनगिनत एकादशियाँ वह रह चुकी थी, जाड़े, गरमी सभी ऋतुओं में, पर आज उससे लग रहा था, मानों उसका दम निकला जाता हो। प्यास से उसका गला सूखा जा रहा था, जीभ पर काँटे से उठ रहे थे उसने अपनी सास से कहा—‘‘अम्माँ मेरे कलेजे में दर्द उठ रहा है’’ और फिर दोनों हाथों से अपना वक्षस्थल दबाए हुए संध्या से ही वह अपनी कोठरी में जा पड़ी। दर्द वर्द तो उसके नहीं था, हाँ एक टीस-सी रह-रहकर उसे विकल कर रही थी पर वह कलेजे में थी या हृदय में इसें वह स्वयं नहीं जानती थी। उसका ममेरा देवर बसन्तकुमार दो दिन से आया हुआ है।

पहली-पहली बार ही वह उनके यहाँ आया है। उसके पिता की नौकरी सदैव ही सुदूर पश्चिम में रही। पंजाब के नगरों में ही उसकी शैशव और बालपन विकसित होकर तरुण बने थे। अब से पहले वह कभी भी बुआ के यहाँ नहीं आया। इस बार भी क्या वह आता अपने कॉलेज की हॉकी टीम का कैप्टन बनकर वह कलकत्ते आया था, चार दिन बुआ के घर में भी रह जाएगा। उसी अपने देवर बाबू की अद्भुत बातें उसे अस्थिर किए डाल रही थीं। सोचने के लिए तो वह आज काम छोड़कर इस एकान्त में आ पड़ा थी। शैल विधवा थी, बाल विधवा, उसे अपने ब्याह का स्मरण ही नहीं था, न जाने कब, किसके साथ, सप्ततपदी की सात सुदृढ़ जंजीरों के द्वारा उसका भाग्य बाँधा गया था। न जाने किसके हाथों में उसकी जीवन नौका की पतवार थमाई गई थी। इसकी उसे याद नहीं पड़ती। स्वामी के नाम के अतिरिक्त उसके मुख की एक रेखा तक भी उसके मानसपटल पर खिंची हुई न थी। जबसे उसने सुधि सम्हाली, अपने को विधवा ही पाया। अपन होश में पलंग पर बिछौना बिछाकर कभी नहीं सोई।


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